सपना मांगलिक की चार कविताएँ
सपना मांगलिक |
एक दिन और कटा
तुतलाते बालक सा दिन
अभी उगा, अभी बढा
यौवन की दुपहरी में
क्षण भर को थमकर
स्रष्टि को निहारा
और फिर...
शाम की बेला में
बूढा सा मन लिए
सूरज के साथ
जा छिपा पहाड़ों में
अस्तित्व को अपने मिटा
एक दिन और कटा ।
अवकाश
बोझिल-बोझिल
मन की शिराओं के भीतर
तेजी से दौड़ते हुए खून में
अनुभूतियों का असंतुलन
ठीक जैसे ,अनावश्यक पुरानी फाइलों का ढेर
किसी अधेड़ क्लर्क की टूटी टेबल पर
साढ़े तीन बजे के उबाऊ वक्त पर
फेंक कर कोई चला गया हो
और दे गया हो उन्हें जल्द निबटाने की हिदायत
और वह क्लर्क भुनभुनाते हुए
उन फाइलों को यहाँ से वहां पटकता
कभी काम तो कभी बॉस को कोसता
बार-बार घडी को देखता है
कि अवकाश में अभी कितना वक्त और है
ठीक वैसे ही मन बार-बार
गुस्से में बहते लहू को
कभी इस शिरा तो कभी उस शिरा में
ताबड़तोड़ धकेलता ऊब जाता है
थक जाता है
और अपनी जैविक घडी को बार –बार
ताककर करता है
अवकाश का इन्तजार
एक लम्बे सुकून भरे अवकाश का इन्तजार ।
बदलता मौसम
कुंठा के राहू ने जकड लिया जैसे
कर्मशील सूरज
इधर उधर बिखर गयी
संत्रासी धूप
बरसाती अवसर
अवसादी धरती पर
छाप रहा
संदर्भी बादलों के विज्ञापन
पूर्वाग्रही हवायें फैलाती
लोकल पेपर सी उलझनें
बदनामी के भय ने जकड़ लिया सूरज
इधर उधर ढूंढता फिरे वह अब
तकल्लुफ के दरवाजे
खटकाते खटकाते
लौट गयी सच्चाई की ऋतु
समझौते के दबाब पर
खिले अर्थों ने छोड़ दिया
गंधहीन शब्दों का साथ
हरियाली के सन्दर्भों को लिखा
शबनमी योजनाओं में लिया
व्यवस्था के पाले ने तूप
देखो फिर से इधर उधर
बिखर गयी संत्रासी धूप ।
वृष्टि
जिस बदरी से वृष्टि की
हम आस किया करते थे
उस बदरी ने बन बिजली
हम पर गाज गिरा दी
खिलता महकता उपवन सा
घर कभी हुआ करता था
खिलते उस घर उपवन में
धू धू करके आग लगा दी
समझ ना पाया व्याकुल मन यह
खता हुई क्या उससे
क्यों कुल के दीपक ने ही
कुल की चिता जला दी ।
सपना मांगलिक
एफ-६५९ कमला नगर
आगरा -२८२००५
०९५४८५०९५०८
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