Saturday, September 27, 2008

कविता

स्वर्ण ज्योति जी की मातृभाषा कन्नड है । वे पांडिचेरी में रहती हैं जहाँ की स्थानीय भाषा तमिल है, परंतु वे हिंदी से जुड़ी हैं । इनका एक काव्य संग्रह अच्छा लगता है का प्रकाशन हो चुका है । कन्नड से जैन ग्रंथ का हिंदी में अनुवाद भी प्रकाशित हो चुका है । एक तमिल काव्य संग्रह का अनुवाद कर चुकी हैं । शीघ्र ही मौलिक कहानी संग्रह प्रकाशित करने हेतु प्रयासरत हैं । युग मानस में पहली बार उनकी एक मौलिक कविता प्रकाशित हो रही है ।


नया युग


- स्वर्ण ज्योति



हर एक दिन
सुंदर कल के इंतजार में
खुद को खोते गए
अब तो ढूँढ़ना भी
बेमानी हो गया है
बुलंद इमारतों के साए में
आदमी बौना हो गया है
पाई-पाई जोड़ते जोड़ते
वह खिलौना हो गया है
सपनों के लिए
रातें औ नींद की है जरूरत
पालियों के जाल में फँसकर
सपना देखना भी
सपना हो गया है
बढ़ती गई ऐसी आबादी
जैसे चढ़ती बाढ़ में नदी
हो गई इतनी आपूर्ति
कि ज़िंदगी ही हो गई
बिलकुल सस्ती
दंगा-फसाद, बम-ब्लास्ट
दो दिनों का है मातम
हो जाता है फिर
दिमाग से सब कुछ लॉस्ट
क्योंकि
आदमी खुद को ढूँढ़ने में
नाकाम हो गया है
आधुनीकरण औ मशीनीकरण
की दौड़ में
वह भी केवल
एक पुर्जा बन गया है ।
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