Saturday, August 27, 2011

अन्ना तेरी जय हो ....

-नन्द लाल भारती

जन लोक पाल बिल पास हुआ
अन्ना का सफल हुआ त्याग
जय हो अन्ना तेरी जय हो ....
तू अन्ना मैं अन्ना देश अन्ना
अन्ना तेरी जीत मेरी जीत
आम आदमी और देश की जीत
जय हो अन्ना तेरी जय हो ....
जन लोक बिल बहुमत से पास
आम आदमी को मिलेगा हक़
बना है विश्वास
जय हो अन्ना तेरी जय हो ....
अन्ना तू चन्दन वन
शिव समान
तिल-तिल जल कर
बढ़ा दिया
संविधान लोक तंत्र का स्वाभिमान
जय हो अन्ना तेरी जय हो ....
भ्रष्टाचार ,जातिवाद ,शोषण
घुसखोरी पर कसे लगाम
अन्ना अभिन्दन ,वंदन
जग करे सलाम
जय हो अन्ना तेरी जय हो ....
जय जय जय हो
अन्ना की जय हो
संविधान की जय लोकतंत्र की जय
युवा तेरी विजय
आम जन की जय
जय-जय जय हो अन्ना तेरी जय हो ....

/ २८.०८.२०११

Thursday, August 25, 2011

वे जीत नहीं सकते इसलिए थकाना चाहते हैं

अन्ना की परवाह होती तो सरकार अब तक फैसला ले चुकी होती

-संजय द्विवेदी

देश के लिए 74 साल का एक बुजुर्ग दिल्ली में भूखा बैठा है और सरकारें इफ्तार पार्टियां उड़ा रही हैं। वे अन्ना हजारे से जीत नहीं सकतीं, इसलिए उन्हें थकाने में लगी हैं। सरकार की संवेदनहीनता इस बात से पता चलती है कि उसने कहा कि अनशन अन्ना की समस्या है, हमारी नहीं। इतनी क्रूर और संवेदनहीन सरकार को क्या जनता माफ कर पाएगी ? इसके साथ ही मुख्य विपक्षी दल की नीयत और दिशाहीनता पर सवाल अब उनके सांसद ही सवाल उठाने लगे हैं। भाजपा के सांसद यशवंत सिन्हा, शत्रुध्न सिन्हा, उदय सिंह और वरूण गांधी का तरीका बताता है कि पार्टी के भीतर सब कुछ सामान्य नहीं है।

संसद के नाम पर चल रहा छलः

जनता का रहबर होने का दम भरने वाली राजनीतिक पार्टियां संसद की सर्वोच्चता के नाम पर अपने पापों पर पर्दा डालना चाहती है। सरकार ने अन्ना के सवाल पर आजतक सारे फैसले गलत लिए हैं और हर कार्रवाई के बाद पीछे हाथ खींचे हैं। आगे भी वह अपने फैसलों पर पछताएगी ही। फिलहाल तो सरकार की रणनीति पिछले दस दिनों से मामले को लंबा खींचने और आंदोलन को थकाने की है। किंतु इस बार भी उसका आकलन गलत ही साबित होगा। अन्ना को थकाने वाले खुद थक रहे हैं और रोज जनता की नजरों से गिर रहे हैं। जिस लोकपाल बिल को लगभग हर पक्ष से जुड़े लोग बेकार बता चुके हैं उससे केंद्र की सरकार को इतना मोह क्यों है, यह समझना लगभग मुश्किल है। लेकिन बुधवार की सर्वदलीय बैठक ने सरकार को एक ताकत जरूर दी है। जब राजनीतिक फैसले करने चाहिए सरकार और विपक्ष मिलकर संसद का रोना रो रहे हैं, किंतु उन्हें नहीं पता कि बातें अब आगे निकल चुकी हैं। अन्ना का आंदोलन अब जन-जन का आंदोलन बन गया है।

अन्ना की चिंता नहीं, सवालों से मुंह चुरा रहेः

सरकार के लोग निरंतर यह विलाप कर रहे हैं कि उन्हें अन्ना की सेहत की चिंता है। किंतु अगर उन्हें उनकी चिंता होती तो क्या दस दिनों तक कोई मार्ग नहीं निकलता? सरकार पहले उन पर अपने दरबारियों से हमले करवाती है, इसके बाद उन्हें गिरफ्तार करती है, फिर छोड़ देती है। फिर दो दिनों तक रामलीला मैदान साफ करवाने के बाद उन्हें अनशन के लिए जगह देती है। चार दिनों तक कोई गंभीर संवाद नहीं करती और जब प्रयास शुरू भी करती है तो उसमें गंभीरता नहीं दिखती। प्रधानमंत्री जिस तरह तदर्थ आधार पर सरकार चला रहे हैं वह बात पूरे देश को निराश करती है।

इसने बड़े आंदोलन और सवालो को नजरंदाज करके सरकार आखिर चाहती क्या है यह समझ से परे है। दरअसल सरकार पुरानी राजनीतिक शैलियों से आंदोलन को तोड़ना चाहती है। जिसमें पहला प्रयास अन्ना की छवि बिगाड़ने, उन्हें डराने और धमकाने के हुए, इसके बाद अब सरकार इसे लंबा खींचने में लगी है। सरकार को यह अंदाजा है कि अंततः आंदोलन कमजोर पड़ेगा, बिखरेगा और चाहे-अनचाहे हिंसा की ओर बढ़ेगा,ऐसे में इसे दबाना और कुचलना आसान हो जाएगा। निश्चय ही इतने लंबे आंदोलन में अब तक शांति बने रहना साधारण नहीं है। यह सारा कुछ इसलिए हो पाया क्योंकि अन्ना का नैतिक बल इसके पीछे है। किंतु कोई संगठनात्मक आधार न होने के कारण सरकार इस आंदोलन के बिखराव के लिए आश्वस्त है। सरकार को यह भी लगता है कि इस बार वह बच निकली तो जनता की स्मृति बहुत क्षीण होती है और वह मनचाहा लोकपाल पारित करा लेगी।

विपक्ष की भूमिका भी सरकार के सहयोगी सरीखीः

विपक्ष की भूमिका भी इस मामले में सरकार के लिए राहत देने वाली रही है। इस मामले में सरकार पोषित बुद्धिजीवी वातावरण को बिगाड़ने का काम कर रहे हैं। वे अन्ना को तमाम मुद्दों पर घेरना चाहते हैं। जैसे धर्मनिरपेक्षता या आरक्षण के सवाल। वे यह भूल जाते हैं इस देश में धर्मनिरपेक्षता अपने तरीके ओढ़ी-बिछाई और इस्तेमाल की जाती रही है। धर्मनिरपेक्षता के मसीहा वीपी सिंह की सरकार को भाजपा और वामदलों दोनों का समर्थन हासिल था। उप्र में मुलायम सिहं यादव, बिहार में लालूप्रसाद यादव दोनों भाजपा के समर्थन से सरकारें चला चुके हैं। एनडीए की सरकार में शरद यादव, उमर फारूख, ममता बनर्जी और रामविलास पासवान सभी मंत्री रहे हैं। इसी दौर में गुजरात के दंगे भी हुए आप बताएं कि इनमें कौन मंत्री पद छोड़कर अपनी धर्मनिरपेक्षता पर कायम रहा? संसद की सर्वोच्चता की बार-बार बात करने वाले सांसद और राजनीतिक दल शायद यही कहना चाहते हैं कि जनता नहीं, वे ही मालिक हैं। वे जनता के नहीं, जनता उनकी सेवक है। यह उसी तरह है जैसे एक माफिया, हजारों लोगों के बीच भय का ही व्यापार करता है। लोग उससे डरना छोड़ देंगें, तो वो क्या करेगा ? सांसद भी डरे हुए हैं। उन्हें लगता है लोग अगर मुक्तकंठ से बात करने लगे, उनका भय समाप्त हो गया तो क्या होगा? उनके जनप्रतिनिधि के भीतर छिपा सामंती भाव उन्हें सच कहने और करने से रोक रहा है। कल तक अन्ना को भ्रष्ट और अहंकारी बताने वाले, उन्हें अकारण गिरफ्तार करने वाले, राजनेता आज अन्ना के लिए धड़ियाली आंसू बहा रहे हैं। उनके स्वास्थ्य की चिंता में दुबले हुए जा रहे हैं। आखिर इस नौटंकी को क्या जनता नहीं समझती ? सही मायने में सरकार को अन्ना के स्वास्थ्य की चिंता करने के बजाए अपने स्वास्थ्य की चिंता करनी चाहिए। अन्ना के अनशन का एक-एक दिन सरकार पर भारी पड़ रहा है और जनरोष स्थायी भाव में बदल रहा है।

बौद्धिक कुलीनों का बेसुरा रागः

बहुत अफसोस है देश के बुद्धिजीवी जिन्हें माओवादियों, कश्मीर के अली शाह गिलानी जैसे अतिवादियों का समर्थन करने और आईएसआई के एजेंट फई के कथित कश्मीर मुक्ति से जुड़े सेमिनारों में पत्तलें चाटने से एतराज नहीं हैं वे भी अन्ना की नीयत पर शक कर रहे हैं। यह देखकर भी कि प्रशांत भूषण, मेधा पाटकर और स्वामी अग्निवेश जैसे लोग भी अन्ना के साथ खड़े हैं, उन्हें यह अज्ञात भय खाए जा रहा है कि अन्ना के आंदोलन को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग हड़प लेंगें। इन बिकाऊ और उधार की बुद्धि के आधार पर अपना काम चलाने वाले बुद्धिजीवी भी देश का एक बड़ा संकट हैं। अन्ना के खिलाफ कुछ बुद्धिजीवी जिस तरह के आरोप लगा रहे हैं कि उसमें भारत की समझ न होना और पूर्वाग्रह ही दिखता है। खासकर अंग्रेजी चैनलों में गपियाते और अंग्रेजियत की मानसिकता से भरे ये लोग शायद अन्ना की पृष्ठभूमि और अपरिष्कृत शैली के कारण उनसे दूरी बनाए हुए हैं, हालांकि भारत जैसे देश में ऐसे बौद्धिक कुलीनों का कोई महत्व नहीं हैं किंतु अगर ये साथ होते तो अन्ना को आंदोलन को ज्यादा व्यापकता मिल पाती। क्योंकि शासन सत्ता में इन्हीं बौद्धिक कुलीनों की बात सुनी जाती है, सो अन्ना की भावनाएं सत्ता के कानों तक पहुंच पातीं।

यह अकारण नहीं है कि अरूंधती राय ने लिखा कि वे अन्ना नहीं बनना चाहेंगीं। जबकि सच यह है कि वे अन्ना बन भी नहीं सकतीं। अन्ना बनने के जिस धैर्य, रचनाशीलता, सातत्य और संयम की आवश्यक्ता है क्या वह अरूधंती के पास है ? अन्ना के पास राणेगढ़ सिद्धि जैसा एक प्रयोग है जबकि अरूंधती के पास देशतोड़क विचारों को समर्थन करने का ही अतीत है। किंतु अरूंधती इस समय भारतीय राज्य के साथ खड़ी हैं। क्योंकि वह राज्य और पुलिस दिल्ली में अरूंधती को भारत को भूखे नंगों का देश कहने के बाद भी उन पर मुकदमा दर्ज नहीं करता और अन्ना जैसे संत को अकारण तिहाड़ में डाल देता है। क्या भारतीय लोकतंत्र को निरंतर कोसने वाली अरूंधती दिल्ली पुलिस और गृहमंत्रालय के इसी अहसान का बदला चुकाने के लिए अन्ना के आंदोलन की तुलना माओवादियों के कामों से कर रही हैं और इस आंदोलन को लोकतंत्र को कमजोर करने वाला बता रही हैं।

विश्वसनीयता खोती सरकारः

तमाम सवाल हमारे पास हैं किंतु सबसे बड़ी बात यह है कि अन्ना के प्रति सरकार जिस संवेदनहीनता का परिचय दे रही है, उसकी मिसाल न मिलेगी। बस, अन्ना के लिए दुआएं कि वे अपनी हर लड़ाई जीतें क्योंकि यह लड़ाई भारत के आम आदमी में स्वाभिमान भर रही है। हर क्षण यह बता रही है कि जनता ही लोकतंत्र में मालिक है, जबकि जनप्रतिनिधि उसके सेवक हैं। दिल्ली के दर्प दमन का अन्ना का अभियान अपनी मंजिल तक जरूर पहुंचेगा और वह दिन भारत के सौभाग्य का क्षण होगा। अन्ना जेल में हों या जेल के बाहर उनकी आवाज सुनी जाएगी क्योंकि वे अब देश के आखिरी आदमी की आवाज बन चुके हैं और निश्चित ही सरकार अब अपना नैतिक व विश्वसनीयता दोनों ही खो चुकी है। ऐसे में देश की आम जनता ही अपने विवेक से सच और गलत का फैसला करेगी। इसके परिणाम आने वाले दिनों में जरूर दिखेंगें।

इतना तो तय है कि सरकार और उसके सलाहकारों को देश के मानस की समझ नहीं है। वह भारतीय जनता के व्यापक स्मृतिदोष के सहारे अपनी चालें चल रही है किंतु इतिहास बताता है कि चालाकियां कई बार खुद पर भारी पड़ती हैं। दंभ, दमन, छल और षडयंत्र निश्चय ही लंबी राजनीति के लिए मुफीद नहीं होते किंतु लगता है कि राजनीतिक दलों ने इन्हें ही अपना मंत्र बना लिया है। छल और बल से यह लड़ाई जीतकर सांसद अपना रूतबा बना भी लें किंतु वे जनता का भरोसा, प्रामणिकता और विश्वसनीयता खो देंगें, जब यही नहीं रहेगा तो इस संसद व सरकार के मायने क्या हैं? क्योंकि कोई भी राजनीति अगर जनविश्वास खो देती है तो उसका किसी जनतंत्र में मतलब क्या रह जाता है ? डा. राममनोहर लोहिया कहा करते थे –“लोकराज लोकलाज से चलता है। क्या हमें उनकी बात अनसुनी कर देना चाहिए ?

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

Tuesday, August 23, 2011

यूनिकोड आधारित हिन्दी उपकरण

सर्वप्रथम आप सभी को श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएं। आप सभी
को यह जानकारी देते हुए अत्यधिक हर्ष हो रहा है कि हमारे द्वारा विकसित
विभिन्न यूनिकोड आधारित हिन्दी उपकरण जैसे कि फ़ॉन्ट परिवर्तक, डिक्शनरी,
टाइपिंग उपकरण आदि के नवीन संस्करण जारी किए हैं। संक्षिप्त विवरण एवम्
डाउनलोड लिंक दी जा रहीं हैं, जहाँ से उक्त उपकरण के नवीन परीक्षण
संस्करण प्राप्त किए जा सकते हैं।

1. DangiSoft Prakhar Devanagari Font Parivartak: प्रखर देवनागरी फ़ॉन्ट
परिवर्तक Version 2.1.5.0 : First and Only software for the purpose of
Conversion of Devanagari Text in various ASCII/ISCII (8 bit) Fonts
into Unicode (16 bit) Text immediately and easily with 100% accuracy.

http://www.4shared.com/file/zXERndaY/PrakharParivartak.html

2. DangiSoft UniDev: यूनिदेव (Version : 2.0.5.0) - UniDev (Unicode to
ASCII/ISCII Font Converter) is a latest new UNICODE CONVERTER FOR
HINDI, SANSKRIT, MARATHI, NEPALI and Other DEVANAGARI SCRIPTS. It can
easily convert Mangal Unicode font to Kruti Dev with 100% accuracy.

http://www.4shared.com/file/qs8-bXyl/UniDev.html

3. DangiSoft ShabdaJnaan: DangiSoft - ShabdaGyaan (Eng.-Hindi-Eng.)
UNICODE BASED A DUPLEX DICTIONARY (A TOOL FOR OFFLINE USE)
शब्द-ज्ञान यूनिकोड आधारित 'अंग्रेज़ी-हिन्दी- अंग्रेज़ी ' डिक्शनरी (ऑफ़लाइन)
Version 2.0.5.0

http://www.4shared.com/file/gUAGYIVO/ShabdaGyaan.html

4. DangiSoft Prakhar Devanagari Lipik: प्रखर देवनागरी लिपिक : (Version
2.0.5.0) - Remington Based Unicode Typing Tool with 100% accuracy....

http://www.4shared.com/file/NlV7Z_y7/PrakharLipik.html

5. DangiSoft Pralekh Devanagari Lipik: प्रलेख देवनागरी लिपिक (फ़ॉनेटिक
इंगलिश टंकण प्रणाली आधारित) Version 2.0.5.0 Phonetic English Based
Unicode Typing Tool with 100% accuracy....

http://www.4shared.com/file/Ycf9LpP1/PralekhLipik.html

उक्त उपकरणों के संबंध में अगर आप कुछ सुझाब देना चाहें तो स्वागत है
हमें जरूर लिखें।
धन्यवाद!
सादर
इंजी॰ जगदीप सिंह दाँगी

Thursday, August 18, 2011

पत्रकारिता विश्वविद्यालय में संचालित पाठ्यक्रमों में रिक्त स्थानों पर सीधा प्रवेश आज


भोपाल, 17 जुलाई| माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय में सत्र 2011-12 में संचालित होने वाले पाठ्यक्रमों के शेष बचे रिक्त स्थानों में प्रवेश के लिए सीधी प्रवेश प्रक्रिया गुरुवार, 18 अगस्त 2011 को सम्पन्न होगी. यह प्रक्रिया विश्वविद्यालय के तीनों परिसरों भोपाल, नॉएडा एवं खंडवा में प्रातः 10 बजे प्रारम्भ होगी. सीधी प्रवेश प्रक्रिया के माध्यम से विश्वविद्यालय के भोपाल समेत नॉएडा एवं खंडवा परिसर में चलाये जा रहे पाठ्यक्रमों के शेष रिक्त स्थानों पर सीधा प्रवेश दिया जायेगा.

इस प्रवेश प्रक्रिया में वे सभी उम्मीदवार शामिल हो सकते हैं जिन्होंने स्नातक/१2वीं उत्तीर्ण की हो. स्नातक/१2वीं की परीक्षा में प्राप्त अंकों के आधार पर रिक्त स्थानों पर प्रवेश दिया जायेगा. प्रवेश के दौरान उम्मीदवार को परिसर अनुसार पाठ्यक्रम के शुल्क की प्रथम किश्त, आवश्यक समस्त प्रपत्रों एवं अंकसूचियों की मूल प्रति एवं दो छायाप्रति एवं 4 पासपोर्ट साइज़ फोटो साथ लाना होगा. सीधी प्रवेश प्रक्रिया के लिए उम्मीदवार का स्वयं उपस्थित होना आवश्यक है. विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बी.के.कुठियाला ने बताया कि सीधी प्रवेश प्रक्रिया के माध्यम से विद्यार्थियों को एक बार पुनः अपनी रूचि के अनुसार पाठ्यक्रम चुनने की सुविधा उपलब्ध करायी जा रही है.

इस प्रवेश प्रकिया से भोपाल परिसर में मीडिया एवं संचार विधा से जुड़े समस्त एम.बी.ए. पाठ्यक्रम, एम.सी.ए. पाठ्यक्रम, मल्टीमीडिया, ग्राफिक्स एनीमेशन जैसे स्नातक पाठ्यक्रमों तथा वीडियो प्रोडक्शन, वेब संचार, पर्यावरण संचार, भारतीय संचार परम्पराएँ, योगिक स्वास्थ्य प्रबंधन एवं अध्यात्मिक संचार जैसे पी.जी. डिप्लोमा पाठ्यक्रमों में प्रवेश दिया जायेगा. खंडवा परिसर में पत्रकारिता स्नातकोत्तर (एम.जे.), बी.ए.-जनसंचार, बी.सी.ए., बी.एससी.-मल्टीमीडिया, एवं पी.जी.डी.सी.ए. पाठ्यक्रमों में प्रवेश दिया जायेगा. नॉएडा परिसर में पत्रकारिता स्नातकोत्तर (एम.जे.), एम.ए.-जनसंचार, एम.एससी.-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया एवं बी.लिब. पाठ्यक्रमों में प्रवेश दिया जायेगा.

सीधी प्रवेश प्रक्रिया के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी विश्वविद्यालय वेबसाइटwww.mcu.ac.in पर उपलब्ध है. इसके अतिरिक्त टेलिफोन नंबर 0755-2553523 (भोपाल) 0120-4260640 (नॉएडा) एवं 0733-2248895 (खंडवा) पर संपर्क किया जा सकता है या mcupravesh@gmail.com पर ई-मेल किया जा सकता है.

(डॉ. पवित्र श्रीवास्तव)

निदेशक प्रवे

प्रथम फेसबुक मैत्री शिविर व संगोष्ठी आयोजित




प्रथम फेसबुक मैत्री शिविर व संगोष्ठी आयोजित

नई दिल्ली। यहाँ स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर हम सब साथ साथ एवं राष्ट्रकिंकर प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा आयोजित पहली फेसबुक मैत्री शिविर व संगोष्ठी में दिल्ली एनसीआर सहित विभिन्न दूरदराज क्षेत्रों के अनेक लोगों ने शामिल होकर आपसी मैत्री व भाईचारे को प्रगाढ़ किया। शिविर के प्रारम्भ में नित्यप्रति फेसबुक के माध्यम से नेट पर मिलने वाले मित्रों ने एक-दूसरे को अपना परिचय दिया और उसके पश्चात् फेसबुक की उपयोगिता व अनुपयोगिता पर जाने-माने साहित्यकारों व पत्रकारों, सर्वश्री विनोद बब्बर, सुभाष चंदर, नमिता राकेश, रेनू चौहान एव डॉ. हरीश अरोड़ा ने अपने-अपने रोचक व ज्ञानवर्द्धक विचार प्रस्तुत किए। तत्पश्चात् भरतपुर से पधारे अपना घर के संयोजक श्री अशोक खत्री सहित अनेक मित्रों ने उपर्युक्त विषय पर विचार-विमर्श में भाग लेते हुए अपने-अपने खट्टे-मीठे व रोचक अनुभव सुनाए। अनेक मित्रगणों ने जहाँ अपनी बातों और अनुभवों से फेसबुक की उपयोगिता सिद्ध की वहीं कुछ लोगों ने फेसबुक पर फेक मित्रों व ओछी मानसिकता के लोगों से बचकर रहने की सलाह भी दी।
इस अवसर पर आयोजित विभिन्न सत्रों में मित्रों ने जहाँ अनेक कवियों की कविताओं का लुत्फ उठाया वहीं कुछ गायकों की गायिकी का भी आनन्द लिया। कवियों में शामिल सर्वश्री विजय भाटिया ‘काका’, हरभजन सिंह, लाल बिहारी लाल, राम निवास ‘इंडिया’, शोभा रस्तोगी ‘शोभा’ एवं मंच पर पदासीन विशिष्ट अतिथियों आदि ने अपनी सुमधुर कविताएं सुनाकर श्रोताओं को मंत्र मुग्ध कर दिया। गीत, संगीत के सत्र में सर्वश्री किशोर वांकड़े के गीत, अशोक कुमार की पैरोडी व किशोर श्रीवास्तव की गीतों भरी मिमिक्री ने भी श्रोेाताओं को झूमने पर मज़बूर कर दिया। कार्यक्रम के अंत में युवा जादूगर श्री अमर सिंह निषाद ने अपनी जादूगरी के जल्वे दिखाकर श्रोताओं को दांतो तले उंगली दबाने पर मज़बूर कर दिया।
शिविर व संगोष्ठी के विभिन्न सत्रों का संचालन सर्वश्री विनोद बब्बर, नमिता राकेश व किशोर श्रीवास्तव ने अपने अनूठे व रोचक अंदाज़ में किया। अंत में विभिन्न प्रतिभागियों को प्रमाणपत्र देकर सम्मानित किया गया।

- प्रस्तुतिः लाल बिहारी लाल, नई दिल्ली, मो. 9868163073

Wednesday, August 17, 2011

हजारे के साथ कुछ गलत नहीं हुआ !





असहमति को स्वीकारने का साहस हमारे सत्ताधारियों में कहां है


-संजय द्विवेदी


असहमति को स्वीकारने की विधि हमारे सत्ताधारियों को छः दशकों के हमारे लोकतंत्र ने सिखाई कहां है?इसलिए अन्ना हजारे के साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ जो अनपेक्षित हो। यह न होता जो आश्चर्य जरूर होता। लोकतंत्र इस देश में सबसे बड़ा झूठ है,जिसकी आड़ में हमारे सारे गलत काम चल रहे हैं। संसद और विधानसभाएं अगर बेमानी दिखने लगी हैं तो इसमें बैठने वाले इस जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकते। साढ़े छः दशक का लोकतंत्र भोग लेने के बाद लालकिले से प्रधानमंत्री उसी गरीबी और बेकारी को कोस रहे हैं। यह गरीबी, बेकारी, भुखमरी और तंगहाली अगर साढ़े छः दशक की यात्रा में खत्म नहीं हुयी तो क्या गारंटी है कि आने वाले छः दशकों में भी यह खत्म हो जाएगी। अमीर और गरीब की खाई इन बीस सालों में जितनी बढ़ी है उतनी पहले कभी नहीं थी। अन्ना एक शांतिपूर्ण अहसमहमति का नाम हैं, इसलिए वे जेल में हैं। नक्सलियों, आतंकवादियों और अपराधी जमातों के प्रति कार्रवाई करते हमारे हाथ क्यों कांप रहे हैं?अफजल और गुरू और कसाब से न निपट पाने वाली सरकारें अपने लोगों के प्रति कितनी निर्मम व असहिष्णु हो जाती हैं यह हम सबने देखा है। रामदेव और अन्ना के बहाने दिल्ली अपनी बेदिली की कहानी ही कहती है।

बदजबानी और दंभ के ऐसे किस्से अन्ना के बहाने हमारे सामने खुलकर आए हैं जो लोकतंत्र को अधिनायकतंत्र में बदलने का प्रमाण देते हैं। कपिल सिब्बल और मनीष तिवारी जैसै दरबारियों की दहाड़ और हिम्मत देखिए कि वे अन्ना और ए. राजा का अंतर भूल जाते हैं। ऐसे कठिन समय में अन्ना हजारे हमें हमारे समय के सच का भान भी कराते हैं। वे न होते तो लोकतंत्र की सच्चाईयां इस तरह सामने न आतीं। एक सत्ता किस तरह मनमोहन सिंह जैसे व्यक्ति को एक रोबोट में रूपांतरित कर देती है, यह इसका भी उदाहरण है। वे लालकिले से क्या बोले, क्यों बोले ऐसे तमाम सवाल हमारे सामने हैं। आखिर क्या खाकर आप अन्ना की नीयत पर शक कर रहे हैं। आरएसएस और न जाने किससे-किससे उनकी नातेदारियां जोड़ी जा रही हैं। पर सच यह है कि पूरे राजनीतिक तंत्र में इतनी घबराहट पहले कभी नहीं देखी गयी। विपक्षी दल भी यहां कौरव दल ही साबित हो रहे हैं। वे मौके पर चौका लगाना चाहते हैं किंतु अन्ना के उठाए जा रहे सवालों पर उनकी भी नीयत साफ नहीं है। वरना क्या कारण था कि सर्वदलीय बैठक में अन्ना की टीम से संवाद करने पर ही सवाल उठाए गए। यह सही मायने में दुखी करने वाले प्रसंग हैं। राजनीति का इतना असहाय और बेचारा हो जाना बताता है कि हमारा लोकतंत्र कितना बेमानी हो चुका है। किस तरह उसकी चूलें हिल रही हैं। किस तरह वह हमारे लिए बोझ बन रहा है। भारत के शहीदों की शहादत को इस तरह व्यर्थ होता देखना क्या हमारी नीयत बन गयी है। सवाल लोकपाल का नहीं उससे भी बड़ा है। सवाल प्रजातांत्रिक मूल्यों का है। सवाल इसका भी है कि असहमति के लिए हमारे लोकतंत्रांत्रिक ढांचें में स्पेस कम क्यों हो रहा है।

सवाल यह भी है कि कश्मीर के गिलानी से लेकर माओवादियों का खुला समर्थन करने वाली अरूंधती राय तक दिल्ली में भारत की सरकार को गालियां देकर, भारत को भूखे-नंगों का देश कह कर चले जाएं किंतु दिल्ली की बहादुर पुलिस खामोश रहती है। उसी दिल्ली की सरकार में अफजल गुरू के मृत्युदंड से संबंधित फाइल 19 रिमांडर के बाद भी धूमती रहती है। किंतु बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के लिए कितनी त्वरा और कितनी गति है। यह गति काश आतंकियों, उनके पोषकों, माओवादियों के लिए होती तो देश रोजाना खून से न नहाता। किंतु हमारा गृहमंत्रालय भगवा आतंकवाद, बाबा रामदेव और अन्ना हजारे की कुंडलियां तलाशने में लगा है। मंदिर में सोने वाले एक गांधीवादी के पीछे लगे हाथ खोजे जा रहे हैं। आंदोलन को बदनाम करने के लिए अन्ना हजारे को भी अपनी भ्रष्ट मंडली का सदस्य बताने की कोशिश हो रही है। आखिर इससे हासिल क्या है। क्या अन्ना का आभा इससे कम हुयी है या कांग्रेस के दंभ से भरे नेता बेनकाब हो रहे हैं। सत्ता कुछ भी कर सकती है, इसमें दो राय नहीं किंतु वह कब तक कर सकती है-एक लोकतंत्र में इसकी भी सीमाएं हैं। चाहे अनचाहे कांग्रेस ने खुद को भ्रष्टाचार समर्थक के रूप में स्थापित कर लिया है। अन्य दल दूध के धुले हैं ऐसा नहीं हैं किंतु केंद्र की सत्ता में होने के कारण और इस दौर में अर्जित अपने दंभ के कारण कांग्रेस ने अपनी छवि मलिन ही की है। कांग्रेस का यह दंभ आखिर उसे किस मार्ग पर लेकर जाएगा कहना कठिन हैं किंतु देश के भीतर कांग्रेस के इस व्यवहार से एक तरह का अवसाद और निराशा घर कर गयी है। इसके चलते कांग्रेस के युवराज की एक आम आदमी के पक्ष के कांग्रेस का साफ-सुथरा चेहरा बनाने की कोशिशें भी प्रभावित हुयी हैं। आप लोंगों पर गोलियां चलाते हुए (पूणे), लाठियां भांजते हुए (रामदेव की सभा) और लोगों को जेलों में ठूंसते हुए (अन्ना प्रसंग) कितने भी लोकतंत्रवादी और आम आदमी के समर्थक होने का दम भरें, भरोसा तो टूटता ही है। अफसोस यह है कि आम आदमी की बात करने वाले विपक्षी दलों के नेताओं की भूमिका भी इस मामले में पूरी तरह संदिग्ध है। अवसर का लाभ लेने में लगे विपक्षी दल अगर सही मायने में बदलाव चाहते हैं तो उन्हें अन्ना के साथ लामबंद होना ही होगा। पूरी दुनिया में पारदर्शिता के लिए संघर्ष चल रहे हैं, भारत के लोगों को भी अब एक सार्थक बदलाव के लिए, लंबी लड़ाई के लिए तैयार हो जाना चाहिए। ------------

Thursday, August 11, 2011

सदाचार की शिक्षा और पत्रकारिता

सदाचार की शिक्षा और पत्रकारिता

-प्रो. बृजकिशोर कुठियाला

एक जिलाधीश के पास उस प्रदेश के मुख्यमंत्री का फोन आया। उनकी बात सुनने के बाद जिलाधीश ने मुख्यमंत्री को फोन पर कहा कि सर मैं यह कार्य नहीं कर पाऊंगा क्योंकि मेरे नियमों के विरूद्ध है। मुख्यमंत्री ने उनसे फिर कुछ कहा, तो जिलाधीश ने उनको धन्यवाद देते हुए कहा कि वे मुख्यमंत्री के आभारी है कि उन्होंने जिलाधीश की बात को समझा और माना। इस सब वार्तालाप के समय मैं जिलाधीश के कक्ष में ही था। मन में जिज्ञासा उठी कि ऐसा क्या कार्य था जिसके लिये जिलाधीश ने मुख्यमंत्री की बात को नहीं माना, परन्तु उससे भी अधिक उत्सुकता इस बात की हुई कि जिलाधीश के व्यक्तित्व में ऐसा साहस कहा से आया, पूछने पर जिलाधीश महोदय ने कार्य के बारे में तो नहीं बताया परन्तु एक लम्बी चर्चा इस बात पर अवश्य हुई कि किसी भी कार्य को उचित या अनुचित ठहराने का विवेक कैसे बनता है। उन्होंने बताया कि केरल के एक छोटे से गांव में जहाँ उनका बचपन गुजरा, एक प्रति हिन्दी मासिक कल्याणकी आती थी जिसे वे बचपन में नियमित रूप से पढ़ते थे। जिलाधीश ने बताया कि कल्याण मासिक कि शेष सामग्री तो उन्हें ज्यादा समझ में नहीं आती थी परन्तु उसमें दी गई कहानियां और सत्य अनुभव वे बहुत रूचि से पढ़ते थे। जिलाधीश के अनुसार जब भी उचित या अनुचित की कोई विकट स्थिति उनके सामने आती है तो कल्याण की पढ़ी हुई कोई न कोई कथा में समान स्थितियां और उसमें निर्णय उनके स्मरण में आ जाते हैं। एक वरिष्ठ प्रशासक के संस्कारों में सकारात्मक प्रभाव पत्रकारिता के माध्यम से हुआ-इस अनुभूति से मन अत्यन्त उल्लासित होता है।

साधारणतः पत्रकारिता को नकारात्मक होना अनिवार्य माना जाता है। इसलिये शायद पत्रकारिता की व्याख्या कुत्ते द्वारा काटनाया कुत्ते को काटनेसे की जाती है। अंग्रेजी में तो पत्रकार को वाचडागकी संज्ञा दी गई है। इस शब्दावली की रचना थोड़ी-सी भिन्न भी की जा सकती थी जैसे समाज का, विचारों का वाचमेन भी कहा जा सकता है। मनुष्यों के समाज में हर काल में अच्छा और बुरा दोनों ही होता रहता है। कभी अच्छाई का वर्चस्व होता है परन्तु दुराचार और भ्रष्टाचार भी किसी न किसी मात्रा में होता ही है। और कभी पूरे समाज में असामाजिक और दुष्ट प्रवृत्ति के व्यक्तियों का अधिक प्रभाव रहता है और सदाचार तथा शिष्टाचार कम मात्रा में होने के कारण छिपा रहता है।

पत्रकारिता सामाजिक संवाद का एक अत्यन्त प्रभावी और महत्वपूर्ण साधन है। पत्रकारिता के शब्द, वाक्य, चित्र और विषय व्यक्ति और समाज के मन मस्तिष्क में स्थाई रूप से जमते हैं। व्यक्तियों और संस्थाओं के अनुचित, असामाजिक और नियमों के विरूद्ध व्यवहार यदि पत्रकारिता में अधिक उजागर होते है तो वैसे ही चित्र व्यक्तियों के मस्तिष्क में निर्मित होते है। व्यक्तिगत सामाजिक व्यवहार या उसका आधार तो मन-मस्तिष्क में जमे हुए विचार ही होते है। बलात्कार की दुर्घटनाओं को प्रमुखता देने से इस दुराचार की ही सूचनाएं सामाजिक सोच में बनती है। पत्रकारिता में शोध से कई बार सिद्ध हो चुका है कि अपराधों की कवरेज से अपराध बढ़ते हैं। कुछ वर्ष पूर्व अंग्रेजी में एक फिल्म बनी थीहाउ टू स्टील वन मीलियन’ (10 लाख को कैसे चुराया जाए) इस फिल्म में एक संग्रहालय से बहुमूल्य वस्तुओं को चुराने कि एक काल्पनिक घटना का विवरण था। ऐसा माना जाता है कि इस फिल्म में दर्शाई प्रक्रिया को अपना कर आज तक सैंकड़ो चोरियां हो चुकी है। जितने भी अपराधी पकड़े गये वे कहीं न कहीं इस फिल्म से ही प्रेरित हुए थे। टेलिविजन पर एक विज्ञापन सिगरेट पीने से हानियों को दर्शाता है और सिगरेट न पीने की शिक्षा देता है। जिस प्रकार से सिगरेट पीने वाले युवक को इस विज्ञापन में दर्शाया गया उससे कई युवक और युवतियां धूम्रपान करने के लिये प्रेरित होते है। और सबसे बड़ी बात जिन्होने धूम्रपान छोड़ा होता है, उन्हें फिर से एक बार सिगरेट पीने की हूब जग जाती है। शोध के परिणामों के अनुसार इस विज्ञापन को देखकर किसी ने सिगरेट पीना छोड़ा हो ऐसा उदाहरण सामने नहीं आया है।

आज भ्रष्टाचार पर आधारित संवाद पूरे भारतीय समाज का मुख्य विषय बन गया है। समाचारों में भ्रष्टाचार का विषय लगभग प्रतिदिन मुख्यतौर पर सामने आता है। सम्पादकीय पृष्ठों में भी भ्रष्टचार पर टिप्पणियां अधिक से अधिक रहती है। टेलिविजन में समाचारों के अतिरिक्त चर्चाओं में भी भ्रष्टाचार का मुद्दा छाया रहता है।

पत्रकारिता के माध्यम से जब भ्रष्टाचार भारतीय समाज के संवाद का मुख्य बिन्दु बनता है तो उसके क्या परिणाम हो सकते है? तीन प्रकार की स्थितियाँ उत्पन्न हो सकती है। पहली मीडिया के द्वारा भ्रष्टाचार को केन्द्र में रखते हुए जन-जागरण हो सकता है जो समय आने पर भ्रष्टाचार के विरोध में एक अभियान का रूप ले सकता है। आमतौर से अधिकतर मीडियाकर्मी व सामाजिक कार्यकर्ता इसी प्रस्तावना को स्वीकार करते है। परन्तु क्या वास्तव में ऐसा होता है। सामाजिक बुराईयों और कुरीतियों को कई बार मीडिया ने लगातार उजागर किया है। परन्तु इसके कारण से सामाजिक बुराईयाँ समाप्त हुई हो या कम हुई हो ऐसा नहीं है। उत्तर भारत में खाप पंचायतों और ओनरकिलिंगके नकारात्मक पक्षों को मीडिया ने बखूबी उछाला, परन्तु मात्रात्मक विश्लेषण करे तो ऐसा लगता है कि मर्ज बढ़ता गया ज्यो-ज्यो दवा कीहजारों उदाहरण ऐसे है जब साम्प्रदायिक या जाति आधारित तनाव को खबरों में आने के बाद दंगों में परिवर्तित होते हुए देखा गया। हिटलर के सूचना सलाहकार गोएबल्स के प्रचार के दस सूत्रों में से एक महत्वपूर्ण सूत्र है कि किसी भी असत्य को बार-बार कहने से वह सत्य प्रतीत होता है। इसी सिद्धान्त का विस्तार यदि किया जाये तो किसी भी दुराचार या व्यभिचार को बार-बार शब्दों में दोहराने से पाठक के मन में ऐसा भाव बनता है कि मानों यह तो सामान्य बात है और ऐसे भ्रष्टाचार को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त हो जाती है और जिन लोगों के मन में समाज और राष्ट्र के प्रति भावना कुछ दुर्बल होती है वे इस दुराचार को अपेक्षित और सद्व्यवहार मान लेते है।

मीडिया में दुराचार को अधिक महत्व देने से दूसरी स्थिति ऐसी पैदा होती है कि सामान्य जन उसको अनुकरणीय तो नहीं मानता परन्तु एक अनिवार्य बुराई की मान्यता दुराचार को अवश्य मिल जाती है। एक आम पाठक ऐसा सोच सकता है कि चारों तरफ रिश्वत का माहौल तो है। परन्तु मैं इस प्रक्रिया में न लेने में न देने में सहभागिता करूंगा। हर सज्जन व्यक्ति बलात्कार की निन्दा करता है परन्तु जब एक दिन के समाचार पत्र में दस-बारह बलात्कार की घटनाएं प्रमुखता से दिखाई जाती है तो उसे लगता है कि शायद विकसित हो रहे समाज में ऐसा होना ही है। मीडिया का प्रभाव जैसे जैसे समाज में बढ़ा तो शोधकर्ताओं के सामने एक तथ्य और आया। यह है जन मानस की छद्म सहभागिता। किसी बड़ी दुर्घटना के विषय में अपने को सूचित रखना है ऐसा एक जागरूक नागरिक अपना कर्तव्य मान लेता है। स्वतंत्रता के पश्चात् देश के कुछ हिस्सों में जब बाढ़ आती थी तो शेष जनसंख्या किसी न किसी रूप में बाढ़ पीड़ितों की राहत में योगदान करती थी। कुछ स्वयं जाकर सेवा कार्य करते थे अन्य धन और सामग्री एकत्रित करते थे और अधिकतर धन और सामग्री अपने तरफ से देते थे। परन्तु धीरे-धीरे स्थितियाँ ऐसी बनी कि हर घन्टे के बुलेटिन से ताजा जानकारी ले लेना और कुछ करने की आवश्यकता नहीं, ऐसी मानसिकता बनती गई। सामाजिक दायित्वों के निर्वाहन में इस प्रकार का दायित्वों का छद्म निर्माण मीडिया का महत्वपूर्ण योगदान है।

तीसरी स्थिति तो अत्यन्त भयंकर है। मीडिया में भ्रष्टाचार, दुराचार व व्यभिचार की व्याख्या जनमानस के लिये प्रेरक प्रसंग भी बन सकती है। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अनुचित कार्य समाज में होता है इसलिये मैं भी करूं तो कोई हानि नहीं ऐसा भाव मन में आना स्वाभाविक है। जिन सांसदों ने पैसा लेकर प्रश्न पूछे तो क्यों न नये या पुराने सांसद भी ऐसा सोचे कि संसद में कोई विषय उठाने के लिये उनको कोई स्पान्सर मिलना चाहिये। और अगर मिले तो उसका लाभ उठाना ही चाहिये। अनेकों सम्पन्न व्यक्तियों को यह जानकारी नहीं थी कि काले धन को विदेशी बैंको में रखना बुद्धिमता का काम है। मीडिया के प्रचार-प्रसार से यह जानकारी व्यापक हुई और अनेकों लोगों के लिये रास्ते खुले। अपराधों की जब विस्तृत व्याख्या आती है तो अपराध प्रवृत्ति के व्यक्तियों का प्रशिक्षण होता है। अंग्रेजों की कोर्ट में एक क्रांतिकारी ने बम बनाने की व्याख्या इसलिए विस्तृत रूप से की जिससे की देश के हर युवक को बम बनाने की कला की शिक्षा मिले, ऐसा पत्रकारिता के कारण से ही संभव हो सकता है।

तीनों परिस्थितियों में मीडिया द्वारा नकारात्मकता को प्रमुखता देने से समाज में नकारात्मकता का ही विस्तार होता है। चिन्तन और चिन्ता का विषय होना चाहिए कि क्या यह परिस्थितियां मान्य हैं। मीडिया के दायित्वों में अनुचित को उजागर करना उचित लग सकता है परन्तु उसके प्रभावों पर भी ध्यान देना होगा। भारत के पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने अपनी पुस्तक में मीडिया की नकारात्मकता पर टिप्पणी की है। अत्यन्त पीड़ा के साथ वे कहते है कि नकारात्मकता मीडिया की अनिवार्यता हो सकती है। (स्वयं वे इससे सहमत नहीं है) परन्तु उन्होंने सुझाव दिया कि कितना अच्छा हो यदि हर पत्रकार प्रतिदिन कम से कम एक सकारात्मक समाचार प्रेषित करे।

पत्रकारिता जैसा सशक्त माध्यम केवल नकारात्मकता के लिये ही प्रयोग होता हो ऐसा नहीं है। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में पत्रकारिता विशेषकर भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता ने न केवल जन-मानस को जागरूक किया परन्तु स्वतंत्रता के अन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभाने के लिये प्रेरणात्मक भूमिका निभाई। वर्तमान में भी विभिन्न समाचार पत्रों और समाचार वाहिनीयों में हम लगातारइम्पेक्टफीचर्स देखते है। परन्तु आज आवश्यकता कुछ कदम और आगे बढ़ने की है। भ्रष्टाचार का विकल्प आम नागरिक के सामने प्रस्तुत होना चाहिये। भ्रष्टाचार का प्रचार-प्रसार तो बहुत हो गया और आने वाले समय में और भी होगा। परन्तु भ्रष्टाचार यदि समाप्त करना है तो विकल्प क्या हो यह बताना भी तो मीडिया का दायित्व और कर्तव्य होना चाहिये। सदाचार और शिष्टाचार के व्यवहारिक सूत्र समाज जीवन में व्यापकता से प्रसारित करने का अब समय है। पूर्व में परिवार विद्यालय और संबंधी-मित्रों के सामूहिक वातावरण में सत्य बोलने, धर्म पर चलने, बेईमानी न करने, देश भक्ति, माता-पिता व बड़ों का आदर आदि संस्कार बचपन में मिलते थे। आज ऐसा नहीं हो रहा है। सत्य का सैद्धान्तिक पक्ष तो दूर उसका व्यवहारिक महत्व भी कहीं समझाया नहीं जाता बल्कि ऐसा संस्कार दिया जाता है कि आवश्यकता पड़ने पर झूठ और बेईमानी का सहारा लेना उचित है। ऐसी परिस्थितियों में ऐसे संस्कार देना जो व्यक्तिगत और सामाजिक हित में हो मीडिया का दायित्व बन जाता है। सूचना के प्रसारण के अतिरिक्त मीडिया को शिक्षा का कार्य भी सौंपा गया है। सुसंस्कारों के निर्माण की प्रक्रिया को प्रारम्भ करना और उसको निरन्तर जारी रखना ऐसा मीडिया करे-यह अपेक्षा भारतीय समाज की सज्जन शक्ति मीडिया से करती है। आज की आवश्यकता है कि पत्रकारिता न केवल स्वयं सदाचारी बने परन्तु शेष समाज को भी शिष्टाचारी बनाने का अभियान चलाए।

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय,भोपाल के कुलपति हैं)

Monday, August 8, 2011

लोकतांत्रिक चेतना का देश है भारतः विजयबहादुर सिंह


स्थानीय विविधताएं ही करेंगी पश्चिमी संस्कृति के हमलों का मुकाबला

हिंदी साहित्य के प्रख्यात आलोचक एवं विचारकडा.विजयबहादुर सिंह का कहना है कि भारत एक लोकतांत्रिक चेतना का देश है। इसकी स्थानीय विविधताएं ही बहुराष्ट्रीय निगमों और पश्चिमी संस्कृति के साझा हमलों का मुकाबला कर सकती हैं। वे यहां माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग द्वारा भारत का सांस्कृतिक का अवचेतन विषय पर आयोजित व्याख्यान को संबोधित कर रहे थे।

उन्होंने कहा कि ज्ञान और संस्कृति अगर अलग-अलग चलेंगें तो यह मनुष्य के खिलाफ होगा। प्रख्यात विचारक धर्मपाल का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि उनके द्वारा उठाया गया यह सवाल कि हम किसके संसार में रहने लगे हैं, आज बहुत प्रासंगिक हो उठा है। हिंदुस्तान के लोग आज दोहरे दिमाग से काम कर रहे हैं, यह एक बड़ी चिंता है। सभ्यता में हम पश्चिम की नकल कर रहे हैं और धर्म के पालन में हम अपने समाज में लौट आते हैं। डा. सिंह ने कहा कि 1947 के पहले स्वदेशी, सत्याग्रह और अहिंसा हमारे मूल्य थे किंतु आजादी के बाद हमने परदेशीपन, मिथ्याग्रह और हिंसा को अपना लिया है। यह दासता का दिमाग लेकर हम अपनी पंचवर्षीय योजनाएं बनाते रहे, संविधान रचते रहे और नौकरशाही भी उसी दिशा में काम करती रही। ऐसे में सोच वा आदर्श में फासले बहुत बढ़ गए हैं। हमारा पूरा तंत्र आम आदमी के नहीं ,सरकार के पक्ष में खड़ा दिखता है। हमारा सामाजिक जीवन और लोकजीवन दोनों अलग-अलग दिशा में चल रहे हैं। जबकि हिंदुस्तान समाजों का देश नहीं लोक है।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की पुस्तक हिंद स्वराज का उल्लेख करते हुए विजय बहादुर सिंह ने कहा कि पश्चिम कभी भी हमारा आदर्श नहीं हो सकता, क्योंकि यह सभ्यता अपने को स्वामी और बाकी को दास समझती है। उनका कहना था कि कोई भी क्रांति तभी सार्थक है, जब उससे होने वाले परिवर्तन मनुष्यता के पक्ष में हों। आजादी के बाद जो भी बदलाव किए जा रहे हैं वे वास्तव में हमारी परंपरा और संस्कृति से मेल नहीं खाते। भारत की सांस्कृतिक चेतना त्याग में विश्वास करती है, क्योंकि वह एक आदमी को इंसान में रूपांतरित करती है। शायद इसीलिए गालिब ने लिखा कि आदमी को मयस्सर नहीं इंशा होना। भारत की संस्कृति इंसान बनाने वाली संस्कृति है पर हम अपना रास्ता भूलकर उस पश्चिम का अंधानुकरण कर रहे हैं, जिसे गांधी ने कभी शैतानी सभ्यता कहकर संबोधित किया था। इस अवसर पर डा. श्रीकांत सिंह, पुष्पेंद्रपाल सिंह, डा. संजीव गुप्ता, पूर्णेंदु शुक्ल, शलभ श्रीवास्तव, प्रशांत पाराशर और जनसंचार विभाग के विद्यार्थी मौजूद रहे। कार्यक्रम का संचालन विभागाध्यक्ष संजय द्विवेदी ने किया।

( संजय द्विवेदी)

अध्यक्षः जनसंचार विभाग

मोबाइलः 09893598888

Sunday, August 7, 2011

लोकमंगल हो मीडिया का ध्येयः स्वामी शाश्वतानंद





भोपाल, 6 अगस्त,2011। महामंडलेश्वर डा.स्वामी शाश्वतानंद गिरि का कहना है कि लोकमंगल अगर पत्रकारिता का उद्देश्य नहीं है तो वह व्यर्थ है। हमें हमारे सामाजिक संवाद और पत्रकारिता में लोकमंगल के तत्व को शामिल करना पड़ेगा। वे यहां माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल द्वारा संवाद और पत्रकारिता का अध्यात्म विषय पर आयोजित व्याख्यान को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि अध्यात्म के बिना प्रेरणा संभव नहीं है। अध्यात्म ही किसी भी क्षेत्र में हमें लोकमंगल की प्रेरणा देता है।

उन्होंने कहा कि अरविंद घोष, लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी भी पत्रकार थे किंतु उनकी पत्रकारिता, उनकी आत्मा का स्पंदन थी, आज जबकि पूंजी का स्पंदन ही पत्रकारिता की प्रेरणा बन रहा है। उन्होंने युवा पत्रकारों से आग्रह किया कि वे अपनी पत्रकारिता में सकारात्मकता को शामिल करें तभी हम भारत के मीडिया का मान बढ़ा सकेंगें। शरीर के तल पर मनुष्य और पशु में कोई अंतर नहीं, मूल्य ही हमें अलग करते हैं। हमारे लिए मनुष्यता बहुत महत्वपूर्ण है।

डा. गिरि ने कहा कि मन से लिखा और मन से बोला गया शब्द ही पढ़ा और सुना जाएगा। बुद्धि से लिखे और बोले हुए का कोई महत्व नहीं है, वह बुद्धि से ही पढ़ा और सुना जाएगा। हमारे लेखन में अगर हमारी आत्मा न होगी तो वह प्राणहीन हो जाएगा। प्रेमचंद और निराला जी का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि ये इसलिए दिल से पढ़े गए, क्योंकि उन्होंने दिल से लिखा। कार्यक्रम के अंत में विद्यार्थियों ने डा. गिरि से प्रश्न भी पूछे।

कार्यक्रम के प्रारंभ में कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला, रजिस्ट्रार डा. चंदर सोनाने, प्रो. आशीष जोशी, दीपक शर्मा, पवित्र श्रीवास्तव, पुष्पेंद्र पाल सिंह, डा. श्रीकांत सिंह, डा. पी. शशिकला, डा. आरती सारंग, वरिष्ठ पत्रकार रमेश शर्मा,पूर्व कुलसचिव पी. एन. साकल्ले आदि ने पुष्पहार से महामंडलेश्वर डा. गिरि का स्वागत किया। संचालन जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने किया।

(संजय द्विवेदी)