Tuesday, October 21, 2014

‘बैताल की अट्ठाईसवीं कथा’ : एक सामाजिक व्यंग्य

आलेख
                                              

  बैताल की अट्ठाईसवीं कथा’ : एक 

सामाजिक व्यंग्य
लालू तोमस


भारतीय साहित्य में व्यंग्य का रूप निरन्तर बदलते रहे हैं। शूद्रक के मृच्छ्कटिक से लेकर आज के चिंतन - प्रधान व्यंग्य तक की लम्बी यात्रा में उसने कितने ही रूप-आकार ग्रहण किये हैं। कभी वह व्यक्तिगत आक्रोश की अभिव्यक्ति का माध्यम बना है, तो कभी हास्य का सहयात्री बन कर सामाजिक विकृतियों पर ठहाका लगाता नजर आया है। हरिशंकर परसाई हिंदी के पहले रचनाकार हैं जिन्होंने व्यंग्य को विधा का दर्जा दिलाने का श्रेय किया। जीवन की विसंगतियों ने परसाई की लेखनी को धार दी और उनके लेखन में मनोवैज्ञानिक सनसनी पैदा करने वाली क्षमता बढ़ती गई। मध्यवर्गीय अंतर्द्वंद्व ने उन्हें व्यंग्यकार बना दिया ।  उन्होंने स्वातंत्र्योत्तर भरत में व्याप्त विसंगतियों के उद्घाटन का कार्य अपनी रचनाओं के माध्यम से किया ।  परसाई का मुख्य उद्देश्य रचना के द्वारा समाज में परिवर्तन केलिए संवेदनात्मक आधारों को तैयार करना था। इसलिए कहा जा सकता है कि उनका साहित्य स्वातंत्र्योत्तर भारत के प्रत्येक क्षेत्र का साहित्यिक इतिहास और दस्तावेज़ है। परसाई के पहले भी व्यंग्य का जीवन चित्रण के उपयोगी माध्यम के रूप में प्रयोग होता था लेकिन परसाई ने उसे अभूतपूर्वक महत्ता दी। परसाई का व्यंग्य केवल हास्य‌‌-विनोद या व्यवस्था पर प्रहार का सहित्य नहीं है, वह समाजिक – ऐतिहासिक निर्माण तथा पुनराविष्कार का भी काम करता है। स्वातंत्र्योत्तर भारत के यथार्थ को पाठकों तक पहुँचाने का परसई ने अनेक रूपों में प्रयास किया। पंचतन्त्र, हितोपदेश,कथासरित्सागर और बैताल पचीसी में जिस प्रकार कथा कही गयी है उसी से परसाई ने भी प्रेरणा ली है । परसाई इन रचनाओं को जीवन-विवेक और नीतिबोध करानेवाले प्रचीन ग्रंथ मानते हैं। परसाई ने इन्हीं कथाओं को आधार बना कर कुछ कहानियाँ लिखी हैं और समकालीन जीवन की विसंगतियों को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है। बैताल की अट्ठाईसवीं कथा भी उनका इसी प्रयास का फल है। यह जैसे उनके दिन फिरे की एक कहानी है। यह मात्र हास्य – व्यंग्य कहानी नहीं है पर इसमें परसाई की समकालीनता एवं व्यंग्य झलकता है। यह कहानी बैताल पचीसी की शैली में लिखी गयी है पर इसका मुख्य पात्र धरमचन्द पुराने समय का नहीं है, स्वातंत्र्योत्तर  भारत का है ।
धरमचन्द एक व्यापारी था । वह नाम के अनुरूप ही धर्मात्मा आद्मी था। वह सुबह-श्याम मंदिर जाता था। उसकी दूकान में धर्म-पेटी रखी थी। वह बडा मिलनसार और मधुर स्वभाव का व्यक्ति था। जाग्रत अवसस्था में उसके मुख पर चौडी मुस्कान खेला करती थी और इस लम्बी कसरत से उसका मुख कानों तक फट गया था। वह ईमानदार था क्योंकि ग्राहकों से बात करते हुए वह  ईमान से कहता जाता था। धर्मात्मा होने पर भी उस पर मामला-मुकदमे चलते रहते थे। ऐसा ही एक मुकदमा उस पर चल रहा था कि उस साहब का तबादला हो गया जिसके सामने वह मुकदमा था। मामला बडा कमजोर था और धरमचन्द की हार निश्चित थी पर वह निराश नहीं हुआ। संयोग से  नये साहब कमीज का कपडा खरीदने धरमचन्द की दूकान में घुस पडे। धरमचन्द ने पहचान लिया कि इसी साहब के सामने मामला है। साहब को कपडा पसंद आयाधरमचन्द ने साहब की खुशामत करने का प्रयास किया और साहब के पूछने पर भी कपडे का दाम नहीं बताया। लेकिन साहब ने हठ किया कि दाम देकर ही वे कपड़े खरीदेंगे। अंत में दाम सुनकर साहब निराश हो गये क्योंकि दाम ज्यादा था और कपड़े खरीदे बिना वे घर लौटे। धरमचन्द निराश नहीं हुआ। उसने प्रतिज्ञा की कि वह एक महीने के अंतर साहब को उसी कपड़े की कमीज पहना कर रहेगा। कुछ दिन बाद धरमचन्द ने उसी थान में से चार कमीजों का कपड़ा फाडा और उसे लेकर साहब के पास पहुँचा और वह बोला – अभी बम्बई गया था। वहाँ एक कट्पीस की दूकान में यह कपडा बडा सस्ता मिल गया। सस्ता कपड़ा पाकर साहब बहुत खुश हो गये। धरमचन्द ने कमीज की सिलाई केलिए  साहब के पास अपना विश्वासी दर्जी को भी भेज दिया। जिस दिन मामला पेश होना था उसी दिन सुबह  धरमचन्द तैयार कमीज ले कर साहब के पास पहुँचा। कमीजों को देख कर साहब प्रसन्न हुए और उन्होंने धरमचन्द को धन्यवाद दिया। सहब  नई कमीज पहन कर दफ्तर गये। साहब के सामने मामला पेश हुआ। इसी वक्त धरमचन्द सामने से साहब की ओर देखता निकल गया। दोनों मुसकरा उठे। साहब ने धरंचंद के पक्ष मे निर्णय लिया।
           कहानी का पात्र धरमचन्द दुहरे व्यक्तित्व वाला आदमी है। परसाई ने उनका परिचय रेखाचित्र, अनुभवों और अंतर्विरोधी वक्तव्यों के माध्यम से दिया है। धरमचन्द का परिचय देते हुए परसाई ने वक्रोक्तियों का सहारा ज्यादा लिया है। धरमचंन्द की मुसकान, प्रार्थना, दूकान में धर्म-पेटी रखने का कार्य सब दिखावे की बात है। इसके द्वारा वह अपने कापट्य को छिपाने का प्रयास करता है। नये साहब की आर्थिक परेशानी और उनका कपडे के प्रति लालच धरमचन्द समझ लेता है और उन्हें फँसाने की साजिशें तैयर करता है। कहनी में दिखाया गया है कि ईमान्दर  को भ्रष्ट बनाने केलिए कितनी तैयारी की जाती है, कैसे-कैसे प्रपंच रचे जाते हैं। स्वातंत्र्योत्तर  भरत में धरमचन्द जैसे लोग आज भी नये साहब जैसे लोगों को फँसाने केलिए व्यूह- रचना करते हैं। भ्रष्टाचार का यह भी एक रूप है।  कहानी के नये साहब महंगाई के शिकार होते हैं। साहब ईमानदार हैं पर अपनी विवशता पर पीडित हैं। वे अपनी ईमानदारी के हठ पर ज्यादा देर तक टिक  नहीं सकते। उनके व्यक्तित्व पर कपडा प्राप्त करने का लोभ  कब्जा कर लेता है। कर्मचारी जब लोभी होते हैं,  आसानी से भ्रष्टाचार के पक्ष में हो जाते हैं। आज की स्थिति में धरमचन्द और साहब के संबन्ध को बाजार एवं उनकी मायावी उपलब्ध और व्यक्ति की इच्छाओं के संबन्ध से जोड़ कर देखा जा सकता है।
           आज कर्मचारियों की आर्थिक स्थिति में परिवर्तन आ गया है पर इससे भ्रष्टाचार समाप्त नहीं हुआ है क्योंकि आज इच्छाओं ने और बजार ने मनुष्य को उपभोक्ता बना कर छोड़ दिया है। यह व्यवस्था का ही दोष है। इसलिए व्यवस्था में परिवर्तन लाना ही भ्रष्टाचार को दूर करने का पहला कदम है। भ्रष्टाचार के मौके खत्म किये बिना और कर्मचारियों को आर्थिक सुरक्षा दिये बिना भाषणों, सर्कुलरों, उपदेशों, सदाचार समितियों और निगरानी आयोगों के द्वारा कर्मचारी  कभी सदाचारी नहीं बनते। कहानी के साहब बडे भ्रष्टाचारी नहीं हैं, वे छोटे भ्रष्टाचारी भी नहीं है, क्योंकि कहानी में सब कुछ होने का कारण तो धरमचन्द है, लेकिन परसाई की यह कहानी भ्रष्टाचार के एक अन्य रूप को प्रस्तुत करती है और भ्रष्टाचार पर बहस करने वालों के सामने एक और प्रश्न भी उपस्थित करती है।
संदर्भ ग्रंथ -
1 जैसे उनके दिन फिरे । – हरिशंकर परसाई।
2 हरिशंकर परसाई - व्यंग्य की व्याप्ति और गहराई । - वेद प्रकाश।
3 व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई । - भरत पटेल ।

लालू तोमस, कर्पगम विश्वविद्यालय, कोयम्बतूर, तमिलनाडु में डॉ. के .पी. पद्मावति अम्मा के निर्देशन में पीएच.डी. उपाधि के लिए शोधरत हैं।


1 comment:

देवदत्त प्रसून said...

मित्र !आप को धन तेरस और दीवाली के अन्य पञ्च-पर्व की वधाई ! सुन्दर व्यंग्य!