सोरठा-दोहा गीत
दो चित्र : एक प्रतिक्रिया
-संजीव वर्मा 'सलिल'
कई झाड़ुएँ साथ
जहाँ- न कचरा वहाँ हैं
लचक न जाएँ हाथ
थामे हैं होकर सजग
कचरा मन में सड़ रहा
कैसे होगा दूर
प्यार प्रदर्शन कर रहे
पेशेवर हो क्रूर
सिर्फ शरीरों से किया
कृत्य हुआ बेनूर
लगता है वीभत्स यह
तजिए, बनें न सूर
होते हैं आरम्भ
प्रेम-सफाई घरों से
हुआ प्रदर्शित दम्भ
वृथा प्रदर्शन- लें समझ
देख-देख यह कृत्रिमता
सच को आती शर्म
गर्व करें अनुभव विहँस
ये नादां बेशर्म
है प्रचार के लिए ही
यह नौटंकी कर्म
काश समझ पाते तनिक
प्रेम-कर्म का मर्म
किसे पड़ेगा फर्क
आप थूक या चूम लें
करते रहें कुतर्क
उड़ी हँसी, जग घूम लें
हो विनम्र झुककर करें
साफ़-सफाई आप
तनकर चलती नायिका
रूप गया जग-व्याप
मन से जब तक दर्प का
हटे न कचरा- शाप
पुण्य बताकर कर रही
तब तक जानें पाप
जन-मन से अनजान
अख़बारों की खबर बन
घटा रहीं आधार
हे माँ! हेमा आज तन
देह-देह की चाहकर
हुई देह के संग
गेह न पाया प्रेम ने
हुआ रंग बदरंग
इतने पर ही क्यों रुकें?
आगे करिए जंग
बेशर्मी से उतारें
चाहें कपडे तंग
देख अशोभन कृत्य
पशु भी लज्जित हो रहे
दानव मानव भेस में
काहे को दुःख बो रहे
अवनत करते जा रहे
उन्नति के सोपान
मुर्दा शूकर कर लिए
कहें करो गोदान
माटी में देंगे मिला
जनक-जननि की आन
घर से निकले आज ये
मन में यह हठ ठान
नहीं साथ में आरहे
बंधु-बांधवी शर्म कर
नज़र मिला ना पा रहे
खुद से गर्हित कर्म कर
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