पेरियाळवार और सूरदास
के काव्य का तुलनात्मक अध्ययन
शोध-आलेख
पेरियाळवार और सूरदास के काव्य
में
वात्सल्य भाव
* एस॰वीणा
माता-पिता का अपनी संतान के प्रति एवं वृद्धों
का छोटे-छोटे सुन्दर हृष्ट-पुष्ट और हँसमुख बच्चों के प्रति, जो स्नेह होता है, मुख्यतः उसी का वर्णन वात्सल्य रस के
अंतर्गत आता है। यह विषय सार्वकालीन और सार्वजनीन है।
वात्सल्य भाव की भक्ति अन्य सब प्रकार की भक्ति से उत्तम कही जा सकती है। क्योंकि वात्सल्य
भाव,भक्ति का शुध्द भाव है। इस में निष्काम
प्रेम का भाव सर्वाधिक रहता है। इस प्रकार की प्रीति की भक्ति के अभ्यास से साधन
की आरंभिक अवस्था में सभी लौकिक वासनाएँ शीघ्र ही छूट जाती हैं।
आज से लाखों वर्ष पहले माता-पिता के हृदय में अपनी संतान के प्रति जैसा प्रेम था, वैसा ही आज भी ज्यों-त्यों विद्यमान है।
इस स्नेह के लिए स्थिति की, धन की पद की किसी की अपेक्षा नहीं । माता
भिखारिणी हो, पिता मजदूरी करता हो; परन्तु इससे क्या, अपनी भोली-भाली और अबोध संतान के लिए
निर्धन दम्पति के हृदय में वैसा ही स्नेह का स्रोत-प्रवहित रहता है। जैसे किसी
राजा रानी के हृदय में अपने राजकुमार के प्रति।
इसी
वात्सल्य का पेरियळवार और सूर के काव्य में विस्तृत वर्णन है। विषय की दृष्टि से
इन दोनों के काव्यों में इस वर्णन में बड़ी सूक्ष्मदृष्टि देखने को मिलती है ।
वात्सल्य के सम्बन्ध में छोटी सी छोटी
बात भी नहीं छूटी है; सभी बातों का सभी दृष्टियों से, उन्होंने विशद वर्णन किया है। माता यशोदा, पिता नंद तथा अन्य वयोवृध्द ग्रामीणों, यहाँ तक कि राह चलते पथिकों के शुद्ध और
प्रफुल्लित हृदय में बालक कृष्ण की सुन्दर और मनमोहिनी मूर्ति एवं चपल और मनोहारी
बालक्रीडाएँ देखकर जो स्नेह उत्पन्न होता उसका अत्यंत
स्वाभाविक सरल और मनोहर चित्र पेरियालवार और सूरदास ने एक ही तरह हमारे सामने रखने
में सफल हुए हैं।
आलवार
भक्तों में पेरियालवार ने वात्सल्य-भाव के बहुत सुन्दर चित्र अंकित किये है, जितने विस्तृत और विशद रूप में
बाल्य-जीवन का चित्रण पेरियालवार ने किया है, उतने विस्तृत रूप में तमिल के किसी दूसरे कवि ने नहीं किया
है। शैशव से लेकर कौमार्य- अवस्था तक के क्रम से लगे हुए न जाने कितने चित्र मौजूद
हैं।
पिळ्ळै
तमिळ:
पेरियाळ्वार की बाल वर्णन शैली पिळ्ळै तमिळ नाम से प्रसिद्ध हैं । पिळ्ळै तमिळ का अर्थ है की बच्चों की तुतली
बोलीयां । परवर्ति कवियों ने इस शैली का ही अनुकरण किया है। पेरियाळवार ने अपनी
लघु-रचना तिरुप्पल्लण्डु में भगवान को शिशु रूप में कल्पित कर उन्हें
वात्सल्य भाव से कई सहस्र वर्ष जीवित रहने का आशीर्वाद दिया है। पेरियाळवार ने
माता यशोदा के हृद्य के प्रत्येक उद्गार को, उसके प्रत्येक उच्छ्वास-निःश्वास को बड़ी मार्मिकता के साथ
दर्शाया है।
कृष्ण जन्मोत्सव, शिशु का रूप वर्णन (पादादि - केशंत
वर्णन), लोरी-गीत , घुटरुनुओं से चलना, मुख-मण्डल का सौंदर्य, माखन खाना, नटवर का रूप, गले लगना, पीठ से लगना, हौआ दिखाना, स्तन-पान, कनछेदन, स्नान, चिकुर श्रृंगार, कौए को लाठी लाने का आदेश , धेनु-समूह, रक्षा-मंगल
(इंद्र सहित) शरारतें और गोपियों की शिकायतें, यशोदा माता का पड़ोसियों द्वारा उलाहने सुनना यशोदा का श्री
कृष्ण के परत्व का स्मरण, अञ्जन वर्णन, मोर पंख के छाते और छतरियों, वेणु-गान, रमणीय धूल आदि
अनेक प्रसंग है। एक-एक प्रसंग में लीलाओं का विस्तार है। ऐसी ही लीलाएं सूरदास के
काव्य में भी हैं।
पेरियाळवार और सूरदास दोनों ने न केवल बाहरी रूपों और
चेष्टाओं का ही विस्तृत और सूक्ष्म वर्णन किया है, बल्कि बालकों की अन्तः प्रकृति में भी पूरा प्रवेश किया है
और बाल भावों की सुन्दर स्वाभाविक व्यंजना की है। हिन्दी विद्वान डॉ.हजारी प्रसाद
द्विवेदीजी ने महाकवि सूरदास के विषय में जो लिखा है वह पेरियाळवार के विषय में भी
सत्य है। द्विवेदीजी ने लिखा है - यशोदा के वासल्य में वह सब कुछ है जो माता
शब्द को इतना महिमाशली बनायें हुए है।.... यशोदा के बहाने सूरदास ने मातृ हृदय
का ऐसा स्वाभाविक, सरल और हृदयग्राही चित्र खींचा है कि
आश्चर्य होता है। यों कहा जा सकता है कि सूरदास हिन्दी के पेरियाळवार हैं और
पेरियाळवार तमिल के सूरदास ।
* एस॰वीणा कर्पगम विश्वविद्यालय, कोयम्बत्तूर, तमिलनाडु
में डॉ.
के.पी. पद्मावति अम्माल के निर्देशन में शोधरत हैं ।
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