Monday, April 4, 2016

समष्टि से व्यष्टि की ओर आवाजाही करती कविताएँ

समीक्षा

समष्टि से व्यष्टि की ओर आवाजाही करती कविताएँ

- डॉ. कुमार वरुण
पोस्ट.डॉक् फेलो, आईसीएसएसआर, दिल्ली
मो0 9472615216
साहित्य सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक आयाम को विश्लेषित करने का सबसे सशक्त माध्यम है, परंतु आज अभिव्यक्ति के कई माध्यम विकसित हो गये हैं। प्रिंट और इलैक्ट्रॉनिक माध्यमों ने अभिव्यक्ति के स्तर पर कई दरवाजे खोले हैं, लेकिन इन माध्यमों में विचार-विनिमय की जगह ‘बहस’ को प्रमुखता मिली है। ‘बहस’ जब सार्थक होतो समाज, राजनीति और अर्थनीति के निर्धारण में हस्तक्षेप की निष्पत्तियाँ दृष्टिगत होती हैं। साहित्य में बहस की सार्थकता को रेखांकित किया जाता है। कवि नरेन्द्र पुण्डरीक की कविता-संग्रह ‘इस पृथ्वी की विराटता में’ बहस की भूमिका के माध्यम से साहित्य की उपादेयता को मूल्यांकित करती है।
                नरेन्द्र पुण्डरीक का कविता संग्रह ‘इस पृथ्वी की विराटता में’ समकलीन मूल्य-बोध का रूपांकन है, साथ ही जीवनानुभूति में अभिव्यक्त मूर्त और अमूर्त भावों की संवेदनात्मक विश्लेषण भी। उनकी कविताएँ सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों को नई अर्थ-व्यंजनाओं से संपृक्त कर पृथ्वी की विराटता में अपना स्थान निर्धारित करने के लिए प्रयासरत हैं। पृथ्वी की विराटता में कविता की उपस्थिति और मूल्यांकन की चर्चा होना उसकी सार्थकता को व्यक्त करता है। कविता-संग्रह छह खंडों में विभक्त है। सभी खंड में विषयों की एकरूपता नहीं है, बल्कि उसकी प्रकृति और संदर्भ भी अलग हैं।
कविता-संग्रह के शीर्षक से ही पृथ्वी के सीमांकन का रेखाचित्र बनाता है। कविता बुनने की प्रक्रिया में पृथ्वी की विराटता का बोध अनायास नहीं होता, सहसा सभी कवियों को बोध का एहसास पृथ्वी स्वयं कराती है। प्रसाद की कामायनी में प्रकृति के प्रति समर्पण का बोध, केवल कवि का लगाव एवं जुड़ाव ही नहीं है, बल्कि प्रकृति की भव्यता/विराटता के समक्ष मनुष्य के लघुता का भाव भी है। वे लिखते हैं- ‘‘प्रकृति चलाती कर्म-चक्र यह’’। नरेन्द्र पुण्डरीक भी प्रकृति की इसी विराटता का अनुभव करते हैं। वैज्ञानिक अविष्कार के साथ ही मानव का प्रकृति के प्रति अनासक्त होना, संभाव्यवादी अवधारणा (Possibilism thought)  का परिणाम है। कवि संवेदनशील होता है, उसकी संवेदनशीलता मानवीय उत्कर्ष तक ही सीमित नहीं होती बल्कि प्रकृति के प्रति भी वह सचेत होती है। उसके अनुसार जीवन का विस्तार और संस्कृतियों का सम्मिलन पृथ्वी की विराटता में ही समाहित होता है।
सार्थक शब्द से भाषा बनती है, और भाषा से बनता है साहित्य। शब्दों का समुचित संचयन ही साहित्य की पहली इकाई है। नरेन्द्र पुण्डरीक की कविता में शब्द-संचयन की भी क्रमबद्ध व्यवस्था है। व्यवस्थित शब्द चयन से ही कविता के संदर्भ और अर्थ-छवियाँ प्रकट होती हैं। कवि पुण्डरीक प्रथम खंड में ही संयोजन के माध्यम से कविता के मर्म को रेखांकित करते हैं। कवि मानव निर्मित समय के बहाने श्रम की महत्ता का रूपांकन करता है, श्रम ही संस्कृति का उत्स है। नरेन्द्र पुण्डरीक मानव जीवन उत्पत्ति की पहली अवस्था में श्रम की महत्ता को सर्वाधिक महत्वपूर्ण बताते हैं। आदिम युग से मानव विकास-क्रम  में श्रम की जगह अर्थ की अनिवार्यता धीरे-धीरे बढ़ने लगी। ‘‘यह मानव निर्मित समय का/सबसे अच्छा दौर था/जब आदमी और उसके श्रम की/नई ऊर्जा की पूर्ण पहचान बन रही थी।’’
कवि पुण्डरीक की कविता प्रकृति और मानवीय-संबंधों में हो रहे बदलाव का द्य¨तक है। आदिम मनुष्य अपने सारे क्रियाकलाप प्रकृति के सानिध्य में निष्पादित करता था, वहीं आज प्रकृति और मानव के बीच संबंधों में रिक्त (gap) बढ़ता जा रहा है। मनुष्य आज विकास के नये प्रतिमान गढ़ रहा है, जिसमें प्रकृति के लिए कोई जगह नहीं है। जो सहजग्राह्य नहीं लगता है। पुण्डरीक अपनी कविता ‘टुन टुनियां और यह शहर’ में पहाड़ और नदी के प्रति मोहग्रस्त हैं। नदी किसी भी शहर की जीवन-धारा होती है, जबकि कविता में नदी मृतप्राय हो गई। कवि मनुष्य और मनुष्य के बीच ही नहीं, बल्कि प्रकृति और मनुष्य के बीच बनते नये सौंदर्य-प्रतिमान को रेखांकित करता है। ‘‘कवि का पहाड़ और नदी से/रिश्ता जग जाहिर है।......./धरती और आदमी के/नए अर्थ और सौंदर्य में/केन्द्रित हो रहा था।’’
आदिम सभ्यता मानव के वैज्ञानिक विकासक्रम में पहली अवस्था थी। सभ्यता विकास प्रक्रिया में मानव की वैचारिकता में मानवतावादी उत्कर्ष के बनिस्पत् स्खलन तीव्र गति से हुआ। मानव-मानव के बीच प्रारंभिक अवस्था से ही रंग के आधार पर विभेद शुरू हो गया। यह मानव सभ्यता के उत्कर्ष के लिए सर्वाधिक त्र्ाासद स्थिति है। कवि सभ्यता के विकास में मानवतावादी मूल्यों को जीवित रखने के लिए आवाहन करता है- ‘‘उसके सभ्य होने का मतलब था/अपने ही जैसे/शक्ल-सूरत, खून और/माँस मज्जा वाले आदमी की/छाया से बचना।’’
नरेन्द्र पुण्डरीक मानवीय संवेदनाओं को परिवार के साथ पिरोने वाले कवि हैं। उनकी कविताएँ भारतीय समाज में परिवार की महत्ता को रेखांकित करती हैं, और भारतीय संस्कृति की पुरातन परंपरा को जीवंत रखने के लिए प्रयास भी करती। परिवार में पिता की उपस्थिति न टूटने वाले नवताल के समान है, जिनके होने भर से ही सारी मन¨कामनाओं की पूर्ण होने की गारंटी मिलती है। भारतीय परिवार-व्यवस्था में पिता बच्चों के लिए सपनों का खजाना है, जहाँ सभी सपनों का पूर्ण होना अवश्यंभावी लगता है। भारतीय साहित्य में भी ‘पिता’ के प्रति अगाध प्रेम देखने को मिलता है। ख्यातिलब्ध हिन्दी कथाकार ज्ञानरंजन की कहानी ‘पिता’ में पिता का जो रेखाचित्र बनाया गया, अनायास पुण्डरीक की कविता में ‘पिता-प्ए प्प् और पिता की लाठी’ में रेखाचित्र चलचित्र बनने की प्रक्रिया में अग्रसर दिखाई पड़ता है। ‘‘पिता की लाठी को लेकर/मैं जब भी चला/मेरी चाल बदल गई/मुझे लगा/मैं नहीं/चल रहे हैं पिता।’’ कवि पिता का आश्रय लेकर ग्राम्य से शहर के बीच आवाजाही करता है, गाँव और शहर केवल एकांगी अर्थ-बोधक टर्म्स नहीं बल्कि दो संस्कृतियों के प्रतिनिधि हैं। पिता का घर में तिजारत करना आदेश का मसला नहीं, परिवार में प्रतिष्ठा का मामला है। पुण्डरीक अपनी कविता में पति-पत्नी के बीच साहचर्यजन्य प्रेम अंकुरित होते दिखाते हैं, और उनके यहाँ अंतिम परिणति का रूपांकन भी इस प्रकार होता है- ‘‘पिता माँ से बहुत प्यार करते थ्¨/कहते थ्¨ तुम्हारे लिए ठीक होगा। मेरे सामने ही इस झुक-झुके में चल्¨ जाना।’’
भारत की आत्मा गावों में बसती है। भारतीय संस्कृति की विवेचना ग्राम्य-जीवन को अनदेखा करके संभव नहीं। ग्राम्य-जीवन को समझने के लिए उसकी प्रकृति के साथ एकरूप होना बेहद जरूरी है। ग्राम्य-संस्कृति में ग्राम्य-देवता की भूमिका महत्वपूर्ण होती है, ग्रामीण लोग शुभकार्य की शुरूआत से पूर्व ग्राम्य-देवता की आराधना करते हैं, जो ग्रामीण-संस्कृति के प्रतीक हैं। कविता में ग्राम्य देवता के सामने मिन्नते मांगना, कवि के ग्राम्य-प्रेम को दर्शाता है- ‘‘शालिग्राम की बिटिया से/माँगने में लगी रही उनके दुखों की मुक्ति।’’
समाज में मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा प्रेम के सहारे संभव हो पाएगी, क्योंकि प्रेम मानव जीवन का अंग है। प्रेम के बिना चराचर जगत् में सबकुछ निस्सार लगता है, अलबत्ता प्रेम जीवन को खुशियों और उमंगों से लबरेज कर जीवन की स¨द्देश्यता को प्रकट करता है। साहित्य मानवीय संवेदना और मन¨वृत्ति का प्रतिफलन है। मानव-शरीर में दो प्रकार की शक्तियाँ होती हैं। इनमें से एक का संबंध मनुष्य के हृदय और उसकी आत्मा से है तथा दूसरी का संबंध मस्तिष्क से। जब मनुष्य में प्रथम प्रकार की शक्ति का विकास होता है त¨ उसका झुकाव धर्म और अध्यात्म की ओर होता है। किंतु जब मनुष्य की मस्तिष्क शक्ति का विकास होता है त¨ वह तार्किक बन जाता है और परिणामतः विज्ञान की सृष्टि होती है। मनुष्य के हृदय पक्ष से ही संवेदना की निष्पत्ति होती है। कवि पुण्डरीक ने ‘इन्होंने मुझे’ खंड में स्त्री-प्रेम के विविध-रूपों और आकारों का रेखांकन किया है। जिस प्रकार संसार के निर्माण में स्त्री महती भूमिका का निर्वहन करती है, उसी प्रकार पुरुष के व्यक्तित्व निर्माण और उसके विकास में भी। पुण्डरीक अपनी कविताओँ में विकास के इन्हीं आयामों को रेखांकित करते हैं: ‘‘इन्होंने ही मुझे/हवा-धूप-पानी के/स्वाद के साथ/वीरान रास्तों के भय से संगत करना सिखाया।’’
साहित्य में प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक ‘स्त्री’ विषय मुख्य बना रहा है, परंतु समय नदी के प्रवाह के समान चलायमान और परिवर्तनशील है। साहित्य में नारी के रूप और सौंदर्य-बोध के प्रतिमान बदलते रहे हैं, इस कारण उसकी प्रासंगिकता बनी रही। समाज में नारी की अर्थवत्ता में जो परिवर्तन आया है, साहित्य में केवल उसी का चित्रांकन नहीं है बल्कि भविष्य की स्त्र्ाियाँ कैसी होगी उसका भी। साहित्य वैचारिक इतिहास की तरह केवल तथ्यों का विश्लेषण नहीं है बल्कि वह एक साथ भूत, वर्तमान और भविष्य में आवाजाही कर सकता है। इतिहास ठिठक कर हमें पीछे मुड़कर देखना सिखाता है, इसलिए वह गति-अवर¨धक है। इतिहास के माध्यम से स्त्रियों के निरपेक्ष मूल्यांकन संभव नहीं है, उसकी क्षमता साहित्य में ही अंतर्निहित है। कवि द्वारा पूरा खंड स्त्री के लिए सुरक्षित रखना, स्त्री के प्रति सम्मान, प्रेम और समर्पण का प्रतीक है। पुण्डरीक अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के सहारे कवि के सामाजिक उपादेयता की भी रेखांकित करते हैं।
कोई भी व्यक्ति सबसे पहले स्त्री  के रूप में माँ का सानिध्य पता हैद्यपुण्डरीक की कविताएँ प्रेम के इस अभिव्यंजना को अभिव्यक्त करने का मुकम्मल प्रयास करती हैं रू ‘इन्हीं स्त्रीयों में मेरी माँ थी द्य जो हमसे अधिक शालिग्राम के लिए द्य चिन्तित रहती थी द्यश्भारतीय समाज में पति को देवता के समतुल्य पूज्य माना जाता है, परंतु वे समाज में हो रहे सामाजिक परिवर्तन को कविता का प्रतिपाद्य बनाते हैं। स्त्रियों के चित्रण में भी कवि शहर और ग्रामीण स्त्री को दो खाँचे में बाँटकर देखता है, शहर और ग्राम्य-जीवन की अनुभूतियाँ अलग-अलग होती हैं, ¨ कविता का ताना-बाना कैसे एक हो सकता है। कवि पुण्डरीक ‘पति-पत्नी’ के रिश्तों में बदलते नये मूल्यों की भी पड़ताल करते हैं। पुण्डरीक पति के मृत्यु के उपरांत स्त्री की अवस्था (status) में परिवर्तन का मार्मिक अंकन करते हैं: ‘‘अचानक एक दिन वह आई/वैसे नहीं जैसे वह पहल्¨ आती थी, उसके चेहरे और पहनावे में काफी अंतर था/जो पति के खत्म होने के बाद/एक स्त्री के भीतर पैदा हुआ था।’’
कवि की पैनी नजरें औरतों के बीच होने वाली सामान्य बातचीत को भी कविताई का हिस्सा बना ल्¨ती हैं। जब सामान्य बात-चीत कविता का हिस्सा बन जाय त¨ कविताई के नयेे रूप और भंगिमाएँ दृष्टिगत होती हैं। कवि द्वारा किया गया यह प्रय¨ग सराहनीय और स्वागतय¨ग्य है: ‘‘जैसे भैंस दूध देती है या ओरई है/भूसा घर से हो जाता है कि/बाजार से आता है/लड़के बाहर पढ़ते हैं।’’
सपनों में जीना मनुष्य का शगल है, सपने बेचना बुद्धिमान मनुष्य का हथियार और सपने खरीदना मेहनती मनुष्य का संसार को बेहतर बनाने के प्रति आस्था। पुण्डरीक की कविता ‘वे इस दुनियाँ की सबसे अच्छी औरतें थीं’ में पूरी प्रक्रिया को यथाक्रम व्यवस्थित करने का प्रयास है। कविता में श्रम के साथ सपनों का सामंजस्य उसकी सौंदर्यानुभूति को निखारता है: ‘‘लड़कियाँ बेचकर/ये पूरे घर भर के लिए/ सपने खरीदतीं/सपने खरीदने से/इन्हें नहीं रोक पाया ईश्वर।’’
कवि पुण्डरीक की कविताएँ स्त्रियों के प्रति वैचारिक प्रगतिशीलता का द्य¨तक है, उसके यहाँ स्त्रियों के कई रंग-रूप और भाव-भंगिमाएँ मौजूद हैं। कवि स्वयं ग्रामीण परिवेश से सर¨कार रखता है, इसलिए उनके यहाँ अधिकांश कविताएँ ग्रामीण स्त्रियों के सौंदर्य-बोध और उसके भाव-जगत के रूपांकन हैं यथा: मेरे और उसके बीच की कथा, औरत सुख-दुःख, एक साथ वह सब थी और समझाअ¨ कुछ बिटिया को आदि।
नरेन्द्र पुण्डरीक ग्रामीण-सौंदर्यबोध के चितेरे कवि हैं। 21वीं सदी में पूरी दुनिया वैश्वीकरण की गिरफ्त में है। अब गाँव भी वैश्विक गाँव बनने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं। लेकिन कवि की कविताएँ में वैश्विक गाँव की संकल्पना और उसके सौंदर्य-बोध की झलक नहीं मिलती। उनके यहाँ उसी ग्रामीण-संवेदना का अंकन है जैसे कि भारत की आत्मा गावों में बसती हो। उनकी कविताओँ में ज्ञानात्मक संवेदना की जगह संवेदनात्मक ज्ञान की महत्ता है, जो गाँव के लोगों का प्राणतत्त्व है। कवि अपनी कविता में ग्रामीण-सौंदर्यबोध के सहारे ग्राम्य-प्रकृति और ग्रामीण-संस्कृति का भी चित्रांकन करता है। वैश्वीकरण के कारण प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता में कमी देखने को मिलती है, क्योंकि बाजारवादी व्यवस्था ने जब व्यक्ति को मानव-संसाधन बना दिया त¨ प्रकृति की क्या बिसात। शहरी मध्य-वर्ग पुनः प्रकृति का सानिध्य पाना चाहता है, इसीलिए वे अपने घरों को बोनसाई पोधों से सुसज्जित कर रहे हैं। इसी प्रकार ग्राम्य-प्रकृति के प्रति कवि पुण्डरीक अभिभूत है: ‘‘नीम त¨ कलगी थी घर की/मुरैठा था मेरे घर का/जो दूर से ही हरा-पग्गा/बाँध्¨ दिखाई देता है।’’
मानव और मानवेतर प्राणी ही मिलकर प्रकृति को संपूर्ण आकार प्रदान करते हैं। प्रकृति की भाँति ही कविता का सौन्दर्य अपनी संपूर्णता में व्याप्त होता है। कवि का प्राणिमात्र के प्रति सम्मान प्रकृति के सौंदर्यबोध को व्यापक फलक पर स्थापित करने का उपक्रम है। घर में मानवेतर प्राणी का आश्रय ‘घर के प्रति आस्था’ का बोधक है: ‘‘घर जैसा बना, जिसके भीतर हम नहीं/छिपकलियाँ, साँप हैं/भूल-भटककर आए चूहे हैं।’’
पुण्डरीक की कविताएँ भारतीय शहरी और ग्रामीण समाज व्यवस्था के स्तरों और उपस्तरों को विश्लेषित करती हैं, साथ ही मूल्य-बोध के अंतर को भी। भारतीय समाज में ग्राम्य-शहरी जीवन-बोध के कई रूप विद्यमान हैं। जहाँ ग्राम्य-संस्कृति में संयुक्त परिवार व्यवस्था कायम है, वहीं दूसरी ओर शहर में एकल परिवार व्यवस्था। पुण्डरीक की कविता ‘दो कमरे वाले घर में’ ग्राम्य-संस्कृति के इसी वैविध्यपूर्ण रूप का मन¨वैज्ञानिक अध्ययन है: ‘‘समय ने हमें चूल्हा बना कर/हाथों में थमा दिया चुमरिया जिसमें अपने अतिरिक्त/किसी और के लिए दो घूँट जल/और पानी की गुँजाइश नहीं है/यह कविता नहीं है लगातार/हमारे मरते जाने का मर्सिया पाठ है।’’ उनकी बहुत सी कविताओँ में घर के प्रति आसक्ति का भाव प्रबल है, यह अनायास नहीं है बल्कि ग्राम्य-संपृक्ति के प्रति कवि की वैचारिक प्रतिबद्धता है। यथा: घर के नक्श्¨ में, जीवन सिर्फ देखने के लिए जीऊँ, मेरे घर का सपना सच हो, और इस पूरी सृष्टि में अन¨ख्¨ की तरह आदि।
कविता केवल भावों का उद्वेलन नहीं, बल्कि समाज संपृक्त संवेदनाओं और मन¨भावों का गहन वैज्ञानिक विश्लेषण भी। विश्व में अभी तक ज्ञात सभी क्रांतियों में कविता अपनी महती भूमिका का निर्वहन करती आई है, यदि यह केवल भावों का उद्वेलन होता त¨ यह संभव नहीं था। कवि या कलाकार अपने सृजन के क्षण में वैयक्तिक होता है, परंतु उसकी वैचारिक आधारभूमि वैयक्तिक नहीं रहती। मतलब यह कि कविता स्वातः ही नहीं होती, बल्कि सामाजिक सरोकारों से संबद्ध भी। कवि का कविता के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण कवि-कर्म पर ही प्रश्नचिह्न होता है। यदि कविता की सामाजिक उपादेयता नहीं हो त¨ कवि कविता लिखता ही क्यों है? ‘‘कुछ दिनों से मुझे लगने लगा है कि/कविता लिखने से कुछ नहीं हो पा रहा है/कुछ नहीं कर पा रही हैं कविताएँ/न मेरे आसपास को बहम पा रही हैं/न मुझे आदमी बना रही हैं।’’ कविता कोई अन्वेषण नहीं है, कि अचानक सब कुछ बदल दें, बल्कि धीरे-धीरे वैचारिक परिवर्तन जरूर लाती है:
‘‘पता नहीं कब कैसे/हिलग गई मुझसे यह कविता/बिल्कुल हवा की तरह/इ गई मुझे/भीतर-बाहर।’’
शहरी-जीवन की उलझन भरी अभिव्यक्तियाँ पुण्डरीक की कविताओँ में मिलती हैं, शहर कई संस्कृतियों का समाहार होता है। पुण्डरीक की कविताओँ में शहरी जीवन-बोध के द्वन्द्व और तनाव से निकलने की छटपटाहट दृष्टिगत होती हैं। है, यथा. मेरा यह शहर, पन्द्रह अगस्त, ऐसा ही था आदि-2। शहरीकरण के कारण प्रकृति के प्रति उदासीनता का चित्रण उनकी कविता का मुख्य विषय रहा है: ‘‘दिन ब दिन/इस धरती को प्यार करने वाले/लोग कम हो रहे हैं।’’ आज से छह सौ वर्ष पूर्व कबीर ने आगाह किया था: ‘‘अरे ईन दोउन राह न पाई/हिन्दू की हिन्दुआई देखी, तुरकन की तुरकाई’’ परंतु अभी भी हम सचेत नहीं हुए। वर्तमान समय में भी 600 वर्ष पूर्व ही समस्या से जूझ रहे हैं, न कि मानवतावादी उत्कर्ष के लिए। साम्प्रदायिकता समाज में कैंसर की तरह फैल गई है, उससे निकलने के लिए कोई एंट¨बाय¨टिक दवा भी कारगर नहीं है बल्कि उसका राजनीति फायदे के लिए इस्तेमाल हो रहा है। अय¨ध्या, मथुरा और काशी के चक्र में हिन्दू और मुस्लिम समाज फँसा है, उससे निकलने की छटपटाहट और बेचैनी नहीं है बल्कि यथास्थितिवादी बना रहना हमें अच्छा लगता है। कवि पुण्डरीक के संग्रह का पंचम खण्ड में संबद्ध कविताएँ इन्हीं विषयों से संपृक्त हैं। लेकिन उनकी कविताओँ में अभिव्यक्त स्वर सांप्रदायिकता के समर्थन में नहीं, बल्कि मानव-मूल्यों के स्थापना के पक्ष में हैं। पुण्डरीक अपनी कविताओँ में धार्मिक अंधविश्वास को ¨ड़ने का उपक्रम रचते हैं, जिससे कि समाज में प्रेम और भाईचारे का संदेश जाए न कि क्रूरता का: ‘‘जब हम डर रहे होते हैं/वे आते हैं हमारे पास/क्रूरता के अनंत पाठकों को पढ़ते हुए/हमें क्रूर होने के लिए कहते हैं।’’ उनका विश्वास है कि धर्म मनुष्य ने बनाया है, और वह मनुष्य की सेवा के लिए है न कि मनुष्य उसकी सेवा के लिए है।
मानव-मन का असहिष्णु पक्ष दंगों को जन्म देता है, इसमें मानवीय-मूल्यों के प्रति अनादर का भाव होता है। जीवन के सौंदर्य पक्ष की अवहेलना और कुरूपता का समाय¨जन दंगों का मुख्य ध्येय बन जाता है। दंगा समाज के स्याह पक्ष को उजागर ही नहीं करता बल्कि मानव-मन की संवेदनहीनता को भी रेखांकित करता है। उनके दंगा विषयक कविताओँ में इसी वैविध्यमय रूप का अंकन है: ‘‘दंगाई का कोई अपना नहीं होता। दंगाई सिर्फ दंगाई होता है/दंगे के लिए बेचैन।’’
विचार से कविता बनती है और कविता सामाजिक गतिकी (Dynamic) का रेखांकन है। सामाजिक गतिकी समाज के आचार-व्यवहार के समुच्चय द्वारा निर्मित होती है। उनकी कविता में बुद्ध को विचार की तरह प्रस्तुत किया जाना, बुद्ध की प्रासंगिकता के वैचारिक आयाम का फलन है। क्योंकि विचार अमर, अजर हैं, तो बुद्ध भी होंगे। बुद्ध बोधिसत्व का परिचायक है, बोधिसत्व ‘सत्य के अन्वेषण’ के प्रति क्रियाशील विचार सामाजिक-मूल्यों से ससंजक बल की तरह जुड़ा होता है। बुद्ध भी उन्हीं मूल्यों के प्रतिस्थापक हैं: ‘‘बुद्ध एक मूर्ति नहीं/विचार है/विचार कभी मरता नहीं है/कुछ न रहने पर भी।’’
कविता-संग्रह का अंतिम खण्ड में ‘पृथ्वी की विराटता में’ को समग्रता से प्रस्तुत किया गया है। कवि पुण्डरीक ने प्रकृति, मानव और मानवेतर प्राणियों को कविता का विषय बनाकर कविता की सार्थकता को रेखांकित किया है। उनकी कविताओँ में जीवन के कई रंग इन्द्रधनुष के समान छंटा बिखेरते हैं: ‘‘वह शामिल है इस पृथ्वी की विराटता में/अपनी खामोशी के रंगों के साथ/उन्होंने पसीने की बूँदों से/देतें रची हैं/सपनों से सरजे हैं/उनके मन।’’ उनकी कविताओँ में मनुष्य के स्वप्न और यथार्थ के बीच फैली भूमि के पाटों को संयोजन का प्रयास किया गया है। ‘सर्वश्रेष्ठ’ कविता का इष्ट इन्हीं दो मूल्यों के बीच उनके आवाजाही करता है ‘‘जो सर्वश्रेष्ठ है/वही हमारा इष्ट है/......./इक्कीसवीं सदी के प्रवेश में/स्वागत करती है।’’ इक्कीसवीं सदी में कवि बनना कितना मुश्किल है, उसकी अभिव्यक्ति ‘कवि’ शीर्षक कविता में पुण्डरीक ने की है: ‘‘इक्कीसवीं सदी में/कहाँ रहेगा एक कवि/क्या खाएगा/क्या पहनेगा/एक कवि/कैसे जीएगा एक कवि।’’
सारतः यह कहा जा सकता है कि नरेन्द्र पुण्डरीक की कविताएँ प्रकृति, समाज, राजनीति और अर्थनीति के स्थूल-सूक्ष्म सभी अनुभवों का व्यापक कोलाज है। उनकी कविताओँ का कथ्य-संसार, लेखक के जीवनानुभव से सिरजा है, न कि फैंटेसी निर्मित द्य मानवीय मूल्यों में क्षरण के प्रति लेखक सचेत है, बचाने के लिए प्रतिबद्ध भी। उनकी कविता में अतिसाधारण विषय भी काव्योचित गुण लेकर जीवन-संदर्भ के साथ जुड़ते हैं, जो उनकी कविता की विशेषता है। उनकी कविता सूर्य के किरणों जैसी समाज को प्रकाशित करती हैं। उनकी कविताएँ समकालीन हिन्दी काव्य परिदृश्य में नयेपन का द्य¨तक है और एक नया प्रस्थान भी।
पुस्तक- इस पृथ्वी की विराटता में
लेखक- नरेन्द्र पुण्डरीक

बोधि प्रकाशन, मूल्य 200/-

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