‘जा घट प्रेम न संचरै...’
- डॉ. सी. जय शंकर बाबु
‘प्रेम’ ढ़ाई अक्षरों का अप्रतिम शब्द है । ‘ढ़ाई आखर प्रेम का पढ़े सुपंडित होय’ – उक्ति कोई निरर्थक कथन नहीं है । एक दार्शनिक कवि के अनुभव के सार के रूप में ही यह व्याख्या निसृत हुई है । वास्तव में प्रेम एक ऐसी अनूठी भावना है, जिसे समझे बिना संसार में कोई कवि नहीं बन पाया है । प्रेम-भावना अथवा प्रेम की अवधारणा को समझे बिना संसार में कोई दार्शनिक भी नहीं बन पाया है । प्रेम ईश्वरीय भावना का प्रतीक है । असीम प्रेम की अलौकिक शक्ति की संज्ञा ही ‘ईश्वर’ है । आधुनिक विज्ञान के सिद्धांत भले ही ईश्वरीय तत्व को नहीं मानते हैं, किंतु मनोवैज्ञानिक अध्ययनों में एक विशेष मनोविकार के रूप में अवश्य ही मान्यता है ।
प्रेम व्यापक अर्थ वाला शब्द है, जिसकी सीमित शब्दों में कोई सर्वमान्य परिभाषा देना अथवा सीमित वाक्यों में विश्लेषण करना कठिन कार्य है । प्रेम भावना में एक चमत्कारी शक्ति है । प्रेम का इतना महत्व है कि प्रेम के बिना संसार का अस्तित्व अकल्पनीय है । प्रेम अस्तित्व का एवं अमूर्त शक्ति स्रोत का प्रतिरूप है । प्रेम एक विशिष्ट एवं अनूठा दैवी गुण है । मानव की संज्ञा मनुष्य के साथ जुड़ने का मुख्य कारण यह है कि वह अन्य प्राणियों की तुलना में गुण-संपन्न एवं बुद्धि-कुशल है ।
हिंदी में प्रेम भावना को अभिव्यक्त करने के लिए कई शब्द प्रयुक्त होते हैं – जैसे अनुराग, प्यार, प्रीति, स्नेह, इश्क़, मुहब्बत आदि । इन तमाम शब्दों में जो भी उत्कृष्ट आयाम हैं, वे सब ‘प्रेम’ में समाविष्ट हैं । ऐसे अनूठे प्रेम तत्व के विभिन्न आयामों के संदर्भ में कई विद्वानों ने अध्ययन किया है । ऐसे अध्ययनों से कई तथ्य उजागर हुए हैं । प्रेम भावना संबंधी संकल्पना, विवेचन, विश्लेषण एवं चिंतन – ये सब किसी रूप में प्रेम का गुणगान ही है । प्रेम में कई श्रेष्ठ तत्व मौज़ूद हैं जो असाध्य को सुसाध्य में परिवर्तित करने में सक्षम हैं । इन तमाम सुगुणों को ध्यान में रखते हुए प्रेम को ‘गुणों की खान’ कहना भी उचित ही लगता है । प्रेम को सांसारिक, असांसारिक (लौकिक – अलौकिक), दैवी, मानवीय आदि कई रूपों में मानते हैं । भले ही जितने भी उसके रूप हम मानते हैं, प्रेम की मूल भावना एक ही है, वह अतुलनीय है, अप्रतिम है ।
प्रेम भावना को धारण करने वाले जीव से बढ़कर न कोई पंडित है, न कोई वीर, न कोई साहसी, न संत, न कोई योगी, न मानव, न कोई दैवी शक्ति ही है । तमाम उत्कृष्टताओं के कारण प्रेम तत्व के संदर्भ में विवेचन, विश्लेषण, चिंतन एवं अनुचिंतन के आधार पर कई विद्वान पुरुष, चिंतक, दार्शनिक एवं संत महात्माओं ने अपने उदगार प्रकट किए हैं ।
हिंदी के संत एवं दार्शनिक कवि कबीरदास जी ने प्रेम का मार्मिक विवेचन प्रस्तुत किया है । कबीर के विचार में बृहत ग्रंथ पढ़कर संसार में कोई पंडित नहीं बन पाए हैं, ढ़ाई अक्षरों के ‘प्रेम’ शब्द के समूचे तत्वों को समझनेवाले निश्चय ही अच्छे पंडित साबित हुए हैं । कबीरदास जी ने कहा है –
“पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोय ।
ढ़ाई आखर प्रेम का पढ़े सुपंडित होय ।।”
उन्होंने यह भी कहा है –
“प्रेम न बाड़ी ऊपजौ, प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा परजा जेहि रुचै, सीस देइ लै जाय ।।”
कबीरदास जी की राय में प्रेम न तो बगीचे में पैदा होता है और न वह बाज़ार में बिकता है । राजा और प्रजा जो किसी भी स्तर का क्यों न हो, जिसको यह प्रेम अच्छा लगे वही अपना सिर देकर अर्थात अहंकार छोड़कर उसे ले जा सकता है । अहंकार और प्रेम का एक साथ पनपना संभव नहीं है । अहंकार रहित हृदय में ही प्रेम का दर्शन संभव है । इस संदर्भ को कबीरदास की एक और उक्ति स्पष्ट करती है –
“प्रेम गली अति साँकरी, तामें दो न समाहिं....”
इसी विचार को कबीरदास जी ने एक और ढंग से प्रस्तुत किया है –
“पीया चाहे प्रेम रस, राखा चाहे मान ।
एक म्यान में दो खड्ग, देखा सुना न कान ।।”
अर्थात् जो व्यक्ति प्रेम रस पीना चाहता है, वह यदि अभिमान भी रखना चाहता है – ये दोनों एक साथ निभाना कैसा संभव है ? एक म्यान में दो खड्ग रहने की बात न तो कानों से सुनी है और न उसे आँकों से देखा है । अहंकार प्रेम का शत्रु है । प्रेम और अहंकार को एक ही हृदय में स्थान नहीं मिलता है ।
मानव को सृष्टि में उत्कृष्ट प्राणी के रूप में मान्यता है । प्रेम मानवीयता का एक महत्वपूर्ण आयाम है । यदि मनुष्य को सृष्टि का शृंगार कहा जाए तो अवश्य ही प्रेम को मानवीयता का शृंगार कहा जा सकता है । इसलिए यहाँ तक कहा गया है –
“प्रेम भाव एक चाहिए, भेष अनेक बनाय ।
चाहे घर में बास कर, चाहे बन को जाय ।।”
अर्थात् चाहे लाख तरह के भेष बदलें, घर पर रहें, चाहे वन में जाएं परंतु प्रेम-भाव ज़रूर होना चाहिए । अर्थात् संसार में किसी भी स्थान पर, किसी भी स्थिति में रहें, मगर प्रेम भाव से रहना चाहिए ।
प्रायः कबीरदास की तुलना तमिल के संत कवि तुरुवल्लुवर से की जाती है । इन दोनों संत कवियों के विचारों में कई आयामों में समानता नज़र आती है । संत तिरुवल्लुवर ने तो कबीरदास जी से लगभग हजार वर्ष पूर्व ही अपने श्रेष्ठतम विचारों को ‘तिरुक्कुरल’ में अक्षरबद्ध किया था । संत तिरुवल्लुवर की अनन्य कृति ‘तिरुक्कुरल’ को तमिल वेद के रूप में विशिष्ट मान्यता है ।
संत तिरुवल्लुवर ने भी प्रेम को सर्वश्रेष्ठ गुण का दर्जा दिया है । उत्तम गुणों की सूची में उन्होंने प्रेम को प्रथम स्थान पर रखा है । उन्होंने गुण-संपन्नता के आधारों के संबंध में लिखित ‘कुरल’ (तमिल का एक प्रसिद्ध दोहा-छंद, जिसमें प्रथम पंक्ति में चार शब्द एवं दूसरी पंक्ति में तीन शब्द होते हैं) यहाँ उद्धृत है –
“अंबुनाण् ऑप्पुरवु कण्णोट्टम् वाय्मैयॉडु
ऐंदुशाल्पु ऊनरिय तूण ।”
प्रेम, पाप-भीती, उदारता, करुणा तथा सत्यभाषिता – ये पांचों श्रेष्ठ गुण आचरण के आधार-स्तंभ हैं ।
संत तिरुवल्लुवर ने अपने इस कुरल में प्रेम को प्रथम स्थान पर रखा है । तिरुवल्लुवर जी के विचार में इन गुणों से वंचित मनुष्य संसार के लिए भार है और संसार उनके भार-वहन करने में असमर्थ हो जाएगा ।
प्रेम के संबंध में संत तिरुवल्लुवर के विचार मननीय एवं आचरणीय हैं । उनके विचार में अनभिज्ञ लोग अक्सर यह कहते नज़र आते हैं कि प्रेम धर्म की चीज़ है, मगर वास्तविकता यह है कि प्रेम हमें दुष्टता से बचानेवाला रक्षक है । प्रेम से संसार में स्नेह बढ़ जाता है, जो सब कुछ मंगलमय बना देता है । जिनका जीवन प्रेममय होता है उन्हें सच्चा सुख और समृद्धि सुलभ हो जाते हैं । सूरज की तेज धूप से जिस भांति अस्तिहीन कीटादि झुलस जाते हैं, वैसे ही प्रेम रहित लोगों को धर्म लील लेता है । प्रेम-रहित प्राणी स्वार्थी होते हैं । प्रेम से भरपूर प्राणी अपने सर्वस्व अर्पित करने के लिए तत्पर रहते हैं । इस प्रकार संत तिरुल्लुवर ने ‘तिरुक्कुरल’ में प्रेम के संबंध कई जगह अपनी सुंदरतम भावनाएँ प्रकट की हैं । उनके अनुसार प्रेम ही जीवन है और प्रेम-रहित तन केवल अस्थि-पंजर है । उन्होंने प्रेम रहित जीवन को मरुभूमि में पुष्पित होनेवाले फूल के बराबर माना है । प्रेम केवल बहिरंग की ही नहीं, अंतरंग की भी शोभा है । प्रेम रहित सुंदरता की कल्पना करना निरर्थक है । तिरुवल्लुर जी यह प्रश्न करते हैं कि क्या प्रेम-द्वार का कोई ताला होता है ... इसका समाधान स्वयं वे ही देते हैं – “प्रिय के नयन-सिंधु से जनित अश्रु-बिंदुओं से ही हृदय का प्रेम प्रकट हो जाता है ।” उनके विचार में अस्तिमय देह से आत्मा के बार-बार जुड़ने का कारण भी यही है कि वह प्रेमानंद का फ़ायदा उठाना चाहती है ।
प्रेम सृष्टि का महत्वपूर्ण तत्व है । पवित्र हृदय में प्रेम भाव अवश्य रहता है । जहाँ तिरुवल्लुवर ने प्रेम रहित देह को अस्ति-पंजर की संज्ञा दी है, वहीं कबीरदास जी प्रेम रहित हृदय को श्मशान तुल्य मानते हैं । संत कबीर ने एक मार्मिक उदाहरण से इस विचार को प्रकट करने का प्रयास किया है –
“जा घट प्रेम न संचरै, सो घट जान मसान ।
जैसे खाल लोहार की, साँस लेत बिनु प्रान ।”
अर्थात् जिस हृदय में प्रेम का संचार नहीं होता, उस हृदय को श्मशान समझना चाहिए । वह व्यक्ति जिसके हृदय में प्रेम का संचार नहीं होता है, लोहार की धौंकनी की तरह प्राण के बिना ही साँस लेता है ।
हृदय में प्रेम भाव को स्थान न देकर अपने हृदय को श्मशान साबित करना कौन चाहता है ? मानव मात्र के हृदयों में प्रेम तत्व भर जाने से अवश्य ही सारा संसार प्रेममय बन जाएगा । संसार में अशांति का सवाल ही नहीं उठता है ।
आधुनिक समय के आध्यात्मिक विचारक ओशो की इन पंक्तियों में प्रेम तत्व के महत्व की झांकी मिल जाती है – “प्रेम का जीवन ही सृजनात्मक जीवन है । प्रेम का हाथ जहाँ भी छू देता है, वहाँ क्रांति हो जाती है, वहाँ मिट्टी सोना हो जाती है । प्रेम का हाथ जहाँ स्पर्श देता है, वहाँ अमृत की वर्षा शुरू हो जाती है । जरूरी है हम प्रेमल बने रहे, तभी यह दुनिया प्रेमपूर्ण होगी ।”
संसार में शांति पनपने के लिए आज प्रेम भावना को फैलाने की बड़ी ज़रूरत है । अतिवाद के जितने भी भयानक रूप उभर रहे हैं तथा उनके जितने भी अमानवीय कृत्यों से यह संसार पीड़ित है, वे सब मानवीयता पर न मिटने वाले दाग़ हैं । तथाकथित अतिवादियों में रंच मात्र भी प्रेम भरने में हम सफल हो जाएंगे तो दुनिया में शांति का साम्राज्य सुस्थापित हो पाएगा । प्रेम में निश्चय ही वह अजस्र शक्ति है ।
आज हम कहीं तथाकथित धर्म के पीछे भी पागल होते जा रहे हैं और प्रेम से नाता तोड़ रहे हैं । जिसमें प्रेम नहीं, वह कोई धर्म नहीं है । स्वामी विवेकानंद ने कहा था – “दूसरों से प्रेम करना धर्म है, द्वेष करना पाप ।”
मेरे विचार में सभी धर्मों का तत्व सार ही ‘प्रेम’ है । ‘जियो और जीने दो’ की संकल्पना को साकर बनाने के लिए संसार को प्रेममय बनाने की नितांत आवश्यकता है । आइए हम सब ढ़ाई अक्षरों के ‘प्रेम’ को पढ़ें और बड़े प्रेमी-स्वभाव के बन जाएं ।
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संपादक, ‘युग मानस’,
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(इस्पात भाषा भारती में प्रकाशित)
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