आशा पांडेय ओझा के कविता-संग्रह ‘वक्त की शाख से’ पर आलोकपात
-दिनेश
कुमार माली/ओड़िशा
श्रीमती आशा
पांडेय ओझा की उत्कर्ष प्रकाशन मेरठ / दिल्ली से प्रकाशित अद्यतन कविता-संग्रह ‘वक्त की शाख
से’ के आकलन व
मूल्यांकन का उत्तरदायित्व आने वाले वक्त के कविता
प्रेमी पाठकों व साहित्यकारों के हाथों में सौंपने से पूर्व इस कविता
संग्रह पर तीन महान शीर्षस्थ वरिष्ठ हिन्दी साहित्यकार, आलोचक नन्द भारद्वाज,गीतकार डॉ॰
बुद्धिनाथ मिश्र व वरिष्ठ लेखक व भारतीय प्रशासनिक अधिकारी डॉ॰ कृष्णकान्त पाठक की
टिप्पणियों से अवगत कराकर इस संग्रह के वर्तमान से परिचय कराना मैं अपना
नैतिक दायित्व समझता हूँ, क्योंकि जब मानव-मन की नैसर्गिक स्वतः स्फूर्त प्रवृत्ति जब किसी के जीवन
की अनुभूतियों की माध्यम बनती है तो उसकी महत्ता या भूमिका सदैव अमिट रहती
है,किसी भी युग में।
1 – नन्द भारद्वाज साहब अपनी भूमिका
में लिखते हैं :-
“आशा पांडेय
के इस कविता-संग्रह की कविताओं में आज के जीवन यथार्थ की अनेक छबियां उजागर होती
है– आज की
मूल्यहीन राजनीति, बढ़ते अपराध,गरीबी,सार्वजनिक
जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार,सामाजिक अन्याय आदि पाठक की चेतना को सहज उद्वेलित करता है। आशा पांडेय की
इस कविताओं में एक और महत्त्वपूर्ण पहलू है– मानवीय
प्रेम की व्यापकता का निरूपण।”
2 – डॉ बुद्धिनाथ मिश्र इस
पुस्तक पर अपनी टिप्पणी व्यक्त करते हैं :-
“ आशा पांडेय
के कविता-संग्रह की कविताएं बेतरतीब समाज का कच्चा चिट्ठा प्रस्तुत करती है इसमें
नारी का मन पंख की उड़ान भी है, उसकी नदी-सी मासूम अल्हड़ हंसी भी है। इस संग्रह की सारी कविताएं वक्त की
शाखाओं पर उगे हुए यथार्थ नग्न को बड़ी बेबाकी से प्रस्तुत करने में कामयाब रही है।
अक्षरों के काल पात्र में संपुटित यह आक्रोश किसी भी चेतनाशील पाठक को झकझोर सकता
है।”
3 मुख्यमंत्री कार्यालय,राजस्थान में कार्यरत आई॰ए॰एस॰ अधिकारी व वरिष्ठ
साहित्यकार डॉ॰ कृष्णकांत पाठक लिखते हैं :-
“साहित्य की
तकनीकी परिभाषा में आशा पाण्डेय ओझा का यह काव्य-संग्रह वस्तुतः अकविता संग्रह है, किन्तु
कवयित्री ने अपनी विलक्षणता से उसमें गीत का रस भर दिया है।”
ये थी महान
विद्वान साहित्यकारों की इस कविता-संग्रह पर की गई प्रतिक्रियाएँ अर्थात आज चाहे
स्त्री-विमर्श हो या फिर वर्तमान आर्थिक विषमताओं,वैश्वीकरण,हाशिए पर पड़े गरीब आदिवासियों की समस्याओं,पारिवारिक व सामाजिक मसलों अथवा भ्रष्टाचार व शोषण की
बात हो, आशा पाण्डेय
ओझा की कविता तमाम ज्वलंत सरोकारों का प्रतिनिधित्व करती है। मुझे इस कविता-संग्रह
का शीर्षक ‘वक्त की शाख
से’ ने सबसे ज्यादा
प्रभावित किया, बहुत ज्यादा
चिंतन-मनन करने के उपरांत मैंने पाया कि ‘वक्त’ और ‘शाख’ दोनों शब्दों का
एक साथ संयोजन मेरे लिए किसी चमत्कार अनुभव करने से कम नहीं था।भले ही एक
उर्दू का हो,तो दूसरा
हिन्दी का शब्द। ‘वक्त' शब्द पर
फेसबुक पर किसी अनाम कवि की अत्यंत ही सारगर्भित व यथार्थ को प्रस्तुत करती बहुत
ही प्यारी कविता मेरे मन-मस्तिष्क के दरवाजों पर बार-बार दस्तक दे रही थी। स्मृति के
गहरे सागर के मंथन से प्राप्त इस कविता की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार से
है :-
हर खुशी है दामन में, पर हंसी के
लिए वक्त नहीं है
दिन रात दौड़ती दुनिया में, जिंदगी के
लिए भी वक्त नहीं है
सारे रिश्तों को हम मार चुके, अब उन्हें
दफनाने का वक्त नहीं
सारे नंबर मोबाइल में है,पर फोन करने
का भी वक्त नहीं
गैरों की क्या बात करें,जब अपनों के
लिए ही वक्त नहीं
यह तो था
शीर्षक का पहला शब्द वक्त। दूसरा शब्द ‘शाख’ मेरा ध्यान गीता के पंद्रहवें अध्याय के पहले श्लोक की ओर ले जा रहा था:-
उर्ध्वमूलमध शाखमश्वत्थम प्राहुव्ययम
छंदानि यस्य पर्णानि यस्त वेदम स वेदवित
अर्थात इस दुनिया की जड़े ऊपर की ओर है और शाखाएँ नीचे की ओर। छंद जिसके पत्ते है। यह
बात जो जानता है,वह वेदों का
ज्ञाता है। यद्यपि बहुत
ही गहरी दार्शनिक बातें छुपी हुई है इस श्लोक में,मगर ‘वक्त’ और ‘शाख’ दोनों के मध्य संबंधकारक
विभक्ति से हुए मिलन को जब मैंने अपने मानस-पटल पर जोड़ कर देखता हूँ तो मेरे
सामने एक बिम्ब उभर कर आता है। वह यह है –
ऊर्ध्वमूल
वाले वक्त रूपी वृक्ष की अधोगामी शाखाओं पर लगे ‘वक्त की शाख
से’ कविता–संग्रह की
संवेदनशील कविताओं के जितने पर्ण लगे हुए
हैं,उनका सृजन
आशाजी की पेन की रागात्मक,संवेदनात्मक
और ज्ञानात्मक कोपलों से प्रस्फुटित हुआ है। तभी तो शीर्षक चयन की
यही सार्थकता है।
उद्भ्रांतजी
अपनी काव्य गुरु हरिवंश बच्चन के मधुशाला की एक पंक्ति ‘राह एक पकड़ तू चला चल,पा जाएगा मधुशाला’ को बार-बार दोहराते हुए मुझसे अक्सर कहा
करते है,अवश्य ही, ईश्वर
अनुभूति के लिए कठोर साधना की आवश्यकता होती है,मगर अपने जीवन काल में किसी एक मनुष्य को भी पूरी तरह से जानना भी किसी साधना
से कम नहीं है। अगर किसी रचनाकार को आप जानना चाहते हो तो आपको समग्र रचना-धर्मिता,रचना-प्रक्रिया
और संवेदनाओं के ज्वार-भाटा के मध्य से होकर गुजरना पड़ता है। हमारे कंपनी के मानव
संसाधन विभाग के सेवानिवृत्त महाप्रबंधक श्री हरिशंकर दीक्षित का एक कथन याद आ
गया:-
देखना है किसी आदमी को,तो बार-बार
देखो
एक आदमी में होते है दस-बीस आदमी
यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है कि मैंने आशाजी को
बार-बार देखा हैं,उनकी
कृतियों के माध्यम से। ‘त्रिसुगंधी’,‘एक कोशिश
रोशनी की ओर’,‘जर्रे जर्रे
में वो है’, तथा ‘वक्त की शाख
से’ पुस्तकों के
अतिरिक्त ई-पत्रिकाओ में उनकी प्रकाशित कविताएं,मुक्तक,गजल,दोहा,हाइकु,व्यंग्य,समीक्षा,आलेख व
शोध-पत्रों के माध्यम से काफी कुछ जानने,परखने,सोचने व
समझने का अवसर प्राप्त हुआ। बुद्धिनाथ जी अपने संस्मरण में आशाजी के बारे में
लिखते हैं:-
"... ताशकंद के
रेस्तरां में जब अधिकांश सहयात्री नाचती थिरकती अर्ध-नग्न युवतियों के तराशे हुए
बदन को निखरने में मदहोश थे,मुझे लगा कि भाषा के नाम पर कि गई अंतर्राष्ट्रीय यात्रा की यह तौहीन है और
मैं रेस्तरां की बाहर आकर प्रकृति के सार्वभौम सौन्दर्य को निहारने लगा,तभी कोई आया
और मेरे बगल में आकार बैठ गया। मैंने देखा वह आशाजी थी। आशाजी उस नग्न दृश्य से
आहत थी और आक्रोश में उफनती हुई नदी की तरह रेस्तरां से बाहर निकल आई थी। उनकी
दृष्टि में भी यह कोई ललित कथा नहीं,बल्कि
स्त्री के शोषण का एक वीभत्स रूप था।..."
इसी संस्मरण
से स्पष्ट हो जाता है कि कवयित्री की कविताओं की सृजन-भूमि के बीज,कथानक,कथ्य-शैली,विषयवस्तु
और अंतर्वस्तु जहां नारी की अस्मिता भारतीय संस्कृति की धुरी के इर्द-गिर्द चक्कर
लगाती है,वहीं उनके
मन में सुषुप्त आक्रोश पुरुष वर्ग के खिलाफ ज्वालामुखी का रूप लेकर पुरुष वाचक
शब्दों को भी विध्वंस करना चाहता है,वहीं लड़कियों को अपनी इज्जत आबरू की रक्षा के लिए प्रेरणा देना चाहती है।
उमेश चौहान जैसे आलोचकों का मानना है कि आने वाले समय की हमारी जरूरत का कोई नारा
या लोक-गान भी किसी कविता से ही निकलकर सामने आएगा,अश्लीलता परोसते और नैतिकता का विखंडन करते
गद्य-साहित्य से नहीं।
उनकी पहली
कविता ‘सुन लड़की’ से :-
सुन लड़की !
वहशतों के घुंघरू पहनकर
नाच रही शैतानी रूहें
तेरे इर्द-गिर्द
कुछ अपनी कुछ बैगानी
कौन जाने कब मसल देगी
अपने कदमों तले
कलियाँ तेरे इज्जत की
इस तरह 'संभल लड़की कविता' में :-
उमड़-घुमड रहे है
आस-पास
ठंडें-ठंडें अहसासों के
आवारा बादल
तेरी गर्म देह
पिघलाने को संभल लड़की
एक अन्य
कविता ‘पहला पुरुष
देवता में’ भारतीय
पौराणिक संस्कृति के अनुरूप चली आ रही ‘पति परमेश्वर’ की
विचारधारा में बदलाव लाने के लिए सृष्टि की पहली-स्त्री श्रद्धा (कामायनी) को दोषी
करार देती है,कि
आदि-पुरुष मनु को परमेश्वर मानकर क्यों उसकी पूजा की? यह ही नहीं, वह अपने राजस्थानी व्यंग्य आलेख में ‘थांहने काजलियो बणाल्यूं’ में भी इसी बात पर ज़ोर देती है।
ओ भोली बावली,
पूजती ही रहती तू
पत्थरों को काश ।
तेरी वजह से आज
न सहना पड़ता
अगिनत स्त्रियॉं को
यह संत्रास
‘पुरुष की
गिद्ध दृष्टि’ कविता में
:-
एक पुरुष की गिद्ध दृष्टि
जो मुक्त नहीं हो पा रही
आज भी
उसकी देह की आकर्षण से
वह लड़ रही है लड़ाई
देह मुक्ति की !
‘चीख’ कविता में
इस तरह का आर्तनाद प्रतिध्वनित होता हुआ सुनाई पड़ता है :-
तेरी चुप्पी का अर्थ लगाता है पुरुष
कि तुम हो
सिर्फ भोग-विलासिता की वस्तु भर
दर्ज कराने को
अपने अस्तित्व की मौजूदगी।
जिस तरह
दलित कवि असंगघोष की कविता ‘अरे ओ! कनखजूरे’ में बिंब के माध्यम से समाज में शोषक तथा पाखंड प्रदर्शन करने वाली
ब्राह्मणवादी व्यवस्था पर करारा प्रहार किया है,ठीक इसी तरह कवयित्री ने अपनी कविता ‘वो तिलचट्टे’ के माध्यम
से असामाजिक तत्त्वों,बदमाशों,लुच्चे-लफंगे
तथा पैसों के दमखम पर व्यभिचार व भ्रष्टाचार में लिप्त घृणास्पद अय्याश आदमक़द
तिलचट्टों की ओर संकेत किया है। ये तिलचट्टे बस स्टॉप,रेलवे
स्टेशन बाजार,राह पर चलते
शहर में कहीं भी मिल जाते हैं।
बार-बार उसकी आँखें
अंधेरें में,गर्म स्थान खोजती हुई
तिलचट्टों-सी रेंगती जब मुझ पर
या जान-बूझकर बेवजह
छूने का करती यत्न
भोजन ढूंढती फिरती तिलचट्टे के
एके जोड़ी संवेदी शृंगिकाए सी
वासना के कीच से लिपटी
उसकी गंदी उँगलियाँ मुझे
तब मैं खूबसूरत नहीं लगती मुझको
स्त्री-विमर्श
से संबन्धित अन्य कविताओं में ‘आज तक तलाश में हूँ’,‘पुरुषवाचक शब्द’,‘अवैध संबंध’, में पुरुष
की छाया से परे अपना अस्तित्व तलाशती स्त्री, हर पुरुष वाचक शब्द पर शक की निगाहों से देखती तथा
अवैध सम्बन्धों के कारण चटकती मजबूरियों को झेलती स्त्री का मार्मिक वर्णन मिलता
है।
‘ज्यों केले के पात में,पात-पात में पात' वैसे ही आशाजी जैसी
प्रतिभाशाली कवयित्री की कविताओं में अत्यंत ही गहरा रहस्य उदघाटित होता है।
जैसे-जैसे रचनाकार की कविताओं की तह से पाठक गुजरने लगता है तो ऐसा लगता
है कि वह एक के बाद एक भूलभुलैया के रास्तों की तरह भिन्न-भिन्न संवेदनाओं व
सरोकारों के साथ नूतन बिंबों,भाषायी प्रयोग व शैलियों से संपुष्ट होकर अभिनव सौंदर्य-बोध का परिचय कराती
उनकी कविताओं के भंवरजाल में फँसता चला जाता है।
इसी दौरान,बतौर पाठक
एक जगह मैं विरोधाभास से भी टकरा गया। भले ही,कवयित्री पुरुष वर्ग से जितना ज्यादा नफरत करती है,उतना ही
ज्यादा पुरुष-वर्ग का प्रतिनिधित्व करते पिता व पति को प्यार करती है। जहां पति को
परमेश्वर मानने से इंकार करती है,वहीं पिता को जीता जागता ईश्वर मानती है। जहां पुरुष की गिद्ध दृष्टि से
आशंकित रहती है, वहीं पिता
को खुशी बुनने वाला जुलाहा रूपी शब्द-भाव से संबोधित
करती है।
पिता
कैसे जुलाहा है न
जो बच्चों के लिए हर खुशी बुन लेता है
पता नहीं, कहाँ से लाता है
वे रेशमी तागे
सबसे गर्म,सबसे मुलायम
‘पिता चले गए’ कविता में
पिता के अवसान से घर में समस्त खुशियों पर तुषारापात होने के साथ-साथ जीवन की सारी
उमंगों पर पानी फिरने तथा त्यौहारों की रौनक फीकी पड़ने का उल्लेख है। इस कविता की
कुछ पंक्तियाँ :-
बेटियां घर की रौनक है
ऐसा कहते थे पिता
पिता के जाने के बाद जाना
बेटियाँ की रौनक की चाबी थे पिता
‘आपके जाने
के बाद’ भी एक ऐसी
ही कविता है : -
माँ जलती, चूल्हा रोता
कुम्हलाई तुलसी
आपके जाने के बाद
इसी कविता
का एक मार्मिक पद हैं :-
वह पीली गाय भी
सूंघकर चारा छोड़ देती
हरगिज नहीं खाती
अब उस चारे में परिचित
हाथों की खुशबू नहीं आती
ज्ञानपीठ
पुरस्कार से पुरस्कृत ओडिया कवि सीताकान्त महापात्र भी अपने पिता के पहली बार रोते
देखकर ऐसे ही संवेदनाओं का अनुभव करते हैं,जब उनकी दादी की मृत्यु पर उन्हें अकेले रोते देख
उनका हृदय करुणार्द्र हो उठता है। उनकी कविता ‘दादी माँ’ से : - दीवार की तरफ/ मुंह करके / हमारी तरफ पीठ करके / पिताजी रो रहे थे /
उनको रोते देखना मेरे लिए था पहला अवसर / मैं उन्हें क्या दिलासा देता/बाहर
निकालकर मैंने आकाश की तरफ देखा/ मुझे दिखाई दिया वहाँ एक चमकता हुआ और नक्षत्र/
उस दिन समझ में आया जीवन के सारे क्रंदन छुप-छुपकर रोने होते है।
पिता पर
कविताओं की शृंखलाओं में कवयित्री की एक और लंबी कविता है – ‘लड़की का
पिता’। इस
कविताओं में पुरुषवादी सामाजिक विषमताओं और आज के भौतिकवाद युग में मध्यमवर्गीय
परिवार में किसी लड़की का जन्म लेना और उसका पालन-पोषण करना पिता के लिए सबसे बड़ी
चुनौती है। उसकी विडम्बना और त्रास का यथार्थ अनुभव है, जब उसके लिए वर तलाशना मुश्किल होता जाता है। इस
कविता की तुलना ओडिया कवि वासुदेव सुनानी की कविता ‘लड़की देखना’ से की जा सकती है : -
समय पार होते ही सब समाप्त ! (शादी की
उम्र)
मत कहो लड़की का इस तरह
उत्फुलित वेश देखकर
किस भाई भाभी में
वास्तव में कहने का साहस होगा
इस बार भी बहाना करके
लड़के वाले ने धोखा दे दिया
लड़की को देखने लड़का नहीं आया ।
पिता की तरह
‘माँ’ को
विषयवस्तु बनाकर लेखिका ने कुछ कविताओं की पृष्ठभूमि तैयार की जिसमें माँ,जो ठहरी
प्रमुख है। कवियत्री की ‘स्त्री-विमर्श’ पर आधारित
एक विशेष कविता ‘हावी जब तक
पुरुषार्थ’ की तुलना
अपर्णा मोहंती की कविता ‘नष्ट नारी’ से की जा
सकती है। दोनों कविताओं की अंतर्वस्तु सदियों से स्त्रियों पर हो रहे
अत्याचार है। कविता में आप समानता देखें : -
स्त्री कभी अहिल्या
कभी सीता,कभी द्रौपदी
तस्लीमा भी
बनाई जाएगी पत्थर
होगा चीर हरण
ज़मींदोज़ भी
अपर्णा
मोहंती की कविता ‘नष्ट नारी’ की
पंक्तियाँ : -
तैंतीस करोड़ देवी देवताओं के सामने
दुर्गा के निर्वस्त्र होने से लेकर
अहिल्या का पत्थर बनना
सीता की अग्नि परीक्षा
और पाताल में प्रवेश
पांचाली का जुए में बाजी लगाना
आदि जाने सुने असाधारण
असहायता के उदाहरण।
कुछ
कविताओं में कवयित्री ने स्त्री की इतर रूपों से तुलना भी
है तथा उसे सही ठहराने के लिए अपने सटीक तर्क भी दिए हैं, जिसमें एक कविता है ‘ईश्वर और स्त्री’ और दूसरी कविता है – ‘नदियां औरत’। पहली
कविता में ईश्वर की निसंगता और स्त्री के एकाकीपन की तुलना है। जिस तरह पहले-पहले
श्रद्धालु भक्त पत्थर में धूम-धाम से प्राण-प्रतिष्ठा कर ईश्वर का निरूपण करते हैं
और फिर कुछ समय पश्चात उन्हें अपने भाग्य भरोसे किसी धूल धूसरित अलंदू भरे गर्भगृह
में परित्यक्त छोड़ देते हैं,उसी तरह शुरू-शुरू में गाजे-बाजों के साथ किसी स्त्री से शादी कर दो-चार
दिन लाड़-कौड करने के बाद ताउम्र काम के सिवाय उसका ससुराल उससे और कुछ नहीं चाहता
है। हमेशा-हमेशा के लिए उसका स्वतंत्र सामाजिक अस्तित्व खत्म हो जाता है,बची रह जाती
है केवल पारिवारिक बोझ ढोने की अनुभूतियाँ । ऐसे ही दूसरी कविता ‘नदियां औरत’ में
कवयित्री ने औरतों के बिफर जानने की तुलना उफनती नदियों से की है। अंग्रेजी लेखक
जान ग्रे की बहू चर्चित पुस्तक “Why mars and venus collide
?” में आदमी और औरत में पारस्परिक कलह व टकराहट होने के मनोवैज्ञानिक कारणों
की समानता व समरूपता इस कविता में स्पष्ट नजर आती है। उदाहरण के तौर पर, नैसर्गिक
प्रेम वृक्ष के उजड़ने,वासना रूपी
अरण्यों के घनीभूत होने,विश्वास के पहाड़ों के किनारों का ढह जाने, नर्म बलुई मिट्टी जैसे अहसासों के खुरच जाने, कोमल भावों
के जल-स्रोतों के सूखने के साथ-साथ पग-पग पर जहां बेवजह बंधनों का बोझ अगर किसी
स्त्री पर डाला जाता है तो दुनिया की जब कोई भी औरत अपनी अस्तित्वहीनता अनुभव
करेगी तो अशांत मन,कराहती
वेदना,षड्यंत्र का
शिकार बनती तथा ‘कुडाघर’ के रूप
मान-सम्मान पाती उस औरत के पास सिवाय बिफरने के और क्या रह जाता है ऐसे ही कारण
जान ग्रे ने अपनी पुस्तक "व्हाय मार्स एंड वीनस कोलाइड’ ?" में दर्शाए
हैं। स्त्री विमर्श’ के रूप में
ये दोनों कविताएं अच्छी बन पड़ी है।
आशाजी की कविताओं में
सिर्फ निराशा,नकारात्मकता,वेदना या विक्षोभ नहीं, बल्कि आशा,जिजीविषा,मनुष्यत्व
की जीत एवं शुभ्र-विश्वास भी उनकी कविता का लक्ष्य हैं। इस कविता-संग्रह में एक और
चेतना के स्वर ज्यादा मुखरित होते हुए नजर आते हैं, वे हैं भ्रष्टाचार और वर्तमान सिद्धांतविहीन राजनैतिक
व्यवस्था के खिलाफ आवाज बुलंदी के। मगर बात भी यह सत्य है, इन कविताओं के माध्यम से हमारे देश में न तो
भ्रष्टाचार कम होने वाला है और न ही राजनैतिक व्यवस्था में सुधार। जब किसी कुएं
में 'भ्रष्टाचार' की भांग
घुली हो तो पीने वाले हर किसी व्यक्ति नशे का शिकार हो जाता है,इस अवस्था
में धूमिल की 'रोटी और संसद' और नागार्जुन की 'क्या कह
दिया मैंने ?" जैसे प्रखर राजनैतिक चेतना कविताओं की तरह कवयित्री अपनी कविताओं जैसे ‘जमीर की मौत’,‘अर्थ के दल
दल में’,‘जिस देश की
राजनीति’,‘जानते हो ना
तुम’,‘जाने कहाँ
से लग गया’, ‘व्यवस्था के
समानांतर भ्रष्ट’,‘अर्थ के
ठंडे मौसम’ के द्वारा
संवेदनशील पाठकों के सोए हुए जमीर को जगाने, अर्थ के दल-दल से उबारने, जनता की सिसकियों की थाप को अनसुनी करने वाली भोग
विलास से ओत-प्रोत राजनैतिक व्यवस्था को समूलरूप से उखाड़ फेंकने, देश के सुंदर
भविष्य को आहत होने से रोकने के लिए आरक्षण जैसे दीमक बॉबी को तोड़ने और कलियुग की
लपेट में आए शापित इंसान के खून को उद्वेलित कर अपने प्रतिबद्ध सामाजिक
उत्तरदायित्व का निर्वहन करती है।
‘जमीर की मौत से’ कविता की कुछ पंक्तियाँ : -
चंद सिक्कों के बोझ तले
दब जाती आवाजें आदम
बाजारवाद की दुनिया में
सबसे सस्ता आदमी का जमीर
जाने कहाँ खोया है
‘अर्थ के दल-दल’ कविता से :
-
कैसा कैसा
अर्थ के दल-दल में
आदमी
जितना उठ रहा ऊपर
धँसता जा रहा
उतना ही नीचे की ओर
‘अर्थ के ठंडे मौसम से’ कविता में : -
किसी भी मौसम का
मान-सम्मान इमान
सब कुछ पैसा है
समय शापित है भाई
इंसान का क्या कसूर
कलियुग की लपेट में
आए हुए है
हम सभी
उपरोक्त कविताओं में ‘आतंक की औलाद’,‘बीमार अर्थशास्त्र’,‘दमघोटू
साहित्य’,‘तिल तिल
मारता स्वर्णिम इतिहास’,‘स्वार्थ का अंधा शीशा’ जैसे शब्दों के प्रयोग ने उनकी काव्यात्मकता में प्रखर निखार लाया है। वह
कविता को सिर्फ शब्दों का आडंबर बना देने के पक्ष में नहीं हैं। उनका मानना है
कविता में जीवन का प्रवाह होना चाहिए। नैसर्गिकता होनी चाहिए, जीवंतता
होनी चाहिए। और सबसे बड़ी बात तो कविता को सरल होना चाहिए,सर्वग्राह्य
होना चाहिए। जो इनकी कविताओं की खासियत हैं।
आशा पांडेय
ओझा की कविता ‘केवल स्त्री’,‘राजनीति’, या ‘भ्रष्टाचार’ पर ही
केन्द्रित नहीं है उनकी कविताओं में वैविध्यता है, प्रेम की विविध अनुभूतियों का भी चित्रण है। नन्द
भारद्वाज जी ने इस कविता-संग्रह की भूमिका में लिखा है, इसकी कविताओं में एक और महत्त्वपूर्ण पहलू है – वह है – मानवीय
प्रेम की व्यापकता का निरूपण। सामान्यतया प्रेम विषयक कविताओं में स्त्री पुरुष के
रागात्मक संबंधों को ही स्पर्श किया जाता है, मगर यहाँ प्रेम की परिभाषा का दायरा अत्यंत ही
विस्तृत है।
‘इनके हाथ कहाँ से लगी प्रेम किताब’,‘प्रेम का
संत’,‘क्या वह
लड़की प्रेम में है इन दिनों ?’,‘प्रेम महानगर हो गया’ आदि कविताओं में प्रेम की विविध स्वरूपों की व्यापकता को विस्तार देने के
साथ-साथ समय के अनुरूप प्रेम अनुभूतियों में आ रहे सूक्ष्म परिवर्तनों तथा उनके
कारणों पर कवयित्री अनुसंधान करती नजर आती है। ‘दहकते पलाश के जंगल’,‘फागुन की बावरी हवाएँ’, ‘हुड़ड़ हुड़ड़
बंता याद का अंधड़’, ‘पपीहे के
कलेजे में उठती हूंक’, तथा ‘फूल की
काँटों से जख्मी होती पगली तितलियाँ’ आदि चमत्कृत शब्दों में वह प्रकृति प्रेम की नैसर्गिक अनुभूतियों की खोज
करते है तभी तो वह कहती है उन्हें प्रेम की किताब कहाँ मिली ? फिर कैसे
उनमें शाश्वत प्रेम की सारी अनुभूतियों झंकृत हो रही है ?
“क्या ये
लड़की प्रेम में है इन दिनों ?” में कवयित्री ने तरुणावस्था में प्रेम के लक्षणों का प्रेक्षण करने का
प्रयास किया है। उदाहरण के तौर पर बेचैनी से काटने वाली रातें अन्यमनस्कता,कमरे की
चारदीवारी में छुपकर बैठने की आदत,आकाश बादलों में अपने प्रियतम के अक्स को तलाशना,चाँदनी रात में आलिंगन का अहसास,हवाओं में
किसी की खुशबू का अनुभव,हर अंजान आहट पर एक अकुलाहट,कभी समाधिस्थ तो कभी सिसकते चेहरे की डबडबाती आँखों में तैरते अनगिनत ख्वाब,बात-बिनबात
चहकना,छत के
मुंडेर से देर-सवेर झाँकते रहना क्या किसी लड़की प्रेम-दिनों के लक्षण नहीं है ?
अगर
उपर्युक्त लक्षण समय के साथ अपना रूप बदलने लगे तो आप क्या कहेंगे ? आप जरूर
कवयित्री की कविता ‘प्रेम
महानगर हो गया’ ये सहमत
होंगे। आधुनिक युग में जब किसी महानगर में किसी के आदमी के पास अपने अड़ोस-पड़ोस से
मिलना तो दूर, उनकी तरफ
झाँकने तक का समय नहीं है तो प्रेम-संवेदनाओं की क्या बात की जाए? आधुनिक
बदलते परिवेश में प्रेम अनुभूतियाँ भी अपनी पारंपरिक और नैसर्गिक राह को बदलकर नए
शार्टकट रास्ते बना रही है,जैसे कि व्हाट्सअप में ‘गुडनाइट’ मैसेज को ‘जी एन’,‘टेक केयर’ को ‘टीसी’, आदि से लिखा
जाता है।इस परिवेश में कल्पनाजन्य भावुकता क्या मायने रखती हैं? अधिकतर
महानगरों में न कोई सरोवर का सुरम्य तट है, न ही ज्योत्स्ना विहार, न ही मेघदूत की कोई अवधारणा है और न ही समुद्री लहरों
का आकर्षण। न फूल लुभाते हैं,न ही प्रेमी की छुअन शरीर में कंपन पैदा करती है और न ही किसी
में ऋत्विक् नई उमंग दिखाई देती है। जिंदगी को जद्दोजहद में इन सारी भावनाओं का
ठहराव, दौड़ता भागता
महानगर नहीं है तो और क्या है ?
प्रेम का एक
और रूप कवयित्री ने इस कविता-संग्रह में प्रस्तुत किया है वह है देश-प्रेम। अपनी
कविता ‘देश प्रेम
में मिट जाते हैं तो’ कविता में
उन माताओं,बहिनों,प्रेमिकाओं,पत्नियों और
बेटियों की खुशनसीबी व गर्व से सीना फूलने वाली अनुभूतियों अवर्णनीय है,जब कोई
सैनिक सरहद पार जाते समय नजर झुकाकर कहता है,शायद और नहीं लौट पाऊँ,मुझे माफ कर देना ...जन्मभूमि के फर्ज के सामने आप
लोगों के प्रति मैं अपना
फर्ज और न निभा पाऊँ। यह कथन सुनकर किसी संवेदनशील पाठक के नयन डबडबा जाएंगे तो उस
देश प्रेमी परिवार के परिजनों पर क्या गुजरती होगी? वे अपने सीने पर पत्थर रखकर किस तरह उन्हें विदा देते
होंगे ?
आशाजी की
कविताएं क्षणिक भावुकता जगाने वाली नहीं है कि बस एक कविता पढ़ी और रो पड़े! एक
कहानी पढ़े और विचलित हो गए! बाद में फिर वैसे के वैसे! उनकी कविताएं स्थायी भाव की
कारक है,जिसे पढ़ने
के बाद हमें बाहरी दुनिया की पीड़ा समझ में आने लगे और हम उसके यथार्थ के प्रति
विचलित होने लगे।
"वसुधैव कुटुंकंब" की अवधारणा
का अनुकरण करती हुई कवयित्री की कविताएं देश-प्रेम से और ज्यादा व्यापी व
विस्तृत ईश्वरीय सत्ता के प्रति प्रेम का प्रदर्शन करती हुई अध्यात्मवाद की ओर ले
जाती है। जिस तरह गीता में कृष्ण भगवान अपनी उपस्थिति अदिति के बारह पुत्रों में
विष्णु में,खगोलीय
पिंडों में सूर्य में,उनचास वायु
देवताओं में मरीचि में, वेदों में सामवेद, देवताओं में इंद्र, इंद्रियों में मन, प्राणियों में जीवन, पेड़ों में पीपल, रुद्रों में शंकर, अक्षरों में ॐ, मंत्रों में
गायत्री, अग्नि में
तेज,आयुधों में
वज्र आदि में दर्शाते हैं, इस तरह ‘अब ना
ढूंढ़ेगी’ कविता में
मार्क्सवादी विचारधारा की चादर ओढ़े कवयित्री ईश्वर को मंदिर,मस्जिद,गिरजाघर और
गुरुद्वारे में नहीं ढूंढ़कर मजदूरों के गेंती फावड़ों में, शिल्पियों के छैनी हथौड़ों में, पथभ्रष्ट
होते शिष्य को शिक्षक की शिक्षा में, भूख की आकुलता में, प्रौढ़ अंधे की लाठी बनी तरुणी के रूप-लावण्य में, अनाथाश्रम में अनंत ममता लुटाती माँ के ममत्व में, जिंदगी और
मौत से जूझ रहे व्यक्ति को बचाने के लिए रक्तदान करते युवक के रक्त में, किसी अबला
की अस्मत बचाने के खातिर पत्थरों से लहूलुहान हुए वृद्ध आदमी के हृदय में प्रेम और
इंसानियत को अक्षुण्ण रखने वाली आत्मा में खोजती है। यहीं कृष्ण के उपदेश “मत्स्थानि
सर्वभूतानि” तथा “सर्वभुतेषू
य पश्यति स पंडित:” सार्वभौमिक
सत्य को दूसरे शब्दों में उजागर करता है। साथ ही साथ, कबीर की पंक्तियाँ सहसा याद हो उठती है : -
ना मैं मंदिर /ना मैं मस्जिद / न
काबे कैलाश में
खोजी होतो तुरंत / मिलियों इन साँसों की सांस में
कवयित्री का बचपन धार्मिक संस्कारों से ओत-प्रोत
ब्राह्मण परिवार में गुजरा है,जहां गीता को बार-बार पढ़ा जाता है,बचपन के बिंदुरूपी संस्कार “हम एक वस्त्र मात्र” कविता में जीवन-मृत्यु का विराट दर्शन गीता के
संदेश “वासांसि
जीर्णानि यथाविहाय नवानि गृहा नवोपराणी” के रूप में हमारे समक्ष सामने आते है। कविता की पंक्तियों से यथा : -
हम एक वस्त्र मात्र
वह बदल बदलकर
पहनता हमें
समायांतर
अपनी सृष्टि की
आलमारी में टांग कर
कवयित्री सही अध्यात्म की पक्षधर है,मगर
अध्यात्मवाद के नाम पर फैलाए जा रहे ढकोसले व पाखंड का वह घोर विरोध करती है। यहाँ
तक ‘असतो मा
सदगमय, तमसो मा
ज्योतिर्गमय’ के बड़े-बड़े
प्रवचन व उपदेश देने वालों के दीयों तले अंधेरे के राज का पर्दाफाश करती है,अपनी कविता ‘अँधेरों के
सामान में’ : -
वहाँ मिलेगा
अँधेरों का तमाम सामान
चरस,गांजा,भांग
बियर,वियाग्रा,निरोध
भगवा वस्त्रों की आड़ में
जो खुद ढोते
अनगिनत अंधेरे
वह कैसे ले जाएगा
तुम्हें रोशनी की ओर
इस तरह 'बंधनहीन' कविता में
गृहस्थाश्रम से भगोड़े मोक्ष के इच्छुक लोगों को धिक्कारते हुए कवयित्री कहती हैं:-
निभा न सके/ अपने दिए
छोटे-छोटे वचन/ निभाने चला/
ईश्वर का पालने का प्रण
अचंभा !
इस प्रकार
कवयित्री की कविताओं में शाश्वत सत्य या कहें कि शाश्वत
मूल्यों का विशेष महत्त्व है,किन्तु अपने समसामयिक युग की उपेक्षा उन्होंने नहीं की है। वह इस बात को
स्वीकार की है कि सामयिकता की उपेक्षा करके कोई भी कवि या कवयित्री समाज के लिए
कल्याणकारी साहित्य का सृजन नहीं कर सकती। तभी तो उन्होंने ‘लाइलाज’,‘दर्द की झील’,‘उपयुक्त
शब्द’,‘अंत तक
लड़ूँगी’,‘अपराधमूलक’,‘संस्कार’,‘पूछ रहा
अंतस मेरा’,‘क्यों दौड़
रहे हैं मेघ’ आदि
समसामयिक कविताओं की रचना की हैं।कविताएं छोटी अवश्य है, मगर गागर में सागर भर देने वाली विषयवस्तु को उजागर
करती है। तरुणी वृदधा का दर्द,उपयुक्त शब्दों का अनुपयुक्त जगह प्रयुक्त होना,मन को अवसाद स्थिति से उबारना,आकाश में भी
रक्त-पिपासु आतंकवादियों को देखकर त्राहि-त्राहि करते दिशाविहीन भयभीत होकर बादलों
का भागना तथा विपत्तियों के अँधेरों से अंत तक लड़ने का प्रण लेना आदि पता नहीं किस
-किस विषयवस्तु पर कवयित्री की दृष्टि नहीं गई है।
विशिष्ट साहित्यकार डॉ॰
कृष्णकान्त पाठक के कथन “इस काव्य संग्रह में कुछ कविताएं ऐसी है जिन्हें कवयित्री ने आंसुओं से
लिखा है” से सहमति
जगाता हुआ उन कविताओं के नाम सामने रखना चाहूँगा,जिसमें ‘दोहरी मानसिकता’,‘अंतवासिनी वेदना’,‘भूल गई हूँ’,‘थक गया दर्द’,‘जख्मी मन के
पाँव’,‘जुदाई की
सलवटें’, ‘स्मृतियों
के पल’ और ‘क्षण
प्रतिक्षण’ शामिल हैं।
इन कविताओं को पढ़ते समय चित्रवीथिका से होते हुए पाठक जीवन और जगत की संकरी गली से
गुजरते हुए एक बड़े भवन के झरोखे के दृश्य की तरह अपने जीवन के यथार्थ चित्र को
आत्मसात करने लगता हैं। इन सारी कविताओं को लेकर निष्कर्ष के खाँचें में ज्यों ही
में कैद करने जा रहा था कि मेरा मन और दो कविताओं पर अटक गया।
पहली कविता ‘बेचती गई
खुद को’ ”बच्चों के
पढ़ाई के खातिर/मूल्य लालटेन का नहीं जुटा पाई जब वह / बेचती गई खुद को/ रोशनी के
लिए/ अंधी हो गई” दूसरी कविता
थी ‘रात का आँचल’। इस कविता
में एक माँ जब घर में लड़का,लड़की में अंतर बरतती है तो कवयित्री के मन में एक टीस-सी पैदा हो जाती है :
-
इकलौता
चाँद/ कभी-कभी करा ही देता/ मेरे लड़की मन को / यह आभास /जैसे बहुत सारी / अनचाही
बेटियों पर / पाकर इकलौता बेटा / इतरा इतरा लाड़ लड़ा रही है उसे /माँ रात’
अंत में, मैं इतना कह सकता हूँ कि ये कविताएँ मखमली गिद्दों पर बैठकर वातानुकूलित
कमरों में अकेले नहीं लिखी गई होंगी, बल्कि इन कविताओं का जन्म घर,चौराहों और खुली सड़कों और देश ,समाज में घट रही जिंदगी के यथार्थ
के साथ उनके पास चलकर आई हुई अनुभूतियों के बिंबों की नींव पर निर्मित हुआ है। कवयित्री की भाषा स्वच्छ,सहज और सरल है। उसमें कहीं कोई उलझाव नहीं है। छंदों का घटाटोप भी नहीं है।
कहीं-कहीं लोक-धुन ‘प्रेम पगे’ जैसी अवश्य नजर आती है। इनकी
कविताओं में कहीं भी न तो अर्थहीनता नजर आती है और नहीं कहीं सम्प्रेषण की जटिलता
के वर्तुल।साधारण बोल-चाल की भाषा का इस्तेमाल,हिन्दी-उर्दू के शब्दों के स्वाभाविक मिश्रण का प्रयोग,बात कहने का चुटीला अंदाज,हर दृष्टि से कवयित्री के
भाव-विचार कविताओं के माध्यम से सीधे पाठक के अन्तर्मन में प्रविष्ट होकर स्पंदन
करते हैं। प्रभाव के आधार पर उनकी कुछ कविताएं नुकीली,तो कुछ मारक,तो कुछ उत्प्रेरक हैं। उनका काव्य मात्र सामाजिक
चेतना तक ही सीमित नहीं है वरन जीवन-दर्शन, अध्यात्म, आस्था, विश्वास, पाखंड-खंडन तथा यथार्थता को भी उन्होंने काव्याभिव्यक्ति प्रदान की है।
कविताएं शिल्प की सहजता को स्वीकार करती हुई आगे चलती जाती हैं,इसलिए वे बोझिल नहीं है, लटकाती व भ्रमाती भी नहीं
है।
कुल मिलाकर
इस काव्य-संग्रह के लिए ऐसा कहा जा सकता है : -
1 – उनकी कविताएं विशेषकर
नारी-चेतना पर केन्द्रित है ।
2 – उनकी कविताओं में
मार्क्सवादी सामाजिक चेतना का गहरा बोध छलकता है। जिसमें मूल स्वर आस्था,जिजीविषा,संकल्प,निष्ठा और
सामाजिक प्रतिबद्धता के है।
3 – प्रगतिशील विचारधारा होने के
कारण सामाजिक विषमता और मानवता के प्रति अन्याय व अत्याचार कवयित्री के संवेदनशील
हृदय को झकझोरता है।
4 – समाज से भ्रष्टाचार उन्मूलन
के साथ-साथ राजनैतिक व्यवस्था में सुधार लाने की एक तड़प भी इनकी कविताओं में आसानी
से देखी जा सकती है।
5 – कुछ कविताओं में प्राकृतिक
सौन्दर्य के साथ-साथ अध्यात्मवाद व जिज्ञासा तत्त्व को उजागर
करने के लिए कवयित्री ने प्राकृतिक बिंबों का भरपूर प्रयोग हुआ है।
कहना न होगा,आशा की
कविताओं की मूल प्रवृत्ति नव-प्रगतिवादी है। यह अवश्य है,उनका दृष्टिकोण एकांगी नहीं है। उन्होंने जीवन और जगत
को यथार्थ रूप से देखा है,किसी खास चश्मे से नहीं। इसी कारण इनके काव्य संसार में जीवन की अवधारणाओं
के अधिकांश संपुट देखने को मिल सकते है। इन कविताओं सृष्टि के पीछे अवश्य
अंतःप्रेरणा है, और
अभिव्यक्ति के अदम्य इच्छा। चूंकि कवयित्री अपनी अभिव्यक्ति के अभिप्रेत के
सम्प्रेषण में सफल है, जो उनकी
रचनात्मकता की सार्थकता को सिद्ध करती है। कवयित्री का उद्देश्य कविता की कला को
चमकीली गलियों में भटकाना नहीं है,वरन युग सत्य की अभिव्यंजना करना है। उनका मानना है कि यदि कवि बनना है,कविता लिखना
है,तो परंपरा
से आगे निकल कर चलो। कुछ नया सीखो। कुछ नई बात बोलो। जैसे कि एक कहावत है ‘पूत के पाँव
के पालने पहचाने जाते हैं” की तर्ज पर मैं सिर्फ इतना ही कहूँगा कि आगे जाकर कवयित्री की काव्य
उपलब्धियां हिंदी साहित्य में विशिष्ट व उल्लेखनीय स्थान अवश्य प्राप्त करेंगी।
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