Saturday, December 12, 2015

बनगंगी मुक्त है : ठेठ ग्रामीण क्रांति का दस्तावेज़

आलेख
बनगंगी मुक्त है : ठेठ ग्रामीण क्रांति का दस्तावेज़
अनिल कुमार एन.
ग्रामीण संस्कृति के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. विवेकी राय की रचनाओं में माटी की सौगंध रमी हुई है। बदलते ग्रामीण रूप-भावों को वे अर्थ शताब्दी से अनुभव करते रहे हैं और अपनी कृतियों में अभिव्यक्त करते रहे हैं। स्वतंत्रता के पश्चात् देश की राजनीति से प्रभावित और बदलते सामाजिक, पारिवारिक, सांस्कृतिक परिवेश का चित्रण उनकी कृतियों में यत्र-तत्र मिलता है। ग्राम्य जीवन की अनूठी रचना लोकऋण, जिसे नए नाम बनगंगी मुक्त है के नाम से प्रकाशित है, इसका सक्षम प्रमाण है।
लोकऋण उत्तर प्रदेश-बिहार के गाँवों की जिंदगी का अत्यंत प्रामाणिक एवं जीवंत चित्रों का मर्मस्पर्शी चित्रण है। डॉ. रायजी से पहले प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों और कहानियों में ग्रामीण गाथा का यथा तथ्य चित्रण प्रस्तुत किया था। कालांतर में नागार्जुन, फणीश्वरनाथ रेणु, शिवप्रसाद सिंह, रामदरश मिश्र, श्रीलाल शुक्ल आदि ने भी गाँवों की ज़िंदगी का वर्णांकन किया। लोकऋण मुख्यतः स्वातंत्र्योत्तर भारत के गाँवों में फैले तनावों की समग्र अभिव्यंजना का दस्तावेज़ है। यहाँ सभ्यता और संस्कृति के द्वंद्व परिवेश अपने आप बदलते दिखाई पड़ते हैं। उपन्यास में चरित्रों, घटनाओं एवं स्थितियों का स्वाभाविक परिवर्तन देखने को मिलता है। वृंदावन बाबू के रूप में विवेकी राय स्वयं कह उठते हैं— गाँव में न नरक है, न स्वर्ग है। ये सब फालतू मानदंड हैं। गाँव में सिर्फ परिवर्तित गाँव है। परिवर्तन सिर्फ इतना हुआ कि आर्थिक सुधार की धावाधूपी में उसका जीवन-सौंदर्य नष्ट हो गया है। ...सभ्यता के धक्के से संस्कृति चूर-चूर हो रही है। सभ्यता का केंद्र नगर है और संस्कृति का केंद्र गाँव है। तो अपने केंद्र से खिसका गाँव अपने समूचे अस्तित्व के साथ इस समय आर्थिक मोर्चे पर लड़ रहा है। निश्चय ही यह अवधारणा एक स्वाभाविक औपन्यासिक अनुभव का ऊँचा स्तर प्रदान करती है।
आज गाँवों का परिवेश बड़ी रफ़्तार से बदलता दिखता है। इस परिस्थिति में गाँवों को उपन्यास के फ्रेम में मढ़कर सफ़ल होना उतना आसान काम नहीं है। आजकल ग्रामभित्तिक उपन्यास ही एक प्रकार से अप्रासंगिक बन रहा है। लेकिन शिल्प एवं कथ्य की प्रौढ़ता व समृद्धि की दृष्टि से जल टूटता हुआ, आधा गाँव, अलग-अलग वैतरणी, राग दरबारी, बबूल जैसे उपन्यासों ने अपना-अपना नाम कमाया ही है। इन उपन्यासों के केंद्र में उभरा सामान्य विचार यह कि आज गाँव नरक हो गया है। इसलिए ही संवेदनशील एवं समझदार व्यक्ति को अपने गाँव से विदा लेना ही पड़ता है। श्री वेदप्रकाश अभिताभ के अनुसार “‘लोकऋण गाँव के प्रति इस निराशावादी और पलायनवादी मुद्रा को तोड़ने का संभवतः पहला महत्वपूर्ण प्रयास है। इसका केंद्रीय चरित्र भागने के बजाय मरते हुए गाँव को जिंदा रखने का इरादा करके गाँव की ज़िंदगी में जान बूझकर धँसता है।
देश का अभिशाप है कि गरीब को हमेशा गरीबी के पाताल में गिरता रहना पड़ता है। गाँव की मेहनतकश आम जनता को संपन्न वर्गों द्वारा शोषित रहना पड़ता है। जिन्हें संघर्ष करना है, उन्हें संघर्ष करने का तरीका भी मालूम नहीं। उपन्यासकार के लिए शोषण सबसे घृणित बात है। सबसे पड़ा पाप गरीब और कमजोर होकर समर्थ धनियों का आहार होना है। इस गाँव में वह जब से होश हुआ देख रहा है कि ज़मीनवाले और बटोसे के लिए क्या-क्या नहीं कर्म-कुकर्म करते हैं। लोकऋण उपन्यास की यही शक्ति है कि यह ग्रामीण मेहनतकश आम जनता के शत्रुओं को खुला दिखाकर गाँव की अव्यवस्था के कारणों को समझाता है, मोर्चा बंदी करता है।
आज भौतिक विकास के कारण गाँव उन जीवन मूल्यों से छूट हो गया है जिनपर ग्रामीण जीवन की भव्य इमारत खड़ी थी। लोकऋण में ग्रामीण जीवन की समस्त समस्याओं का कटु भाषा में विश्लेषण कर इनसे बचाने का सफल प्रयास किया है। गिरीश इसलिए स्वीकार करता है, जा गिरीश, ईश्वर तुझे नहीं बख्शेगा तुम्हारे ही गाँव छोड़ते पुस्तकालय टूट गया। तुम्हारी निष्ठा से सात आठ वर्ष में एक सजीव बौद्धिक वातावरण बन गया था। वह जब जब गाँव आता है उसका आहत मन गाँव से शहर की ओर भागता है और वह शहर में बसने की बात सोचने लगता है, और इसी गाँव में अवकाश प्राप्त कर मुझे रहना है! नहीं, यह संभव नहीं, मरा गाँव अब गले नहीं उतर रहा है।कई बार वह यह निर्णय कर लेता है और अंत में रामपुर का सभापति बनना स्वीकार करता है— रामपुर के पुनः जीवन के लिए। गाँव की दुर्दशा के लिए वे लोग ज़्यादा जिम्मेदार हैं जो उच्च शिक्षा प्राप्त कर गाँव से भाग गये तथा ग्रामीण जीवन से विरत हो गये।
अन्य ग्रामभित्तिक उपन्यासों के समान लोकऋण में भी दरिद्रता, कलह, चोरी, मुकदमेबाजी, अशिक्षा, ज़मींदारों के अन्याय, अत्याचार, निंदा, स्तुति आदि का वर्णन भरपूर मिलता है। स्वातंत्र्योत्तर भारत के गाँवों का सच्चा स्वरूप उपन्यास से ज़रूर मिलता है जैसे चकबंदी, पंपिंग सेट, ट्रान्जिस्टर, पुस्तकालय, चाय-कॉफी, राजनीति आदि। श्री निशंक के शब्दों को उधार लें तो बनगंगी पोखरे की शारदी साँझ से प्रारंभ होने वाली यह कहानी बनगंगी महादेव के मंदिर के अंतिम दृश्य तक पहुँचते-पहुँचते माटी की गमक में आकंठ डूबे लेखक की प्रतिबद्धता को ही उजागर नहीं करती, उसके आस्थावादी आशावाद को भी कलात्मकता के साथ रूपायित करती है। बेहिचक समर्थन कर सकते हैं कि लोकऋण एक स्वाभाविक, सीधा-सादा, ईमानदार, साफ-सुथरा एवं ठेठ जीवंत कृतियों में महत्वपूर्ण स्थान के लिए पर्याप्त है और एक सरल-सहृदय पाठक के लिए इसमें बहुत-कुछ है।

संदर्भ ग्रंथ सूची:-
लोकऋण –- डॉ. विवेकी राय, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी
लोकऋण : बनगंगी मुक्त है (समीक्षा) –- टूटते हुए गाँव का दस्तावेज, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, सं. सर्वजीत राय
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अनिल कुमार एन., कर्पगम विश्वविद्यालय, कोयंबत्तूर, तमिलनाडु में डॉ. पद्मावती अम्माल के निर्देशन में शोधरत हैं।

Friday, December 11, 2015

‘पीली आँधी’ – विवाह के विधान तथा अर्थशास्त्र के सरोकार की तीसरी आँख

पीली आँधी – विवाह के विधान तथा अर्थशास्त्र के सरोकार की तीसरी आँख

-          सिजी सी.जी

ईश्वर की अमूर्त सृष्टि स्त्री की तहत्, आज इस आधुनातन युग में उत्कृष्टतम स्तर तक पहुँच तो गया है। किंतु पुरातन से लेकर स्त्री के प्रति जो दृष्टि थी, उसमें ज्यादा परिवर्तन तो नहीं आया है। पुरुष स्त्री को सदा उसकी अनुगामिनी बनाना चाहता है। सहगामिनी का जो स्त्री रूप उन्हें हमेशा खटकता है। पुरुष जाति, चाहे ऊँचे श्रेणी हो या नीचे, वे स्त्री के दबित, दमित रूप पर ही ज़्यादा आकृष्ट है। उनकेलिए यह जाति केवल वंश परिपालन का एक साधन मातृ रह गया है। पुरुष प्रधान समाज के भीतर के अहं कभी भी स्त्री की कामियाबी को स्वीकारने को तैयार नहीं रहा। बहुत अरसे से स्त्री इन सभी हालात से समझौता करके अपने को सहेज दिया है। फिर भी इतिहास परखे तो हमें बहुत सारे स्त्री रत्नों का दृष्टान्त मिल सकते है, जो अपने को व्यक्ति की दर्जा पाने के लिए सभी – असूल – वसूल, कायदे – कानून, रीति – संप्रदायों एवं रूढ़ियों को उखाड़कर खड़ी हुई है। पुराण निरखे तो वहाँ सीता देवी नज़र आते है। अपने पतिदेव की सहगामिनी बनकर, हर सुख-दुख में साथिन बनकर भी उन्हें दुनिया के सामने आरोपित एवं अपमानित होना पड़ा। अपने मान सम्मान को ठेस पहूँचा तो वह सिर ऊँचा करके अपनी आक्रोश भरी वाणी सुनाई। पूरे रामायण में सीता का उत्कृष्ट एवं विराट रूप हमें यह दिखाते है कि स्त्री महज पुरुष की कठपुतली नहीं। इतिहास में मीराबाई में ही पहले – पहल स्त्री विमर्श का बीज़ नज़र आते है। अपने प्यार एवं स्वतंत्र जीवन के खातिर वे पूरे समाज के नज़रों में गिरकर भी वे अपने विचारों पर अटल रही।
आज स्थिति बदल गयी। स्त्री का स्थान चार दीवारी के अन्दर नहीं बल्कि दुनिया के हर कोने में हैं। फिर भी समाज का स्त्री के प्रति जो नज़रिया है, उनमें बदलाव की ज़क ज़रूरत है। इस मुद्दे पर अन्यत्र उपन्यास लिखे गये है। समकालीन अनन्या लेखिका प्रभाखेतान के सभी उपन्यास स्त्री को आत्मनिर्भर होने की प्रीरणा देनेवाली है। उनकी प्रसिद्ध उपन्यास पीली आँधी भी इसका दस्तावेज़ है।राजस्थानी सनातनी मारवाड़ी परिवार का यथार्थ चित्रण है यह उपन्यास। यह व्यावसायिक दुनिया के तनाव भरी ज़िन्दगी का बयान करता है। मारवाड़ी स्त्रियों को सिर्फ अपने साज-श्रंगार, गहने, वेशभूषा एवं खाने – पीने का फिकर है। शिक्षा एवं आर्थिक स्वतंत्रता से वंचित उन लोगों की ज़िन्दगी में दबाव एवं दमन ही नसीब है।
पीली आँधी उपन्यास में तीन पीढ़ियों का चित्रण है। मारवाड़ियों के सामाजिक जीवन के हर पहलुओं का यथार्थ अंकन में प्रभाजी कामयाब हो गयी है। इस उपन्यास में विधवा समस्या, बालविवाह, अनमेल विवाह, माँ बनने की अदम्य इच्छा; समलैंगिकी समस्या, वैवाहिक जीवन की विडम्बनाएँ, नाजायज़ रिश्तो से उत्पन्न तनाव, सनातनी मारवाड़ी परिवार की रीति रिवाज़ें, 1935-50 के प्रकोप के कारण पड़े अकाल का तथा महँगाई – गरीबी का, कोलियारी व्यवसाय का उतार-चढ़ाव तथा आर्थिक परिवेश का यथार्थ चित्रण इस उपन्यास में हुआ है। पीली आँधी इस उपन्यास के बारे में श्री अरविन्द जैन कहते है विवाह के विधान और अर्थशास्त्र को समझने की दिशा में यह सार्थक एवं महत्वपूर्ण है।1 इस उपन्यास का मेरूदण्ड पद्मावती है। आधुनिक विचारों से संपन्न, फिर भी पुराने संप्रदायों एवं संस्कृति को छाती से लगाकर पूरे संयुक्त परिवार को पूरे अनुशासन के साथ अपने अच्छे संस्कारों से घर को एक पवित्र मंदिर सा बनाती है। परिवार के सभी सदस्यों को एक धागे में बाँधकर सब के सामने एक आदर्श व्यक्तित्व ले कर वे खड़ी होती है। निस्संतान होकर भी अपने देवर के बच्चों को अपना सा प्यार देता है। वह अत्यन्त संवेदनशील प्रेममयी, अनुशासन प्रिय आदर्श के रूप में इस उपन्यास में नज़र है। भरी जवानी में विधवा होकर भी वह अपने को संयमित रखती है। अपने सीमित दायरे कभी भी वह उल्लंधन नहीं करती। कोलियारी व्यवसाय संभालनेवाला पन्नालाल सुराणा के पवित्र प्यार को वह परिवार के खातिर टुकराते है।
रुँगटा परिवार की छोटी बहु सोमा, वेलहम देहरादून से पढ़ी – लिखी एक खूबसूरत, शोख – प्रखर दिमाग लड़की थी। अत्यन्त परिष्कृत एवं उत्कृष्ट विचारोंवाली। अपने परिवार में उसे पूरे छूट मिली थी। वे स्वतन्त्र एवं आत्मानिर्भर रहना चाहती थी। धनी परिवार के रिश्ते से जब माँ – बाप खुश हो जाते है तब सोमा को गौतम अच्छी नही लगी। वह खुलकर कहती है। लड़का मैनली नहीं लगता। उसकी कमर कितनी पतली है?”2 ऐसा कहकर वह शादी से साफ इनकर करती है। मगर रजवाड़ों के ढाट के सामने माँ-बाप इनकार नहीं कर पाई। आधुनिक ढंग की जिन्दगी जीनेवाली सीमा को ससुराल के तौर-तरीके बिलकुल असहनीय लगा। फिर भी वह ससुराल की रहन-सहन में अपने को ढालने को प्रयत्न करती रही। वैवाहिक जीवन की खुशी के लिए हर तरह की समझौता करने के लिए वह तैयार होती है। मगर पति गौतम उसे टुकराते रहे। इस भरे-पूरे घर में वे बिलकुल अकेली हो जाती है। माँ बनने की अदम्य इच्छा से वह तड्पती रही। प्रोफसर सुजितसेन के प्यार में खोकर वह गर्भवति हो जाती है। इतने बड़े खानदान को छोड़कर पूरे मान-सम्मान एवं गरिमा के साथ बच्चे को जन्म देना चाहती थी। सोमा आम औरत की तरह दम घुट कर और तड़प-तड़प कर जीना नहीं - चाहती।
मारवाड़ी परिवारों की स्त्रियों की ज़िन्दगी महज़ साज - श्रृंगार, वेश-भूषा, गहनों से लपेटने में रही। इस दायरे से बाहर उनकी अपनी कोइ चिन्ता तथा कदम नहीं। सच में सब अन्तर से असंत्रप्त थे। अपने नज़रों के सामने पति के नाजायज़ रिश्तों को देख कर भी वह कुछ नहीं कर सकती। महज आँसु गिराना जानती है। परिवार की खुशी के खातिर खुद की जिन्दगी को नकारने की स्त्री नियति को इस उपन्यास में बखूबी चित्रित किया है। सोमा की माँ और गौतम के बड़े भाई की पत्नी भी, अपने पति के गैर रिश्ते से ना खुश है। हर स्त्री अपने औलाद के खातिर या समाज भय से सबकुछ सहने के लिए तैयार होते है। आर्थिक एवं शैक्षिक निर्भरता ना होने के कारण वे स्त्रियाँ पति के नाजायज़ रिश्तों से व्यथित होकर भी अनदेखा करती है। इन सब के बीच सोमा पात्र अपनी खुशी एवं हक पाने के लिए लड़ती नज़र आती है। सोमा नारी पात्र प्रभाजी के चरित्र के बिलकुल निकट है। स्त्री की नियति और उसके शोषण की प्रक्रिया तब तक रहेगी जब तक उसके प्रति सामाजिक व्यवस्था में अमूल परिवर्तन नहीं होता। इस उपन्यास में पति को परमेश्वर मानकर बच्चों की परवरिश में अपनी पूरी जिन्दगी निचोड़नेवाली नारियों का भी चित्रण हैं।
सुजित सेन की पत्नी चित्रा इस उपन्यास में एक गौण पात्र होकर भी अपने पृथक व्यक्तित्व से सब के दिल में एक जगह पा सकी है। शिक्षित चित्रा जब पति की गैर-रिश्ते से अवगत हुआ तो पहले उसे बुरा लगा और दुख भी। मगर गर्भवति सीमा को वह अपने घर में आश्रय देती है। चित्रा ने ही उसी बी.एड़. की परीक्षा दिलवाई और फिर कॉलेज की नौकरी भी। जब सोमा चित्रा से पुछती है की सुजित की छोड़ने का तुम्हें दुख नहीं? तब वह कहती है कि हाँ दुःख तो हुआ था। सुजीत को घोखेबाज़ कहा था। फिर बाद में लगा कि यह धोखा तो मैं स्वयं को दे रही है। जब प्रेम ही नहीं, तब किस बात की जलालत? प्रेम की भीख नहीं माँगी जाती। मेरा अपना कोई आत्म-सम्मान नहीं? और फिर यह किस शास्त्र में लिखा है कि किसी से प्रेम करो तो ताउम्र करते जाओ।3 इस कथन में चित्रा की स्पष्टता, आत्मसम्मान, मान-गरिमा एवं आत्मनिर्भरता सब झलकते है। ऐसा श्रेष्ठ एवं ऊँचा सोच उसे त्याग के उत्कृष्ट शिखर तक पहूँचाती है। ऐसा आत्मदान सब की चिन्तन में नहीं हो सकता। चित्रा ने यह विचार कर अपने आप को संभाला है कि शाश्वत प्रेम किसी के बीच नहीं हो सकता। यह कल्पना महज एक आत्म सम्मोहन है। पूरे उपन्यास में मातृ चित्रा और सोमा ही शिक्षित – कामकाजी स्त्रियाँ है।
यह उपन्यास मारवाडी समाज के विस्थापन के दर्द को प्रस्तुत करते है। इसमें तीन पीढ़ियों की औरतें है जो अपने संघर्षमय, त्रस्तमय जीवन से रुबरु कराती है। इस उपन्यास की सोमा, सामाजिक, पारिवारिक रूढ़ी बंध मान-मर्यादा, नाक और नैतिकता की देहरी लाँघकर नज़र आती है। प्रभाजी ने सदियों से दबी कुचली स्त्री की चुपी को तोड़ना चाहती थी। परंपरागत स्त्री को परिवर्तित करके उसे सामाजिक, आर्थिक रूप में स्वतन्त्र करने का प्रबल कोशिश किया है। यह उपन्यास प्रमाणित करता है कि घर, परिवार, पति-बच्चे से हट कर भी स्त्री की दुनिया होती है, जो दुनिया उसकी अस्मिता, अस्तित्व एवं वजूद की है।
सारतः कहा जा सकता है कि प्रभाजी ने एक संपूर्ण नस्ल के संयुक्त परिवार का चित्रण करके राजस्थान के लोक जीवन की कहानी पर प्रकाश डाला है। मारवाड़ी स्त्री की बिखरती, टूटती, पिसती, घुटती, त्रसित, जिन्दगी की पीड़ा को उकेरने में प्रभाजी पूर्ण रूप से सफल हुए। प्रभाखेतान के उपन्यास की नायिकाएँ संघर्षशील रही है। साहसी, स्वावलंबी, आत्मसम्मान एवं आत्मविश्वास से भरी हुई एवं अपनी व्यक्तित्व के लिए लड़ती-झगडती नज़र आती है। काँटों भरी राहो से कदम बढ़ाते, सारी बाधाओं से टकराते सफल और साकार होने का चित्रण स्त्री जाती के लिए अत्यन्त प्रेरक है। प्रभाजी एसी नायिकाओं की सृजन से पूरे स्त्री जाति ऊपर उठाने की आत्म प्रेरणा देने में सफल रही।
संदर्भ सूची:
1. औरत अस्तित्व और अस्मिता – श्री अरविंद जैन – पृ.सं. 65
2. पीली आँधी – प्रभा खेतान – पृ.सं. 164
3. पीली आँधी – डॉ. प्रभाखेतान – पृ.सं. 256
हायक ग्रन्थ:
1. पीली आँधी – डॉ. प्रभाखेतान
2. प्रभाखेतान के साहित्य में नारी विमर्श – डॉ. कामिनीतिवारी
3. आजकल – मार्च 2014
4. हिंदी साहित्य में नारी संवेदना – डॉ. एन.जी. दौड गौडर, डॉ. डि.नी. पांडे
5. हिंदी उपन्यास का इतिहास – प्रो. गोपाल राय
6. प्रभाखेतान की उपन्यासों ने नारी – डॉ. अशोक मराठे।

सिजी सी.जी. कर्पगम विश्वविद्यालय, कोयम्बत्तूर डॉ. पद्मावती अम्माल के निर्देशन में पीएच.डी. के लिए शोधरत हैं ।

Wednesday, November 4, 2015

पत्रकारिता विश्वविद्यालय के सांध्‍यकालीन पाठयक्रमों में प्रवेश 31 अक्टूबर 2015 तक

पत्रकारिता विश्वविद्यालय के सांध्‍यकालीन पाठयक्रमों में
प्रवेश 31 अक्टूबर 2015 तक
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्‍वविद्यालय द्वारा संचालित सांध्यकालीन पाठ्यक्रमों में प्रवेश 31 अक्टूबर 2015 त्तक दिए जाएंगे। विश्वविद्यालय के शैक्षणिक सत्र 2015-16 के लिए वैब संचार, वीडियो प्रोडक्‍शन, पर्यावरण संचार, भारतीय संचार परम्पराएँ, योगिक स्वास्थ्य प्रबंधन एवं आध्यात्मिक संचार, फिल्म पत्रकारिता, डिजिटल फोटोग्राफी, संचार कौशल एवं आयोजन प्रबंधन आदि विषयों में सांध्यकालीन पी.जी. डिप्लोमा पाठ्यक्रमों में प्रवेश प्रक्रिया जारी है। पाठ्यक्रम विभिन्न विश्वविद्यालयों में अध्ययनरत विद्यार्थियों के साथ-साथ नौकरीपेशा व्यक्तियों, सेवानिवृत्त लोगों, सैन्य अधिकारियों तथा गृहिणियों के लिए भी उपलब्ध होंगे।
      विश्वविद्यालय द्वारा नौ सम्भावनाओं से भरे क्षेत्रों में सांध्यकालीन पी.जी.डिप्लोमा पाठ्यक्रम प्रारम्भ किये गये हैं। विश्वविद्यालय का सांध्यकालीन वैब संचार पाठ्यक्रम अखबारों के ऑनलाईन संस्करण, वैब पोर्टल, वैब रेडियो एवं वैब टेलीविजन जैसे क्षेत्रों के लिए कुशलकर्मी तैयार करने के उद्देश्य से प्रारम्भ किया गया है। वीडियो कार्यक्रम के निर्माण सम्बन्धी तकनीकी एवं सृजनात्मक पक्ष के साथ स्टुडियो एवं आउटडोर शूटिंग, नॉनलीनियर सम्पादन, डिजिटल उपकरणों के संचालन आदि के सम्बन्ध में कुशल संचारकर्मी तैयार करने के उद्देश्य से वीडियो प्रोडक्शन का सांध्यकालीन पाठ्यक्रम प्रारम्भ किया गया है। पर्यावरण आज समाज में ज्वलंत विषय है। पर्यावरण के विविध पक्षों की जानकारी प्रदान करने एवं इस क्षेत्र के लिए विशेष लेखन-कौशल विकसित करने के उद्देश्य से पर्यावरण संचार का सांध्यकालीन पाठ्यक्रम तैयार किया गया है। योग, स्वास्थ्य और आध्यात्म के क्षेत्र में व्यवहारिक प्रशिक्षण प्रदान करने तथा इस क्षेत्र के लिए कुशल कार्यकर्ता को तैयार करने के उद्देश्य से योगिक स्वास्थ्य प्रबंधन एवं आध्यात्मिक संचार का सांध्यकालीन पाठ्यक्रम प्रारम्भ किया गया है। भारतीय दर्शन एवं प्राचीन भारतीय धर्मग्रंथों में मौजूद संचार के विभिन्न स्वरूपों की शिक्षा एवं वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में उनके सार्थक उपयोग की दृष्टि विकसित करने के उद्देश्य से भारतीय संचार परम्पराओं में सांध्यकालीन पाठ्यक्रम तैयार किया गया है। सिनेमा के विविध क्षेत्रों में रिपोर्टिंग, फिल्म समीक्षा एवं फिल्म लेखन की दृष्टि से फिल्म पत्रकारिता का पाठ्यक्रम प्रारम्भ किया गया है। फोटोग्राफी के विविध आयामों से परिचित कराने तथा कौशलपूर्ण डिजिटल फोटोग्राफी सिखाने के उद्देश्‍य से डिजिटल फोटोग्राफी का पाठ्यक्रम उपलब्‍ध हैं। इस शैक्षणिक सत्र से विश्वविद्यालय दो नए पाठ्यक्रम प्रारम्भ कर रहा है।  समारोह नियोजन एवं प्रबंधन के क्षेत्र में संभावनाओं को केंद्र में रखकर आयोजन प्रबंधन तथा संचार प्रबंधन एवं कौशल विकास हेतु संचार कौशल के पाठ्यक्रम आरम्भ किये जा रहे हैं। प्रत्येक पाठ्यक्रम के लिये 15 स्थान निर्धारित किये गये हैं।
      पाठ्यक्रमों में प्रवेश स्नातक परीक्षा में प्राप्त अंकों की मेरिट के आधार पर दिया जायेगा। पाठ्यक्रमों की अवधि एक वर्ष है। प्रत्येक पाठ्यक्रम का शुल्क 10,000 रुपये रखा गया है जो विश्वविद्यालय द्वारा निर्धारित चार किश्तों में देय होगा। प्रवेश हेतु आवेदन ऑनलाइन स्वीकार किये जा रहे हैं। इस हेतु www.mponline.gov.in पर लॉगइन कर citizen services लिंक पर क्लिक करना होगा प्रवेश हेतु आवेदन शुल्क 150/- रुपये (अ.ज./अ.ज.जा. के लिए 100/- रुपये) ऑनलाइन ही देय होगा। अभ्यर्थी एक से अधिक पाठ्यक्रमों के लिए भी आवेदन कर सकते हैं। प्रत्‍येक अतिरिक्‍त आवेदन का शुल्‍क 50 रुपये निर्धारित है। विश्वविद्यालय की वेबसाईट www.mcu.ac.in से विवरणिका एवं अन्य जानकारी प्राप्त की जा सकती है। अधिक जानकारी के लिए टेलीफोन नम्बर 0755-2553523 पर भी सम्पर्क किया जा सकता है।


(डा. पवित्र श्रीवास्तव)
निदेशक, प्रवेश

‘‘मीडिया की भूमिका: भाषा सीखना या सिखाना’’ विषय पर एक दिवसीय संगोष्ठी

‘‘मीडिया की भूमिका: भाषा सीखना या सिखाना’’ विषय पर एक दिवसीय संगोष्ठी

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग द्वारा पंचम तल स्थित सभागार में दिनांक 04 नवम्बर 2015 को प्रातः 10.30 से सायं 05.30 तक ‘‘मीडिया की भूमिका: भाषा सीखना या सिखाना’’ विषय पर एक दिवसीय संगोष्ठी का आयोजन किया जा रहा है। संगोष्ठी चार सत्रों में आयोजित होगी। इस संगोष्ठी के प्रथम उद्घाटन सत्र में वरिष्ठ मीडिया प्रोफेशनल श्री राहुल देव मुख्य वक्ता होगे एवं अध्यक्षता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला करेंगे। द्वितीय सत्र ‘‘अंग्रेजी मीडिया की भाषा’’ विषय पर होगा साथ ही इस सत्र में विद्यार्थियों द्वारा समाचार पत्रोंउनकी भाषा और उनमें अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग के संबंध में अभ्यास कार्य व उसका प्रस्तुतिकरण किया जाएगा ।

तृतीय सत्र ‘‘हिन्दी मीडिया की भाषा’’ विषय के मुख्य वक्ता श्री आनंद पाण्डेयसमूह संपादक नईदुनियाइन्दौर एवं श्री आषीष जोशीडायरेक्टर प्रोडक्शन, मा.च.रा.प.एवं सं. विवि. होगे एवं अध्यक्षता वरिष्ठ पत्रकार श्री विनोद पुरोहित करेगें।
चतुर्थ सत्र ‘‘समाज पोषित मीडिया की भाषा’’ विषय के मुख्य वक्ता श्री उमेश त्रिवेदीप्रधान संपादक,सुबह सवेरे एवं श्री गिरीष उपाध्यायसंपादक सुबह सवेरे होगें एवं अध्यक्षता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला करेगें।

Monday, November 2, 2015

कृति चर्चा:
अल्पना अंगार पर - नवगीत निखार पर 
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: अल्पना अंगार पर, नवगीत संग्रह, रामकिशोर दाहिया, २००८, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, बहुरंगी, जैकेट सहित, पृष्ठ १९२, १००/-,  उद्भावना प्रकाशन, ए २१ झिलमिल इंडस्ट्रियल एरिया,  जी. टी.  रोड,शाहदरा दिल्ली ११००९५, कृतिकार संपर्क: अयोध्या  बस्ती,साइंस कॉलेज, खिरहने कटनी ४८३५०१, ९४२४६ ७६२९७, ९४२४६ २४६९३] 
*                    
नदी के कलकल प्रवाह, पवन की सरसराहट और कोयल की कूक की लय जिस मध्र्य को घोलती है वह गीतिरचना का पाथेय है। इस लय को गति-यति, बिंब-प्रतीक-रूपक से अलंकृत कर गीत हर सहृदय में मन को छूने में समर्थ बन जाता है। गति और लय को देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप नवता देकर गीत के आकाशी कथ्य को जमीनी स्पर्श देकर सर्वग्राह्य बना देता है नवगीत। अपने-अपने समय में जिसने भी पारम्परिक रूप से स्थापित काव्य के शिल्प और कथ्य को यथावत न स्वीकार कर परिवर्तन के शंखनाद किया और सृजन-शरों से स्थापित को स्थानच्युत कर परिवर्तित का भिषेक किया वह अपने समय में नवता का वाहक बना। इस समय के नवताकारक सृजनधर्मियों में अपनी विशिष्ट भावमुद्रा और शब्द-समृद्धता के लिये चर्चित नवगीतकार रामकिशोर दाहिया की यह प्रथम कृति अपने शीर्षक 'अल्पना अंगार पर' में अन्तर्निहित व्यंजना से ही अंतर्वस्तु का आभास देती है। अंगार जैसे हालात का सामना करते हुए समय के सफे पर हौसलों की अल्पना  के नवगीत लिखना सब के बस का काम नहीं है।  

नवगीत को उसके उद्भव काल के मानकों और भाषिक रूप तक सिमित रखने असहमत रामकिशोर जी ने अपने प्रथम संग्रह में ही अपनी जमीन तैयार कर ली हैं। बुंदेली-बघेली अंचल के निवासी होने के नाते उनकी भाषा में स्थानीय लोकभाषाओं का पूत तो अपेक्षित है किन्तु उनके नवगीत इससे बहुत आगे जाकर इन लोकभाषाओं के जमीनी शब्दों को पूरी स्वाभाविकता और अधिकार के साथ अंगीकार करते हैं। वे यह भी जानते हैं कि शब्दों के अर्थों से कॉंवेंटी पीढ़ी ही नहीं रचनाकार, शब्द कोष भी अपरिचित हैं इसलिए पाद टिप्पणियों में शब्दों के अर्थ समाविष्ट कर अपनी सजगता का परिचय देते हैं।

आजीविका से शिक्षक, मन से साहित्यकार और प्रतिबद्धता से आम आदमी की पीड़ा के सहभागी हैं राम किशोर, इसलिए इन नवगीतों में सामाजिक वैषम्य, राजनैतिक विद्रूपताएँ, आर्थिक विषमता, धार्मिक पाखंड और व्यक्तिगत दोमुँहेपन पर प्रबल-तीक्ष्ण शब्द-प्रहार होना स्वाभाविक है। उनकी संवेदनशील दृष्टि राजमार्गोन्मुखी न होकर पगडंडी के कंकरों, काँटों, गड्ढों और उन पर बेधड़क चलने वाले पाँवों के छालों, चोटों, दर्द और आह को केंद्र में रखकर रचनाओं का ताना-बाना बुनती है। वे माटी की सौंधी गंध तक सीमित नहीं रहते, माटी में मिले सपनों की तलाश भी कर पाते हैं। विवेच्य संग्रह वस्तुत: २ नवगीत संग्रहों को समाहित किये है जिन्हें २ खण्डों के रूप में 'महानदी उतरी' (ग्राम्यांचल के सजीव शब्द चित्र तदनुरूप बघेली भाषा)  और  'पाले पेट कुल्हाड़ी' (सामाजिक-सांस्कृतिक सन्दर्भों से जुड़े नवगीत) शीर्षकों के अंतर्गत रखा गया है। २५-३० रचनाओं की स्वतंत्र पुस्तकें निकालकर संख्या बढ़ाने के काल में ४५ + ५३ कुल ९८ नवगीतों के  समृद्ध संग्रह को पढ़ना स्मरणीय अनुभव है।

कवि ज़माने की बंदिशों को ठेंगे पर मारते हुए अपने मन की बात सुनना अधिक महत्वपूर्ण मानता है-

कुछ अपने दिल की भी सुन 
संशय के गीत नहीं बुन 
अंतड़ियों को खंगालकर 
भीतर के ज़हर को निकाल 
लौंग चूस / जोड़े से चाब 
सटका दे / पेट के बबाल 
तंत्री पर साध नई धुन

लौंग को जोड़े से चाबना और तंत्री पर धुन साधना जैसे अनगिन प्रयोग इस कृति में पृष्ठ-पृष्ठ पर हैं। शिक्षक रामकिशोर को पर्यावरण की फ़िक्र न हो यह कैसे संभव है?

धुआँ उगलते वाहन सारे / साँसों का संगीत लुटा है
धूल-धुएँ से / हवा नहाकर /  बैठी खुले मुँडेरे 
नहीं उठाती माँ भी सोता / बच्चा अलस्सवेरे 

छद्म प्रगति के व्यामोह में फँसे जनगण को प्रतीत हो रहे से सर्वथा विपरीत स्थिति से रू-ब-रू कराते हुए कवि अपना बेलाग आकलन प्रस्तुत करता है:

आँख बचाकर / छप्पर सिर की /नव निर्माण उतारे 
उठती भूखी / सुबह सामने / आकर हाथ पसारे 
दिये गये / संदर्भ प्रगति के / उजड़े रैन बसेरे 

समाज में व्याप्त दोमुँहापन कवि की चिंता का विषय है:

लोग बहुत हैं / धुले दूध के / खुद हैं चाँद-सितारे 
कालिख रखते / अंतर्मन में / नैतिक मूल्य बिसारे 

नैतिक मूल्यों की चिंता सर्वाधिक शिक्षक को ही होती है। शिक्षकीय दृष्टि सुधर को लक्षित करती है किन्तु कवि उपदेश नहीं देना चाहता, अत:,  इन रचनाओं में शब्द प्रचलित अर्थ के साथ विशिष्ट अर्थ व्यंजित करते हैं:

स्वेद गिरकर / देह से / रोटी उगाता
ज़िंदगी के / जेठ पर / आजकल दरबान सी 
देने लगी है / भूख पहरा पेट पर  

स्वतंत्रता के बाद क्या-कितना बदला? सूदखोर साहूकार आज भी किसानों के म्हणत की कमाई खा रहा है। मूल से ज्यादा सूद चुकाने के बाद भी क़र्ज़ न चुकाने की त्रासदी भोगते गाँव की व्यथा-कथा गाँव में पदस्थ और निवास करते संवेदनशील शिक्षक से कैसे छिप सकती है? व्यवस्था को न सुधार पाने और शोषण को मूक होकर  देखते रहने से उपजा असंतोष इन रचनाओं के शब्द-शब्द में व्याप्त है:

खाते-बही, गवाह-जमानत / लेते छाप अँगूठे 
उधार बाढ़ियाँ / रहे चुकाते / कन्हियाँ धांधर टूटे 
भूखे-लांघर रहकर जितना / देते सही-सही 
जमा नहीं / पूँजी में पाई / बढ़ती ब्याज रही 
बने बखार चुकाने पर भी / खूँटे से ना छूटे 
लड़के को हरवाही लिख दी / गोबरहारिन बिटिया 
उपरवार / महरारु करती / फिर भी डूबी लुटिया 
मिले विरासत में हम बंधुआ / अपनी साँसें कूते 

सामान्य लीक से हटकर रचे गए  नवगीतों में अम्मा शीर्षक गीत उल्लेखनीय है:

मुर्गा बांग / न देने पाता / उठ जाती अँधियारे अम्मा 
छेड़ रही / चकिया पर भैरव / राग बड़े भिन्सारे अम्मा 

से आरम्भ अम्मा की दिनचर्या में दोपहर कब आ जाती, है पता ही नहीं चलता-

चौक बर्तन / करके रीती / परछी पर आ धूप खड़ी है 
घर से नदिया / चली नहाने / चूल्हे ऊपर दाल चढ़ी है 
आँगन के / तुलसी चौरे पर / आँचल रोज पसारे अम्मा  
पानी सिर पर / हाथ कलेवा / लिए पहुँचती खेत हरौरे 
उचके हल को / लत्ती देने / ढेले आँख देखते दौरे 

यह क्रम देर रात तक चलता है:

घिरने पाता / नहीं अँधेरा / बत्ती दिया जलाकर रखती
भूसा-चारा / पानी - रोटी / देर-अबेर रात तक करती 
मावस-पूनो / ढिंगियाने को / द्वार-भीत-घर झारे अम्मा 

ऐसा जीवन शब्द चित्र मनो पाठक अम्मा को सामने देख रहा हो। संवेदना की दृष्टि से श्री आलोक श्रीवास्तव की सुप्रसिद्ध 'अम्मा' शीर्षक ग़ज़ल के समकक्ष और जमीनी जुड़ाव में उससे बढ़कर यह नवगीत इस संग्रह की प्रतिनिधि रचना है।

रामकिशोरजी सिर्फ शिक्षक नहीं अपितु सजग और जागरूक शिक्षक हैं। शिक्षक के प्राण शब्दों में बसते हैं चूँकि शब्द ही उसे संसार और शिष्यों से जोड़ते हैं। विवेच्य कृति कृतिकार के समृद्ध शब्द भण्डार का परिचय पंक्ति-पंक्ति में देती है। एक ओर बघेली के शब्दों दहरा, लमतने, थूं, निगडौरे, भिनसारे, हरौरे, ढिंगियाने, भीत, पगडौरे, लौंद, गादर, अलमाने, च्यांड़ा, चौहड़े, लुसुक, नेडना, उरेरे, चरागन, काकुन, डिंगुरे, तुरतुरी, खुम्हरी आदि को हिंदी के संस्कृतनिष्ठ शब्दों लौह्गामिनी, कीटविनाशी, दावानल, बड़वानल, वसुधा, व्योम, अनुगूंज, ऊर्जा, स्रोत, शिल्प, चन्द्रकला, अविराम, वृन्त, कुंतल, ऊर्ध्ववती, कपोल, समुच्चय, पारलौकिक, श्रृंगारित आदि को गले मिलते देखना आनंदित करता है तो  दूसरी ओर उर्दू के लफ़्ज़ों वज़ूद, सिरफिरी, सोहबत, दौलत, तब्दील, कंदील, नूर, शोहरत, सरहदों, बाजार, हुकुम, कब्ज़े, फरजी, पेशी, जरीब, दहशत, सरीखा, बुलंदी, हुनर, जुर्म, ज़हर, बेज़ार, अपाहिज, कफ़न, हैसियत, तिजारत, आदि को अंग्रेजी वर्ड्स पेपर, टी. व्ही., फ़ोकस, मिशन, सीन, क्रिकेटर, मोटर, स्कूल, ड्रेस, डिम, पावर, केस, केक, स्वेटर, डिजाइन, स्क्रीन, प्लेट, सर्किट, ग्राफ, शोकेस आदि के साथ हाथ मिलाते देखना सामान्य से इतर सुखद अनुभव कराता है।  

इस संग्रह में शब्द-युग्मों का प्रयोग यथावसर हुआ है। साही-साम्भर, कोड़ों-कुटकी, 'मावस-पूनो, तमाखू-चूना, कांदो-कीच, चारा-पानी, कांटे-कील, देहरी-द्वार, गुड-पानी, देर-अबेर, चौक-बर्तन, दाने-बीज, पौधे-पेड़, ढोर-डंगार, पेड़-पत्ते, कुलुर-बुलुर, गली-चौक, आडी-तिरछी, काम-काज, हट्टे-कट्टे, सज्जा-सिंगार, कुंकुम-रोली, लचर-पचर, खोज-खबर, बत्ती-दिया आदि गीतों की भाषा को सरस बनाते हैं।

राम किशोर जी ने किताबी भाषा के व्यामोह को तजते हुए पारंपरिक मुहावरों दांत निपोरेन, सर्ग नसेनी, टेंट निहारना आदि के साथ धारा हुई लंगोटी, डबरे लगती रोटी, झरबेरी की बोटी, मन-आँगन, कानों में अनुप्रास, मदिराया मधुमास, विषधर वसन, बूँद के मोती, गुनगुनी चितवन, शब्दों के संबोधन, आस्था के दिये, गंध-सुंदरी, मन, मर्यादा पोथी, इच्छाओं के तारे, नदिया के दो ओंठ, नयनों के पटझर जैसी निजी अनुभूतिपूर्ण शब्दावली से भाषा को जीवंत किया है।     

बुंदेलखंड-बघेलखण्ड के घर-गाँव अपने परिवेश के साथ इस गहराई और व्यापकता के साथ उपस्थित हैं कि कोई चित्रकार शब्दचित्रों से रेखाचित्र की ओर बढ़ सके। कुछ शब्दों का संकेत ही पर्याप्त है यह इंगित करने के लिए कि ग्राम्य जीवन का हर पक्ष इन गीतों में है। निवास स्थल- द्वार, भीत, घर, टटिया, कछरा आदि, श्रृंगार- सेंदुर, कुंड़वा, कंघी, चुरिया महावर आदि, वाद्य- टिमकी, मांडल, ढोलक, मंजीर, नृत्य-गान- राई , करमा, फाग, कबीर, कजरी, राग आदि, वृक्ष-पौधे महुआ, आम, अर्जुन, सेमल, साल, पलाश, अलगोजे, हरसिंगार, बेल, तुलसी आदि, नक्षत्र- आर्द्रा, पूर्व, मघा आदि, माह- असाढ़, कातिक, भादों, कुंवार, जेठ, सावन, पूस, अगहन आदि, साग-सब्जी- सेमल, परवल, बरबटी, टमाटर, गाजर, गोभी, मूली, फल- आंवले, अमरुद, आम, बेल आदि, अनाज- उर्द, अरहर, चना, मसूर, मूंग, उड़द, कोदो, कुटकी, तिल, धान, बाजरा, ज्वार आदि, पक्षी- कबूतर, चिरैयाम सुआ, हरियर, बया, तितली, भौंरे आदि, अन्य प्राणी- छिपकली, अजगर, शेर, मच्छर सूअर, वनभैंसा, बैल, चीतल, आदि, वाहन- जीप, ट्रक, ठेले, रिक्शे, मोटर आदि , औजार- गेंती, कुदाल आदि उस अंचल के प्रतिनिधि है जहाँ की पृष्ठभूमि में इन नवगीतों की रचना हुई है. अत: िंवगीतों में उस अंचल की संस्कृति और जीवन -शब्द में अभव्यक्त होना स्वाभाविक है।      

उर्दू का एक प्रसिद्ध शेर है 'गिरते हैं शाह सवार ही मैदाने जंग में / वह तिफ़्ल क्या गिरेगा जो घुटनों के बल चले' कवि राम किशोर जी गुड़सवारी करने, गिरने और बढ़ने का माद्दा रखते हैं यह काबिले-तारीफ है। नवगीतों की बंधी-बंधाई लीक से हटकर उन्होंने पहली ही कृति में अपनी पगडंडी आप बनाने का हसला दिखाया है।  दाग की तरह कुछ त्रुटियाँ होन स्वाभविक है- 'टी. व्ही. के / स्क्रीन सरीखे / सारे दृश्य दिखाया' में वचन दोष, 'सर्किट प्लेट / ह्रदय ने घटना / चेहरे पर फिल्माया' तथा 'बढ़ती ब्याज रही' में लिंग दोष है। लब्बो-लुबाब यह कि 'अल्पना अंगार पर' समसामयिक सन्दर्भों में नवगीत की ऐसी कृति है जिसके बिना इस दशक के नवगीतों का सही आकलन नहीं किया जा सकेगा। रामकिशोर जी का शिक्षक मन इस संग्रह में पूरी ईमानदारी से उपस्थित है- 'दिल की बात / लिखी चहरे पर/ चेहरा पढ़ना सीख'।

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समन्वयम २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ०७६१ २४१११३१, ९४२५१ ८३२४४,salil.sanjiv@gmail.com 
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Thursday, October 29, 2015

घाट पर ठहराव कहाँ : लघुकथाओं पुष्पोंकी सुवासित बगिया

कृति चर्चा :
घाट पर ठहराव कहाँ : लघुकथाओं पुष्पोंकी सुवासित बगिया 
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
(कृति विवरण: घाट पर ठहराव कहाँ, लघुकथा संग्रह, कांता रॉय, ISBN ९७८-८१-८६८१०-३१-५ पृष्ठ १२४, २००/-पुस्तकालय संस्करण, १५०/- जन संस्करण, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द पेपर जैकेट सहित, समय साक्ष्य प्रकाशन, १५ फालतू लाइन, देहरादून २४८००१, रचनाकार संपर्क:९५७५४६५१४७  )
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'देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर' सतसइया के दोनों के संदर्भ में कही गयी इस अर्धाली में 'छोटे' को 'छोटी' कर दें तो यह लघुकथा के सन्दर्भ में सौ टंच खरी हो जाती है। लघुकथा के शिल्प और कथ्य के मानकों में निरंतर परिवर्तन हो रहा है। भाषा और साहित्य जड़ता से जितना दूर और चेतना के जितने निकट हो उतना ही सजीव, व्यापक और प्रभावी होता है। पद्य के दोहा और शे'र को छोड़ दें तो नवगीत और मुक्तिका की सी आकारगत लघुता में कथ्य के असीम आकाश को अन्तर्निहित कर सम्प्रेषित करने की  अप्रतिम सामर्थ्य लघुकथा की स्वभावगत विशेषता है। लघु कथा की 'गागर में सागर' जैसी अभिव्यक्ति सामर्थ्य ने न केवल पाठक जुटाये हैं अपितु पाठकों के मन में पैठकर उन्हें लघुकथाकार भी बनाया है। विवेच्य कृति नव लघुकथाकारों की बगिया में अपनी सृजन-सुरभि बिखेर रही काँता रॉय जी का प्रथम लघुकथा संग्रह है. 'जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला ....' बच्चन जी की इन पंक्तियों को जीती लेखिका को जैसे हो वक़्त मिला वह 'मूषक'  (माउस) को थामकर सामाजिक शल्यों की चीरफ़ाड़ी करने में जुट गयी, फलत: ११० लघुकथाओं का पठनीय संग्रह हमारे हाथों में है। संतोष यह कि कृति प्रकाशन को लक्ष्य नहीं पड़ाव मात्र मानकर कांताजी निरंतर लघुकथा सृजन में संलग्न हैं।  

'घाट पर ठहराव कहाँ' की लघुकथाओं के विषय दैनंदिन जीवन से उठाये गये हैं। लाड़ली बिटिया, संकोची नवोढ़ा, ममतामयी माँ, संघर्षशील युवती और परिपक्व नारी के रूप में जिया-भोया-सँवारा जीवन ही इन लघुकथाओं का उत्स है। इनके विषय या कथ्य आकाशकुसुमी नहीं, धरा-जाये हैं। लेखिका के अनुसार 'मैंने हमेशा वही लिखा जो मैंने महसूस किया, बनावटी संविदाओं से मुझे सदा ही परहेज रहा है।' डॉ. मालती बसंत के अनुसार 'कांता रॉय के श्वास-श्वास में, रोम-रोम में लघुकथा है।'

कोई विस्मय नहीं कि अधिकाँश लघुकथाओं का केंद्र नारी है। 'पारो की वेदना' में प्रेमी का छल, 'व्यथित संगम' में संतानहीनता का मिथ्या आरोप, 'ममता की अस्मिता' में नारी-अस्मिता की चेतना, 'दरकती दीवारें चरित्र की' में धन हेतु समर्पण, 'घाट पर ठहराव में' जवान प्रवाह में छूटे का दुःख, 'रीती  दीवार' में सगोत्री प्रेमियों की व्यथ-कथा, 'गरीबी का फोड़ा' में बेटे की असफलता -जनित दुःख, 'रुतबा' मंत्रालय का में झूठी शान का खोखलापन, 'अनपेक्षित' में गोरेपन का अंधमोह, 'गले की हड्डी' में समधी के कुत्सित इरादों से युक्तिपूर्वक छुटकारा, 'श्राद्ध' में अस्पतालों की लोलुपता, 'पतित' में बदले की आग, 'राहत' में पति की बीमारी में शांति की तलाश, 'झमेला' में दुर्घटना-पश्चात पुलिस सूचना, 'दास्तान-ए-कामयाबी' में संघर्ष पश्चात सफलता,' डिस्टेंट  रिलेशनशिप' में नेट के संबंध, 'सुनहरी शाम' में अतीत की यादों में भटकता मन, 'जादू का शो' में मंचीय अश्लीलता, 'मिट्टी की गंध' में नगर प्रवास की व्यथा, 'मुख्य अतिथि' में समय की पाबंदी, 'आदर्श और मिसाल' में वर पक्ष का पाखंड,महिला पार्ष में अयोग्य उम्मीदवार,धर्म के ठेकेदा में मजहबी उन्माद की आग में ध्वस्त प्रेमी,एकलव् में आधुनिक परिप्रेक्ष्य में गुरु-शिष्य द्वन्द अर्थात जीवन के विविध पक्षों में व्याप्त विसंगतियाँ शब्दित हुई हैं। 

कांता जी की विशेषता जीवन को समग्र में देखना है। छद्म नारी हित रक्षकों के विपरीत उनकी लघुकथाएँ पुरुष मात्र को अपराधी मान सूली पर चढ़ाने की मांग नहीं करतीं। वे लघुकथाओं को अस्त्र बनकर पीड़ित के पक्ष में लिखती हैं, वह स्त्री है या पुरुष, बालक या वृद्ध यह गौड़ है। 'सरपंची' लघुकथा पूरे देश में राजनीति को व्यापार बना रही प्रवृत्ति का संकेत करती है। 'तख्तापलट' में वैज्ञानिक प्रगति पर कटाक्ष है। 'आतंकवादी घर के' लघुकथा स्त्री प्रगति में बाधक पुरुष वृत्ति को केंद्र में लाती है। 'मेरा वतन' में सम्प्रदायिकता से उपजी शर्म का संकेत है। 'गठबंधन' लघुकथा महाकल मंदिर की पृष्भूमि में सांसारिकता के व्यामोह में ग्रस्त सन्यासिनी पर केंद्रित है। 'मैं भक्ति के अतिरेक में डूब ही पाई थी कि ……मैं उस श्वेतांबरी के गठबंधन पर विचार करने लगा' यह लिंग परिवर्तन कब और कैसे हो गया, कौन बताये?

'प्रतिभा', 'दोस्ती', 'नेतागिरी', 'व्रती', 'जीवन संकल्प', 'उम्रदराज', 'सुई', 'सहयात्री', 'रिश्ता', 'कब तक का रिश्ता', 'कश्मकश',  पनाह', 'पनाह', 'अनुकंपा', 'नमक', 'फैशन की रसोई'  आदि नारी जीवन के विविध पहलुओं पर केंद्रित हैं तो 'विरासत', 'पार्क', 'रिपोर्ट', 'ब्रेकिंग न्यूज', 'पुनर्जन्म', 'मनरेगा','सत्य अभी मारा नहीं'. इधर का उधर' आदि में सामाजिक पाखंडों पर प्रहार है. कांता जी कहीं-कहें बहुत जल्दबाजी में कथ्य को उभरने में चूक जाती हैं। 'कलम हमारी धार हमारी', 'हार का डर',  'आधुनिक लेखिका', 'नेकी साहित्य की' आदि में साहित्य जगत की पड़ताल की गयी है।

कांता जी की लेखन शैली सरस, प्रवाहमयी, प्रसाद गुण संपन्न है। भाषिक समृद्धि ने उनकी अभिव्यक्ति सामर्थ्य को धार दी है। वे हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी के साथ संस्कृतनिष्ठ और देशज शब्दों का यथास्थान प्रयोग कर अपनी बात बखूबी कह पाती हैं। स्नेहिल, स्वप्न, स्वयंसिद्धा, उत्तल, विभक्त, उंकुके, तन्द्रा, निष्प्राण जैसे संस्कृत शब्द, सौंधी, गयेला, अपुन, खाप, बुरबक, बतिया, बंटाधार, खोटी आदि देशज शब्द, जुदाई, ख़ामोशी, इत्तेफ़ाक़, परवरिश, अपाहिज, अहसास, सैलाब, मशगूल, दास्तां. मेहरबानी, नवाज़े, निशानियाँ, अय्याश, इश्तिहार, खुशबू, शिद्दत, आगोश, शगूफा लबरेज, हसरत, कशिश, वक्र, वजूद, बंदोबस्त जैसे उर्दू शब्द, रिमोट, ओन, बॉडी, किडनी, लोग ऑफ, पैडल बोट, बोट क्लब, टेस्ट ड्राइव, मैजिक शो, मैडम ड्रेसिंग टेबल, कंप्यूटर, मिसेज, इंटरनेट, ऑडिशन, कास्टिंग काउच जैसे अंग्रेजी शब्द काँता जी ने बखूबी उपयोग किये हैं। अंग्रेजी के जिन शब्दों के सरल और सटीक पर्याय प्रचलित हैं उन्हें उपयोग न कर अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग किया जाना अनावश्यक प्रतीत होता है। ऐसे शब्दों में डिस्टेंस (दूरी), मेसेज (संदेश), ( बंद, निकट), कस्टमर (ग्राहक), कनेक्शन (संबंध, जुड़ाव), अड्वान्स (अग्रिम), मैनेजमेंट (प्रबंधन), ग्रुप (समूह, झुण्ड), रॉयल (शाही), प्रिंसिपल (प्राचार्य) आदि हैं।

उर्दू शब्द ज़ज़्बा (भावना) का बहुवचन ज़ज़्बात (भावनाएँ) है, 'ज़ज़्बातों' (पृष्ठ ३८) का प्रयोग उतना ही गलत है जितना सर्वश्रेष्ठ या बेस्टेस्ट। 'रेल की रेलमपेल' में (पृष्ठ ४७) भी गलत प्रयोग है।बच्चों की रेलमपेल अर्थात बच्चों की भीड़, रेल = पटरी, ट्रेन = रेलगाड़ी,  रेल की रेलमपेल = पटरियों की भीड़ इस अर्थ की कोई प्रासंगिकता सनरभित लघुकथा 'भारतीय रेल' में नहीं है।  अपवादों को छोड़कर समूचे लघुकथा संकलन में भाषिक पकड़ बनी हुई है। कांता जी लघुकथा के मानकों से सुपरिचित हैं। संक्षिप्तता, लाक्षणिकता, बेधकता, मर्मस्पर्शिता, विसंगति निर्देश आदि सहबी तत्वों का उचित समायोजन कांता जी कर सकी हैं। नवोदित लघु कथाकारों की भीड़ में उनका सृजन अपनी स्वतंत्र छाप छोड़ता है। प्रथम में उनकी लेखनी की परिपक्वता प्रशंसनीय है। आशा है वे लघुकथा विधा को नव आयामित करने में समर्थ होंगी।

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आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१ ८३२४४

Wednesday, October 28, 2015

'सम्मान वापसी: प्रतिरोध या पाखंड' विषय पर 29 अक्टूबर को संगोष्ठी

'सम्मान वापसी: प्रतिरोध या पाखंड' विषय पर 29 अक्टूबर को संगोष्ठी

सम्मान वापसी पर उठे विवाद के बाद देश में विरोध और समर्थन का एक विमर्श चल पड़ा है. इसी विमर्श को केंद्र में रखते हुए हिंदी के चर्चित वेब पोर्टल प्रवक्ता.कॉम द्वारा एक संगोष्ठी का आयोजन किया जा रहा है. इस आयोजन में देश के नामचीन साहित्यकार, पत्रकार, संस्कृतिकर्मी, ब्लॉगर शामिल हो रहे हैं.
प्रवक्ता.कॉम द्वारा आगामी 29 अक्टूबर 2015, गुरुवार को “सम्मान वापसी : प्रतिरोध या पाखंडविषय पर सायं 5:00 बजे दिल्ली के दीनदयाल उपाध्याय मार्ग स्थित हिंदी भवन सभागार(आईटीओ मेट्रो से नजदीक) में एक संगोष्ठी का आयोजन किया जा रहा है. हाल में जिस प्रकार से साहित्य अकदामी सम्मान वापसी का जो विमर्श पूरे देश में खड़ा हुआ हैने इस बहस को जन्म दिया है कि क्या साहित्यकारों का यह कदम किसी विचारधारा के पूर्वाग्रह से प्रेरित है अथवा यह महज एक राजनीतिक विरोध है चूँकि सम्मान वापसी की शुरुआत से ही इसका विरोध करते हुए डॉ नामवर सिंहश्री राम दरश मिश्र व सुश्री चित्रा मुदगल जैसे प्रख्यात साहित्यकारों ने इसको सस्ती लोकप्रियता पाने का जरिया बताया है. ऐसे में प्रवक्ता.कॉम सम्मान वापसी: प्रतिरोध या पाखंड’ विषयक संगोष्ठी का आयोजन कर इस विषय पर एक खुली बहस का मंच उपलब्ध करा रहा है. संगोष्ठी में इस विषय पर चर्चा के लिए साहित्य एवं पत्रकारिता के बड़े हस्ताक्षर श्री नरेंद्र कोहलीश्री बलदेव वंशीश्री कमल किशोर गोयनकाश्री अच्युतानन्द मिश्रश्री राहुल देवश्री राम बहादुर रायश्री बलदेव भाई शर्मा सहित संस्कृति एवं कला के क्षेत्र से श्री दया प्रकाश सिन्हा व सुश्री मालिनी अवस्थी मौजूद रहेंगे. इसके अतिरिक्त साहित्यकला एवं पत्रकारिता के क्षेत्र से कई दिग्गज उपस्थित रहेंगे.
प्रवक्ता.कॉम के सम्पादक संजीव सिन्हा ने बताया कि प्रवक्ता हमेशा से ही वैचारिक बहस का पक्षधर रहा है. आज जब साहित्य को एक ख़ास विचारधारा के खांचे में बिठाने की कोशिश की जा रही है तो प्रवक्ता का दायित्व बनता है कि इस बहस को और व्यापक स्तर पर समाज के बीच लाये. इसी उद्देश्य से यह कार्यक्रम किया जा रहा है.
प्रवक्ता.कॉम के प्रबंध संस्थापक भारत भूषण ने बताया कि "प्रवक्ता.कॉम द्वारा इस आयोजित इस संगोष्ठी में इस पूरे बहस और विवाद पर बहस की संभावना है. प्रवक्ता.कॉम द्वारा इस विषय पर अबतक प्रकाशित पचास से ज्यादा लेखों की संकलन पुस्तिका के विमोचन सहित एक डाक्यूमेंट्री के प्रसारण की भी योजना है."

संजीव सिन्हा – 9868964804
संपादक, प्रवक्ता.कॉम

Thursday, October 15, 2015

"हल्बी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति" पर 30-31 अक्टूबर को दो दिवसीय आयोजन जगदलपुर में

"हल्बी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति" पर 
30-31 अक्टूबर को दो दिवसीय आयोजन 
जगदलपुर में 

30-31 अक्टूबर को "साहित्य अकादेमी", नयी दिल्ली और "बस्तर विश्वविद्यालय", जगदलपुर के सहयोग से "बस्तर विश्वविद्यालय जगदलपुर, धरमपुरा, बस्तर-छत्तीसगढ़" में बस्तर सम्भाग की प्रमुख लोक भाषाओं में द्वितीय स्थान रखने वाली लोक भाषा, जो रियासत-काल में राज-काज की भी भाषा रही है और यहाँ की सम्पर्क भाषा का भी दर्जा प्राप्त "हल्बी" से सम्बन्धित "हल्बी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति" पर केन्द्रित दो दिवसीय संगोष्ठी का गरिमामय आयोजन होने जा रहा है। 
इस आयोजन के कार्यक्रम निम्नानुसार हैं : 

शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2015

उद्घाटन सत्र : पूर्वाह्न 10.00 बजे - 11.30 बजे
स्वागत : के. श्रीनिवासराव, सचिव, साहित्य अकादेमी
उद्घाटन वक्तव्य : एन. डी. आर. चन्द्रा, कुलपति, बस्तर विश्वविद्यालय
    
पुस्तक लोकार्पण :  
हरिहर वैष्णव की पुस्तक "लछमी जगार" (गुरुमाय केलमनी द्वारा प्रस्तुत बस्तर की धान्य-देवी की महागाथा, मूल हल्बी, हिन्दी अनुवाद के साथ)
सोनसिंह पुजारी की पुस्तक "अन्धकार का देश" (हल्बी के अन्यतम कवि की मूल हल्बी कविताएँ हिन्दी अनुवाद के साथ)
(दोनों ही पुस्तकों के प्रकाशक : साहित्य अकादेमी, नयी दिल्ली)

बीज वक्तव्य : महेंद्र कुमार मिश्र, वाचिक और जनजातीय साहित्य के विद्वान
अध्यक्षीय वक्तव्य : विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, अध्यक्ष, साहित्य अकादेमी
विशिष्ट अतिथि : रामसिंह ठाकुर, सुप्रसिद्ध हल्बी कवि
धन्यवाद ज्ञापन : अन्विता अब्बी, निदेशक, वाचिक और जनजातीय साहित्य केन्द्र, साहित्य अकादेमी

प्रथम सत्र : मध्याह्न 12.00 बजे - 1.30 बजे

अध्यक्ष : हरिहर वैष्णव
आलेख : यशवंत गौतम/हल्बी का लिखित साहित्य : दशा एवं दिशा
विक्रम सोनी/हल्बी का भाषा वैज्ञानिक पक्ष एवं लिपि
शिवकुमार पाण्डेय/हल्बी और छत्तीसगढ़ी में अंतर्संम्बंध
बलदेव पात्र/हल्बी और हल्बा संस्कृति
खेम वैष्णव/हल्बी परिवेश में लोक चित्र-परम्परा

द्वितीय सत्र : अपराह्न 2.30 बजे - 4.30 बजे

अध्यक्ष : महेंद्र कुमार मिश्र  
आलेख : सुभाष पाण्डेय/हल्बी रंगमंच : कल, आज और कल
बलबीर सिंह कच्छ/हल्बी लोक संगीत की दशा एवं दिशा
नारायण सिंह बघेल/हल्बी परिवेश के लोक-नृत्य
रुद्रनारायण पाणिग्राही/हल्बी परिवेश के त्यौहार एवं उत्सव
रूपेन्द्र कवि/मानव विज्ञान की दृष्टि में हल्बा जनजाति

तृतीय सत्र : अपराह्न 5.00 बजे - 6.00 बजे
कहानी पाठ : एम. ए. रहीम
शोभाराम नाग

शनिवार, 31 अक्टूबर 2015

चतुर्थ सत्र : पूर्वाह्न 11.00 बजे - 1.30 बजे
कविता पाठ : सोनसिंह पुजारी
जोगेन्द्र महापात्र "जोगी"
शकुंतला तरार
नरेन्द्र पाढ़ी
सिकंदर खान "दादा जोकाल"
अर्जुन नाग
तुलसी राम पाणिग्राही
बालकिशोर पाण्डे
गिरिजानन्द सिंह ठाकुर
घनश्याम सिंह नाग
हरिहर वैष्णव
डी. एस. बघेल

लोक : विविध स्वर : अपराह्न 2.30 बजे - 6.00 बजे
लछमी जगार/मुँडागाँव के कलाकारों की प्रस्तुति
गीति कथा/मारेंगा गाँव के कलाकारों की प्रस्तुत
खेल गीत/सिंगनपुर गाँव के कलाकारों की प्रस्तुति
लोक नृत्य/माता रुक्मणि सेवा संस्था की प्रस्तुति

अत्यन्त विनम्रतापूर्वक निवेदन करना चाहूँगा कि बस्तर की "पहचान" केवल कुछ देशी-विदेशी लेखकों-पत्रकारों-मानवविज्ञानियों या संस्कृतिकर्मियों के अनुसार "घोटुल" ही नहीं है। उस बेतुके पहचान से उबरने और बस्तर की वास्तविक पहचान पाने के लिये आपको इस कार्यक्रम में अवश्य ही शिरकत करना चाहिये, ऐसा मेरा मानना है। 
उपर्युक्त कार्यक्रमों पर नज़र डालने पर आप पायेंगे कि "हल्बी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति" पर यह निश्चित ही अपनी तरह का एक अनूठा आयोजन है। मैं इसके लिये साहित्य अकादेमी, विशेष तौर पर इस अकादेमी के "वाचिक एवं जनजातीय साहित्य केन्द्र" की निदेशक प्रख्यात भाषा विज्ञानी और पद्मश्री से अलंकृत आदरणीया प्रो. (श्रीमती) अन्विता अब्बी जी का हृदय से आभारी हूँ। आभारी हूँ शोध-छात्र चिरंजीव श्री अजय कुमार सिंह (लखनऊ) का भी जिनके माध्यम से मैं आदरणीया प्रो. अब्बी जी से जुड़ सका। आभारी हूँ, अकादेमी के सचिव आदरणीय श्री के. श्रीनिवासराव जी और अध्यक्ष आदरणीय श्री विश्वनाथ प्रसाद तिवारी जी का भी, जिन्होंने इस कार्यक्रम में अपनी सक्रिय सहभागिता दर्ज कराने की स्वप्रेरित इच्छा जतायी और यही कारण है कि यह कार्यक्रम अप्रैल में होते-होते रह गया और अब 30-31 अक्टूबर को इन महानुभावों की गरिमामयी उपस्थिति में होने जा रहा है। आभार बस्तर विश्वविद्यालय के कुलपति आदरणीय श्री एन. डी. आर चन्द्र जी का भी, जिन्होंने इस कार्यक्रम के आयोजन में सहभागिता दर्ज कराने की सहर्ष सहमति अकादेमी को दे कर हम बस्तरवासियों पर उपकार किया है। मुझे आशा है कि अकादेमी और इसका वाचिक एवं जनजातीय साहित्य केन्द्र हल्बी के साथ ही यहाँ की तमाम लोकभाषाओं के प्रति भी ऐसा ही स्नेह बनाये रखेगा और आगे उन पर केन्द्रित कार्यक्रम भी आयोजित करेगा। 
उल्लेखनीय है कि पिछले वर्षों में राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत, नयी दिल्ली द्वारा इस न्यास में संपादक माननीय श्री पंकज चतुर्वेदी जी के अथक प्रयासों से बस्तर की भतरी, हल्बी, गोंडी और दोरली लोक भाषाओं पर कार्यशालाएँ आयोजित हो चुकी हैं। इनमें से कुछ पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका है और कुछ पुस्तकों के प्रकाशन का काम जारी है। मैं ऐसे सभी रचनात्मक आयोजनों का हृदय से स्वागत करता हूँ और सभी के प्रति अपना आभार व्यक्त करता हूँ। 
क्या आप नहीं चाहेंगे कि इस कार्यक्रम में, जिसे मैं एक "पवित्र अनुष्ठान" कहना चाहूँगा, अपनी उपस्थिति दर्ज करा कर हल्बी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के बहाने "बस्तर" की आत्मा को बूझें। उसके विषय में जानें, उसे समझें और आत्मसात् करें -
- हरिहर वैष्णव