श्यामल सुमन की छः कविताएँ
इक दिवाली ये भी है
बिजलियों से जगमगाई, इक दिवाली ये भी है
रोशनी घर तक न आई, इक दिवाली ये भी है
दीप अब दिखते हैं कम ही, मर रही कारीगरी
मँहगी है दियासलाई, इक दिवाली ये भी है
थी भले कम रोशनी पर, दिल बहुत रौशन तभी
रीत उल्टी क्यों बनाई, इक दिवाली ये भी है
देखते ललचा के लाखों, कुछ के तन कपड़े नए
फुलझड़ी ने मुँह चिढ़ाई, इक दिवाली ये भी है
खाते हैं कुछ फेंक देते, और जूठन छोड़ते
बस सुमन देखे मिठाई, इक दिवाली ये भी है
सुमन अंत में सो जाए
कैसा उनका प्यार देख ले
आँगन में दीवार देख ले
दे बेहतर तकरीर प्यार पर
घर में फिर तकरार देख ले
दीप जलाते आँगन में
मगर अंधेरा है मन में
समाधान हरदम बातों से
व्यर्थ पड़े क्यूँ अनबन में
अब के बच्चे आगे हैं
रीति-रिवाज से भागे हैं
संस्कार ही मानवता के
प्राण-सूत्र के धागे हैं
सुन्दर मन काया सुन्दर
ये दुनिया, माया सुन्दर
सभी मसीहा खोज रहे हैं
बस उनकी छाया सुन्दर
मन बच्चों सा हो जाए
सभी बुराई खो जाए
गुजरे जीवन इस प्रवाह में
सुमन अंत में सो जाए
गीत नया तू गाना सीख
खुद से देखो उड़ के यार
एहसासों से जुड़ के यार
जैसे गूंगे स्वाद समझते,
कह ना पाते गुड़ के यार
कैसा है संयोग यहाँ
सुन्दर दिखते लोग यहाँ
जिसको पूछो वे कहते कि
मेरे तन में रोग यहाँ
मजबूरी का रोना क्या
अपना आपा खोना क्या
होना जो था हुआ आजतक,
और बाकी अब होना क्या
क्यों देते सौगात मुझे
लगता है आघात मुझे
रस्म निभाना अपनापन में,
लगे व्यर्थ की बात मुझे
गीत नया तू गाना सीख
कोई नहीं बहाना सीख
बहुत कीमती जीवन के पल,
हर पल खुशियाँ लाना सीख
इक दूजे को जाना है
दुनिया को पहचाना है
फिर भी प्रायः लोग कहे कि
सुमन बहुत अनजाना है
सोने की आरजू में सोना चला गया
जीवन को समझने की, सारी हैं कोशिशें
जितना भी कर सका हूँ, प्यारी हैं कोशिशें
जीने के सिलसिले में उठते हैं नित सवाल
निकलेगा हल सुमन की, जारी हैं कोशिशें
अपने ही घर में देखो, मेहमान कौन है
अपनी ही बुराई से, अनजान कौन है
नजरें जिधर भी जातीं बस आदमी दिखे
खोजो सुमन कि भीड़ में, इन्सान कौन है
जो चौक में बैठा था, कोना चला गया
जादू के साथ साथ में, टोना चला गया
पाने के लिए खोने की, रीति है सुमन
सोने की आरजू में सोना चला गया
रिश्तों में जो थे अपने, वो दूर हो गए
कहते हैं कि हालात से मजबूर हो गए
चेहरे की देख रौनक, ऐसा लगा सुमन
मजबूर ये नहीं हैं, मगरूर हो गए
कहते सभी को मिलता, जितना नसीब है
जिसको भी पूछो कहता, वह तो गरीब है
मेहनत का फल ही मिलता, बातें नसीब की
उलझी सुमन की दुनिया, बिल्कुल अजीब है
भाई से प्रतिघात करो
मजबूरी का नाम न लो
मजबूरों से काम न लो
वक्त का पहिया घूम रहा है
व्यर्थ कोई इल्जाम न लो
धर्म, जगत - श्रृंगार है
पर कुछ का व्यापार है
धर्म सामने पर पीछे में
मचा हुआ व्यभिचार है
क्या जीना आसान है
नीति नियम भगवान है
न्याय कहाँ नैसर्गिक मिलता
भ्रष्टों का उत्थान है
रामायण की बात करो
भाई से प्रतिघात करो
टूट रहे हैं रिश्ते सारे
कारण भी तो ज्ञात करो
सुमन सभी संजोगी हैं
कहते मगर वियोगी हैं
हृदय-भाव की गहराई में
घने स्वार्थ के रोगी हैं
बेदर्द शाम हो जाए
हवाएं सर्द जहाँ, बेदर्द शाम हो जाए
मेरी वो शाम, तुम्हारे ही नाम हो जाए
बदन सिहरते ही बजते हैं दाँत के सरगम
करीब आ, तेरे हाथों से जाम हो जाये
घना अंधेरा मेरे दिल में और दुनिया में
तुम्हारे आने से रौशन तमाम हो जाए
छुपाना इश्क ही कबूल-ए-इश्क होता है
जुबां से कह दो सभी को ये आम हो जाए
सुमन हटा दे सभी चिलमन तो मिलन होगा
रहीम इश्क है, कहीं पे राम हो जाए
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