Monday, November 3, 2008

कविता

मैं हिंदी हूँ

- रमेश प्रभु, कोच्चिन ।


मैं हूँ हिंदी
सबकी प्यारी हिंदी
मैं सिर्फ एक भाषा नहीं हूँ
जन– जन की धड़कन हूँ
वीरों की वाणी हूँ
रण भूमि में अमर गीत हूँ
शत्रु की नींद को उड़ाती हूँ ।

मैं हूँ हिंदी
सबकी प्यारी हिंदी
देखो मैं सिर्फ़ एक भाषा नहीं
मेरा नाम केवल हिंदी ही नहीं
मैं इस देश की बिंदी भी हूँ
माँ भारती के ललाट का सिंदूर हूँ ।

मैं हूँ हिंदी
सबकी प्यारी हिंदी
चाहे बोलो हिंदी या बिंदी
बूंद बूंद से बनता है सागर
लेकिन दिल दिल से बनती भाषा
मैं भारत की आत्मा हूँ,
मुझे जन–जन के मन में बसाओ
सबके मन में प्रेरणा जगाओ
प्यार की बोली हूँ मैं
मुझे पहचानो और मानो
मैं तेरी इज्जत हूँ,
इस देश का गौरव हूँ ।

मैं हूँ हिंदी
सबकी प्यारी हिंदी
हे राष्ट्र के सपूत
मुझे राष्ट्रभाषा या राजभाषा के रूप में
भले ही न पहचानो, मगर
दिल की भाषा ज़रूर बनाओ
बनाए रखो मुझे राष्ट्र के ईमान के रूप में
न ताक पे रखो देश के सम्मान को ।

मैं सिर्फ़ नलंदा में ही नहीं
ओक्सफोर्ड तक पहुँच चुकी हूँ
मैं विश्व भाषा बनकर इठलाती नहीं
मैं हूँ हिंदी
सबकी प्यारी हिंदी ।

No comments: