आलेख
बनगंगी
मुक्त है : ठेठ ग्रामीण क्रांति का दस्तावेज़
अनिल
कुमार एन.
ग्रामीण
संस्कृति के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. विवेकी राय की रचनाओं में माटी की सौगंध रमी हुई
है। बदलते ग्रामीण रूप-भावों को वे अर्थ शताब्दी से अनुभव करते रहे हैं और अपनी
कृतियों में अभिव्यक्त करते रहे हैं। स्वतंत्रता के पश्चात् देश की राजनीति से
प्रभावित और बदलते सामाजिक, पारिवारिक, सांस्कृतिक परिवेश का चित्रण उनकी कृतियों
में यत्र-तत्र मिलता है। ग्राम्य जीवन की अनूठी रचना ‘लोकऋण’, जिसे नए नाम ‘बनगंगी
मुक्त है’ के नाम से प्रकाशित है, इसका सक्षम प्रमाण है।
‘लोकऋण’ उत्तर प्रदेश-बिहार के गाँवों की जिंदगी का
अत्यंत प्रामाणिक एवं जीवंत चित्रों का मर्मस्पर्शी चित्रण है। डॉ. रायजी से पहले
प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों और कहानियों में ग्रामीण गाथा का यथा तथ्य चित्रण
प्रस्तुत किया था। कालांतर में नागार्जुन, फणीश्वरनाथ रेणु, शिवप्रसाद सिंह,
रामदरश मिश्र, श्रीलाल शुक्ल आदि ने भी गाँवों की ज़िंदगी का वर्णांकन किया। ‘लोकऋण’ मुख्यतः स्वातंत्र्योत्तर भारत के गाँवों में
फैले तनावों की समग्र अभिव्यंजना का दस्तावेज़ है। यहाँ सभ्यता और संस्कृति के
द्वंद्व परिवेश अपने आप बदलते दिखाई पड़ते हैं। उपन्यास में चरित्रों, घटनाओं एवं
स्थितियों का स्वाभाविक परिवर्तन देखने को मिलता है। वृंदावन बाबू के रूप में
विवेकी राय स्वयं कह उठते हैं— “गाँव में न नरक है, न स्वर्ग
है। ये सब फालतू मानदंड हैं। गाँव में सिर्फ परिवर्तित गाँव है। परिवर्तन सिर्फ
इतना हुआ कि आर्थिक सुधार की धावाधूपी में उसका जीवन-सौंदर्य नष्ट हो गया है।
...सभ्यता के धक्के से संस्कृति चूर-चूर हो रही है। सभ्यता का केंद्र नगर है और
संस्कृति का केंद्र गाँव है। तो अपने केंद्र से खिसका गाँव अपने समूचे अस्तित्व के
साथ इस समय आर्थिक मोर्चे पर लड़ रहा है।” निश्चय ही यह
अवधारणा एक स्वाभाविक औपन्यासिक अनुभव का ऊँचा स्तर प्रदान करती है।
आज
गाँवों का परिवेश बड़ी रफ़्तार से बदलता दिखता है। इस परिस्थिति में गाँवों को
उपन्यास के फ्रेम में मढ़कर सफ़ल होना उतना आसान काम नहीं है। आजकल ग्रामभित्तिक
उपन्यास ही एक प्रकार से अप्रासंगिक बन रहा है। लेकिन शिल्प एवं कथ्य की प्रौढ़ता
व समृद्धि की दृष्टि से ‘जल टूटता हुआ’,
‘आधा गाँव’, ‘अलग-अलग
वैतरणी’, ‘राग दरबारी’, ‘बबूल’ जैसे उपन्यासों ने
अपना-अपना नाम कमाया ही है। इन उपन्यासों के केंद्र में उभरा सामान्य विचार यह कि
आज गाँव नरक हो गया है। इसलिए ही संवेदनशील एवं समझदार व्यक्ति को अपने गाँव से
विदा लेना ही पड़ता है। श्री वेदप्रकाश अभिताभ के अनुसार “‘लोकऋण’ गाँव के प्रति इस निराशावादी और पलायनवादी मुद्रा को तोड़ने का संभवतः
पहला महत्वपूर्ण प्रयास है। इसका केंद्रीय चरित्र भागने के बजाय मरते हुए गाँव को
जिंदा रखने का इरादा करके गाँव की ज़िंदगी में जान बूझकर धँसता है।”
देश का
अभिशाप है कि गरीब को हमेशा गरीबी के पाताल में गिरता रहना पड़ता है। गाँव की
मेहनतकश आम जनता को संपन्न वर्गों द्वारा शोषित रहना पड़ता है। जिन्हें संघर्ष
करना है, उन्हें संघर्ष करने का तरीका भी मालूम नहीं। उपन्यासकार के लिए शोषण सबसे
घृणित बात है। “सबसे पड़ा पाप गरीब और कमजोर होकर समर्थ धनियों
का आहार होना है। इस गाँव में वह जब से होश हुआ देख रहा है कि ज़मीनवाले और बटोसे
के लिए क्या-क्या नहीं कर्म-कुकर्म करते हैं।” ‘लोकऋण’ उपन्यास की यही शक्ति है कि यह ग्रामीण
मेहनतकश आम जनता के शत्रुओं को खुला दिखाकर गाँव की अव्यवस्था के कारणों को समझाता
है, मोर्चा बंदी करता है।
आज भौतिक
विकास के कारण गाँव उन जीवन मूल्यों से छूट हो गया है जिनपर ग्रामीण जीवन की भव्य
इमारत खड़ी थी। ‘लोकऋण’ में
ग्रामीण जीवन की समस्त समस्याओं का कटु भाषा में विश्लेषण कर इनसे बचाने का सफल प्रयास
किया है। गिरीश इसलिए स्वीकार करता है, “जा गिरीश, ईश्वर
तुझे नहीं बख्शेगा तुम्हारे ही गाँव छोड़ते पुस्तकालय टूट गया। तुम्हारी निष्ठा से
सात आठ वर्ष में एक सजीव बौद्धिक वातावरण बन गया था।” वह जब
जब गाँव आता है उसका आहत मन गाँव से शहर की ओर भागता है और वह शहर में बसने की बात
सोचने लगता है, ‘और इसी गाँव में अवकाश प्राप्त कर मुझे रहना
है! नहीं, यह संभव नहीं, मरा गाँव अब गले नहीं उतर रहा है।’
कई बार वह यह निर्णय कर लेता है और अंत में रामपुर का सभापति बनना
स्वीकार करता है— रामपुर के पुनः जीवन के लिए। गाँव की दुर्दशा के लिए वे लोग
ज़्यादा जिम्मेदार हैं जो उच्च शिक्षा प्राप्त कर गाँव से भाग गये तथा ग्रामीण
जीवन से विरत हो गये।
अन्य
ग्रामभित्तिक उपन्यासों के समान ‘लोकऋण’
में भी दरिद्रता, कलह, चोरी, मुकदमेबाजी, अशिक्षा, ज़मींदारों के अन्याय,
अत्याचार, निंदा, स्तुति आदि का वर्णन भरपूर मिलता है। स्वातंत्र्योत्तर भारत के
गाँवों का सच्चा स्वरूप उपन्यास से ज़रूर मिलता है जैसे चकबंदी, पंपिंग सेट,
ट्रान्जिस्टर, पुस्तकालय, चाय-कॉफी, राजनीति आदि। श्री निशंक के शब्दों को उधार
लें तो ‘बनगंगी पोखरे की शारदी साँझ’
से प्रारंभ होने वाली यह कहानी बनगंगी महादेव के मंदिर के अंतिम दृश्य तक
पहुँचते-पहुँचते माटी की गमक में आकंठ डूबे लेखक की प्रतिबद्धता को ही उजागर नहीं
करती, उसके आस्थावादी आशावाद को भी कलात्मकता के साथ रूपायित करती है। बेहिचक
समर्थन कर सकते हैं कि ‘लोकऋण’ एक
स्वाभाविक, सीधा-सादा, ईमानदार, साफ-सुथरा एवं ठेठ जीवंत कृतियों में महत्वपूर्ण
स्थान के लिए पर्याप्त है और एक सरल-सहृदय पाठक के लिए इसमें बहुत-कुछ है।
संदर्भ ग्रंथ सूची:-
लोकऋण –-
डॉ. विवेकी राय, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी
लोकऋण
:
बनगंगी मुक्त है (समीक्षा) –- टूटते हुए गाँव का दस्तावेज,
विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, सं. सर्वजीत राय
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अनिल कुमार एन., कर्पगम विश्वविद्यालय, कोयंबत्तूर, तमिलनाडु में डॉ. पद्मावती अम्माल के निर्देशन में शोधरत हैं।
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