अतृप्त कामनाएँ
- एस. निर्मला, विशाखपट्टणम
हर बार टूट कर जुड़ती हूँ
बार-बार बिखर संवरती हूँ
किंतु छूट जाते हैं कुछ
नहीं समेट पाती सब कुछ
अतृप्त कामनाओं के टुकड़े
पड़े रहते हैं चारों ओर
मुझे देखते और चिढ़ाते, कहते
देख हमें और सोच फिर
क्या खोया क्या पाया तूने
किस बात पर इतराती हो
आएगा इक दिन वह भी
हम-सी बिखरी मिलोगी कहीं !
No comments:
Post a Comment