सीता महाकाव्य का धारावाहिक प्रकाशन
(डॉ. नंदिनी साहू जी कृत महाकाव्य सीता का हिंदी अनुवाद श्री दिनेश कुमार माली जी ने किया है । इस अनूदित महाकाव्य को युग मानस में धारावाहिक प्रकाशन किया जा रहा है । 25 सर्गों के इस महाकाव्य की प्रस्तावना आज यहाँ प्रस्तुत है । क्रमशः प्रत्येक सर्ग का प्रकाशन धारावाहिक किया जाएगा । आशा है, 'युग मानस' के सुधी पाठक वर्ग इस महाकाव्य पर अपनी आत्मीय प्रतिक्रिया देने की कृपा अवश्य करेंगे । - डॉ. सी. जय शंकर बाबु)
नंदिनी साहू |
सीता
(एक महाकाव्य )
प्रस्तावना
“And We forget
because we must
And not because We will ”
- Mathew Arnold, ‘Absence’
"One feature of modern sensibility is ... the
idea that what has been forgotten is what forms our character, our personality
, our soul. "
--Ian
Hacking
किसी भी मानव के दो शाश्वत गुण होते हैं- भूल जाना और क्षमा करना। इस महाकाव्य के संदर्भ में इतना पूछना चाहूंगी कि सीता के इन दोनों गुणों
की, क्या आलोचकों ने गलत तरीके से और मनमाने ढंग से व्याख्या नहीं की है ? क्या सीता के इन दो गुणों का उनके नजदीकी रिश्तेदारों और परिजनों द्वारा शोषण नहीं किया गया ? क्या हमारा समाज सीता के वास्तविक संदेश को नहीं भूल रहा है ?
कथा-शिल्प की दृष्टि
सेश्रीमद वाल्मीकि रामायण कोसात कांडों में वर्गीकृत किया गया है, जो निम्न हैं:-
1. बाल-कांड
2. अयोध्या कांड
3. अरण्य कांड
4. किष्किंधा कांड
5. सुंदर कांड
6. युद्ध कांड
7. उत्तर कांड
वाल्मीकि रामायण के
सर्जन से लेकर आज तक तीन सौ से अधिक अलग-अलग
भाषाओं में रामायण लिखी जा चुकी हैं। मेरी लंबी कविता सीता , एक तरह से, रामायण की एक पुनरावृत्ति ही है । दूसरे शब्दों में, इस कविता में रामायण महाकाव्य की नायिका
सीता के काव्यात्मक-संस्मरण है , जो वह स्वयं प्रथम पुरुष में अभिव्यक्त करती है ।
अगर मैं अपनी इस सम्पूर्ण साहित्यिक कृति पर प्रकाश डालती
हूँ, तो यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि सीता को एक लंबी कविता का रूप देने के पीछे मेरा एक
उद्देश्य था कि जीवन के प्रति मेरे उन मौलिक स्वतस्फूर्त: हृदयोद्गारों को प्रकट
करना है, जो सर्जनशील साहित्य के लिए अति-आवश्यक है। ये विचार हमेशा से मेरे भीतर खलबली मचा रहे थे, कभी-कभी मेरे मन के भीतर टीस पैदा कर रहे थे, तो कभी दूसरों के विचार और कार्य मेरे मन में आग धधका रहे थे।इस
दृष्टि से अगर देखा जाए तो यह मेरी सबसे
महत्वाकांक्षी, अंतर्मुखी,पर्यावरण-नारीवादी कविताओं में से एक महत्वपूर्ण कविता है। इस सीता-महाकाव्य को मैंने 25 सर्गों में प्रस्तुत किया है । जिस तरह एक डार्क-रूम में किसी फोटोग्राफ की नेगेटिव से पॉज़िटिव बनाई जाती
है, उसी तरह मेरा जीवन धीरे-धीरे अपने आप सीता का आख्यान बनकर सामने नजर आने
लगा ।
पौराणिक कथाओं में उल्लेखित है कि सीता अपने पिछले जन्म में
ऋषि कुशध्वज की पुत्री वेदवती थीं। वह भगवान विष्णु से
शादी करने के लिए जंगल में कठोर तपस्या कर रही थी। रावण उसे देखकर मंत्र-मुग्ध हुआ और उससे जबरन शादी
करने की कोशिश करने लगा। वेदवती अपने सतीत्व की रक्षा
करने के लिए आग में कूद पड़ी और अगले जन्म में सीता बनकर पैदा हुई । प्राकृतिक, मानवीय मृत्यु होने के बजाय आग में कूदना, धरती से जन्म लेना, फिर धरती में समा जाना
आदि कथानकों के कारण पाश्चात्य आलोचक सीता की तुलना यूरीडिस, पर्सपेफोन और सेरेस जैसी अन्य क्लासिकी कथाओं की नायिकाओं से करते
हैं । मेरे लिए सीता अतुल्य है, वह हर किसी महिला की सर्वोत्कृष्ट भावना में समाहित है – चिरनूतन, कालातीत और
सर्वव्यापी।
निस्संदेह, सीता भारतीय पौराणिक महिलाओं में सर्वोपरि है, मगर आश्चर्य की बात है कि अभी तक उन पर स्वतंत्र रूप से
कोई रचना नहीं लिखी गई है। यह दूसरी बात है कि अलग-अलग भारतीय साहित्यों, मिथकों और लोक-कथाओं में उनके विविध लघु-संस्करण अवश्य मिलते हैं। जहां क्लासिकी साहित्य सीता को महिमा-मंडित करते हैं; वहाँ लोककथाएं, लोकगीत और गाथागीत कभी-कभी उन्हें दुविधा-युक्त जीवन के हाशिए पर रहने वाली आदिवासी और ग्रामीण महिलाओं से जोड़कर देखते हैं। सीता माता की तरह उन्हें अक्सर सीमांत और
पीड़िता के रूप में समझने के लिए एक ट्रॉप है ! एक तरफ कुछ लोक-संस्करण उन्हें देवी काली की तरह सबसे
शक्तिशाली महिला के रूप में प्रस्तुत करते हैं,दूसरी तरफ यह इतना ही रोचक तथ्य है कि
आधुनिक समय में प्रगतिशील विचारधारा वाली सशक्त महिलाएं
स्वेच्छाचारी, जिद्दी , आत्मविश्वासी, नश्वर महिला की प्रतिनिधि सीता में अपने आप को थोड़ा-बहुत
तलाशने लगी हैं ।
इस प्रकार, प्रत्येक भारतीय महिला में 'सीतापन' कहीं-न-कहीं छुपा हुआ है , उस सुषुप्त भाव को मैंने तीन पंक्तियों वाली
छंदबद्ध पच्चीस दीर्घ कविताओं में उजागर करने का प्रयास किया है।
बचपन में, अपनी दादी से सीता के दो बार निर्वासन की कहानी
सुनकर दुखी होती थी, खासकर दूसरी कहानी से, जब उन्हें दूसरी बार
वनवास दिया जाता है। हिंदुओं में राम ही एकमात्र ऐसे भगवान है, जो एकपत्नीव्रत थे अर्थात् उनकी केवल एक पत्नी थी, इसी तरह राम ही एकमात्र ऐसे हिन्दू भगवान है, जो अपनी पत्नी को
अस्वीकार करते हैं और उनकी अग्नि-परीक्षा लेते हैं। जब मैं रामायण की ये पंक्तियाँ पढ़ती थी, तो मेरा दिल टूट जाता था, जिसमें सीता धरती माता से इन शब्दों में अपने भीतर
समा लेने का आग्रह करती है :
“यदि मैं आजन्म मन-वचन-कर्म से
शुद्ध रही हूँ, तो अपनी इस बेटी की लाज और पीड़ा का ख्याल किए बगैर उसे अपने भीतर समा लें। हे धरती माता! यदि मैंने कर्तव्य और निष्ठा में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
हे धरती माता ! जिसकी मैं स्त्री हूँ, जिससे मेरे बच्चे हुए
हैं, उनकी मैं अगर वफादार पत्नी हूँ, तो हे धरती माँ! अपनी सीता को इस जीवन के बोझ से मुक्त करो! ”
'मर्यादा पुरुषोत्तम', सर्व-गुण सम्पन्न, आदर्श राम अपनी पत्नी का परित्याग कैसे कर
सकते हैं ? एक ऐसी पत्नी जिसमें गरिमा-लायक सारे गुण थे, एक पितृ-सत्ता से परिपूर्ण धोबी की अनर्गल बात रखने के लिए उनका त्याग करना
कहाँ तक उचित है ? जिस तरह मेरी दादी भगवान राम की कार्रवाई को उचित ठहराती थी, मैं उसकी दलीलों से
कभी भी संतुष्ट नहीं होती थी। वह सीता की अग्नि-परीक्षा को
सही मानती थी और सीता के निर्वासन के बाद राम की पीड़ा से द्रवित होती थी कि भगवान राम ने अपने जीवन में कभी दोबारा शादी नहीं की। सीता मैया को जंगल में भेजने के बाद , राम ने शुद्ध सोने से सीता की प्रतिमा बनाई थी, जो उसके पवित्रता और सतीत्व का प्रतीक थी । इसका मतलब यह हुआ कि राम ने सीता के चरित्र पर कभी संदेह
नहीं किया; लेकिन राजा होने के नाते, अपनी प्रजा की इच्छाओं का सम्मान
करना उनके लिए मजबूरी थी । राम ने अपने पिता के वचनों को निभाया और वनवास स्वीकार किया, इसलिए उन्हें जमीनी-नियमों का भी सम्मान करना पड़ा और अपनी पत्नी को छोड़ देना वांछित समझा ।
लेकिन, क्या यह कोई तर्क है ?
अपनी दादी की मौखिक
कहानियों को सुनने के अलावा, मैंने अपने जीवन के प्रारंभिक वर्षों में बहुत सारी रामायणों का गहन अध्ययन किया। जिसमें तुलसीदास कृत कवितावली, आर॰ के॰ नारायण की रामायण, जो कंबन की तमिल रामावतारम का अंग्रेजी में
गद्य-रूपान्तरण थी, एफ॰एस॰ग्रोव्स द्वारा अनुवादित तुलसीदास रामायण, वाल्मीकि रामायण के सातों कांड, बलराम दास की ओड़िया में जगमोहन रामायण, आदिकवि
सारला दासा की ओडिया में विलंका रामायण प्रमुख हैं। इसके अलावा, मैंने ओडिशा में (और अब दिल्ली में रामलीला मैदान में ) राम-लीला के आयोजनों को बड़े चाव
से देखा। मैंने गंगाधर मेहर की तपस्विनी और उपेंद्र भांज की वैदेहीविलास को ओडिया में पढ़ा और उनमें सीता-चरित्र की काव्यात्मक प्रस्तुति से काफी प्रभावित हुई । दूसरे धर्मों के धार्मिक ग्रंथों को पढ़ने से भी मुझे ऊर्जा मिली। इस महाकाव्य में ओल्ड टेस्टामेंट से ली गई मोसे की कहानी के संदर्भ का भी मैंने
जिक्र किया है, जिससे रामायण और पवित्र बाइबल में समानताएँ दर्शाई
जा सके।
मेरे अपने गृह-राज्य, ओड़िशा में ‘भागवत टूँगी’- ऐसे स्थान जहां पर शाम को लोग श्रीमद भागवत और रामायण के प्रवचन सुनने के
लिए इकट्ठे होते हैं, का भी खूब फायदा उठाया। मगर अब दुख के
साथ कहना पड़ता है कि यह परंपरा आधुनिकीकरण के कारण विलुप्त होने के कगार पर है। वहाँ मैंने बचपन में रामायण सुनी , और यह मुझे समझ में आया कि श्रीमदभगवद 18 पुराणों में से सबसे ज्यादा लोक-प्रिय है ,जिसमें भारतीय दर्शन का सार अंतर्निहित है। इस पुराण में अन्य धर्मग्रंथों और यहाँ तक कि वेदों के कई गूढ़
दर्शन को सरलता से समझाया गया है। इसमें जीवन का ज्ञान है , निष्काम भावना से कर्म
करने का, जिसे पाश्चात्य आलोचक टी॰एस॰एलियट निर्वेयक्तिक होना
कहते है। यह हमें गर्व और अहंकार से दूर रहना सिखाता है। भक्ति भी नौ प्रकार की होती है, जिसे नवधा भक्ति कहते हैं—श्रवण,कीर्तन,स्मरण,पाद-सेवा,अर्चन,वन्दन,दास्य,सख्य और आत्मनिवेदन्। हमें सफलता या असफलता की
परवाह किए बिना अपनी उपलब्धियों का फल भगवान को समर्पित करना चाहिए । मैंने सीता के जीवन-दर्शन को श्रीमद्भागवत से विरासत में प्राप्त
हुए विचारों से जोड़ने का प्रयास किया है। और साथ ही साथ, सीता के चरित्र में आवेग और भक्ति को भी दर्शाया है। जब मैं बड़ी हुई, तो मैं सीता के जीवन के प्रति दृष्टिकोण को सकारात्मक रूप से स्वीकार करने के बारे में सोचने लगी।
उसके कभी हार नहीं मानने वाले रवैये ने उसे मेरा रोल
मॉडल, मेरा आइकन बना दिया। भले ही,वह विद्रोह की प्रतीक
थी, मगर वह बहुत धीरज वाली थी। धरती माता के गर्भ से सीता के जन्म लेने का मतलब उनका प्रकृति के साथ सान्निध्य,ज़िंदादिली और सच्चाई को दर्शाना है। भारतीय
सांस्कृतिक परिपेक्ष में सीता एक गुणी महिला का प्रतीक
है। असहयोग आंदोलन के दौरान, महात्मा गांधी ने सीता
को भारतीयों के सामने आदर्श चरित्र के रूप में पेश किया,ताकि वे सीता से अपने सांस्कृतिक मूल्यों के
प्रति सम्मान और उपनिवेशवाद के खिलाफ जन-आंदोलन पैदा कर सके। यह रामायण की वही सीता थी, जो अन्याय के खिलाफ आवाज उठाती
थी, उन्हें चुपचाप बर्दाश्त करने की भी क्षमता रखती थी, जब अपने गुणों को किसी परीक्षा
से सिद्ध करने की बात आती थी तो वह समझौता नहीं करती थी और जब सब उसे अकले छोड़
देते थे तो वह निर्वासित अवस्था में भी कभी हिम्मत नहीं हारती थी। इस तरह, सीता वास्तव में आधुनिक महिला है, भले ही, उनके धैर्य और चुपचाप बर्दाश्त करने वाली आदत की कभी-कभी हमारी आधुनिक महिलाएं आलोचना करती हैं – कि उनकी क्षमाशील प्रकृति के कारण प्रत्यक्ष रूप से उन्होंने महिलाओं के दमन को प्रोत्साहित किया है ! मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ। मेरे हिसाब से, सीता हर प्रकार की परिपाटी
को तोड़ने का साहस रखती थी । शायद मैं यह सोचकर अपने आप को सांत्वना देती हूँ कि सीता को निर्वासित करने के बाद राम कभी भी
सामान्य जीवन नहीं जी सके। इसलिए सीता के धरती के गर्भ में समा जाने के बाद, राम ने सरयू नदी में डुबकी लगाकर अपनी देह-लीला समाप्त की। क्या यह किसी भी पुरुष के लिए एक सबक
नहीं है कि अगर वह अपने जीवन में अपनी 'लक्ष्मी', यानि अपनी पत्नी को प्रताड़ित करता है , तो उसे भी उसका फल भुगतान ही पड़ता है? सीता पार्वती की तरह थी, जिसने अपने बच्चों को अकेले पाला-पोसा और उन्हें इतना शक्तिशाली
बना दिया कि उन्होंने अश्वमेध यज्ञ के दौरान राम की पूरी सेना को हरा दिया । ऐसे वह देवी काली से भी कम नहीं थी, जब एक बार फिर से अपनी पवित्रता साबित
करने के आदेश को ठुकराकर अयोध्या में रानी और राम पत्नी के रूप में वापस
जाने से मना कर दिया। तब जाकर अयोध्या के लोगों को इसका अहसास हुआ कि एक औरत के परित्याग से अयोध्या की महिमा कलंकित हुई है।
खासकर मौखिक रूप से मिथिला
क्षेत्र से आए हुए सीता-मिथक संबन्धित जब हम भारत की लोक
कथाओं और लोक गीतों को पढ़ते हैं, तो कलंक की यह भावना उजागर होती है। सीता को मिथिला के हर घर में बेटी माना जाता है और वहाँ के माता-पिता आज भी अवध में अपनी बेटियों की शादी के लिए अनिच्छुक रहते हैं। इस अंचल के सभी विवाह-गीतों में, केवल सीता का नाम लिया जाता हैं, न कि राम का। शिव धनुष के बारे में एक लोक-कथा आती है, जिसमें सीता फर्श पर गोबर का लेपन कर रही होती है, और वहाँ पड़े हुए
शिव-धनुष को वह अपने हाथ से उठाकर सहजता से दूसरी जगह रख देती है। तब उसके पिता यह निर्णय लेते हैं कि उसकी शादी ऐसे
आदमी के साथ की जाएगी, जो इस शिव-धनुष के नौ टुकड़े कर दें। मुझे
इस लोककथा में पितृसत्तात्मक रवैया नजर आया कि अगर कोई लड़की कुछ
सराहनीय कार्य करती है, तो उसके पति को उससे कम से कम 'नौ गुना' बेहतर होना चाहिए !! इसके अतिरिक्त, जहां स्वयंवर में एक लड़की को बहुत सारे व्यक्तियों में से एक को अपना पति चुनने की सुविधा मिलती है, वहीं अपने से कम से कम नौ गुना बेहतर शक्तिशाली पति पाने की
पितृसत्तात्मक शर्त उस महिला की स्वतंत्रता पर अंकुश लगा देती है। यह प्रथा आज भी हमारे समाज में जारी है- ज्यादातर परिवार में बड़ों द्वारा निर्धारित किसी भी विवाह की
पूर्व शर्तें और एक अच्छा दूल्हा खोजने की कसौटी के कारण कई प्रेमरहित विवाह हो रहे हैं। उदाहरण के तौर पर राम शिव-धनुष परीक्षा में तो उत्तीर्ण हो गए, मगर क्या प्रशंसा योग्य पति बन सके ?
इसमें कोई दो राय नहीं है कि सीता की कहानी
मनोरम ढंग से समकालीन परिपेक्ष्यों में खरी उतरती है । विगत 2500 वर्षों से भारत की विविध भाषाओं में यह कहानी अलग-अलग अनगिनत तरीकों से हमारे समक्ष आ रही है। लेकिन इन व्याख्याओं में, न केवल आकर्षक ऐतिहासिक विवरणों का समावेश हुआ है, जो नए तरीके से
ऐतिहासिक अध्ययन को जन्म देता है, बल्कि समय के अनुरूप
अलग-अलग लेखक राम-सीता की अक्षय कथा में कुछ बदलावों की
रूपरेखा तैयार करते हैं। मैं भी बदलाव की
रूपरेखा से प्रभावित हुई हूँ और अस्तित्व के संकट में डूबना नहीं चाहती। मैंने
यहाँ सीता का देवीकरण और मानवीकरण दोनों किया है, एक विलक्षण पूर्वाग्रह
के साथ। राम-सीता कथा के अनेक रूपों से समकालीन समाज में बार-बार नैतिकता पर उठने वाले सवालों पर
व्यापक तौर पर आज भी विचार-विमर्श किया जाता है। यादृच्छिक रूप से यद्यपि मेरे इस महाकाव्य में पुल्लिंग स्टीरियोटाइप झलक अवश्य मिलती है ।
अक्सर सीता-चरित्र के मानक प्रसंगों में उत्पीड़न, तपस्या, पति के प्रति आज्ञाकारी निष्ठा आदि की भरमार हैं , मगर सीता के शिव-धनुष उठाने की शक्ति, राम के साथ वनवास जाने का दृढ़ संकल्प, रावण का सामना करने की निर्भीकता और दूसरी बार
अग्नि-परीक्षा से इंकार कर देना जैसे कथानकों को बार-बार,पता नहीं क्यों,भुला दिया जाता है? मुझे सीता दुनिया की सारी पौराणिक कथाओं में सबसे ज्यादा सशक्त महिला नजर आती हैं, बल्कि मैं तो यह कहना चाहूंगी कि सीता हमारी सामूहिक चेतना में सभी प्रगतिशील, स्वतंत्र महिलाओं की भावना में शक्तिशाली प्रेरणा के रूप में अवस्थित हैं, चाहे उन्हें इस चीज की जानकारी हो या नहीं ।
“राम थोड़ी देर तक सोचते रहे और फिर अचानक बोलने लगे, ‘ मेरा काम पूरा हो गया है। मैं अब तुम्हें मुक्त कर रहा हूँ। मेरा मिशन पूरा हुआ । यह युद्ध तुम्हारी या मेरी व्यक्तिगत संतुष्टि के लिए नहीं किया गया था। इसके पीछे मेरा उद्देश्य इक्ष्वाकु वंश की मान-मर्यादा और हमारे पूर्वजों के मूल्य-बोधों का सम्मान करना था। अंत में, मैं यह कहना चाहता हूँ कि हमारे यहाँ किसी सामान्य विवाहित महिला, जो किसी अजनबी के घर में अकेली रही है, को वापस स्वीकार करने का रिवाज नहीं है। फिर से साथ में रहने का तो सवाल ही नहीं उठता । मैं अभी इसी वक्त तुम्हें मुक्त करता हूँ, जहां भी तुम्हारी इच्छा हो, जा सकती हो। "
मैं एक पत्नी की बेबसी के बारे में सोचकर बहुत
दुखी हुई और
हतप्रभ रही, जो मन-वचन-कर्म से केवल अपने
पति को प्यार करती
थी। उसे इसलिए निर्वासित कर दिया गया, कि उसे कुछ समय किसी
अजनबी जगह पर "अकेले रहना" पड़ा , किसी कारणवश, बिना पिता, भाई
और पति के, दूसरे शब्दों में बिना
उचित पितृसत्तात्मक
संबल के ।
फिर भी, मन से टूटे बिना, जिस
तरह से सीता ने स्थिति को संभाला, वह अपने आप में अद्वितीय है। राम को अपनी शुद्धता साबित
करने के लिए पूछे बगैर अपनी शुद्धता सिद्ध की। (वह स्वयं भी अपनी पत्नी की अनुपस्थिति में
अजनबियों के बीच रहते थे !) इस वजह से सीता के प्रति मेरे मन अगाध
प्रेम-भाव जाग उठा और मैंने सीता-महाकाव्य लिखने का फैसला किया।
मैंने सीता महाकाव्य में मेरे वक्तव्यों, मेरे कथनों और मेरे मूल्यांकन को प्रस्तुत
किया है, जिससे उनके जीवन और व्यक्तित्व के कई लक्षणों पर प्रकाश डाला जा
सकता है। इसमें स्थानीय रामायणों, पौराणिक कथाओं, लोककथाओं से उद्धृत उनके जन्म, प्रेम, विवाह, निर्वासन , अपहरण, अग्नि-परीक्षा और अंत में घर-वापसी/ धरती-माता के
गोद में समा जाने आदि घटनाओं का काव्यात्मक वर्णन किया गया है। मैं इस रहस्यमयी, अकथनीय
चरित्र के हमारे
जीवन पर अमिट प्रभाव
की नयी व्याख्या
आपके सामने रखने का प्रयास कर रही हूं। यह सीता की समकालीनता पर आधारित महाकाव्य है। यह कह सकती हूं , मैंने
रूढ़िवादी 'सीता' को
तोड़ दिया है और हम
सभी के भीतर टुकड़ों-टुकड़ों में रहने वाली बोल्ड और सुंदर सीता को
स्थापित किया है । दुनिया कहती है, महिला रहस्यमयी होती है। वह
चाहती
है अच्छी दिखे, लोग उसकी प्रशंसा करें और उसकी बातों को माने, फिर
भी वह प्रतिष्ठित
होने की इच्छा नहीं
रखती है ! ज्ञान और शक्ति के कवच से परे अगर वह सुंदर
है, तो उसे समझना
बहुत ज्यादा मुश्किल है! इसे ही मैं हर
महिला का 'सीतापन' कहती हूं ।
सीता प्रकृति के सबसे करीबी महिला
थीं - वे
मूलत: 'इकोफैमिनिस्ट' थीं
- अगर मैं सही कहूँ तो।दो बार निर्वासन, एक बार अपहरण होने के बाद भी उसने अपने जीवन को
किसी निर्णायक
भाग्य के भरोसे नहीं छोड़ा, बल्कि उसने वनस्पतियों
और जीवों को संभालने की ज़िम्मेदारी ली , और फिर अपने बच्चे लव-कुश को माता-पिता
दोनों के दायित्वों का निर्वहन करते हुए पालन-पोषण किया, जब
तक कि वे
बारह साल के नहीं हो गए। वह धरती माता की तरह
ही थी । वह
धैर्य, सहनशीलता, आशावादिता, प्रेम और मातृत्व का
अवतार थी। एक
जगह सीता
मरणधर्मा औरत की तरह अपनी कमजोरियों का आकलन करती है । वह सोने के हिरण पर विश्वास
करके प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करती है , जबकि तर्कसंगत रूप से
उसे सोचना चाहिए था कि प्रकृति सोने का हिरण पैदा नहीं कर सकती है!
वह अपने देवर लक्ष्मण की
संप्रभुता पर
संदेह कर लक्ष्मण-रेखा पार करती है , जब वह अपने भाई राम की तलाश में जाने से इंकार कर देता है । वह
अपना दोष स्वीकार
कर यह संदेश देना चाहती है कि अपराध-बोध और दंड दोनों साथ-साथ चलते हैं, यहाँ
तक कि देवी सीता भी उससे अछूती नहीं है। अग्निपरीक्षा जैसे अन्याय पर सीता की मौन-स्वीकृति का यह अर्थ नहीं
निकाला जाए कि उसने महिलाओं की भविष्य पीढ़ी के लिए घरेलू-हिंसा, वधू-दहन, जौहर
या सती-प्रथा को जन्म देकर
उनके प्रति अन्याय
के लिए एक मंच स्थापित किया है। कभी-कभी आलोचक किसी सुपाठ्य कृति पर जूँ की तरह चिपक जाते हैं। ऐसा ही कुछ आलोचकों
ने रामायण में सीता-चरित्र
के साथ ऐसा ही किया है; उन्होंने ज्यादातर
उसके चरित्र और व्यक्तित्व को विकृत कर दिया है। मेरा मानना है, अहिंसा सीता
की ताकत
थी और सच्चे अर्थों में, वह एक सच्ची सत्याग्रही
थीं ; और उसने हर कदम पर पितृसत्ता को चुनौती दी और उसे
परास्त किया, अभियोक्ता
पर बिना हथियार उठाए। इस प्रकार, मैं इस महाकाव्य में पितृसत्ता
और पहचान की राजनीति
पर अपनी बात रखती हूँ। पितृसत्तात्मक प्रबंधन, लैंगिक विभेदता और पहचान के मुद्दों को मैंने इस कविता में उठाया है। अंत में, मैं आज की महिलाओं, नई
महिलाओं की बात करना चाहती हूँ, जो सीता के चरित्र से प्रेरणा
पाकर अपने चरित्र
को शक्तिशाली बनाती है , मेरे दिमाग में सीता की ऐसी जीवित प्रतिमा है।
एक भौतिक
विज्ञानी, फ्रिट्ज ऑफ कैपरा, जिनकी पुस्तक द ताओ ऑफ फिजिक्स ( 1975)
अलौकिक अनुभवों पर आधारित थी, जिसमें उन्होंने ब्रह्मांड की कार्यपद्धति
की तुलना "शिव के नृत्य" से की है। ब्रह्माण्ड और शांति के कंपनों के बारे में वे टिप्पणी करते हैं:-
" आधुनिक भौतिकी मैटर को निष्क्रिय और जड़ता के रूप में बिल्कुल नहीं मानती है, बल्कि उनका अनवरत नृत्य और दोलन गति के तालबद्ध पैटर्न आणविक,
परमाण्विक और नाभिकीय संरचनाओं द्वारा निर्धारित किए जाते है। इस तरीके से भी पूर्वी रहस्यवादी लोग भौतिक दुनिया को देखते हैं। वे सभी इस बात पर जोर देते हैं कि
ब्रह्मांड को गतिशील रूप से समझना होगा, क्योंकि यह आगे बढ़ता है,
कंपित होता है, नृत्य करता है; इसलिए प्रकृति स्थैतिक अवस्था में नहीं है, बल्कि एक गतिशील संतुलन है। "
मुझे अपने भारतीय मिथकों में यही नजर आया। दोनों भाषायी तौर पर और विवेक के आधार पर, हिंदुओं का भी यह मानना है कि GOD
का अर्थ - जेनरेटर,
ऑपरेटर,
डेस्ट्रोयर अर्थात ब्रह्मा,विष्णु और महेश होता है। ऐसे विचार परिचित को अपरंपरागत और अजनबी को अधिक परिचित बनाते हैं। यद्यपि शांति शब्द संस्कृत में प्रचलित है, हिन्दू परम्पराओं में प्रयुक्त होता है,मगर यह शब्द हर जगह मिलता है- इलियट की द वेस्ट लैंड से लेकर मैडोना के गीतों और फिल्म चिल्ड्रेन ऑफ मेन (2006)
माइकल केने के किरदार तक। भारतीय पौराणिक कथाओं में,
सीता अपने शांतिपूर्ण विद्रोह के माध्यम से शांति शब्द की असली भावना का प्रचार-प्रसार करती
हैं । वह खुद उत्पादक,
संचालक,
विध्वंसक
है ; परिचित भी है और अजनबी भी,
दोनों ही पहलू उसके जीवन को गतिशील बनाते है।
मैं तो यहाँ तक कहना चाहूंगी है कि राम ने जब लंका में सार्वजनिक
रूप से सीता को अस्वीकार
कर दिया था, उस समय भी सीता को अपनी पहली अग्नि-परीक्षा
नहीं देनी चाहिए थी। अच्छा तो यही रहता कि उसी समय वह धरती माता की गोद में समा जाती, ताकि राम को उसका अधिकार जताने
वाले पति
और उसके बच्चों के पिता होने की खुशी न मिलती। आखिरकर एक आदमी ने उसके चरित्र, पवित्रता
पर आरोप
लगाया था, जो किसी भी स्त्री के असहनीय बात होती है!
उसने
यह अपमान
क्यों सहन किया, क्यों अपनी पवित्रता को सिद्ध किया, और फिर उस आदमी के पास वापस जाना पसंद किया, जो न तो उसका सम्मान करता था, न उस पर भरोसा करता था, और
न ही उसकी कोई
उस पर आस्था थी? दूसरे ढंग से मैं सोचती हूँ, सीता ने जो कुछ किया, वह अच्छा ही किया । आखिर एक नारी अपने धैर्य, पवित्रता, तपस्या और दृढ़ता के
लिए जानी जाती है । उसने अग्नि-परीक्षा स्वीकार की, ताकि वह यह साबित कर सके कि एक औरत के बारे में
संकीर्ण दृष्टिकोण
से सोचने वाला समाज गलत है। अग्नि-परीक्षा से उसने सभी की श्रद्धा अर्जित
की । दूसरा, उसने राम को अपनी पहली अक्षम्य गलती के लिए भी माफ कर दिया, क्योंकि वह वास्तव में
उससे बहुत प्यार
करती थी। इसके
अलावा, उसके
जीवन में अभी तक कुछ काम अधूरे बचे हुए थे। एक महिला मातृत्व पाकर ही पूर्ण बनती है। सीता के लिए पत्नी, रानी, पुत्रवधू
और सबसे महत्वपूर्ण, माँ के कर्तव्यों का पालन करना बचा हुआ था।
अंत में, मैं पाठकों पर छोडती हूँ
कि सीता के चरित्र के बारे में वे अपनी व्यक्तिगत राय किस तरह बनाते हैं? मेरे लिए, सीता
एक विद्रोहनी थी, भले
ही उसने उन्हीं हथियारों का कभी प्रयोग नहीं किया, क्योंकि वह
हार-जीत के सिद्धांत में विश्वास नहीं करती थी। उसके पास
किसी भी साधारण महिला
की तुलना में अधिक धैर्य, साहस और दृढ़ विश्वास था, क्योंकि
एक अहिंसक क्रांति को एक हिंसक क्रांति की तुलना में अधिक दृढ़ता की
आवश्यकता होती है।
मैंने इस काव्य के माध्यम से, भगवान
राम के लिए सीता के प्रश्नों के माध्यम से , और समाज के माध्यम से जीवन के कुछ अस्तित्ववादी प्रश्नों को उभारा है । मेरे सीता-महाकाव्य को सामाजिक गतिशीलता का महाकाव्य कहा जा सकता है। मैं उन महिलाओं की
भावनाओं
का कद्र करती हूं, जो सारी बाधाओं के खिलाफ लड़कर सार्थक जीवन जीने में
सफल हुई हैं।
डॉ॰ नंदिनी साहू
संदर्भ:
-
इयान
हैकिंग, 'मेमोरी साइंसेज, मेमोरी पॉलिटिक्स', टेंस पास्ट: कल्चरल एसेज इन ट्रॉमा एंड मेमोरी , न्यूयॉर्क: रूटलेज,
1996। (70)
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