Wednesday, August 3, 2016

चित्रा मुद्गल की कहानियों में विधवा तथा तलाकशुदा महिलाओं की समस्याएँ

आलेख
चित्रा मुद्गल की कहानियों में विधवा तथा तलाकशुदा महिलाओं की समस्याएँ
                                              
                                                पी.एम.थोमसकुट्टी (हिंदी अध्यापक)
                                                  केन्द्रीय विद्यालय, करीमनगर

आधुनिक हिन्दी कहानिकारों में चित्रा मुद्गल का एक महत्वपूर्ण स्थान है। उनके अपनी वापसी’, ’जहर ठहरा हुआ’, ’ग्यारह लंबी कहानियाँ’, ’इस इमाम में’, ’लाक्षागृह’, ’जगदंबा बाबू गाँव आ रहे हैं’, ’लपटें’, ’बयान’, ’मामला आगे बढेगा अभीआदि नौ कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुका है। उनकी कहानियों में समाज के सभी वर्गों की स्त्रियों के बारे में उल्लेख मिलता है जैसे स्वातंत्र्य चाहने वाली नारी, आत्मनिर्भर नारी, काम करने वाली नारी, विधवा तथा परित्यक्ता नारी, मध्यवर्गीय शिक्षित नारी, अकेलापन का अनुभव महसूस करने वाली नारी, अशिक्षित नारी, झोपडियों में रहने वाली नारी, वेश्यावृत्ति करने वाली नारी आदि।                          
      आज समाज के मानदंड, विचारधाराएँ और धारणाएँ बदल रही हैं। पहलेघरही स्त्री का कर्यक्षेत्र मान लिया जाता था लेकिन आज स्त्रियाँ जीवन के हर क्षेत्र में प्रवेश कर चुकी हैं।अपने पति और बच्चों के साथ रह कर घर संभालने वाली स्त्री की समस्या, परित्यक्ता अथवा कामकाजी नारी से बिल्कुल भिन्न है। डा. घनश्याम दास के अनुसार- “ सबसे दयनीय अवस्था परित्यक्ता स्त्री की होती है। उनके पास न भूतकाल की सुखद स्मृतियाँ हैं न भविष्य  के सपने। फिर से विवाह करके वह स्वयं को खतरा मोल लेना नहीं चाहती है
      ’सुखकहानी में चित्रा मुद्गल ने प्रोफेसर सुमंगला की एक अलग पीडा को अभिव्यक्ति दी है। इस कहानी की विधवा सुमंगला को घर में घरेलू काम केलिए नौकरानी चाहिए जो बडी मुश्किल से मिलती है। सुमंगला नौकरानी फूली के बच्चे को अपने बच्चे के समान ही देखभाल करती हैं।फिर भी भूली को काम करने में मन नहीं लगता और एक दिन छोटी सी बात पर नाराज होकर वह नौकरी छोडकर चली जाती है ।सुमंगला को भी आश्चर्य लगता है कि आखिर हुआ क्या है । कुछ समय के बाद सुमंगला को इस बात का पता चलता है। पडोस में काम करने वाली नौकरानी बताती है कि फूली ने उसे बताया कि सुमंगला के घर में उसका जी नहीं लगता था क्योंकि वहाँ  कोई मर्द नहीं है। वास्तव में फूली काम करने वाले घर के मर्द के साथ अंतरंग सम्बन्ध बनाने की इतनी अभ्यस्त हो चुकी है कि यदि वह नहीं होता तो उसे अस्वाभिक लगता है और उसे काम करने में मन नहीं लगता है । इस कहानी में लेखिका ने बदलते हुये परिवेश के साथ-साथ निम्नवर्गियों की बदलती मानसिकता को भी रेखांकित किया है। असल में इस कहानी में लेखिका ने एक मनोवैज्ञानिक सत्य का उद्घाटन किया है कि स्त्री और पुरुष एक दूसरे केलिये प्रेरणा स्त्रोत हैं। एक के अभाव में दूसरे का व्यक्तित्व धूमिल हो उठता है ।
       ’शून्यएक त्रिकोणात्मक कहानी है। जिसमें सरला (राकेश की पत्नी), राकेश को बेला केलिये छोडकर अपने शून्य के साथ रहती है। पति से अलग होकर परित्यक्ता बनकर वह अपने पुत्र दीपू को लेकर रहती है ।  राकेश पुरुष है, उसने जो भी चाहा है, पा लिया है । जीवन में पहले से ही बेला के होने पर भी माँ- बाप की जिद पर वह सरला से विवाह कर लेता है और पूरी तरह वेला का ही होकर रह जाता है ।अलग होने पर सरला दीपू को अपने साथ नहीं रखना चाहती थी क्योंकि इससे उसे अपने लिये निर्णय लेने की सहूलियत होती । लेकिन तब राकेश के आग्रह पर, बच्चे के माँ के साथ रहने के तर्क से, कोर्ट के फैसले के अनुसार उसे दीपू को रखना पड़ा और अब जब एक दुर्घटना में बेला माँ बनने की सारी संभावनायें खो चुकी है, राकेश पुरुष होने के अपने उसी पुराने तर्क से दीपू को वापस ले जाना चाह्ता है । यह सच है कि आज भी सरला के मन का एक कोना ऐसा है जिसमें राकेश के अलावा किसी और की बात वह कभी नहीं सोच पाती है । लेकिन बेला के आगे वह हार नहीं मानती है। अब वह लड़ाई राकेश और सरला के बीच न होकर बेला और सरला के बीच है- सीधी और आमने सामने है। जो शून्य अब तक उसको हासिल था अब वही बेला की नियति बन चुका है क्योंकि जो कुछ उसके पास है उसे बेला कभी नहीं पा सकती । अब बेला को भी उसी अंधेरी घुटन भरी सुरंग से गुजरना था। यह विचार दीपू को हर हालत में अपने पास बनाये रखने की उसकी दॄढता, उसके शून्य को बदलकर बेला को शून्य बना देते है । डा. मंगल कप्पीकेरे के अनुसार कहानी की सरला स्थितियों के कारण पति को छोडकर आत्मनिर्भर होती है ।स्वके प्रति जागरूक होकर अपनी आत्मा और अस्तित्व की रक्षा करती है। वह पति के हाथ की कठपुतली बनने से इनकार करती है ।अपने अधिकार केलिये वह सुप्रीम कोर्ट तक जाने केलिये तैयार है। उसका यह रूप विद्रोह प्रकट करता है । वास्तव में प्रस्तुत कहानी में लेखिका ने स्त्री को स्त्री के चिरोध में उपस्थित कर नारी मुक्ति की संकल्पना पर ही प्रश्नचिह्न उठाया है । सदियों से पुरुष ने स्त्री को स्त्री के विरोध में खडा कर अपना स्वार्थ पूरा करने का नुस्का अपनाया है किन्तु आज के नारी चेतना के समय में इस जाल से मुक्त हुये बिना, भागिनी भाव स्थापित किये बिना स्त्री-पुरुष समानता का नारा व्यर्थ ही होगा।
     मोर्चे परकहानी की स्त्री की पीडा और भी अलग है।उसके पति सुदीप को लडाई में गुमशुदा मानकर अंतत: मृत घोषित किया गया है।स्त्री को अब स्थिति से समझोता कर अपने बच्चे राजु और बेटी के साथ पूरा जीवन गुजारना है ।पति सुदीप द्वारा लाड प्यार में पले दोनों बच्चों को माँ-बाप बनकर पालना है। वास्तविकता यह है कि सुदीप चला गया है लेकिन उसकी सघन स्मृतियों के मोर्चे पर रिन्नी को पूरी जिन्दगी अपने बच्चों को भरसक इस अहसास से बचाने की कोशिश करते हुये गुजारनी है कि उनके पिता नहीं है दूसरी ओर बच्चों पर उनके पिता की स्मृतियों की छाया इतनी सघन है कि कुछ ही दिनों में रिन्नी समझ जाती है कि कितना मुश्किल है इस मोर्चे पर टिक पाना वह महसूस कर रही है वह इनकेलिए सुदीप बन सकती है, उनकी जगह हो सकती है। फिर कैसे इनसे कहेकैसे ?” चन्द्रकान्त बांदिवडेकर के अनुसारमोर्चे पर की रिन्नी मातृत्व का समर्थ परिचय अपनी असफलता में भी दे जाती है । पति सुदीप के द्वारा अभिशाप्त लाड-प्यार में पले दोनों बच्चों को सुदीप की मृत्यु पर उनका बाप और माँ बनकर रिन्नी पालना चाहती है पर असफल रहती है। उसके सारे मानसिक संघर्ष में जमा कठोर दुख चित्राजी पूरी सूक्षमता के साथ व्यंजित करती है । तमाम पारिवारिक संदर्भों की चित्रात्मक बुनावट के बीच चित्राजी वेदना, व्याकुलता, तक्लीफ ओर कराह को उभारती है, वह कहानी को टिकाऊपन का एक अमृत स्पर्श देता है।
      ’मुआवजाकहानी की शैलू को अपनी मौत के बाद भी तलाकुश पति के अन्यायी लालच का शिकार होना पड़ता है ।मुआवजाकहानी कनिष्क विमान दिर्घटना में यात्रियों को बचाने की चेष्टा में जान की बाजी लगाने वाली विमान परिचायिका नीरजा मिश्र की सत्य घटना पर आधारित है। कहानी में विमान परिचायिका शैलू , जो पहले मोड्लिंग किया करती थी उसका सुमित के साथ   हुआ । सुमित को उसका मोडलिंग करना पसंद नहीं था । इसके लिये तरह- तरह की यातनायें दी गयीं। अंतत: समझदारी से दोनों ने अलग होने का फैसला कर लिया । अब जब शैलू की मृत्यु हो चुकी है, सुमित उसकी मौत का मुआवजा लेने को उद्यत हो उठा है जबकि शैलू के माता-पिता मुआवजे की धनराशिवनीता आश्रमको दान देना वाहते हैं। प्रस्तुत कहानि में चित्राजी ने समाज की उस प्रवृत्ति पर प्रकाश डाला है, जिसमें पुरुष नारी के जीवन भर शोषण करता है, किन्तु उसके मौत के बाद भी उस पर अपनी मिल्कियत स्थापित करना चाहता है । चाहे उसके जिन्दा रहते उससे घृणा ही क्यों न करता हो; उसकी भावनाओंसे क्यों न खेला हो; लेकिन धन की बात आते ही वह बेशर्मी से उसके धन पर अपना अधिकार जताता है । जिन्दगी भर उसके शरीर को अपना माल समझकर, चाहे जैसा उसका इस्तेमाल कर उसकी मृत्यु के बाद भी उसके मुआवजे पर हक जताने की पाशवी प्रवृत्ति की ओर चित्रा जी ने संकेत किया है ।
         ’पाली का आदमीएक ऐसे व्यक्ति की कहानी है, जिसके लिए वात्सल्य , स्नेह और कर्तव्य जैसे आरक्षित गुण हों,जो एक जगह तो प्रकट होते हैं और दूसरी जगह उसकी आवश्यकता होने पर भी लुप्त हो जाते हैं । रवि का विवाह तब हुआ जब वह पढाई कर रहा था । उसकी पत्नी तीसरा दर्जा फेल एक ग्रामीण युवती थी, जिसे रवि प्यार नहीं करता था । उसकी एक लडकी है- लल्ली । रवि को हमेशा अपनी पत्नी पर संदह है कि लल्ली उसकी अपनी बेटी नहीं है । रवि अपने पहले विवाह की बात छिपाये रखते हुये नीरु के साथ दूसरा विवाह कर लेता है । रवि अपनी पत्नी की बेटी सोनु की गुडिया की शादी के लिये तो उसकी जिद पर छुट्टी लेकर घर पर रहता है जबकि लल्ली के विवाह में, स्वयं बेटी के आग्रह के बावजूद आशीर्वाद देने केलिये भी नहीं जाता है। आधुनिक जीवन में संदेह के आधार पर स्त्री और बेटी का परित्याग एक बडा सामाजिक अपराध है । रवि का उस बेटी लल्ली के विवाह में शामिल न होना परन्तु अपनी दूसरी बीबी की बेटी सोनु की गुडिया के विवाह में शामिल होना , यह वृत्ति अपनी निर्दयता और वात्सल्यहीनता का ही परिचय देती है । इस कहानी के माध्यम से, अनमेल विवाह से उत्पन्न इस समस्या के प्रति चित्रा जी ने ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास किया है ।
       इस प्रकार हम देख सकते हैं कि चित्रा जी की कुछ कहानियों में विधवा या तलाकशुदा नारियों की समस्याओं का चित्रण हुआ है । इसमें अधिकांश नारियाँ इस प्रकार की हैं कि पति से अलग होने पर भी पिता के घर लौटना नहीं चाहती हैं। अपने बच्चों के भरण- पोषण केलिये नौकरी करती हैं । ये स्त्रियाँ केवल अपनी ही नहीं रहतीं बल्कि अपनी आकाक्षाओं को मारकर अपने पर आश्रितों के लिये जीने का प्रयास करती हैं। चित्रा जी की इन नारियों की विशेषता यह है कि इनमें कहीं भी चारित्रिक दुर्बलता के दर्शन नहीं होते ।
·         संदर्भ ग्रन्थ
१.       चित्रा मुद्गल- एक मूल्यांकन ( के.वनजा )
२.       चित्रा मुद्गल की कहानियों में नारी  ( डा. राजेन्द्र बाविस्कार )
३.       चित्रा मुद्गल के कथा साहित्य का अनुशीलन ( डा. गोरक्ष थोरात )
४.       आदि- अनादि, कहानी संग्रह भाग  ( चित्रा मुद्गल )
५.       शून्य’ ( चित्रा मुद्गल )

पी.एम. थोमसकुट्टी, कर्पगम विश्वविद्यालय, कोयंबत्तूर में डॉ. पद्मावती अम्मा के निर्देशन में शोधकार्य कर रहे हैं।



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