दोहा सलिला: |
दोहा पिचकारी लिये
*** संजीव 'सलिल' ***
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दोहा पिचकारी लिये,फेंक रहा है रंग.
बरजोरी कुंडलि करे, रोला कहे अभंग..
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नैन मटक्का कर रहा, हाइकु होरी संग.
फागें ढोलक पीटती, झांझ-मंजीरा तंग..
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नैन झुके, धड़कन बढ़ी, हुआ रंग बदरंग.
पनघट के गालों चढ़ा, खलिहानों का रंग..
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चौपालों पर बह रही, प्रीत-प्यार की गंग.
सद्भावों की नर्मदा, बजा रही है चंग..
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गले ईद से मिल रही, होली-पुलकित अंग.
क्रिसमस-दीवाली हुलस, नर्तित हैं निस्संग..
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गुझिया मुँह मीठा करे, खाता जाये मलंग.
दाँत न खट्टे कर- कहे, दहीबड़े से भंग..
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मटक-मटक मटका हुआ, जीवित हास्य प्रसंग.
मुग्ध, सुराही को तके, तन-मन हुए तुरंग..
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बेलन से बोला पटा, लग रोटी के अंग.
आज लाज तज एक हैं, दोनों नंग-अनंग..
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फुँकनी को छेड़े तवा, 'तू लग रही सुरंग'.
फुँकनी बोली: 'हाय रे! करिया लगे भुजंग'..
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मादल-टिमकी में छिड़ी, महुआ पीने जंग.
'और-और' दोनों करें, एक-दूजे से मंग..
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हाला-प्याला यों लगे, ज्यों तलवार-निहंग.
भावों के आवेश में, उड़ते गगन विहंग..
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खटिया से नैना मिला, भरता माँग पलंग.
उसने बरजा तो कहे:, 'यही प्रीत का ढंग'..
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भंग भवानी की कृपा, मच्छर हुआ मतंग.
पैर न धरती पर पड़ें, बेपर उड़े पतंग..
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रंग पर चढ़ा अबीर या, है अबीर पर रंग.
बूझ न कोई पा रहा, सारी दुनिया दंग..
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मतंग=हाथी, विहंग = पक्षी,
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