Thursday, August 11, 2011

सदाचार की शिक्षा और पत्रकारिता

सदाचार की शिक्षा और पत्रकारिता

-प्रो. बृजकिशोर कुठियाला

एक जिलाधीश के पास उस प्रदेश के मुख्यमंत्री का फोन आया। उनकी बात सुनने के बाद जिलाधीश ने मुख्यमंत्री को फोन पर कहा कि सर मैं यह कार्य नहीं कर पाऊंगा क्योंकि मेरे नियमों के विरूद्ध है। मुख्यमंत्री ने उनसे फिर कुछ कहा, तो जिलाधीश ने उनको धन्यवाद देते हुए कहा कि वे मुख्यमंत्री के आभारी है कि उन्होंने जिलाधीश की बात को समझा और माना। इस सब वार्तालाप के समय मैं जिलाधीश के कक्ष में ही था। मन में जिज्ञासा उठी कि ऐसा क्या कार्य था जिसके लिये जिलाधीश ने मुख्यमंत्री की बात को नहीं माना, परन्तु उससे भी अधिक उत्सुकता इस बात की हुई कि जिलाधीश के व्यक्तित्व में ऐसा साहस कहा से आया, पूछने पर जिलाधीश महोदय ने कार्य के बारे में तो नहीं बताया परन्तु एक लम्बी चर्चा इस बात पर अवश्य हुई कि किसी भी कार्य को उचित या अनुचित ठहराने का विवेक कैसे बनता है। उन्होंने बताया कि केरल के एक छोटे से गांव में जहाँ उनका बचपन गुजरा, एक प्रति हिन्दी मासिक कल्याणकी आती थी जिसे वे बचपन में नियमित रूप से पढ़ते थे। जिलाधीश ने बताया कि कल्याण मासिक कि शेष सामग्री तो उन्हें ज्यादा समझ में नहीं आती थी परन्तु उसमें दी गई कहानियां और सत्य अनुभव वे बहुत रूचि से पढ़ते थे। जिलाधीश के अनुसार जब भी उचित या अनुचित की कोई विकट स्थिति उनके सामने आती है तो कल्याण की पढ़ी हुई कोई न कोई कथा में समान स्थितियां और उसमें निर्णय उनके स्मरण में आ जाते हैं। एक वरिष्ठ प्रशासक के संस्कारों में सकारात्मक प्रभाव पत्रकारिता के माध्यम से हुआ-इस अनुभूति से मन अत्यन्त उल्लासित होता है।

साधारणतः पत्रकारिता को नकारात्मक होना अनिवार्य माना जाता है। इसलिये शायद पत्रकारिता की व्याख्या कुत्ते द्वारा काटनाया कुत्ते को काटनेसे की जाती है। अंग्रेजी में तो पत्रकार को वाचडागकी संज्ञा दी गई है। इस शब्दावली की रचना थोड़ी-सी भिन्न भी की जा सकती थी जैसे समाज का, विचारों का वाचमेन भी कहा जा सकता है। मनुष्यों के समाज में हर काल में अच्छा और बुरा दोनों ही होता रहता है। कभी अच्छाई का वर्चस्व होता है परन्तु दुराचार और भ्रष्टाचार भी किसी न किसी मात्रा में होता ही है। और कभी पूरे समाज में असामाजिक और दुष्ट प्रवृत्ति के व्यक्तियों का अधिक प्रभाव रहता है और सदाचार तथा शिष्टाचार कम मात्रा में होने के कारण छिपा रहता है।

पत्रकारिता सामाजिक संवाद का एक अत्यन्त प्रभावी और महत्वपूर्ण साधन है। पत्रकारिता के शब्द, वाक्य, चित्र और विषय व्यक्ति और समाज के मन मस्तिष्क में स्थाई रूप से जमते हैं। व्यक्तियों और संस्थाओं के अनुचित, असामाजिक और नियमों के विरूद्ध व्यवहार यदि पत्रकारिता में अधिक उजागर होते है तो वैसे ही चित्र व्यक्तियों के मस्तिष्क में निर्मित होते है। व्यक्तिगत सामाजिक व्यवहार या उसका आधार तो मन-मस्तिष्क में जमे हुए विचार ही होते है। बलात्कार की दुर्घटनाओं को प्रमुखता देने से इस दुराचार की ही सूचनाएं सामाजिक सोच में बनती है। पत्रकारिता में शोध से कई बार सिद्ध हो चुका है कि अपराधों की कवरेज से अपराध बढ़ते हैं। कुछ वर्ष पूर्व अंग्रेजी में एक फिल्म बनी थीहाउ टू स्टील वन मीलियन’ (10 लाख को कैसे चुराया जाए) इस फिल्म में एक संग्रहालय से बहुमूल्य वस्तुओं को चुराने कि एक काल्पनिक घटना का विवरण था। ऐसा माना जाता है कि इस फिल्म में दर्शाई प्रक्रिया को अपना कर आज तक सैंकड़ो चोरियां हो चुकी है। जितने भी अपराधी पकड़े गये वे कहीं न कहीं इस फिल्म से ही प्रेरित हुए थे। टेलिविजन पर एक विज्ञापन सिगरेट पीने से हानियों को दर्शाता है और सिगरेट न पीने की शिक्षा देता है। जिस प्रकार से सिगरेट पीने वाले युवक को इस विज्ञापन में दर्शाया गया उससे कई युवक और युवतियां धूम्रपान करने के लिये प्रेरित होते है। और सबसे बड़ी बात जिन्होने धूम्रपान छोड़ा होता है, उन्हें फिर से एक बार सिगरेट पीने की हूब जग जाती है। शोध के परिणामों के अनुसार इस विज्ञापन को देखकर किसी ने सिगरेट पीना छोड़ा हो ऐसा उदाहरण सामने नहीं आया है।

आज भ्रष्टाचार पर आधारित संवाद पूरे भारतीय समाज का मुख्य विषय बन गया है। समाचारों में भ्रष्टाचार का विषय लगभग प्रतिदिन मुख्यतौर पर सामने आता है। सम्पादकीय पृष्ठों में भी भ्रष्टचार पर टिप्पणियां अधिक से अधिक रहती है। टेलिविजन में समाचारों के अतिरिक्त चर्चाओं में भी भ्रष्टाचार का मुद्दा छाया रहता है।

पत्रकारिता के माध्यम से जब भ्रष्टाचार भारतीय समाज के संवाद का मुख्य बिन्दु बनता है तो उसके क्या परिणाम हो सकते है? तीन प्रकार की स्थितियाँ उत्पन्न हो सकती है। पहली मीडिया के द्वारा भ्रष्टाचार को केन्द्र में रखते हुए जन-जागरण हो सकता है जो समय आने पर भ्रष्टाचार के विरोध में एक अभियान का रूप ले सकता है। आमतौर से अधिकतर मीडियाकर्मी व सामाजिक कार्यकर्ता इसी प्रस्तावना को स्वीकार करते है। परन्तु क्या वास्तव में ऐसा होता है। सामाजिक बुराईयों और कुरीतियों को कई बार मीडिया ने लगातार उजागर किया है। परन्तु इसके कारण से सामाजिक बुराईयाँ समाप्त हुई हो या कम हुई हो ऐसा नहीं है। उत्तर भारत में खाप पंचायतों और ओनरकिलिंगके नकारात्मक पक्षों को मीडिया ने बखूबी उछाला, परन्तु मात्रात्मक विश्लेषण करे तो ऐसा लगता है कि मर्ज बढ़ता गया ज्यो-ज्यो दवा कीहजारों उदाहरण ऐसे है जब साम्प्रदायिक या जाति आधारित तनाव को खबरों में आने के बाद दंगों में परिवर्तित होते हुए देखा गया। हिटलर के सूचना सलाहकार गोएबल्स के प्रचार के दस सूत्रों में से एक महत्वपूर्ण सूत्र है कि किसी भी असत्य को बार-बार कहने से वह सत्य प्रतीत होता है। इसी सिद्धान्त का विस्तार यदि किया जाये तो किसी भी दुराचार या व्यभिचार को बार-बार शब्दों में दोहराने से पाठक के मन में ऐसा भाव बनता है कि मानों यह तो सामान्य बात है और ऐसे भ्रष्टाचार को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त हो जाती है और जिन लोगों के मन में समाज और राष्ट्र के प्रति भावना कुछ दुर्बल होती है वे इस दुराचार को अपेक्षित और सद्व्यवहार मान लेते है।

मीडिया में दुराचार को अधिक महत्व देने से दूसरी स्थिति ऐसी पैदा होती है कि सामान्य जन उसको अनुकरणीय तो नहीं मानता परन्तु एक अनिवार्य बुराई की मान्यता दुराचार को अवश्य मिल जाती है। एक आम पाठक ऐसा सोच सकता है कि चारों तरफ रिश्वत का माहौल तो है। परन्तु मैं इस प्रक्रिया में न लेने में न देने में सहभागिता करूंगा। हर सज्जन व्यक्ति बलात्कार की निन्दा करता है परन्तु जब एक दिन के समाचार पत्र में दस-बारह बलात्कार की घटनाएं प्रमुखता से दिखाई जाती है तो उसे लगता है कि शायद विकसित हो रहे समाज में ऐसा होना ही है। मीडिया का प्रभाव जैसे जैसे समाज में बढ़ा तो शोधकर्ताओं के सामने एक तथ्य और आया। यह है जन मानस की छद्म सहभागिता। किसी बड़ी दुर्घटना के विषय में अपने को सूचित रखना है ऐसा एक जागरूक नागरिक अपना कर्तव्य मान लेता है। स्वतंत्रता के पश्चात् देश के कुछ हिस्सों में जब बाढ़ आती थी तो शेष जनसंख्या किसी न किसी रूप में बाढ़ पीड़ितों की राहत में योगदान करती थी। कुछ स्वयं जाकर सेवा कार्य करते थे अन्य धन और सामग्री एकत्रित करते थे और अधिकतर धन और सामग्री अपने तरफ से देते थे। परन्तु धीरे-धीरे स्थितियाँ ऐसी बनी कि हर घन्टे के बुलेटिन से ताजा जानकारी ले लेना और कुछ करने की आवश्यकता नहीं, ऐसी मानसिकता बनती गई। सामाजिक दायित्वों के निर्वाहन में इस प्रकार का दायित्वों का छद्म निर्माण मीडिया का महत्वपूर्ण योगदान है।

तीसरी स्थिति तो अत्यन्त भयंकर है। मीडिया में भ्रष्टाचार, दुराचार व व्यभिचार की व्याख्या जनमानस के लिये प्रेरक प्रसंग भी बन सकती है। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अनुचित कार्य समाज में होता है इसलिये मैं भी करूं तो कोई हानि नहीं ऐसा भाव मन में आना स्वाभाविक है। जिन सांसदों ने पैसा लेकर प्रश्न पूछे तो क्यों न नये या पुराने सांसद भी ऐसा सोचे कि संसद में कोई विषय उठाने के लिये उनको कोई स्पान्सर मिलना चाहिये। और अगर मिले तो उसका लाभ उठाना ही चाहिये। अनेकों सम्पन्न व्यक्तियों को यह जानकारी नहीं थी कि काले धन को विदेशी बैंको में रखना बुद्धिमता का काम है। मीडिया के प्रचार-प्रसार से यह जानकारी व्यापक हुई और अनेकों लोगों के लिये रास्ते खुले। अपराधों की जब विस्तृत व्याख्या आती है तो अपराध प्रवृत्ति के व्यक्तियों का प्रशिक्षण होता है। अंग्रेजों की कोर्ट में एक क्रांतिकारी ने बम बनाने की व्याख्या इसलिए विस्तृत रूप से की जिससे की देश के हर युवक को बम बनाने की कला की शिक्षा मिले, ऐसा पत्रकारिता के कारण से ही संभव हो सकता है।

तीनों परिस्थितियों में मीडिया द्वारा नकारात्मकता को प्रमुखता देने से समाज में नकारात्मकता का ही विस्तार होता है। चिन्तन और चिन्ता का विषय होना चाहिए कि क्या यह परिस्थितियां मान्य हैं। मीडिया के दायित्वों में अनुचित को उजागर करना उचित लग सकता है परन्तु उसके प्रभावों पर भी ध्यान देना होगा। भारत के पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने अपनी पुस्तक में मीडिया की नकारात्मकता पर टिप्पणी की है। अत्यन्त पीड़ा के साथ वे कहते है कि नकारात्मकता मीडिया की अनिवार्यता हो सकती है। (स्वयं वे इससे सहमत नहीं है) परन्तु उन्होंने सुझाव दिया कि कितना अच्छा हो यदि हर पत्रकार प्रतिदिन कम से कम एक सकारात्मक समाचार प्रेषित करे।

पत्रकारिता जैसा सशक्त माध्यम केवल नकारात्मकता के लिये ही प्रयोग होता हो ऐसा नहीं है। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में पत्रकारिता विशेषकर भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता ने न केवल जन-मानस को जागरूक किया परन्तु स्वतंत्रता के अन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभाने के लिये प्रेरणात्मक भूमिका निभाई। वर्तमान में भी विभिन्न समाचार पत्रों और समाचार वाहिनीयों में हम लगातारइम्पेक्टफीचर्स देखते है। परन्तु आज आवश्यकता कुछ कदम और आगे बढ़ने की है। भ्रष्टाचार का विकल्प आम नागरिक के सामने प्रस्तुत होना चाहिये। भ्रष्टाचार का प्रचार-प्रसार तो बहुत हो गया और आने वाले समय में और भी होगा। परन्तु भ्रष्टाचार यदि समाप्त करना है तो विकल्प क्या हो यह बताना भी तो मीडिया का दायित्व और कर्तव्य होना चाहिये। सदाचार और शिष्टाचार के व्यवहारिक सूत्र समाज जीवन में व्यापकता से प्रसारित करने का अब समय है। पूर्व में परिवार विद्यालय और संबंधी-मित्रों के सामूहिक वातावरण में सत्य बोलने, धर्म पर चलने, बेईमानी न करने, देश भक्ति, माता-पिता व बड़ों का आदर आदि संस्कार बचपन में मिलते थे। आज ऐसा नहीं हो रहा है। सत्य का सैद्धान्तिक पक्ष तो दूर उसका व्यवहारिक महत्व भी कहीं समझाया नहीं जाता बल्कि ऐसा संस्कार दिया जाता है कि आवश्यकता पड़ने पर झूठ और बेईमानी का सहारा लेना उचित है। ऐसी परिस्थितियों में ऐसे संस्कार देना जो व्यक्तिगत और सामाजिक हित में हो मीडिया का दायित्व बन जाता है। सूचना के प्रसारण के अतिरिक्त मीडिया को शिक्षा का कार्य भी सौंपा गया है। सुसंस्कारों के निर्माण की प्रक्रिया को प्रारम्भ करना और उसको निरन्तर जारी रखना ऐसा मीडिया करे-यह अपेक्षा भारतीय समाज की सज्जन शक्ति मीडिया से करती है। आज की आवश्यकता है कि पत्रकारिता न केवल स्वयं सदाचारी बने परन्तु शेष समाज को भी शिष्टाचारी बनाने का अभियान चलाए।

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय,भोपाल के कुलपति हैं)

2 comments:

Prabodh Kumar Govil said...

aapka aalekh prabhavshali hai. aapke sansthan se vidyarthiyon ki aisi paudh nikaliye jo in vicharon ki samvahak bane. aaj patrakarita chatukarita ki bahan ban kar jee rahi hai.

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

kyaa baat.....atyant sukhad aalekh