आलेख
कबीर की निर्गुण उपासना
- सिमी. एस. कुरुप, कोयंबत्तूर (तमिलनाडु)*
भारतीय धर्म साधना के इतिहास में कबीरदास जी एक ऐसे विचारक एवं प्रतिभाशाली
कवि हैं, जिन्होंने दीर्ध काल तक भारतीय जनता का पथ प्रदर्शन किया I निर्गुण माने सत्व, रजस् और तमस् आदि गुणों से मुक्त I इन तीन गुणों से ही अहंकार, बुद्धि, शरीर, जन्म-मरण आदि विकृतियों का विकास होता है I परमात्मा इन गुणों से परे, निर्गुण-निराकार हैं I निर्गुण संतों ने राम को सगुण न
मानकर लौकिक गुणों से रहित निर्गुण माना I निर्गुण मत का उपदेश है कि हृदय में स्थित भगवान को न देखकर बाहर मंदिर में
जाकर देवी-देवताओं की पूजा करना ठीक नहीं है I इन्होंने मूर्तिपूजा का भी विरोध किया है I निर्गुण-संप्रदाय के अनुसार अपनी जीविका के लिए भिक्षा लेना ईश्वरानुभूति में विघ्न
लाता है I किसी से कुछ मांगना कबीर ने मृत्यु
के समान दुखदायी बताया है I
परम्परागत रूढियों, अंधविश्वासों, बाह्य आडंबरों के विरोधी कबीरदास जी ने सभी धर्मों की मूलभूत एकता को स्वीकार
किया है I निर्गुण संत होने के कारण उन्होंने
मूर्तिपूजा, व्रत, उपवास आदि का विरोध करते हुए धर्म के सामान्य तत्वों-सत्य, अहिंसा, प्रेम, करूणा, संयम, सदाचार आदि का समर्थन करते हुए एक व्यापक धर्म की प्रतिष्ठा की, जिसे सब लोग समान रुप से अपना सकें । निर्गुण-निराकार ईश्वर में विश्वास रखने वाले कबीरदास संसार में ईश्वर का एक ही रूप
देखते थे । जातियों और उपजातियों में विभक्त समाज के विद्वेष को दूर करने के लिए
उऩ्होंने ऐकेश्वरवाद का प्रचार किया । कबीरजी ने राम की महत्ता स्वीकार की है ।
किन्तु वे दशरथ पुत्र राम के उपासक नहीं थे । उनका राम निर्गुण-निराकार परब्रह्म था । कबीर ने इस ‘राम’ के लिए ‘हरि’, ‘गोविंद’, ‘केशव’, ‘माधव’ आदि अनेक शब्दों का प्रयोग किया है जो उसकी अनन्त
गुणराशि को संकेत करने के लिए किया है । विश्व सृष्टि के रुप में व्यापक राम को ‘विष्णु’, जीव के दस दरवाजों को खोल
देनेवाले राम को ‘करीम’, ज्ञानगम्य राम को ‘गोरख’, अलख निरंजन राम को ‘अल्लाह’ तीनों भुवन के एकमात्र योगी राम को ‘नाथ’ कहते हुए उन्होंने यह प्रतिपादन करना चाहा कि ‘राम’ सनातन तत्व है और वही सर्वरूपों में विद्यमान है । ऐसा प्रतीत होता है कि
प्रेमवश कबीर ने अपने राम को विभिन्न नामों में पुकारा है।
कबीर के अनुसार अन्योन्याश्रय भाव से परमात्मा विश्व में और विश्व परमात्मा
में उपस्थित है । इसी कारण से वे मन्दिर और मूर्ति में उसे सीमित करना पसंद नहीं
करते । उनके मत में परमात्मा का वर्णन किसी सीमित रूप-रेखा में असंभव है । उनका अंतिम निर्णय यही रहा कि “केवल वही है, और कोई नहीं है” । उनके निर्गुण का विधान और सगुण का निषेध इसी
तात्पर्य से प्रेरित है ।
*सिमी. एस. कुरुप, कर्पगम विश्वविद्यालय, कोयंबत्तूर में डॉ. पद्मावती अम्माल के निर्देशन में पीएच.डी. उपाधि के लिए शोधरत हैं ।
*सिमी. एस. कुरुप, कर्पगम विश्वविद्यालय, कोयंबत्तूर में डॉ. पद्मावती अम्माल के निर्देशन में पीएच.डी. उपाधि के लिए शोधरत हैं ।