अन्ना की परवाह होती तो सरकार अब तक फैसला ले चुकी होती
-संजय द्विवेदी
देश के लिए 74 साल का एक बुजुर्ग दिल्ली में भूखा बैठा है और सरकारें इफ्तार पार्टियां उड़ा रही हैं। वे अन्ना हजारे से जीत नहीं सकतीं, इसलिए उन्हें थकाने में लगी हैं। सरकार की संवेदनहीनता इस बात से पता चलती है कि उसने कहा कि “अनशन अन्ना की समस्या है, हमारी नहीं।” इतनी क्रूर और संवेदनहीन सरकार को क्या जनता माफ कर पाएगी ? इसके साथ ही मुख्य विपक्षी दल की नीयत और दिशाहीनता पर सवाल अब उनके सांसद ही सवाल उठाने लगे हैं। भाजपा के सांसद यशवंत सिन्हा, शत्रुध्न सिन्हा, उदय सिंह और वरूण गांधी का तरीका बताता है कि पार्टी के भीतर सब कुछ सामान्य नहीं है।
संसद के नाम पर चल रहा छलः
जनता का रहबर होने का दम भरने वाली राजनीतिक पार्टियां संसद की सर्वोच्चता के नाम पर अपने पापों पर पर्दा डालना चाहती है। सरकार ने अन्ना के सवाल पर आजतक सारे फैसले गलत लिए हैं और हर कार्रवाई के बाद पीछे हाथ खींचे हैं। आगे भी वह अपने फैसलों पर पछताएगी ही। फिलहाल तो सरकार की रणनीति पिछले दस दिनों से मामले को लंबा खींचने और आंदोलन को थकाने की है। किंतु इस बार भी उसका आकलन गलत ही साबित होगा। अन्ना को थकाने वाले खुद थक रहे हैं और रोज जनता की नजरों से गिर रहे हैं। जिस लोकपाल बिल को लगभग हर पक्ष से जुड़े लोग बेकार बता चुके हैं उससे केंद्र की सरकार को इतना मोह क्यों है, यह समझना लगभग मुश्किल है। लेकिन बुधवार की सर्वदलीय बैठक ने सरकार को एक ताकत जरूर दी है। जब राजनीतिक फैसले करने चाहिए सरकार और विपक्ष मिलकर संसद का रोना रो रहे हैं, किंतु उन्हें नहीं पता कि बातें अब आगे निकल चुकी हैं। अन्ना का आंदोलन अब जन-जन का आंदोलन बन गया है।
अन्ना की चिंता नहीं, सवालों से मुंह चुरा रहेः
सरकार के लोग निरंतर यह विलाप कर रहे हैं कि उन्हें अन्ना की सेहत की चिंता है। किंतु अगर उन्हें उनकी चिंता होती तो क्या दस दिनों तक कोई मार्ग नहीं निकलता? सरकार पहले उन पर अपने दरबारियों से हमले करवाती है, इसके बाद उन्हें गिरफ्तार करती है, फिर छोड़ देती है। फिर दो दिनों तक रामलीला मैदान साफ करवाने के बाद उन्हें अनशन के लिए जगह देती है। चार दिनों तक कोई गंभीर संवाद नहीं करती और जब प्रयास शुरू भी करती है तो उसमें गंभीरता नहीं दिखती। प्रधानमंत्री जिस तरह तदर्थ आधार पर सरकार चला रहे हैं वह बात पूरे देश को निराश करती है।
इसने बड़े आंदोलन और सवालो को नजरंदाज करके सरकार आखिर चाहती क्या है यह समझ से परे है। दरअसल सरकार पुरानी राजनीतिक शैलियों से आंदोलन को तोड़ना चाहती है। जिसमें पहला प्रयास अन्ना की छवि बिगाड़ने, उन्हें डराने और धमकाने के हुए, इसके बाद अब सरकार इसे लंबा खींचने में लगी है। सरकार को यह अंदाजा है कि अंततः आंदोलन कमजोर पड़ेगा, बिखरेगा और चाहे-अनचाहे हिंसा की ओर बढ़ेगा,ऐसे में इसे दबाना और कुचलना आसान हो जाएगा। निश्चय ही इतने लंबे आंदोलन में अब तक शांति बने रहना साधारण नहीं है। यह सारा कुछ इसलिए हो पाया क्योंकि अन्ना का नैतिक बल इसके पीछे है। किंतु कोई संगठनात्मक आधार न होने के कारण सरकार इस आंदोलन के बिखराव के लिए आश्वस्त है। सरकार को यह भी लगता है कि इस बार वह बच निकली तो जनता की स्मृति बहुत क्षीण होती है और वह मनचाहा लोकपाल पारित करा लेगी।
विपक्ष की भूमिका भी सरकार के सहयोगी सरीखीः
विपक्ष की भूमिका भी इस मामले में सरकार के लिए राहत देने वाली रही है। इस मामले में सरकार पोषित बुद्धिजीवी वातावरण को बिगाड़ने का काम कर रहे हैं। वे अन्ना को तमाम मुद्दों पर घेरना चाहते हैं। जैसे धर्मनिरपेक्षता या आरक्षण के सवाल। वे यह भूल जाते हैं इस देश में धर्मनिरपेक्षता अपने तरीके ओढ़ी-बिछाई और इस्तेमाल की जाती रही है। धर्मनिरपेक्षता के मसीहा वीपी सिंह की सरकार को भाजपा और वामदलों दोनों का समर्थन हासिल था। उप्र में मुलायम सिहं यादव, बिहार में लालूप्रसाद यादव दोनों भाजपा के समर्थन से सरकारें चला चुके हैं। एनडीए की सरकार में शरद यादव, उमर फारूख, ममता बनर्जी और रामविलास पासवान सभी मंत्री रहे हैं। इसी दौर में गुजरात के दंगे भी हुए आप बताएं कि इनमें कौन मंत्री पद छोड़कर अपनी धर्मनिरपेक्षता पर कायम रहा? संसद की सर्वोच्चता की बार-बार बात करने वाले सांसद और राजनीतिक दल शायद यही कहना चाहते हैं कि जनता नहीं, वे ही मालिक हैं। वे जनता के नहीं, जनता उनकी सेवक है। यह उसी तरह है जैसे एक माफिया, हजारों लोगों के बीच भय का ही व्यापार करता है। लोग उससे डरना छोड़ देंगें, तो वो क्या करेगा ? सांसद भी डरे हुए हैं। उन्हें लगता है लोग अगर मुक्तकंठ से बात करने लगे, उनका भय समाप्त हो गया तो क्या होगा? उनके जनप्रतिनिधि के भीतर छिपा सामंती भाव उन्हें सच कहने और करने से रोक रहा है। कल तक अन्ना को भ्रष्ट और अहंकारी बताने वाले, उन्हें अकारण गिरफ्तार करने वाले, राजनेता आज अन्ना के लिए धड़ियाली आंसू बहा रहे हैं। उनके स्वास्थ्य की चिंता में दुबले हुए जा रहे हैं। आखिर इस नौटंकी को क्या जनता नहीं समझती ? सही मायने में सरकार को अन्ना के स्वास्थ्य की चिंता करने के बजाए अपने स्वास्थ्य की चिंता करनी चाहिए। अन्ना के अनशन का एक-एक दिन सरकार पर भारी पड़ रहा है और जनरोष स्थायी भाव में बदल रहा है।
बौद्धिक कुलीनों का बेसुरा रागः
बहुत अफसोस है देश के बुद्धिजीवी जिन्हें माओवादियों, कश्मीर के अली शाह गिलानी जैसे अतिवादियों का समर्थन करने और आईएसआई के एजेंट फई के कथित कश्मीर मुक्ति से जुड़े सेमिनारों में पत्तलें चाटने से एतराज नहीं हैं वे भी अन्ना की नीयत पर शक कर रहे हैं। यह देखकर भी कि प्रशांत भूषण, मेधा पाटकर और स्वामी अग्निवेश जैसे लोग भी अन्ना के साथ खड़े हैं, उन्हें यह अज्ञात भय खाए जा रहा है कि अन्ना के आंदोलन को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग हड़प लेंगें। इन बिकाऊ और उधार की बुद्धि के आधार पर अपना काम चलाने वाले बुद्धिजीवी भी देश का एक बड़ा संकट हैं। अन्ना के खिलाफ कुछ बुद्धिजीवी जिस तरह के आरोप लगा रहे हैं कि उसमें भारत की समझ न होना और पूर्वाग्रह ही दिखता है। खासकर अंग्रेजी चैनलों में गपियाते और अंग्रेजियत की मानसिकता से भरे ये लोग शायद अन्ना की पृष्ठभूमि और अपरिष्कृत शैली के कारण उनसे दूरी बनाए हुए हैं, हालांकि भारत जैसे देश में ऐसे बौद्धिक कुलीनों का कोई महत्व नहीं हैं किंतु अगर ये साथ होते तो अन्ना को आंदोलन को ज्यादा व्यापकता मिल पाती। क्योंकि शासन सत्ता में इन्हीं बौद्धिक कुलीनों की बात सुनी जाती है, सो अन्ना की भावनाएं सत्ता के कानों तक पहुंच पातीं।
यह अकारण नहीं है कि अरूंधती राय ने लिखा कि वे अन्ना नहीं बनना चाहेंगीं। जबकि सच यह है कि वे अन्ना बन भी नहीं सकतीं। अन्ना बनने के जिस धैर्य, रचनाशीलता, सातत्य और संयम की आवश्यक्ता है क्या वह अरूधंती के पास है ? अन्ना के पास राणेगढ़ सिद्धि जैसा एक प्रयोग है जबकि अरूंधती के पास देशतोड़क विचारों को समर्थन करने का ही अतीत है। किंतु अरूंधती इस समय भारतीय राज्य के साथ खड़ी हैं। क्योंकि वह राज्य और पुलिस दिल्ली में अरूंधती को भारत को भूखे नंगों का देश कहने के बाद भी उन पर मुकदमा दर्ज नहीं करता और अन्ना जैसे संत को अकारण तिहाड़ में डाल देता है। क्या भारतीय लोकतंत्र को निरंतर कोसने वाली अरूंधती दिल्ली पुलिस और गृहमंत्रालय के इसी अहसान का बदला चुकाने के लिए अन्ना के आंदोलन की तुलना माओवादियों के कामों से कर रही हैं और इस आंदोलन को लोकतंत्र को कमजोर करने वाला बता रही हैं।
विश्वसनीयता खोती सरकारः
तमाम सवाल हमारे पास हैं किंतु सबसे बड़ी बात यह है कि अन्ना के प्रति सरकार जिस संवेदनहीनता का परिचय दे रही है, उसकी मिसाल न मिलेगी। बस, अन्ना के लिए दुआएं कि वे अपनी हर लड़ाई जीतें क्योंकि यह लड़ाई भारत के आम आदमी में स्वाभिमान भर रही है। हर क्षण यह बता रही है कि जनता ही लोकतंत्र में मालिक है, जबकि जनप्रतिनिधि उसके सेवक हैं। दिल्ली के दर्प दमन का अन्ना का अभियान अपनी मंजिल तक जरूर पहुंचेगा और वह दिन भारत के सौभाग्य का क्षण होगा। अन्ना जेल में हों या जेल के बाहर उनकी आवाज सुनी जाएगी क्योंकि वे अब देश के आखिरी आदमी की आवाज बन चुके हैं और निश्चित ही सरकार अब अपना नैतिक व विश्वसनीयता दोनों ही खो चुकी है। ऐसे में देश की आम जनता ही अपने विवेक से सच और गलत का फैसला करेगी। इसके परिणाम आने वाले दिनों में जरूर दिखेंगें।
इतना तो तय है कि सरकार और उसके सलाहकारों को देश के मानस की समझ नहीं है। वह भारतीय जनता के व्यापक स्मृतिदोष के सहारे अपनी चालें चल रही है किंतु इतिहास बताता है कि चालाकियां कई बार खुद पर भारी पड़ती हैं। दंभ, दमन, छल और षडयंत्र निश्चय ही लंबी राजनीति के लिए मुफीद नहीं होते किंतु लगता है कि राजनीतिक दलों ने इन्हें ही अपना मंत्र बना लिया है। छल और बल से यह लड़ाई जीतकर सांसद अपना रूतबा बना भी लें किंतु वे जनता का भरोसा, प्रामणिकता और विश्वसनीयता खो देंगें, जब यही नहीं रहेगा तो इस संसद व सरकार के मायने क्या हैं? क्योंकि कोई भी राजनीति अगर जनविश्वास खो देती है तो उसका किसी जनतंत्र में मतलब क्या रह जाता है ? डा. राममनोहर लोहिया कहा करते थे –“लोकराज लोकलाज से चलता है।” क्या हमें उनकी बात अनसुनी कर देना चाहिए ?
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)