Dear Sir,
GOONJ has provides us food material for 300 familiesa and we are
preparing familywise kits. We will distribute it on 1st OCT 2008. As
you know that our team is working in Murliganj Block (ward No 11 and
12) of Madhedpura district intensively. People of there are surrounded
by flood water still and administration is still not succeeded to make
communication with them. We reached there with boat and made a list of
about 300 most poor family. At first, we are providing food there.
After that, we will try to do other activities there like community
development, awareness, PRA etc.
As you know that GOONJ is giving us material support only and we have
to arrange other expenses ourselves. Our office is 55 KM far from the
affected area and we need some cash money also for transportation,
volunteers and other arrangements.
If anyone interested to help us, Please contact
1) Mr. Alok Kumar
State coordinator
Asha Vikash Pariyojana (AVP)
Cell No - 09234828161
2) Ms Pinky Kumari
Coordinator, Purnea (AVP)
Cell No - 09852275160
Sir, tomorrow I am going to Murliganj and return on 1st or 2nd october
2008. I will returned with some rare photographs also because we have
arranged a camera today.
With best regards,
Vinay Tarun
Journalist
Mob: 09234702353
E-mail: tarunvinay@gmail.com
Note- We are working with the NGO Asha Vikash Pariyojana (AVP). Anyone
can send cash support directly into its flood relief account.
CASH DONATIONS/SUPPORT - For Communication, Collection camps, storage,
sorting, packing, travel, Transportation and local distribution
expenses. Cash donations can be made directly into our Flood Relief
Account or you can send an account payee Cheque / Draft in favour of
ASHA VIKAS PARIYOJANA FLOOD RELIEF FUND payable at State Bank of India
Nathnagar, Bhagalpur branch. SBI Core Banking Account No -30475764609.
(All donations are tax exempted u/s- 80 G of IT act.)
Please send a letter about cash donations/supports.
Tuesday, September 30, 2008
Flood Relief in Remote Areas of Bihar
Saturday, September 27, 2008
कविता
नया युग
- स्वर्ण ज्योति
हर एक दिन
सुंदर कल के इंतजार में
खुद को खोते गए
अब तो ढूँढ़ना भी
बेमानी हो गया है
बुलंद इमारतों के साए में
आदमी बौना हो गया है
पाई-पाई जोड़ते जोड़ते
वह खिलौना हो गया है
सपनों के लिए
रातें औ नींद की है जरूरत
पालियों के जाल में फँसकर
सपना देखना भी
सपना हो गया है
बढ़ती गई ऐसी आबादी
जैसे चढ़ती बाढ़ में नदी
हो गई इतनी आपूर्ति
कि ज़िंदगी ही हो गई
बिलकुल सस्ती
दंगा-फसाद, बम-ब्लास्ट
दो दिनों का है मातम
हो जाता है फिर
दिमाग से सब कुछ लॉस्ट
क्योंकि
आदमी खुद को ढूँढ़ने में
नाकाम हो गया है
आधुनीकरण औ मशीनीकरण
की दौड़ में
वह भी केवल
एक पुर्जा बन गया है ।
--
Friday, September 26, 2008
कविता
- देवेंद्र कुमार मिश्रा
कभी नहीं था सोचा मैंने, ऐसा भी हो सकता है ।
बिन ईंधन के चलना मुश्किल, सब की हालत खसता है ।।
सब की हालत खसता है, ईंधन हुआ महंगा नशा ।
अमेरिका-ईरान संबंधों से, हुई यह दुर्दशा ।।
कच्चे तेल की बढ़ती कीमत, परेशान हैं आज सभी ।
दादा गिरी, आपना असत्तव, असर दिखाए कभी-कभी ।।
बिगड़ा पर्यावरण, कहीं है बाढ़-कहीं है सूखा ।
कृषि उत्पादन कमी आई है, आज किसान है भूखा ।।
आज किसान है भूखा, लागत ज्यादा उत्पादन कम ।
कर्जा चुका नहीं है पाता, तोड़ रहा है दम ।।
सुरसा जैसा मुँह फैलाए, महंगाई ने झिगड़ा ।
विदेशी आनाज मंगाया, देशी बजट है बिगड़ा ।।
मकान, सोना चाँदी, हुई आज है सपना ।
बेरोजगारी बढ़ती जाती, रंग दिखाती अपना ।।
रंग दिखाती अपना, आज है मुश्किल शिक्षा पाना ।
भ्रष्टाचार का जाल है फैला, योग्य-अयोग्य न जाना ।।
शादी के संजोए सपने, महंगाई फीके पकवान ।
कर्मचारी, मजदूर, किसान, बचा सके न आज मकान ।।
नेता की परिभाषा बदली, पाखंडी बनाया बेश ।
कभी भूनते तंदूरों में, बाहुबली चलाते देश ।।
बाहुबली चलाते देश, धर्म-जाति आपस लड़बाते ।
सत्ता में आ जाते , वेतन सुख-सुविधाएं पाते ।।
सब कुछ मंहगा मौत है सस्ती, लाज के ये क्रेता ।
कुछ नहीं सिद्धांत इनका, भ्रष्ट आचरण नेता ।।
दर-दर बढ़ती जनसंख्या, भूमि है स्थाई ।
कृषि भूमि में बनी हैं बस्ती, ऐसी नौबत आई ।।
ऐसी नौबत आई, जनसंख्या पर रोक लगाओ ।
नूतन तकनीती से, आवश्यकता पूर्ण कराओ ।।
विज्ञानकों का कर आह्वान, अविष्कार को कर ।
पर्यावरण का कर संरक्षण, रोको महंगाई की दर ।।
कविता
-सुधीर सक्सेना ‘सुधि’
यह झील सारी आपकी ही है,
लेकिन जो नाव इसमें चलती है
वह मेरी है ।
सूरज के ढ़लने के बाद,
सांझ के उड़ते रंगों का जमघट
तट पर बंधी मेरी नाव के समीप होगा,
ठिठक कर रुकी
आपकी झील का पानी
मेरी नाव के आकर्षण से
चला आएगा,
लहरों पर सवार होकर
तब घर लौटने की जल्दी होगी
और होगी हलचल
ठीक वैसी ही जैसे कि आप
अपनी झील के शांत जल में
कंकर फेंक कर
हलचल पैदा करते हैं
और खुश होते हैं
क्योंकि झील आपकी है
झील का पानी आपका है
लेकिन याद रखिए जो नाव
इसमें चलती है वह मेरी है ।
Tuesday, September 9, 2008
युग मानस द्वारा परिचर्चा
युग मानस
राजभाषा हिंदी षष्ठिपूर्ति वर्ष
इसी क्रम में हिंदी की चेतना बढ़ाने तथा हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा देने हेतु युग मानस ने वर्ष 2008 – 09 को राजभाषा के रूप में हिंदी की षष्ठिपूर्ति वर्ष के रूप में मनाने का संकल्प किया है । इस संबंध में विस्तृत कार्यक्रम की घोषणा शीघ्र ही की जाएगी ।
Ø परिचर्चा से इस आयोजन का श्रीगणेश किया जा रहा है ।
Ø चर्चा का मूल विषय - हिंदी के विकास के लिए हमें क्या करना है ?
Ø परिचर्चा के मुख्य विषयों की घोषणा दि.14 सितंबर, 2008 को किया जाएगा ।
Ø परिचर्चा हेतु प्राप्त विचारों को दि.14 सितंबर, 2008 से विश्वहिंदी में स्थान दिया जाएगा ।
Ø यह परिचर्चा 14 सितंबर, 2008 से 14 सितंबर, 2009 तक जारी रहेगी ।
Ø कृपया परिचर्चा में आप स्वयं भाग लें तथा अपने सभी मित्रों को भी शामिल कीजिए ।
Ø यह भी निवेदन है कि आप जो भी विचार व्यक्त करेंगे, उन्हें स्वयं अपने स्तर पर आत्मसात करते हुए हिंदी की श्रीवृद्घि में योगदान सुनिश्चित करने की कृपा कीजिए ।
Ø इस परिचर्चा हेतु आप अपने विचार yugmanas@gmail.com पते पर ई-मेल द्वारा भेज सकते हैं । आप अपना फोटो भी भेज सकते हैं । पता एवं दूरभाष संख्या भी अवश्य सूचित कीजिए ।
Ø आज ही आप अपने विचार भेजना शुरू कर सकते हैं ।
ग़ज़ल
जुदाई
- श्यामल सुमन
गीत जिनके प्यार का भर जिंदगी गाता रहा ।
बेरूखी से कह दिया अब न कोई नाता रहा ।।
हर जुदाई और मिलन में नम थीं आँखें आपकी ।
क्या खता ऐसी हुई यह सोच घबराता रहा ।।
जो थी चाहत आपकी मेरी इबादत बन गयी ।
हर इशारा आपका मुझको सदा भाता रहा ।।
भूल खुद की भूल से गर आइने में देखते ।
पल न ये आता कभी मैं खुद को समझाता रहा ।।
आपको अमृत मिले पीया जहर हूँ इसलिए ।
कितने अवसर अबतलक आता रहा जाता रहा ।।
जो न सोचा हो गया कैसे हुआ ये क्या पता ।
बात ऊँची की थी हमने इस पे शरमाता रहा ।।
लुट गयी खुशबू सुमन की जब जुदाई सामने ।
बात खुशियों की करें क्या गम पे गम खाता रहा ।।
000
कविता
मेरे सपने
- पंकज उपाध्याय
हाथों में रेत के कुछ चिपके कण
ये याद दिला रहे कि कुछ वक्त पहले
हाथों में घर बुनने के सपने थे ।
आँसुओं के बूंदों से चिपकी रेत
कुछ याद दिला देती है, कि कही
विकास की इक आंधी चली है
और मुझ आम इंसान के हाथ से रेत उड़ जाती है ।
उड़ जाते हैं मेरे सपने, मेरे जज्बा़त
अब मेरी बेबस गरीबी को कोई आकार नहीं मिलेगा
मेरे सर पर घर का भार नहीं रहेगा
मेरे अरमानों और एहसास़ की रेत अब
चिपकी है लक्ज़री़ कार के टायर से
ऐसे ही मेरे अरमान आँखों में पलते रहे
और विकास के बादलों संग उड़ गए
न मिल सकी मुझे खुद की जिंदगी
वक्त उधार की मौत में लिपटा रहा
कोई सूचकांको से कर रहा मेरे दिल की धड़कनों का फैसला,
मेरे सांसो के सिसक अब उन पर है टिकी
अब वही करते है मेरे दिन-रात का फैसला
खुद को सेक्टरों में और हमें कैंपों में बांट कर
वही मुझे सपने दिखाते और तोड़ते हैं ।
कविता
मेरे सपने
- पंकज उपाध्याय
हाथों में रेत के कुछ चिपके कण
ये याद दिला रहे कि कुछ वक्त पहले
हाथों में घर बुनने के सपने थे ।
आँसुओं के बूंदों से चिपकी रेत
कुछ याद दिला देती है, कि कही
विकास की इक आंधी चली है
और मुझ आम इंसान के हाथ से रेत उड़ जाती है ।
उड़ जाते हैं मेरे सपने, मेरे जज्बा़त
अब मेरी बेबस गरीबी को कोई आकार नहीं मिलेगा
मेरे सर पर घर का भार नहीं रहेगा
मेरे अरमानों और एहसास़ की रेत अब
चिपकी है लक्ज़री़ कार के टायर से
ऐसे ही मेरे अरमान आँखों में पलते रहे
और विकास के बादलों संग उड़ गए
न मिल सकी मुझे खुद की जिंदगी
वक्त उधार की मौत में लिपटा रहा
कोई सूचकांको से कर रहा मेरे दिल की धड़कनों का फैसला,
मेरे सांसो के सिसक अब उन पर है टिकी
अब वही करते है मेरे दिन-रात का फैसला
खुद को सेक्टरों में और हमें कैंपों में बांट कर
वही मुझे सपने दिखाते और तोड़ते हैं ।
कविता
बहुत पहले से
पक्षियों ने उड़ान भरनी नहीं सीखी थी
मनुष्यों की पलकें आज सी
भारी नहीं थी ।
शोर अपने पाँवों तले
कुचलने की ताकत नहीं रखता था
तब से ही शायद या
उससे भी पहले
ठीक-ठाक नहीं मालूम
इतिहास का लंबा सूत्र थामें
और वर्तमान की राह पर खड़ी यह सब कह रही हूँ
तय था
जब से ही
पत्तों का झरना,
प्रेम का यूँ बरबाद होना,
हसरतों का यूँ जमा होना ।
कविता
- अजय मलिक
मुझे पता है
तू जलता है
जहाँ -जहाँ जलता जाता जग ।
मुझे पता है उस डिबरी का
जिसकी लौ में तू जलता है ।
जरा बता तो
क्यों जलता है ?
जग के जलने से जलता है
या जलते जग से जलता है
किस किस के जल से जलता है
किस किस के बल से जलता है
क्यों जलता है ?
जाल जलन का ब्रह्म स्वरूप जब
ज्वाला ने ही धरे रूप सब
बिना आग के क्या है बोलो !!
दिल की हर धड़कन चिंगारी
आंसू की हर बूँद अंगारी
शब्द ब्रह्म भड़काते शोले
फ़िर क्यूं जलता है तू भोले ?
मुझे पता है
तू जलता है ...
---
Monday, September 8, 2008
समीक्षा
काव्य संग्रह-''अभिलाषा''
व्यक्तिगत संबंधों की कविता में सामाजिक सहानुभूति का मानस-संस्पर्श
- डॉ. राम स्वरूप त्रिपाठी. पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष, डी.ए.वी. कालेज, कानपुर ।
मनुष्य को अपने व्यक्तिगत संबंधों के साथ ही जीवन के विविध क्षेत्रों से प्राप्त हो रही अनुभूतियों का आत्मीकरण तथा उनका उपयुक्त शब्दों में भाव तथा चिंतन के स्तर पर अभिव्यक्तीकरण ही वर्तमान कविता का आधार है । जगत के नाना रूपों और व्यापारों में जब मनीषी को नैसर्गिक सौंदर्य के दर्शन होते हैं तथा जब मनोकांक्षाओं के साथ रागात्मक संबंध स्थापित करने में एकात्मकता का अनुभव होता है, तभी यह सामंजस्य सजीवता के साथ समकालीन सृजन का साक्षी बन पाता है । युवा कवि एवं भारतीय डाक सेवा के अधिकारी कृष्ण कुमार यादव ने अपने प्रथम काव्य संग्रह 'अभिलाषा' में अपने बहुरूपात्मक सृजन में प्रकृति के अपार क्षेत्रों में विस्तारित आलंबनों को विषयवस्तु के रूप में प्राप्त करके ह्नदय और मस्तिष्क की रसात्मकता से कविता के अनेक रूप बिंबो में संजोने का प्रयत्न किया है । 'अभिलाषा' का संज्ञक संकलन संस्कारवान कवि का इन्हीं विशेषताओं से युक्त कवि कर्म है, जिसमें व्यक्तिगत संबंधों, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक समस्याओं और विषमताओं तथा जीवन मूल्यों के साथ हो रहे पीढ़ियों के अतीत और वर्तमान के टकरावों और प्रकृति के साथ पर्यावरणीय विक्षोभों का खुलकर भावात्मक अर्थ शब्दों में अनुगुंजित हुआ है । परा और अपरा जीवन दर्शन, विश्व बोध तथा विद्वान बोध से उपजी अनुभूतियों ने भी कवि को अनेक रूपों में उद्वेलित किया है । इन उद्वेलनों में जीवन सौंदर्य के सार्थक और सजीव चित्र शब्दों में अर्थ पा सके हैं ।
संकलन की पहली कविता है- “माँ” के ममत्व भरे भाव की नितांत स्नेहिल अभिव्यक्ति । जिसमें ममता की अनुभूति का पवित्र भाव-वात्सल्य, प्यार और दुलार के विविध रूपों में कथन की मर्मस्पर्शी भंगिमा के साथ कथ्य को सीधे-सीधे पाठक तक संप्रेषित करने का प्रयत्न बनाया है । शब्द जो अभिधात्मक शैली में कुछ कह रहे हैं वह बहुत स्पष्ट अर्थान्विति के परिचायक हैं, परंतु भावात्मकता का केंद्र बिंजु व्यंजना की अंतश्चेतना संभूत व आत्मीयता का मानवी मनोविज्ञान बनकर उभरा है । गोद में बच्चे को लेकर शुभ की आकांक्षी माँ बुरी नजर से बचाने के लिए काजल का टीका लगाती है, बाँह में ताबीज बाँधती है, स्कूल जा रहे बच्चे की भूख-प्यास स्वयं में अनुभव करती है, पड़ोसी बच्चों से लड़कर आये बच्चे को ऑंचल में छिपाती है, दूल्हा बने बच्चे को भाव में देखती है, कल्पना के संसार में शहनाईयों की गूँज सुनती है, बहू को सौंपती हुई माँ भावुक हो उठती है । नाजों से पाले अपने लाड़ले को जीवन धन सौंपती हुई माँ के अश्रु, करूणा विगलित स्नेह और अनुराग के मोती बनकर लुढ़क पड़ते हैं । कवि का ‘माँ’ के प्रति भाव अभ्यर्थना और अभ्यर्चना बनकर कविता का शाश्वत शब्द सौंदर्य बन जाता है ।
कृष्ण कुमार यादव का संवेदनशील मन अनुमान और प्रत्यक्ष की जीवन स्मृतियों का जागृत भाव लोक है, जहाँ माँ अनेक रूपों में प्रकट होती है । कभी पत्र में उत्कीर्ण होकर, तो कभी यादों के झरोखों से झांकती हुई बचपन से आज तक की उपलब्धियों के बीच एक सफल पुत्र को आशीर्वाद देती हुई । किसी निराश्रिता, अभाव ग्रस्त, क्षुधित माँ और सन्तति की काया को भी कवि की लेखनी का स्पर्श मिला है, जहाँ मजबूरी में छिपी निरीहता को भूखी कामुक निगाहों के स्वार्थी संसार के बीच अर्धअनावृत ऑंचल से दूध पिलाती मानवी को अमानवीय नजरों का सामना करना पड़ रहा है । माँ के विविध रूपों को भावों के अनेक स्तरों पर अंकित होते देखना और कविता को शब्द देना आदर्श और यथार्थ की अनुभूतियों का दिल में उतरने वाला शब्द बोध है ।
नारी का प्रेयसी रूप सुकोमल अनुभूतियों से होकर जब भाव भरे ह्नदय के नेह-नीर में रूपायित होता है तब स्पर्श का सुमधुर कंकड़ किस प्रकार तरंगायित कर देता है, ज्योत्सना स्नान प्रेम की सुविस्तारित रति-रजनी के आगोश में बैठे खामोश अंर्तमिलन के क्षणों को इन पंक्तियों में देखें-रात का पहर/जब मैं झील किनारे/ बैठा होता हूँ/चाँद झील में उतर कर/नहा रहा होता है/कुछ देर बाद/चाँद के साथ/एक और चेहरा/मिल जाता है/वह शायद तुम्हारा है/पता नहीं क्यों/ बार-बार होता है ऐसा/मैं नहीं समझ पाता/सामने तुम नहा रही हो या चाँद/आखिरकार झील में/एक कंकड़ फेंककर/खामोशी से मैं/ वहाँ से चला आता हूँ ।
तलाश, तुम्हें जीता हूँ, तुम्हारी खामोशी, बेवफा, प्रेयसी, तितलियाँ, प्रेम, कुँवारी किरणें, शीर्षक कविताएँ जिन वैयक्तिक भावनाओं की मांसल अभिव्यक्तियों को अंगडाइयों में उमंग से भरकर दिल के झरोखों से झाँकती संयोग और वियोग की रसात्मकता का इजहार करती हैं, वह गहरी सांसों के बीच उठती गिरती जन्म-जन्म से प्यासी प्रीति पयस्विनी के तट पर बैठे युगल की ह्नदयस्पंदों में सुनी जाने वाली शरीर की खुशबू और छुअन का स्मृति-स्फीत संसार है । इनमें आंगिक चेष्टाओं और ऐंद्रिक आस्वादनों की सौंदर्यमयी कल्पना का कलात्मक प्रणयन ह्नदयवान रसज्ञों के लिए रसायन बन सकता है । ‘प्रेयसी’ उपखंड की इन कविताओं में सुकोमल वृत्तियों की ये पंक्तियाँ दृष्टव्य हो सकती हैं- सूरज के किरणों की/पहली छुअन/ थोड़ी अल्हड़-सी/ शर्मायी हुई, सकुचाई हुई/ कमरे में कदम रखती है/वही किरण अपने तेज व अनुराग से/वज्र पत्थर को भी/पिघला जाती है/शाम होते ही ढलने लगती हैं किरणें/जैसे कि अपना सारा निचोड़/ उन्होंने धरती को दे दिया हो/ठीक ऐसे ही तुम हो ।
जीवन प्रभात से प्रारंभ होकर विकास, वयस्कता, प्रौढ़ता और वार्धक्य की अवस्थाओं को लांघती कविता की गंभीर ध्वनि मादकता के उन्माद को जीवन सत्य का दर्शन कराने में सक्षम भी हो जाती है । नारी के स्त्रीत्व को मातृत्व और प्रेयसी रूपों से आगे बढ़ाता हुआ कवि, शोषण, उत्पीड़न, अनाचार, अन्याय के पर्याय बन चुके संदेश से दलित व अबला जीवन से भी साक्षात्कार कराता है, जहाँ महीयसी की महिमा, खंड-खंड हो रही भोग्या बनकर देह बन जाती है । स्त्री विमर्श की इन कविताओं में सामाजिक और वैयक्तिक विचारणा की अनेक संभावनाओं से साक्षात्कार करता कवि भाव और विचार में पूज्या पर हो रहे अनन्त अत्याचारों का पर्दाफाश करता है । बहू को जलाना, हवस का शिकार होना तथा “वो” बन कर सड़क के किनारे अधनंगी, पागल और बेचारी बनी बेचारगी क्या कुछ नहीं कह जाती, जो इन कविताओं में बेटी और बहू के रूप में कर्तव्यों की गठरी लादे जीवन की डगर पर अर्थहीन कदमों से जीने को विवश हो जाती है। स्त्री विमर्श का यथार्थ, दलित चेतना की सोच इन कविताओं में वर्तमान का सत्य बन कर उभरी हैं ।
ईश्वर की कल्पना मनुष्य को जब मिली होगी, उसे आशा का आस्थावन विश्वास भी मिला होगा । कृष्ण कुमार यादव ने भी ईश्वर के भाव रूप को सर्वात्मा का विकास माना है । उनका मानना है कि धर्म-सम्प्रदाय के नाम पर घरौदों का निर्माण न तो उस अनन्त की आराधना है, और न ही इनमें उसका निवास है । कवि ने ईश्वर के लिए लिखा है-मैं किसी मंदिर-मस्जिद गुरूद्वारे में नहीं/मैं किसी कर्मकाण्ड और चढ़ावे का भूखा नहीं/नहीं चाहिए मुझे तुम्हारा ये सब कुछ/मैं सत्य में हूँ, सौन्दर्य में हँ, कर्तव्य में हँ /परोपकार में हूँ, अहिंसा में हूँ, हर जीव में हूँ/अपने अन्दर झांको, मैं तुममें भी हूँ/फिर क्यों लड़ते हो तुम/बाहर कहीं ढँढते हुए मुझे । कवि ईश्वर की खोज करता है अनेक प्रतीकों में, अनेक आस्थाओं में और अपने अंदर भी। वह भिखमंगों के ईश्वर को भी देखता है और भक्तों को भिखमंगा होते भी देखता है, बच्चों के भगवान से मिलता है और स्वर्ग-नरक की कल्पनाओं से डरते-डराते मन के अंधेरों में भटकते इन्सानों की भावनाओं में भी खोजता है ।
बालश्रम, बालशोषण और बाल मनोविज्ञान को “अभिलाषा” की कविताओं में जिन शीर्षकों में अभिव्यक्त किया गया है, उनमें प्रमुख हैं-अखबार की कतरनें, जामुन का पेड़, बच्चे की निगाह, वो अपने, आत्मा, बच्चा और मनुष्य तथा बचपन । इन रचनाओं में बाल मन की जिज्ञासा, आक्रोश, आतंक, मासूमियत, प्रकृति, पर्यावरण आदि का मनुष्य के साथ, पेड़-पौधों के साथ व जीव-जन्तुओं के साथ निकट संबंध आत्मीयता की कल्पना को साकार करते हुए, अतीत और वर्तमान की स्थितियों से तुलना करते हुए, आगे आने वाले कल की तस्वीर के साथ व्यक्त किया गया है । बहुधा जीवन और कर्तव्य बोध से अनुप्राणित इस खंड की कविताओं में कवि ने बच्चे की निगाह में बूढ़े चाचा को भीख का कटोरा लिए हुए भी दिखाया है और हुड़दंग मचाते जामुन के पेड़ तथा मिट्टी की सोधी गंध में मौज-मस्ती करते भी स्मृति के कोटरों में छिपी अतीत की तस्वीर से निकालकर प्रस्तुत करते पाया है । बच्चों के निश्छल मन पर छल की छाया का स्वार्थी प्रपंच किस प्रकार हावी होता है और झूठे प्रलोभन व अहंकार के वशीभूत हुए लोग उन्हें भय का भूत दिखाते हैं और जीवन भर के लिये कुरीतियों का गुलाम बना देते हैं, यह भी इन कविताओं में दृष्टव्य हुआ है ।
मन के एकांत में जीवन की गहन चेतना के गंभर स्वर समाहित होते हैं । जब मनुष्य आत्मदर्शी होकर प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करता है, तब संसार के हलचल भरे माहौल से अलग, उसे मखमली घास और पेड़ों के हरित संसार में रची-बसी अलौकिक सुंदरता का दर्शन होता है और चिड़ियों की चहचहाहट सुनाई देती है । वह मन की खिड़की खोल कर देखता है तभी उसे अपने अस्तित्व के दर्शन होते हैं । अकेलेपन का अहसास कराती नीरवता, मानव जीवन की हकीकत, बचपन से जवानी और बुढ़ापे तक का सफर अनेक आशाओं और निराशाओं का अंधेरा और उजाला नजर आने लगता है अकेलेपन में । इस प्रकार की कविताएं भी इस संकलन की विशेषता हैं ।
वर्तमान समय की ग्राम्य और नगर जीवन स्थितियों में पनप रही आपा-धापी का टिक-टिक-टिक शीर्षक से कार्यालयी दिनचर्या, अधिकारी और कर्मचारी की जीवन दशाएँ, फाइलें, सुविधा शुल्क तथा फर्ज अदायगी शीर्षकों में निजी अनुभव और दैनिक क्रियाकलापों का स्वानुभूत प्रस्तुत किया गया है । प्रकृति के साथ भी कवि का साक्षात्कार हुआ है-पचमढ़ी, बादल, नया जीवन तथा प्रकृति के नियम शीर्षकों में । इनमें मनुष्य के भाव लोक को आनुभूतिक उ्द्दीपन प्रदान करती प्रकृति और पर्यावरण की सुखद स्मृतियों को प्रकृतस्थ होकर जीवन के साथ-साथ जिया गया है ।
नैतिकता और जीवन मूल्य कवि के संस्कारों में रचे बसे लगते हैं । उसे अंगुलिमाल के रूप में अत्याचारी व अनाचारी का दुश्चरित्र-चित्र भी याद आता और बुध्द तथा गाँधी का जगत में आदर्श निष्पादन तथा क्षमा, दया, सहानुभूति का मानव धर्म को अनुप्राणित करता चारित्रिक आदर्श भी नहीं भूलता । वर्तमान समय में मनुष्य की सद्वृत्तियों को छल, दंभ, द्वेष, पाखण्ड और झूठ ने कितना ढक लिया है, यह किसी से छिपा नहीं है । इन मानव मूल्यों के अवमूल्यन को कवि ने शब्दों में कविता का रूप दिया है ।
ख्
कृष्ण कुमार यादव ने “अभिलाषा” में कविता को वस्तुमत्ता तथा समग्रता के बोध से साधारण को भी असाधारण के अहसास से यथार्थ दृष्टि प्रदान की है, जो प्रगतिशीलता चेतना की आधुनिकता बोध से युक्त चित्तवृत्ति का प्रतिबिंब है । इसमें कवि मन भी है ओर जन मन भी । मनुष्य इस संसार में सामाजिकता की सीमाओं में अकेला नहीं रहता । उसके साथ समाज रहता है, अत: अपने संपर्कों से मिली अनुभूति का आभ्यन्तरीकरण करते हुए कवि ने अपनी भावना की संवेदनात्मकता को विवेकजन्य पहचान भी प्रदान की है । रूढ़ि और मौलिकता के प्रश्नों से ऊपर उठकर जब हम इन कविताओं को देखते हैं तो लगता है कि सहज मन की सहज अनुभूतियों को कवि ने सहज रूप से सामयिक-साहित्यिक सन्दर्भों से युग-बोध भी प्रदान करने का प्रयास किया है । दायित्व-बोध और कवि कर्म में पांडित्य प्रदर्शन का कोई भाव नहीं है, फिर भी यह तो कहा ही जा सकता है कि विचार को भाव के ऊपर विजय मिली है । कविता समकालीन लेखन और सृजन के समसामयिक बोध की परिणति है सो ''अभिलाषा'' की रचनाएँ भी इस तथ्य से अछूती नहीं हैं ।
भाषा और शब्द भी आज के लेखन में अपनी पहचान बदल रहे हैं । वह “वो” हो गया है, वे और उन का स्थान भी तद्भव रूपों ने ले लिया है । श्री यादव ने भी अनेक शब्दों के व्याकरणीय रूपों का आधुनिकीकरण किया है ।
वैश्विक जीवन दृष्टि, आधुनिकता बोध तथा सामाजिक संदर्भों को विविधता के अनेक स्तरों पर समेटे प्रस्तुत संकलन के अध्ययन से आभासित होता है कि श्री कृष्ण कुमार यादव को विपुल साहित्यिक ऊर्जा संपन्न कवि ह्नदय प्राप्त है, जिससे वह हिंदी भाषा के वांगमय को स्मृति प्रदान करेंगे ।
समालोच्य कृति- अभिलाषा (काव्य संग्रह)
कवि- कृष्ण कुमार यादव
पृष्ठ- 144, मूल्य- 160 रुपये
प्रकाशक - शैवाल प्रकाशन, डी.आई.जी. आवास के सामने, दलान से नीचे, चंद्रावती कुटीर, दाऊदपुर, गोरखपुर -273 001
000
बैंकाक-पटाया-थाईलैंड में अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन
5 जनवरी, 2009 से 14 जनवरी, 2009 तक बैंकाक-पटाया-थाईलैंड में अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी और हिंदी-संस्कृति को प्रतिष्ठित करने के लिए रायपुर की प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था सृजनगाथा द्वारा किए जा रहे प्रयासों और पहलों के अनुक्रम में आगामी 5 जनवरी, 2009 से 14 जनवरी, 2009 तक बैंकाक-पटाया-थाईलैंड में अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन का आयोजन भारतीय दूतावास, थाईलैंड व अंतरराष्ट्रीय हिंदी समिति, बैंकाक के सहयोग से किया जा रहा है । सम्मेलन का मूल उद्देश्य स्वंयसेवी आधार पर हिंदी-संस्कृति का प्रचार-प्रसार, भाषायी सौहार्द्रता एवं सांस्कृतिक अध्ययन-पर्यटन है। इस सम्मेलन में अमेरिका, ब्रिटेन, मॉरीशस, थाईलैंड, नेपाल व भारत के लगभग 100 प्रतिभागी सम्मिलित हो रहे हैं । सम्मेलन मुख्यतः 3 सत्रों में होगा, जिसमें 1. हिंदी का वैश्विक परिदृश्य, 2. नयी तकनीक और हिंदी पत्रकारिता तथा 3.कविता का संसारःसंसार की कविता विषय पर हिंदी के आधिकारिक विद्वान, अध्यापक, लेखक, भाषाविद्, पत्रकार, टेक्नोक्रेट एवं हिंदी प्रचारक विमर्श करेंगे । इसके अलावा प्रतिभागियों के लिए कोलकाता, बैंकाक, पटाया, अयुध्या, कचनापुरी, नूननूच आदि स्थलों का सांस्कृतिक पर्यटन सुनिश्चित किया गया है । आपकी रचनात्मक भागीदारी को मद्देनज़र रखते हुए संस्था आपको सादर आमंत्रित करती है ।
इस महती आयोजन में सम्मिलित होने के लिए प्रतिभागियों को थाईलैंड में 7 दिवस का होटल, भोजन, नाश्ता, पर्यटन, हवाई यात्रा स्वैच्छिक रूप से स्वयं वहन करना होगा । पंजीयन हेतु प्रतिभागियों को उपर्युक्त किसी एक विषय पर अपना आलेख अधिकतम् 1000 शब्दों में दिनांक 15 सितम्बर, 2008 के पूर्व अपने बायोडेटा व सम्मेलन में स्वयंसेवी प्रतिभागिता की लिखित सहमति पत्र के साथ उपलब्ध कराना अनिवार्य होगा । सहमति एवं आलेख चयन की स्थिति में प्रतिभागी को पासपोर्ट की मूलप्रति सहति सहभागिता राशि के रूप में रुपये 34,000 एकमुश्त 1 दिसम्बर, 2008 के पूर्व जमा कराना अनिवार्य होगा ।
सम्मेलन में प्रतिभागिता व विस्तृत जानकारी के लिए जयप्रकाश मानस संपादक, सृजन गाथा, एफ-3, माध्यमिक शिक्षा मंडल, पेंशनवाडा, विवेकानंद नगर, रायपुर, छत्तीसगढ़ से संपर्क कर सकते हैं ।
तेलुगु भाषा एवं साहित्य
तेलुगु भाषा एवं साहित्य
अंतरजाल पर तेलुगु भाषा एवं साहित्य पर हिंदी में अपेक्षित मात्रा में सामग्री उपलब्ध न होने के कारण अपने पाठकों के लिए युग मानस की ओर से तेलुगु भाषा एवं साहित्य पर धारावाहिक लेखमाला का प्रकाशन आरंभ किया जा रहा है । तेलुगु के युवा कवि उप्पलधडियम वेंकटेश्वरा अपने लेखों के माध्यम से तेलुगु भाषा एवं साहित्य के विविध आयामों पर प्रकाश डाल रहे हैं । इस क्रम में दूसरा लेख यहाँ प्रस्तुत है । - सं.
तेलुगु भाषा की विशिष्टताएं
- उप्पलधडियम वेंकटेश्वरा
भाषाविदों का मानना है कि तेलुगु, तमिल, कन्नड आदि द्रविड भाषाएं अपनी पूर्ववर्ती मूल द्रविड भाषा (proto Dravidian language) से विकसित हुई हैं । एक ही स्रोत से प्रादुर्भूत इन भगिनी भाषाओं के व्याकरण, शब्द-भंडार आदि में अनेक समानताएं पाई जाती हैं । फिर भी द्रविड भाषाओं में तेलुगु की अपनी विशेष पहचान है । वह द्रविड भाषा-परिवार की भाषाओं में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा तो है ही, साथ ही भाषाई दृष्टि से वह इस परिवार की अन्य तीन प्रमुख भाषाओं से थोड़ा हटकर अलग दिखती है।
द्रविड़ भाषा-परिवार में कुल 26 भाषाएं हैं, जिनमें चार भाषाएं प्रमुख हैं - तेलुगु, तमिल, कन्नड और मलयालम । द्रविड भाषा-परिवार को तीन वर्गों में विभाजित किया जाता है ।
(क) उत्तर द्रविड भाषाएं
(ख) मध्य द्रविड भाषाएं
(ग) दक्षिण द्रविड भाषाएं
तेलुगु मध्य द्रविड भाषा वर्ग की एक-मात्र विकसित भाषा है जबकि तमिल, कन्नड और मल्यालम, ये तीनों दक्षिण द्रविड भाषा वर्ग की विकसित भाषाएं हैं । यह तेलुगु भाषा के अपनेपन का द्योतक है । यहां प्रख्यात भाषा-वैज्ञानिक डॉ. भद्रिराजु कृष्णमूर्ति के शब्द उल्लेखनीय हैं कि तेलुगु अपने दक्षिण और पश्चिम में प्रयुक्त तमिल और कन्नड के बजाय उत्तर और पूर्व में प्रयुक्त 'कुई' आदि भाषाओं के निकट है । अत: यह कहना समीचीन होगा कि द्रविड भाषा-परिवार की विकसित भाषाओं में तेलुगु निराली है ।
2. तेलुगु भाषा 'अंजत' याने स्वरांत भाषा है तथा यही इसके अनुपम माधुर्य का कारण है।
3. तेलुगु भाषा की विशेषता के बारे में 'तेलुगु-अंग्रेजी कोश' के प्राक्कथन में सर सी.पी. ब्राउन का मंतव्य इस संदर्भ में विशेष रूप से उल्लेखनीय है -
"The etymology of Telugu is full of suggestive meaning. The words for father (తండ్రి - तंड्रि) and mother (తల్లి - तल्लि) are undoubtedly connected with the root Ta (త - त) ie., to bring (eg. తెచ్చు- तेच्चु ) and literally mean 'He who brings' or 'she who brings' respectively. The Telugu word for son-in-law (అల్లుడు - अल्लुडु) signifies 'one who weaves' (i.e. relationship between two families). The word for the hand (చెయ్యి - चेय्यि) comes from (చెయు - चेयु) 'to do' and means 'that which does' (i.e. works) and the word for the right hand (కుడిచెయ్యి - कुडिचेय्यि) means the food (కూడు - कूडु) eating hand, while the left hand (ఎడమచెయ్యి - एडमचेय्यि) i.e. 'the distant hand',
तेलुगु में 'एडम' शब्द का अर्थ है दूरी । इसी प्रकार 'नडुम' शब्द का अर्थ है 'मध्य' और शरीर के मध्य-भाग याने कमर के लिए तेलुगु शब्द है 'नडुमु' । 'विनु' शब्द का अर्थ है 'सुनना' तथा कान के लिए तेलुगु शब्द है 'वीनु' । और भी उदाहरण दिए जा सकते हैं, लेकिन इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए यही काफी है कि तेलुगु शब्दों की व्युत्पत्ति सारगर्भित है ।
तेलुगु, तेनुगु और आंध्र शब्दों की व्युत्पत्ति
पहले हम देख चुके हैं कि तेलुगु, तेनुगु और आंध्र शब्द पर्याचवाची हैं और इनमें 'तेलुगु' तथा 'आंध्र' शब्द काफ़ी प्रचलित हैं । 'तेनुगु' शब्द का भी यत्र-तत्र प्रयोग किया जाता है । अब इन शब्दों की व्युत्पत्ति पर विचार करेंगे ।
'तेलुगु' शब्द की व्युत्पत्तिः- तेलुगु' शब्द की व्युत्पत्ति के बारे में विद्वानों में मतभेद हैं । कुछेक मत नीचे प्रस्तुत हैं -
(i) तेलि + अगु तेलुगु याने स्वच्छ - भाषा । 'तेलि' शब्द का अर्थ है स्वच्छ और 'अगु' शब्द अर्थ है होना, यानि तेलुगु माने स्वच्छ भाषा । चूंकि प्रत्येक व्यक्ति अपनी भाषा को स्वच्छ ही मानता है, अत: यह व्युत्पत्ति तर्क-संगत नहीं है।
(ii) तिलों के जैसे हजारों संख्या में गोधन से युक्त देश की भाषा 'तेलुगु' कहलाती है । यह व्युत्पत्ति भी ठीक नहीं लगती, क्योंकि तिल-सदृश गोधन तो केवल कल्पना का ही विषय हो सकता है ।
(iii) कुछ विद्वानों के अनुसार 'तेलुगु' शब्द 'तलैंग' शब्द से निष्पन्न हुबा है । इनका मानना है कि प्राचीन काल में बर्मा में रहने वाले 'तलैंग' नामक जाति के लोग आंध्र-प्रांत में आ बस गए । इसके कारण यहां की भाषा को 'तेलुगु' की संज्ञा दी गई । इसके विरोध में कहा जाता है कि बीच में दीर्घ से युक्त 'तलैंग' जैसे शब्द प्राचीन तेलुगु भाषा में न मिलने के कारण यह व्युत्पत्ति तर्क-संगत नहीं है।
(iv) कुछ विद्वान 'तेलुगु' शब्द को पुरानी बाबिलोनियन भाषा की 'अलीक तिलमुन' शब्द से जन्म मानते हैं ।
(v) कुछ विद्वान 'तेलुगु' शब्द को 'त्रिलिंग' शब्द से उत्पन्न मानते हैं । उनके अनुसार तेलुगु भाषा-भाषी क्षेत्र तीन पवित्र शिव-मंदिरों (श्रीशैलम्, कालेश्वरम् तथा दाक्षारामम) से युक्त होने के कारण इस भू-भाग का नाम 'त्रिलिंग' क्षेत्र हो गया तथा इस क्षेत्र की भाषा 'त्रिलिंग भाषा' कहलाई, जिसका बिगड़ा हुआ रूप है तेलुगु । लेकिन इतिहासकारों का मानना है कि जब आंध्र-प्रांत में शैव-धर्म प्रचलित था, तब 'तेलुगु' शब्द का संस्कृतीकरण करके 'त्रिलिंग' शब्द को प्रचार में लाया गया ।
(vi) एक और व्युत्पत्ति यह दी जाती है कि 'तेलिवाह' नदी जां बहती है, उस क्षेत्र की भाषा का नाम ही 'तेलुगु' है । तेलि (याने सफेद) + वाह (याने प्रवाह) = तेलिवह बनता है, जिसका अर्थ है कि सफेद वर्ण के जल प्रवाह तथा इससे गोदावरी नदी अभिप्रेत है । (उल्लेखनीय है कि आंध्र-प्रांत की एक और जीव नदी 'कृष्ण' का नाम उसके जल के श्याम वर्ण पर ही आधारित है ।)
(vii) तेल + गु = तेलुगुः- मूल - द्रविड भाषा में 'तेल' धातु का अर्थ है – स्पष्टता । कुछ विद्वान मानते हैं कि इस 'तेलु' धातु के साथ उपसर्ग 'गु' के जुड़ने से 'तेलुगु' शब्द निष्पन्न हुआ है । याने किसी भी विचार को स्पष्ट रूप में कहने की क्षमता रखने वाली भाषा है 'तेलुगु' । उल्लेखनीय है कि 'विरुगु' (कटना) ‘करुगु’ (पिघलना) जैसे तेलुगु शब्द मूल-धातु के साथ जुड़ने से निष्पन्न शब्द है।
(viii) कुछ विद्वानों की राय है कि 'तेलुपु' शब्द से 'तेलुगु' शब्द उत्पन्न हुआ है । 'तेलुपु' शब्द के दो अर्थ हैं - ;(1) सफेद रंग ; (2) बताना । 'तेलुपु' शब्द की व्युत्पत्ति के रूप में 'बताना' अर्थ को मानकर वे कहते हैं कि जो भाषा विचारों को स्पष्ट रूप में बताती है, वह भाषा 'तेलुगु' है । अपने मन के समर्थन में ये विद्वान बताते हैं कि एक और द्रविड भाषा 'ब्राहुई' को 'ब्रूडुई' भी कहा जाता है और संस्कृत में 'बू' शब्द का अर्थ है 'बोलना' ।
'तेलुगु' शब्द की व्युत्पत्तिः-
(i) तेने + अगु = तेनुगु : 'तेने' शब्द का अर्थ है शहद और 'अगु' शब्द का अर्थ है होना । याने शहद (तेने) जैसी मीठी भाषा 'तेनुगु' कहलाई।
(ii) कुछ विद्वानों ने 'तेन्नु' शब्द से 'तेनुगु' शब्द की व्युत्पत्ति दर्शाने की कोशिश की । 'तेनुगु' शब्द का अर्थ है रास्ता, अत: रास्ते में रहने वाली लोगों की भाषा है तेलुगु । लेकिन इस व्युत्पत्ति में अर्थ - सामंजस्य नहीं बैठता।
(iii) 'गोंडु' प्रजाति के लोगों ने अपनी भाषा को 'कु' भाषा की संज्ञा दी है । कुछ विद्वान मानते हैं कि इस भाषा-समाज से कुछ लोग अलग होकर, दक्षिण में जाकर रहने लगे होंगे । चूंकि मूल - द्रविड में 'तेन' शब्द का अर्थ 'दक्षिण' है, अत: इन लोगों की भाषा 'तेनुगु' (तेन + कु याने दक्षिण की 'कु' भाषा) कहलाई होगी ।
(iv) कुछ विद्वानो द्वारा 'तेनुगु' को संस्कृत के 'त्रिनग' शब्द का बिगड़ा हुआ रूप माना जाता है । ये 'त्रिनग' याने तीन पर्वत हैं श्रीशैलमु, कालेश्वरमु तथा दाक्षाराममु। जैसाकि पहले ही बताया गया है, इतिहासकारों की राय है कि शैव-धर्मावलंबियों द्वारा 'तेलुगु' शब्द का संस्कृतीकरण करके 'त्रिनग' शब्द को प्रचार में लाया गया ।
(v) तेलुगु-तेनुगः- तेलुगु भाषा में कहीं - कहीं ल - न वर्णों की अभेदकता दीख पड़ती है । उदाहरण के तौर पर 'मुनग' शब्द 'मुलग' बन जाता है, 'लेत' शब्द 'नेत' बन जाता है । अत: कुछ विद्वान मानते हैं ल - न कारों के परस्पर विनिमय के कारण 'तेलुगु' से 'तेनुगु' शब्द उत्पन्न हुआ है।
'आंध्र' शब्द की व्युत्पत्तिः-
'आंध्र' शब्द का शाब्दिक अर्थ 'अग्रणी' है । इसका एक और अर्थ 'शिकारी' है, जो प्राय: तेलुगु प्रजाति के आदिम दिनों में समीचीन था । अब हम 'आंध्र' शब्द की व्युत्पत्ति पर गौर करेंगे -
1. अंध (अंधेरा) + रः- (नाश करने वाला) अंध्र याने अंधेरे का विनाश करने वाला ।
2. अंध (जल) + र : (भ्रमण करने वाला) अंध्र याने जलयान करने वाला ।
3. अंध (अन्न) + र : (हस्त वाला) अंध्र याने अन्न रूपी हस्त वाला । माना जाता है कि 'अंध्र' शब्द ही कालांतर में 'आंध्र' शब्द के रूप में परिवर्तित हो गया ।
वास्तव में 'आंध्र' शब्द की व्युत्पत्ति पर और शोध की आवश्यकता है ।
***
हास्य
हर समस्या का निदान - पत्नी पुराण
- श्यामल सुमन
शेर की शादी में चूहे को देखकर हाथी ने पूछा - "भाई तुम इस शादी में किस हैसियत से आये हो ?" चूहा बोला, " जिस शेर की शादी हो रही है, वह मेरा छोटा भाई है ।" हाथी का मुँह खुला का खुला रह गया, बोला, "शेर और तुम्हारा छोटा भाई ? " चूहा - "क्या कहूँ ? शादी के पहले मैं भी शेर ही था ।" यह तो हुई मजाक की बात, लेकिन पुराने समय से ही दुनिया का मोह छोड़कर, सच की तलाश में भटकनेवाले भगोडों को सही रास्ते पर लाने के लिए, शादी कराने का रिवाज हमारे समाज में रहा है । कई बिगडैल कुँवारों को इसी पद्धति से आज भी रास्ते पर लाया जाता है । हम सबने कई बार देखा-सुना है कि तथाकथित सत्य की तलाश में भटकने को तत्पर आत्मा, शादी के बाद पत्नी को प्रसन्न करने के लिए लगातार भटकती रहती है । कहते भी हैं कि "शादी वह संस्था है जिसमें मर्द अपनी 'बैचलर डिग्री' खो देता है और स्त्री 'मास्टर डिग्री' हासिल कर लेती है ।"
प्रायः शादी के पहले की जिंदगी पत्नी को पाने के लिए होती है और शादी के बाद की जिंदगी पत्नी को खुश रखने के लिए । तकरीबन हर पति के लिए पत्नी को खुश रखना एक अहम और ज्वलंत समस्या होती है और यह समस्या चूँकि सर्वव्यापी है अतः इसे हम चाहें तो राष्ट्रीय (या अंतर्राष्ट्रीय) समस्या भी कह सकते हैं । लगभग प्रत्येक पति दिन-रात इसी समस्या के समाधान में लगा रहता है, पर कामयाबी बिरलों के भाग्य में ही होती है । सच तो यह है कि आदमी की पूरी जिंदगी पत्नी को ही समर्पित रहती है और पत्नी है कि खुश होने का नाम ही नहीं लेती । अगर खुश हो जाएगी तो उसका बीवीपन खत्म हो जाएगा, फिर उसके आगे-पीछे कौन घूमेगा? किसी ने ठीक ही तो कहा है कि "शादी और प्याज में कोई खास अन्तर नहीं - आनंद और आँसू साथ-साथ नसीब होते हैं ।"
पत्नी को खुश रखना इस सभ्यता की संभवतः सबसे प्राचीन समस्या है । सभी कालखंडों में पति अपनी पत्नी को खुश रखने के आधुनिकतम तरीकों का इस्तेमाल करता रहा है और दूसरी ओर पत्नी भी नाराज होने की नई-नई तरकीबों का ईजाद करती रहती है । एक बार एक कामयाब और संतुष्ट-से दिखाई देनेवाले पति से मैंने पूछा- 'क्यों भाई पत्नी को खुश रखने का उपाय क्या है ?' वह नाराज होकर बोला- 'यह प्रश्न ही गलत है । यह सवाल यूँ होना चाहिए था कि पत्नी को भी कोई खुश रख सकता है क्या ?' उन्होंने तो यहाँ तक कहा कि "शादी और युद्ध में सिर्फ एक अन्तर है कि शादी के बाद आप दुश्मन के बगल में सो सकते हैं ।"
जिस पत्नी को सारी सुख-सुविधाएँ उपलब्ध हों, वह इस बात को लेकर नाराज रहती है कि उसका पति उसे समय ही नहीं देता । अब बेचारा पति करे तो क्या करे ? सुख-सुविधाएँ जुटाए या पत्नी को समय दे ? इसके बरअक्स कई पत्नियों को यह शिकायत रहती है कि मेरे पति आफिस के बाद हमेशा घर में ही डटे रहते हैं । इसी प्रकार के आदर्श-पतिनुमा एक इन्सान(?) से जब मैंने पूछा कि 'पत्नी को खुश रखने का क्या उपाय है ?' तो उसने तपाक से उत्तर दिया-'तलाक ।' मुझे लगा कि कहीं यह आदमी मेरी ही बात तो नहीं कह रहा है ? मैं सोचने लगा " 'विवाह' और 'विवाद' में केवल एक अक्षर का अन्तर है शायद इसलिए दोनों में इतना भावनात्मक साहचर्य और अपनापन है ।"
पतिव्रता नारियों का युग अब प्रायः समाप्ति की ओर है और पत्नीव्रत पुरुषों की संख्या, प्रभुत्व और वर्चस्व लगातार बढ़त की ओर है । यदि इसका सर्वेक्षण कराया जाय तो प्रायः हर दूसरा पति आपको पत्नीव्रत मिलेगा । मैंने सोचा क्यों न किसी अनुभवी पत्नीव्रत पति से मुलाकात करके पत्नी को खुश रखने का सूत्र सीखा जाए । सौभाग्य से इस प्रकार के एक महामानव से मुलाक़ात हो ही गई, जो इस क्षेत्र में पर्याप्त तजुर्बेकार थे । मैंने अपनी जिज्ञासा जाहिर की तो उन्होंने जो भी बताया, उसे अक्षरशः नीचे लिखने जा रहा हूँ, ताकि हर उस पति का कल्याण हो सके, जो पत्नी-प्रताड़ना से परेशान हैं -
१ - ब्रह्ममुहुर्त में उठकर पूरे मनोयोग से चाय बनाकर पत्नी के लिए 'बेड टी' का प्रबंध करें । इससे आपकी पत्नी का 'मूड नार्मल' रहेगा और बात-बात पर पूरे दिन आपको उनकी झिडकियों से निजात मिलेगी । वैसे भी, किसी भी पत्नी के लिए पति से अच्छा और विश्वासपात्र नौकर मिलना मुश्किल है, इसलिए इसे बोझस्वरूप न लें, बल्कि सहजता से युगधर्म की तरह स्वीकार करें । कहा भी गया है कि "सर्कस की तरह विवाह में भी तीन रिंग होते हैं - एंगेजमेंट रिंग, वेडिंग रिंग और सफरिंग ।"
२ - अगर आपका वास्ता किसी तेज-तर्रार किस्म की पत्नी से है तो उनके तेज में अपना तेज (अगर अबतक बचा हो तो) सहर्ष मिलाकर स्वयं निस्तेज हो जाएँ । क्योंकि कोई भी पत्नी तेज-तर्रार पति की वनिस्पत ढुलमुल पति को ही ज्यादा पसंद करती है । इसका यह फायदा होगा कि आप पत्नी से गैरजरूरी टकराव से बच जाएँगे, अब तो जो भी कहना होगा, पत्नी कहेगी । आपको तो बस आत्मसमर्पण की मुद्रा अपनानी है ।
३- आपकी पत्नी कितनी ही बदसूरत क्यों न हो, आप प्रयास करके, मीठी-मीठी बातों से यह यकीन दिलाएँ कि विश्व-सुंदरी उनसे उन्नीस पड़ती है । पत्नी द्वारा बनाया गया भोजन (हलाँकि यह सौभाग्य कम ही पतियों को प्राप्त है) चाहे कितना ही बेस्वाद क्यों न हो, उसे पाकशास्त्र की खास उपलब्धि बताते हुए पानी पी-पीकर निवाले को गले के नीचे उतारें । ध्यान रहे, ऐसा करते समय चेहरे पर शिकायत के भाव उभारना वर्जित है, क्योंकि "विवाह वह प्रणाली है, जो अकेलापन महसूस किए बिना अकेले जीने की सामर्थ्य प्रदान करती है ।"
४ - पत्नी के मायकेवाले यदि रावण की तरह भी दिखाई दे तो भी अपने वाकचातुर्य और प्रत्यक्ष क्रियाकलाप से उन्हें 'रामावतार' सिद्ध करने की कोशिश में सतत सचेष्ट रहना चाहिए ।
५ - आप जो कुछ कमाएँ, उसे चुपचाप 'नेकी कर दरिया में डाल' की नीति के अनुसार बिल्कुल सहज समर्पित भाव से अपनी पत्नी के करकमलों में अर्पित कर दें और प्रतिदिन आफिस जाते समय बच्चों की तरह गिडगिडाकर दो-चार रूपयों की माँग करें । पत्नी समझेगी कि मेरा पति कितना बकलोल है कि कमाता खुद है और रूपये-दो रूपयों के लिए रोज मेरी खुशामद करता रहता है । एक हालिया सर्वे के अनुसार लगभग पचहत्तर प्रतिशत पति इसी श्रेणी में आते हैं । मैं अपील करता हूँ कि शेष पच्चीस प्रतिशत भी इस विधि को अपनाकर राष्ट्र की मुख्यधारा में सम्मिलित हो जाएँ और सुरक्षित जीवन-यापन करें ।
अंत में उस अनुभवी महामानव ने अपने इस प्रवचन के सार-संक्षेप के रूप में यह बताया कि उक्त विधियों को अपनाकर आप भले दुखी हो जाएँ, लेकिन आपकी पत्नी प्रसन्न रहेगी और उनकी मेहरबानी के फूल आप पर बरसते रहेंगे । किसी ने बिलकुल ठीक कहा है कि "प्यार अंधा होता है और शादी आँखें खोल देती है ।" मेरी भी आँखें खुल गईं । कलम घिसने का रोग जबसे लगा, साहित्यिक मित्रों की आवाजाही घर पर बढ़ गई । चाय-पानी के चक्कर में जब पत्नी मुझे पूतना की तरह देखती तो मेरी रूह काँप जाती थी । मैंने इससे निजात पाने का रास्ता ढूँढ ही लिया ।
आपने फूल कई रंगों के देखे होंगे, लेकिन साँवले या काले रंग के फूल प्रायः नहीं दिखते । मैंने अपने नाम 'श्यामल' के आगे पत्नी का नाम 'सुमन' जोड़ लिया । हमारे साहित्यिक मित्र मुझे 'सुमनजी-सुमनजी' कहकर बुलाते हुए घर आते । धीरे-धीरे नम्रतापूर्वक मैंने अपनी पत्नी को विश्वास दिलाने में आश्चर्यजनक रूप से सफलता पाई कि मेरे उक्त क्रियाकलाप से आखिर उनका ही नाम तो यशस्वी होता है । अब मेरे घर में ऐसे मित्रों भले ही स्वागत-सत्कार कम होता हो, पर मैं निश्चिंत हूँ कि अब उनका अपमान नहीं होगा । किसी ने ठीक ही कहा है कि "विवाह वह साहसिक-कार्य है जो कोई बुजदिल पुरुष ही कर सकता है ।"
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Saturday, September 6, 2008
अनूदित कविता
अंतर
तेलुगु मूल - सूर्य वंशी
अनुवाद - वी. वेंकटेश्वरा
लकड़ी मेरे हाथ में
पड़ा हूँ पीछे
मैं सांप के ।
हाथ में उसके
प्याला दूध का
स्वागत वह करता सांप का !
कविता
आकाश की ओर
- हरिहर झा
( अति मह्त्वाकांक्षी लोग… क्या क्या गुल खिलाती हैं उनकी हीन ग्रंथियां…)
पिकनिक पॉइंट पर खड़ा
मैं देख रहाढलकता पानी
जलधारा का मैं छूना चाहता झिझकती उंगलियों से
टपकती करुणा इन बूंदों से
गिरती खाइयों में
जिसकी गहराइयां भयदायी
पर कुछ बूंदों की लपटें
महत्वाकांक्षा लिए
वाष्पीभूत होकर
उठी आकाश की ओर ।
मैं ही हूं वाष्पीभूत जल
ऊपर को उठता हुआ
क्यों समझते तुम मुझे
क्षुद्र और नीचा !
देखता हूँन जाने क्यों नीचे रह कर
कीड़े-मकोड़े आनंदित हैं
मैं जल रहा नन्हेपन की पीड़ा में
घनीभूत हो रहाओछेपन का भाव
और सूइयां चुभती
हीन ग्रंथि की
मैं चिल्लाता हूं
देखो, मुझे देखो
मेरी ऊँचाई !
पर मग्न हो तुम स्वयं में
विनाशकारी धारा से अनजान
बिजली के तार परबैठी चिड़िया की तरह;
मैं भी चहचहाना चाहता
कुछ परागकण
फैलाता वायुमंडल में
बिखरा देता कुछ बीज धरती पर
मकसद वही
विशाल वृक्ष से प्रतिस्पर्धा करने ।
मेरे कंप्यूटर का की-बोर्ड
उपहास करता
मेरी आजीवन पीड़ा और बेचैनी पर;
व्यथा बेझिझक और अनंत दुख
अंधकार में ढीले पड़ते स्नायु
तनाव से भरा जीवन
और मौत की क्षणभर आयु
निकली कीबोर्ड के बल्ब की चमक
आत्मसात होने
दूर गगन की
निहारिका की ओर
रह गई आधी अधूरी
धुएं की लकीर का छोर
इस ओर ।
कवि कुलवंत सिंह की कृतियों का लोकार्पण कार्यक्रम सुसंपन्न
किरणदेवी सराफ ट्रस्ट के सहयोग से कवि श्री कुलवंत सिंह की काव्य पुस्तकों "चिरंतन" एवं "हवा नूँ गीत" (पूर्व काव्य संग्रह निकुंज का गुजराती अनुवाद - श्री स्पर्श देसाई द्वारा) का विमोचन समारोह कीर्तन केंद्र सभागृह, विले पार्ले, मुंबई में २१ अगस्त, २००८ को संपन्न हुआ। पुस्तकों का विमोचन प्रसिद्ध उद्योगपति एवं समाजसेवी श्री महावीर सराफ जी के कर कमलों द्वारा संपन्न हुआ । कार्यक्रम की अध्यक्षता की - 'महाराष्ट्र हिंदी साहित्य अकादमी' के अध्यक्ष श्री नंद किशोर नौटियाल जी ने। विशिष्ट अतिथि के रूप में महानगर के अनेक गणमान्य एवं साहित्य के शीर्षस्थ योद्धा पधारे । जिनमें प्रमुख थे - नवनीत के पूर्व मुख्य संपादक श्री गिरिजाशंकर त्रिवेदी, कुतुबनुमा की संपादिका श्रीमती राजम नटराजम, फिल्म कथाकार श्री जगमोहन कपूर, अंजुमन संस्था के अध्यक्ष एवं प्रमुख शायर खन्ना मुजफ्फरपुरी, प्रमुख शायर श्री जाफर रजा, श्रीमती देवी नागरानी, श्रुति संवाद के अध्यक्ष श्री अरविंद राही, ह्यूमर क्लब के अध्यक्ष श्री शाहिद खान, कथाबिंब के संपादक श्री अरविंद, संयोग साहित्य के संपादक श्री मुरलीधर पांडेय, श्री देवदत्त बाजपेयी एवं अन्य अनेक गणमान्य गीतकार, कवि एवं शायर । जिन्होने नवोदित कवि एवं गीतकार श्री कुलवंत सिंह के लिए अपने अनेकानेक आशीषों की झड़ी लगा दी ।
कार्यक्रम में पुस्तक पर समीक्षा प्रस्तुत की डॉ. श्रीमती तारा सिंह एवं श्री अनंत श्रीमाली ने। कार्यक्रम का संचालन किया मंचो के प्रसिद्ध संचालक श्री राजीव सारस्वत ने।
कार्यक्रम का प्रारंभ हंसासिनी माँ सरस्वती पर माल्यार्पण एवं दीप प्रज्जवलन से किया गया । माँ सरस्वती का आवाहन पण्डित जसराज जी के शिष्य श्री नीरज कुमार ने कुलवंत सिंह द्वारा रचित वंदना को अपने कण्ठ से अभिनव स्वर प्रदान कर की । पुस्तकों के विमोचन के उपरांत कवि कुलवंत सिंह के गीतों पर संगीतमय प्रस्तुति की - श्री सुरेश लालवानी ने। शिप्रा वर्मा ने भी एक गीत को सुर प्रदान किये।
इस अवसर पर कुलवंत सिंह की रचनाओं पर टिप्पणी करते हुए अध्यक्ष श्री नौटियाल जी ने कहा कि कुलवंत की कुछ रचनाएँ भले ही काव्य के पारखियॊं की दृष्टि में उतनी खरी न उतरें; लेकिन ऐसी ही एक पंक्ति का जिक्र करते हुए 'हो भूख से बेजार जब उतारता कोई स्वर्ण मुद्रिका जल रही चिता के हाथ' जब उन्होंने इसे अपनी पसंदीदा कविताओं में दर्ज कराया तो यह पंक्ति पढ़ते हुए उनकी आखें सजल हो उठीं ।
राजम नटराजम ने कुलवंत की एक कविता 'पदचिन्ह' की इन पंक्तियों को पढ़ते हुए - 'बचपन में मैने गौतम बुद्ध को पढ़ा था, उनका साधूपन भाया था / सोचा था / मैं भी, तन से न सही, मन सेअवश्य साधू बनूंगा / समझ नही आता, आज लोग मुझे बेवकूफ क्यों कहते हैं'; टिप्पणी की कि काश यह बेवकूफपना हम सभी में बना रहे । एक माँ इस तरह बेवकूफ बन कर ही एक बच्चे का लालन पालन करती है। एक पिता अपने बच्चे के लिए इसी बेवकूफपने के तहत अपनी भविष्यनिधि से बच्चे का बर्तमान बनाता है । अपने अति व्यस्त कार्यक्रम से समय निकालकर श्री आलोक भट्टाचार्य भी अपना आशिर्वाद देने पहुँचे। इस अवसर पर प्रसिद्ध कथाकारा डा श्रीमती सूर्यबाला जी ने भी अपना संदेश भेजा ।
गुजराती अनुवाद के सर्वेसर्वा श्री स्पर्श देसाई ने अपने अनुभवों को व्यक्त करते हुए दो छोटी कविताएं गुजराती में पढ़ीं । कार्यक्रम के अंत में कवि कुलवंत ने माँ सरस्वती सहित सभी आगंतुको का हार्दिक दिल से धन्यवाद किया ।