Friday, March 25, 2016

अनथक यात्री की कहानी बयां करती किताब

पुस्तक समीक्षाः

अनथक यात्री की कहानी बयां करती किताब

लोकेन्द्र सिंह


       भारतीय राजनीति के 'अनथक यात्रीलखीराम अग्रवाल पर किसी पुस्तक का आना सुखद घटना है। सुखद इसलिए हैक्योंकि लखीरामजी जैसे राजपुरुषों की प्रेरक कथाएं ही आज हमें राजनीति के निर्लज्ज विमर्श से उबार सकती हैं। दलबंदी के गहराते दलदल में फंसकर इधर-उधर हाथ-पैर मार रहे राजनीतिक कार्यकर्ताओं और नेताओं को सीख देने के लिए लखीरामजी जैसे नेताओं के चरित्र को सामने लाना बेहद जरूरी है। विचार के लिए किस स्तर का समर्पण चाहिए और विपरीत परिस्थितियों में भी राजनीतिक शुचिता कैसे बनाए रखी जाती हैयह सब सिखाने के लिए लखीरामजी सरीखे व्यक्तित्वों को अतीत से खींचकर वर्तमान में लाना ही चाहिए।
    लखीराम अग्रवाल सच्चे अर्थों में राजपुरुष थे। उन्होंने राजनीति का यथेष्ठ उपयोग समाजसेवा के लिए किया। शुचिता की राजनीति की नई लकीर खींच दी। शिखर पर पहुंचकर भी साधारण बने रहे। खुद को महत्वपूर्ण मानकर असामान्य व्यवहार कभी नहीं किया। वे अंत तक खुद को सच्चे अर्थों में जनप्रतिनिधि साबित करते रहे। ऐसे व्यक्तित्व की कहानियां बयां करती है-'लक्ष्यनिष्ठ लखीराम'। श्री लखीराम अग्रवाल स्मृति ग्रंथ 'लक्ष्यनिष्ठ लखीरामका संपादन राजनीतिक विचारक संजय द्विवेदी ने किया है। श्री द्विवेदी ने अपना महत्वपूर्ण समय छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता को दिया है। उन्होंने स्वदेश,दैनिक भास्करहरिभूमि और जी-24 घंटे संपादक रहते हुए छत्तीसगढ़ में राजनीतिक हलचलों को बेहद करीब से देखा है। लखीरामजी के प्रयासों से जब छत्तीसगढ़ में भारतीय जनता पार्टी की जड़ें मजबूत हो रही थींतब इस पुस्तक के संपादक श्री द्विवेदी वहीं थे। इस संदर्भ में पुस्तक में शामिल उनके लेख'भाजपा की जड़ें जमाने वाला नायकऔर 'विचारधारा की राजनीति का सिपाहीको देख लेना उचित होगा। उन्होंने लखीरामजी के मिशन-विजन को नजदीक से देखा-समझा है। इसलिए यह पुस्तक अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। क्योंकिइसमें उन सब बातोंघटनाओं और विचारों का समावेश निश्चिततौर पर है,जिनसे लखीरामजी की वास्तविक तस्वीर उभरकर सबके सामने आएगी।
      मौटे तौर पर पुस्तक में लखीरामजी से संबंधित सामग्री को तीन स्तरों में रखा गया है। परिचय और छवियों में लखीरामजी सहित इस स्मृतिग्रंथ के पांच भाग हो जाते हैं। पहला है मूल्यांकनजिसमें पत्रकारोंसंपादकोंशिक्षाविदों और लेखकों के अनुभव शामिल हैं। पुस्तक के सलाहकार संपादक बेनी प्रसाद गुप्ता लिखते हैं कि लखीरामजी की सूझ-बूझ के कारण बिना किसी हिंसक आंदोलनधरना-प्रदर्शन या शोर-शराबे के छत्तीसगढ़ राज्य का गठन हो गया। वरना हम देखते हैं कि राज्यों के निर्माण में कितना संघर्ष होता है। लखीरामजी जैसी राजनीतिक दूरदर्शिता कम ही देखने को मिलती है। सबको भरोसे में लेकर काम करना उनका विशेष गुण था। इसी खण्ड में वरिष्ठ पत्रकार रमेश नैयर लखीरामजी के समाचार-पत्र प्रकाशन और प्रबंध के कौशल का जिक्र करते हैं। श्री नैयर अग्रवाल परिवार के दैनिक समाचार पत्र 'लोकस्वरके संस्थापक संपादक रहे हैं। वे एक घटना के माध्यम से बताते हैं कि कभी भी लखीरामजी ने पत्रकारिता को अपने स्वार्थ के लिए उपयोग नहीं किया। न कभी संपादक पर दबाव डाला। कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने भी सहृदय संगठक के पत्रकारीय विशेषता को रेखांकित किया है। यह बहुत कम लोगों को पता होगा कि लखीरामजी ने नागपुर टाइम्स और युगधर्म जैसे समाचार-पत्रों में संवाददाता के रूप में काम किया था। लखीरामजी सिर्फ एक राजनेता नहीं थे बल्कि वे 'राजनीति के ओल्ड स्कूल के नेताथे। इंडिया टुडे के संपादक रहे श्री जगदीश उपासने लिखते हैं कि लखीरामजी उन नेताओं में थे जो पार्टी-संगठन को प्रमुखता और उसके लिए समयानुकूल कार्यकर्ता तथा धन की व्यवस्था करने की परम्परागत राजनीतिक शैली में ढले थे। संगठन के पद पर कार्यकर्ता का चयन पार्टी को बढ़ाने की उसकी योग्यता के आधार पर तो होता ही था,वे यह भी देखते कि उस कार्यकर्ता की नियुक्ति से सांगठनिक संतुलन भी न बिगड़े। ऐसे में कई बार तो वे विरोध पर भी उतर आते थे। लेकिनलखीरामजी का कौशल ऐसा था कि नाराज कार्यकर्ता उनके साथ एक बार लम्बी बातचीत के बाद फिर से पुराने उत्साह से काम पर लग जाता था। हरेक कार्यकर्ता उनके लिए अपने परिवार के सदस्य की तरह था।
      पुस्तक के दूसरे हिस्से 'राजनेताओं की स्मृतियांमें अनेक रोचक प्रसंग हैं। इस खण्ड में उन नेताओं के लेख शामिल हैंजिन्होंने उनके राजनीतिक सहयात्री रहे। उन नेताओं ने भी अपनी यादें साझा की हैंजिन्होंने लखीरामजी के सान्निध्य में रहकर पत्रकारिता का ककहरा सीखा है। एक सर्वप्रिय नेता के संबंध में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंहअविभाज्य मध्यप्रदेश प्रभावशाली नेता कैलाश जोशी,मोतीलाल वोरास्व. विद्याचरण शुक्लकैलाश नारायण सारंग सहित अन्य नेताओं के विचारों का एक ही जगह संग्रह महत्वपूर्ण है। इस खण्ड में कैलाश जोशी और लखीराम अग्रवाल का एक-दूसरे के खिलाफ संगठन का चुनाव लडऩे का अविस्मरणीय और शिक्षाप्रद प्रसंग भी शामिल है। महज 21 वर्ष की युवावस्था में नगरपालिका में पार्षद चुना जाना। खरसिया नगरपालिका का अध्यक्ष चुने जाने का प्रसंग। भाजपा में विभिन्न दायित्व मिलने के किस्से और खरसिया के सबसे चर्चित उपचुनाव को समझने का मौका यह पुस्तक उपलब्ध कराती है। खरसिया उपचुनाव में लखीरामजी ने मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के खिलाफ दिलीप सिंह जूदेव को मैदान में उतारा था। चुनाव की ऐसी रणनीति उन्होंने बनाई थी कि कद्दावर नेता अर्जुन सिंह को पसीना आ गया था। हालांकि श्री जूदेव चुनाव हार गए। लेकिनलखीरामजी के चुनावी प्रबंधन के कारण यह चुनाव ऐतिहासिक बन गया।
   बहरहालपुस्तक के तीसरे अध्याय में 'परिजनों की स्मृतियाँशामिल हैं। यह एक तरह से लखीरामजी के प्रति उनके अपनों के श्रद्धासुमन हैं। इस अध्याय में लखीरामजी के अनुज रामचन्द्र अग्रवालश्याम अग्रवालउनके बड़े बेटे बृजमोहन अग्रवाललखीराम अग्रवालसजन अग्रवाल और पुत्रवधु शशि अग्रवाल ने अपनी स्मृतियों को सबके सामने प्रस्तुत किया है। लखीरामजी का पारिवारिक जीवन भी कम प्रेरणास्पद नहीं है। उन्होंने उदाहरण प्रस्तुत किया है कि किस तरह पूरी ईमानदारी के साथ राजनीति और परिवार दोनों का संचालन किया जाता है। उनके लम्बे सार्वजनिक जीवन में कोई राजनीतिक कलंक नहीं है। राजनीति में अपनी पार्टी को और व्यक्तिगत जीवन में अपने परिवार को मजबूत करने के लिए लखीरामजी ने अथक परिश्रम किया है। जैसा कि शुरुआत में ही लिखा है कि ऐसे धवल राजनेताओं का चरित्र सबके सामने आना ही चाहिए। ताकि अपने मार्ग से भटक रही राजनीति इन्हें देख-सुन और स्मरण कर शायद संभल सके। 275 पृष्ठों की पुस्तक के अंतिम पन्नों पर ध्येयनिष्ठ राजनेता और समाजसेवी लखीराम अग्रवाल से संबंधित महत्वपूर्ण चित्रों का संग्रह है। इन चित्रों से होकर गुजरना भी महत्वपूर्ण होगा।

पुस्तक                        :          लक्ष्यनिष्ठ लखीराम
संपादक                               संजय द्विवेदी
प्रकाशक          :          मीडिया विमर्श
                     47, शिवा रॉयल पार्कसाज री ढाणी (विलेज रिसोर्ट) के पास,
                     सलैयाआकृति इकोसिटी से आगेभोपाल - 462042
                      फोन : 9893598888
मूल्य                     200 रुपये

(समीक्षक लम्बे समय तक पत्रकारिता से जुड़े रहे हैं। वर्तमान में वे माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालयभोपाल में कार्यरत हैं।)

Thursday, March 24, 2016

'जिस जगह यह नाव है' नवगीत का वह घाट है

पुस्तक सलिला: 
'जिस जगह यह नाव है' नवगीत का वह घाट है 
-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
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[कृति विवरण- जिस जगह यह नाव है, नवगीत संग्रह, राजा अवस्थी, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, बहुरंगी, जैकेट सहित, पृष्ठ १३६, मूल्य १२०रु., अनुभव प्रकाशन, ई २८ लाजपत नगर, साहिबाबाद, गाज़ियाबाद २०१००५, ०१२० ४११२२१०,  रचनाकार संपर्क- गाटरघाट मार्ग, आजाद चौक, कटनी ४८३५०१, चलभाष ९६१७९१३२८७}
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सनातन सलिला नर्मदा के अंचल में आधुनिक हिंदी के उद्भव काल से ही साहित्य की हर विधा में सतत सत्साहित्य का सृजन होता रहा है। वर्तमान पीढ़ी के सृजनशील नवगीतकारों में राजा अवस्थी का नाम साहित्य सृजन को सारस्वत पूजन की तरह समर्पित भाव से निरंतर कर रहे रचनाकारों में सम्मिलित है। हिंदी साहित्य के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ हस्ताक्षर डॉ. देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' तथा नर्मदांचल के वरिष्ठ साहित्य साधक श्यामनारायण मिश्र द्वारा आशीषित 'जिस जगह यह नाव है' ७८ समसामयिक, सरस नवगीतों का पठनीय संग्रह है। मध्य प्रदेश के बड़े जंक्शन कटनी में बसे राजा के नवगीत विंध्याटवी के नैसर्गिक सौंदर्य, ग्राम्यांचल के संघर्ष, नगरीकरण की घुटन, राजनीति के दिशाभ्रम, आम जन के अंतर्द्वंद तथा युवाओं के सपनों  के बहुदिशायी रेलगाड़ियों में यात्रारत मनोभावों को मन में बसाते हैं। करुणा और व्यथा काव्य का उत्स है. गाँव की माटी की व्यथा-कथा गाँव के बेटों तक न पहुँचे यह कैसे संभव है? 

आज गाँव की व्यथा बाँचती / चिट्ठी मेरे नाम मिली 

विधवा हुई रमोली की भी / किस्मत कैसी फूटी 
जेठ-ससुर की मैली नज़रें / अब टूटीं, तब टूटीं 

तमाम विसंगतियों से लड़ते-जूझते हुए भी अक्षर आराधना किसी सैनिक के पराक्रम से कम नहीं है। 

चंदन वन काट-काट / शव का श्रृंगार करें 
                                  शिशुओं को दें शव सा जीवन
यौवन में सन्नाटा / मरघट सा छाता है 
                                 आस-ओस दुर्लभ आजीवन 
यश अर्जन को होता 
भूख को हमारी, साहित्य में उतारना 

माँ शारदा को क्षुधा-दीप समर्पित करती कलम का संघर्ष गाँव और शहर हर जगह एक सा है। विडम्बनाओं व विसंगतियों से जूझना ही नियति है-  

स्वार्थ-पोषित आचरण को / यंत्रवत निष्ठुर शहर को / सौपने बैठा 
भाव की पहचान भूले / चेहरे पढ़ना कठिन है 
धुंध, सन्नाटा, अँधेरा / और बहरापन कठिन है 
विवशताएँ, व्यस्तताएँ / ह्रदय में छल वर्जनाएं / थोपने बैठा 

अनचाही पीड़ाएँ प्रकृति प्रदत्त कम, मनुष्य रचित अधिक हैं-

गाँव के पंचों ने मिलकर / फिर खड़ी दीवार की  
फिर वही हालत, नियति / वह ही प्रकृति के प्यार की 
किशनवा-रधिया की / घुटती साँस का मौसम।

किसी समाज के सामने सर्वाधिक चिंतनीय स्थिति तब होती है जब बिखराव के कारण मानव-मन दूर होने लगें। राजा इस परिस्थिति का अनुमान कर अपनी चिंता नवगीत में उड़ेल देते हैं- 

अंतस के समतल की / चिकनाई गायब अब 
रोज बढ़े, फैले, ज़हरीला बिखराव 
रिश्तों का ताप चुका / आ बैठा ठंडापन 
चहक-पुलक में में पसरा जाता ठहराव
कैसी इच्छाओं के / ज्वार और भाटे ये 
दूर हुए जाते मन, सदियों के द्वीप 

विषमताओं के कुम्भ में सपनों की आहट बेमानी प्रतीत होने लगे तो नवगीत मन की पीड़ा को स्वर देता है -

किसलिए सजें / सपने, तो बस विशुद्ध रेत हैं 
नरभक्षी पौधों से / आश्रय की आशा क्या?
सब के सब इक जैसे / टोला क्या, माशा क्या?
कोई भी अमृत फल / इन पर आ पायेगा?
छोडो भी आशा, ये बेंत हैं
बेशर्मी जेहन से / आँखों में उतरी 
ढंकेंगी कब तक / ये पोशाकें सुथरी 
बच पाना मुश्किल है / ये भोंडे संस्कार 
दम लेंगे हंसकर ही, ये करैत हैं 

राजा केवल नाम के ही नहीं अनुभूतियों और अभिव्यक्ति-क्षमता के भी राजा हैं। लोकतंत्र में भी सामंतवादी प्रवृत्तियों का बढ़ते जाना, प्रगति की मरीचिका मैं आम आदमी का दर्द बढ़ते जाना उनके मन की पीड़ा को बढ़ाता है- 

फिर उसी सामंतवादी / जड़ प्रकृति को रोपता 
एक विध्वंसक समय को / हाथ बाँधे न्योतता
जड़ तमाचे पर तमाचे / अमन के मुँह पर 
पढ़ कसीदे पर कसीदे / दमन के मुँह पर  
गर्व से मुस्की दबाये / है प्रगति का देवता 

मुहावरेदार भाषा राजा अवस्थी के नवगीतों की जान है। रेवड़ी बेभाव बाँटी / प्रगति को दे दी धता, ढिबरी का तेल चुका / फैला अँधियार, खेतिहर बिजूकों से / भय खाएं राम, मस्तक में बोकर नासूर / टोपी के ये नकली बाल क्या सँवारना?, संविधान के मकड़जाल में / उलझा अक्सर न्याय हमारा, तार पर दे जीवन आघात / बेसुरे सुर दे रहे धता, कुँवारी इच्छाएं ऐसी / खिले ज्यों हरसिंगार के फूल जैसी अभिव्यक्तियाँ कम शब्दों में अधिक अनुभूतियों से पाठक का साक्षात करा देती हैं। 

ग्राम्यांचली पृष्ठभूमि राजा अवस्थी को देशज शब्दों के उस ख़ज़ाने से संपन्न करती है जो शहरों के कोंवेंटी कवि के लिए आकाश कुसुम है। बरुआ, ठकुरवा, छप्पर, छुअन, झरोखा, निठुराई, बिजूका, झोपड़, जांगर. कहतें, पांग, बढ़ानी, हिय, पर्भाती, सुग्गे, ढिबरी, किशनवा, कुछबन्दियों, खटती, बहुँटा, अंकुई, दलिद्दर, चरित्तर, पैताने आदि ग्रामीण शब्दों के साथ उर्दू लफ्ज़ खातिर, रैयत, खबर, गुजरे, बैर, ज़ुल्मों, खस्ताहाल, नज़रें, ख्याल, आमद, बदन, यकीन, ज़ेहन, नुस्खे, नासूर, इन्तिज़ार, ज़हर, आफत, एहसान, तकादा, एहसान, चस्पा, लफ़्फ़ाज़ी आदि मिलकर उस गंगो-जमुनी जीवन की बानगी पेश करते हैं जिसमें शुद्ध हिंदी के अनुपूरित, प्रतिकार, अंतर्मन, उल्लास, ग्रसित, व्याल, आतंकित, प्रतिबंधित, मराल, भ्रान्ति, आलिंगन, उत्कंठा, वीथिकाएँ, वर्जनाएं,अंतस, निष्कलुष, बड़वानल, हिमगलित, संभरण आदि पुलाव में मेवे की तरह प्रतीत होते हैं। राजा अवस्थी ने शब्द-युग्मों की शक्ति और उपदेयता को पहचाना और उपयोग किया है। खबर-दबर, जेठ-ससुर, माँ-दद्दा, रात-दिन, हम-तुम, मन-मान, आस-ओस, उठना-गिरना, साँझ-सँझवाती, लड़ी-फड़ी, डगर-मगर, सुख-दुःख, घर-गाँव, सुबह-शाम, दोपहरी-रात, नून-तेल, आस-पास, दूध-भात, मरते-कटते, चोर-लबार, अमन-चैन, चहक-पुलक, सीलन-सन्नाटे, दंभ-छ्ल्, है-मेल, हवा-पानी, प्रीति-गीति-रीति, मोह-ममता-नेह, तन-मन-जेहन आदि शब्द युगन इन नवगीतों की भाषा को जीवंतता देते हैं। 

राजा अवस्थी की प्रयोगधर्मी वृत्ति  फाइलबाजों, कंठ-लावनी, वर्ण-कंपित, हिटलरी डकार, श्रध्दाशा, ममता की अलगनी, सुधियों की डोर, काँटों की गलियाँ, मुस्कानों के झोंके, शब्दों का संत्रास, पीड़ाओं के शिलाखंड जैसे शब्दावलियों से पाठक को बाँध पाये हैं। शब्द-सामर्थ्य, भाषा-शैली, नव बिम्ब, नए प्रतीक, मौलिक कथ्य की कसौटी पर ये गीत खरे उतरते हैं। इन नवगीतों में मात्रिक छंदों का प्रयोग किया गया है। दो से लेकर चार पंक्तियों तक के मुखड़े तथा आठ पंक्तियों तक के अंतरे प्रयुक्त हुए हैं। नवगीतों में अंतरों की संख्या दो या तीन है।

हिंदी के समर्थ समीक्षक डॉ. विजय बहादुर सिंह ने इन गीतों में 'समकालीन जीवन व् उसके यथार्थ के प्रति अत्यधिक सजगता एवं संवेदनशीलता, स्थानीयता के रंगों से  कुछ अधिक रंगीनियत' ठीक ही लक्षित की है। इस कृति के प्रकाशन के एक दशक बाद राजा अवस्थी की कलम अधिक पैनी हुई है, उनके नवगीतों के नये संकलन की प्रतीक्षा स्वाभाविक है।

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समन्वयम, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४

Monday, March 7, 2016

संजीव का उपन्यास ‘रह गईं दिशाएँ इसी पार’ में चित्रित पारिस्थितिक समस्याएँ

संजीव का उपन्यास रह गईं दिशाएँ इसी पार में
चित्रित पारिस्थितिक समस्याएँ
-    बीना बी.एस.

सर्वविदित है कि प्राकृतिक संपत्ति धरती की शोभा को हमेशा बढ़ाती है। जैववैविध्य से पर्यावरण ओतप्रोत है। मनुष्य एवं प्रकृति के बीच का संतुलन हमेशा होना है। लेकिन अब प्रकृति और मनुष्य के बीच की यही आत्मीयता टूट गई है। आज का मानव प्रकृति से बहुत दूर है।
औद्योगिकीकरण के कारण पारिस्थितिक संतुलन बिगड़ गए है। हमेशा सुख के पीछे की दौड़ में मानव यह भूल जाते हैं कि स्वच्छ एवं स्वस्थ पर्यावरण की विकास का आधार है। औद्योगिकीकरण के कारण प्रकृति का शोषण होते है। मानव की सुख – सुविधाओं को बढ़ाने के लिए वैज्ञानिक आविष्कारों ने सहायता दी। परंतु विकास की ओर अग्रसर मानव अब प्रकृति का शोषण कर रहे हैं। जल, वायु, मिट्टी – सब को विषमय बना दिया।
इस पारिस्थितिक विनाश से सजग होना हर एक का कर्तव्य है। प्रसिद्ध साहित्यकार संजीवजी भी इस से भिन्न नहीं है। प्रकृति की ओर उन्मुखता दिखानेवाला संजीवजी ने पारिस्थितिक सजगता को बनाने का काम अपनी रचनाओं के द्वारा किया है। इस का ज्वलंत उदाहरण है उनका उपन्यास रह गईं दिशाएँ इसी पार। इस उपन्यास के द्वारा अनेक पारिस्थितिक समस्याओं की ओर उन्होंने प्रकाश डाला है।
मनुष्य की स्वार्थता के कारण प्रकृति का शोषण होता है। सुंदरवन 54 द्वीपों का समूह है। चार द्वीप-हल्दीबाड़ी, साईमारी, बाघमारा और चामटा – व्याघ्र प्रजनन के लिए सुरक्षित रखे हैं। सुंदरवन वही नाम को सार्थक बनानेवाला स्थान है। पहले यहाँ जंगल की हरियाली थी। संजीवजी के अनुसार दो सौ वर्ष पहले यहाँ आदमी पाँव रखे। मछली पकड़ना, मधुसंग्रह और लकड़ी काटना मुख्य धंधा है। मनुष्य के हस्तक्षेप के कारण वहाँ का प्राकृतिक वातावरण आजकल बिगड़ गया है कि द्वीपों में पेयजल की समस्या है। नदियाँ समुद्र से फीड़बैक लेती है। इसलिए पानी खारा है। इसी कारण से सुंदरवन का फुड हैबिट्स बदल गई है। बंदर शाकाहारी है। लेकिन फल नहीं मिलने के कारण मछली पकड़ते हैं। शुद्ध पानी के अभाव में बाघ खारा पानी पीता है।
इस उपन्यास का एक मुख्य पात्र है विस्नु बिजारिया। उनकी कंपनी मांसाहार उत्पादन सप्लाई करनेवाली दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी होनेवाली है। भारतीय समुद्री तट पर मछली पकड़ने का एकाधिकार उसे मिलना चाहिए। दूसरा है विश्व के सबसे बड़ी पिगरी का अधिग्रहण। फोर बाई सिक्स के दड़बे में एक मादा सुअर और उनके दर्जन पर छौने हैं जहाँ वे कायदे से घूम भी नहीं सकते। अपने ही गू-मूत और गंदगी से लिथेड़े। उस दड़बे में जो कर्मचारी या मज़दूर है, उनकी भी हाल प्रायः वैसी ही। साढ़े चार मिलियन गैलन मल-मूत्र गंदगी का डिस्पोसल सीधे नदी में।1
विस्नु बिजारिया को एजिंग रोकना है। वह अजर बनना चाहता है। अजर होने के लिए वह प्रयोगशालाएँ खुलते हैं ताकि वैज्ञानिक उपयुक्त प्रयोग कर सकें। एजिंग को रोकने के लिए स्टेमसेलस के ज़रिये क्लोन अंग बनाकर ट्रांसप्लांट करना है।
इस उपन्यास का गौणपात्र है नीलाचलम्। उनका कहना है— समुद्र एक डस्टबिन हो गया है। कोस्टल रेगुलेटरी ज़ोन पाँच सौ किलोमीटर का। सागर तट से पाँच सौ मीटर के अंदर आप कोई निर्माण कार्य नहीं कर सकते। लेकिन उसका उल्लंखन सर्वत्र है, खुद सरकार के हाथों ही...। आप यहाँ ही देख लें, हारबर से भीमली तक विकास, आधुनिकीकरण और सुंदरीकरण के नाम पर सरकार ने जगह वयोलेट किया है। दूसरे स्टील प्लांट, विद्युत उत्पादन और दूसरी इंडस्ट्रीज़ का कवस कहाँ गिरेगा तो समुद्र में। पूरे शहर का कचरा कहाँ गिरेगा तो समुद्र में। मोटर निर्माण उद्योग, पर्यटन उद्योग, फिल्म उद्योग आ रहे हैं। इनका कचरा भी समुद्र में ही आएगा। मछलियाँ ज़िंदा रहें तो कैसे?”2
उपन्यास में विस्नु बिजारिया की भाई किस्नु बिजारिया गो रक्षा आंदोलन चलाते हैं। बछडों का क्वालिटि इंप्रूव करने के लिए अच्छी नस्ल के साँडों को छांट लेते हैं। लेकिन
(क)  बछडा पैदा होने पर कसाइयों को बेच देते हैं।
(ख)  वे प्लास्टिक और कचरा खाकर जीवन खुद के लिए भार बनाते हैं।
(ग)   काऊ-मैड, बर्ड-फ्लू आदि मारी भी होती है।
मनुष्य के हस्तक्षेप के कारण ही हमारी वनसंपत्ति घट हो गई है। सभ्यता का विकास और वन – विनाश में अटूट संबंध है। वन विनास के कारण अन्तरिक्ष में कार्बण – डाई – ऑक्साइड बढ़ते हैं। तापमान में वृद्धि होती हैं। वनस्पति और जीव जंतुओं का संचित कोश है वन। वनों की कटाई पर रोक लगाना है। साथ ही वन उपजों के उपयोग में संयम होना है। विकास की ओर अग्रसर मानव औद्योगिकीकरण के नाम पर वनों का नाश करता है। जून 5 विश्व पर्यावरण दिन है। वनसंपत्ति की रक्षा के लिए वर्ष में केवल एक दिन हम व्यतीत करने हैं। पेड़ों के काटने पर जो जीव जंतु वन में रहते हैं, उनका आवास स्थान भी नष्ट हो जाते हैं।
मनुष्य अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए नदी का शोषण करते हैं। दूषित पानी कई तरह की बीमारियों का कारण बन जाते हैं। जो प्रदूषित जल कारखानों से निकालते है, प्लास्टिक – सब चीज़ों को हम नदी में डालते हैं। कई उद्योग जिनमें कागज़, चमड़ा, रंगाई एवं रसायनिक उद्योग है, रसायन मिश्रित पानी छोड़कर जलसोतों को विषयुक्त बना रहे हैं। रासायनिक खादों, कीटनाशकों आदि के कारण भी पानी प्रदूषिति होती है। गंगा नदी को हम पुण्य नदी मानते हैं। हिमालय से निकलेनेवाली गंगा धातुलवणों के साथ, की तरह की जड़ीबूढ़ियों से हकर आ रही हैं। गंगाजल स्वास्थ्यदायक है। ऐसा विश्वास है कि गंगा स्नान मोक्षदायक है। लेकिन लाशों के कारण आज गंगाजल अपवित्र है। नदी प्रदूषण के कारण मछलियाँ मर रही हैं और मछुआरों के लिए यह बहुत संकट की बात है। नदियाँ प्रदूषित होती जा रही है। कारखानों एवं अन्य उद्योगों से बाहर छोड़नेवाला प्रदूषित जल हमारी स्वच्छ नदियों को भी प्रदूषित करता है। टूरिस्टों के कारण भी नदियाँ तथा टूरिस्ट जगहें गंदगी से भर जाती है। इसलिए आज टूरिज़्म को इकोफ्रेंडली बनाने की कोशिश ज़ारी है।3
पारिस्थितिक प्रदूषण के साथ साथ इस उपन्यास में सांस्कृतिक प्रदूषण की भी झलक हमें मिलती है। क्लोनिंग के ज़रिए नए जीव का निर्माण करते हैं। लेकिन यह प्रक्रिया प्रकृति के अनुकूलन नहीं है। मनुष्य के लिए एक जीवनचक्र है। नई पीढ़ी का निर्माण प्रकृतिक रूप से होना है। संजीवजी के अनुसार क्लोनिंग से उत्पन्न होनेवाला जीव दुर्बल मस्तिष्क का आज्ञाकारी गुलाम होता है। इसकी ज़रूरत नहीं है। इस उपन्यास के माध्यम से उपन्यासकार ने क्लोनिंग के विरुद्ध आवाज़ उठाता है। हमारे समाज में आज मूल्यों का हास हो रहा है। इस अपच्युति के विरुद्ध उपन्यास के ज़रिए उपन्यासकार अपना मत प्रकट करता है। सही और सच्चे मूल्यों को इस समाज में उद्घाटन करना यहाँ उपन्यासकार का लक्ष्य है।
सस्य, जानवर एवं सूक्ष्म जीवियों की विविध जातियों का समूह है जैववैविध्य। इसे हम क्रित्रिम रूप से बना नहीं सकते। इसके प्रभाव पृथ्वी, जल और जलवायु पर होता है। इसलिए जैववैविध्य अनिवार्य है। गायों को मोटे – तगड़े बनाने और ज़्यादा दूध मिलने के लिए गायों की ही हड्ड़ियाँ पीसकर खिला दी जाती है जिसके कारण काऊ-मैड नामक बीमारी फैल हो जाती है। बर्ड – फ्लू को रोकने के लिए लाखों मुर्गियों और बतखों को मारे जाते हैं। इस प्रकार पशु – पक्षियों को मारने पर प्रकृति संतुलन नष्ट हो जाते हैं।
इस उपन्यास का सशक्त नारी पात्र बेला फिश प्रोसेसिंग यूनिट में काम करती है। वहाँ अमोनिया, ब्लीचिंग पाउडर आदि केमिकल्स की तीखी सड़ी बदबू है। फिश प्रोसेसिंग यूनिट में जो लोग काम करते हैं, वे इन केमिकल्स के कारण जल्दी रोगग्रस्त हो जाते हैं। इसके कारण मिट्टी, जल एवं वायु का प्रदूषण भी होता है जो परिस्थिति के लिए हानिकारक है। फिश प्रोसेसिंग यूनिट में काम करनेवाले मज़दूरिनें इस तरह के गंदी वातावरण में दुर्गंध सहकर काम करने के लिए विवश हो जाती है।
सारे कचरे फेंककर हम समुद्र को भी प्रदूषित करते हैं। इंडस्ट्रियल वेस्ट मिलने पर समुद्र अशुद्ध हो जाते है और इससे पैदा होनेवाली रेडियोधर्मिता का प्रभाव समुद्री जीव-जंतुओं पर पड़ेगा। यह अनेक महामारियों का कारण बन जाएगा। इंडस्ट्रियल वेस्ट सड़ नहीं जाते हैं। वे पानी में वैसे ही रहते हैं। जलसोतों को स्वच्छ रखना हमारा कर्तव्य है।
जानवरों की मौत का एक कारण प्लास्टिक है। प्लास्टिक और अन्य कचरे मिट्टी में मिलकर सड़ नहीं जाते। पशु चराते समय घास के साथ इन कचरों को भी खाते हैं। यह उनके पाचन व्यवस्था को खराब करते हैं। प्लास्टिक का उपयोग रोकना है और मिट्टी में मिलनेवाली किसी अन्य वस्तु का अविष्कार करना भी है।
उपर्युक्त बातों से स्पष्ट हुआ है कि आज के युग में परिस्थिति की रक्षा करना मनुष्य का प्रथम कर्तव्य है क्योंकि प्रकृति हमारे जीवन की सहजता बनानेवाली शक्ति है। प्रकृति का विनाश मानव का ही विनाश है। इसलिए समकालीन रचनाकारों ने अपनी रचनाओं में पारिस्थितिक सजगता को प्रमुखता दी है। इससे प्रेरित होकर मानव को अपनी निष्क्रियता छोड़न चाहिए। इसी लक्ष्य को सक्षम बनाने के लिए संजीवजी ने अपनी लेखनी चलाई है और संपूर्ण रूप से सफलता भी प्राप्त की है।
संदर्भ ग्रंथ:-
1.  रह गईं दिशाएँ इसी पार – संजीव, पृष्ठ संख्या 153
2.  रह गईं दिशाएँ इसी पार - संजीव, पृष्ठ संख्या 194 - 195
3.  साहित्य का पारिस्थितिक दर्शन – के. वनजा, पृष्ठ संख्या 33

हायक ग्रंथ:-
1.  आज का उपन्यास, एन. मोहनन
2.  हिन्दी उपन्यास का इतिहास, प्रो. गोपाल राय
3.  नागरी पत्रिका – जनवरी 2014
4.  अनुशीलन – जनवरी 2013


*डॉ. के.पी. पद्मावती अम्मा के निर्देशन में कर्पगम विश्वविद्यालय, कोयमबत्तूर में पीएच.डी. के लिए शोधरत हैं । 

मैत्रेयी पुष्पा का उपन्यास ‘चाक’ में नारी चेतना

लेख
मैत्रेयी पुष्पा का उपन्यास चाक में नारी चेतना
-    रिजा जे.आर.
हिन्दी साहित्य में बीसवीं शताब्दी के अन्तिम दौर में नारी चेतना का उदय हुआ है। आज स्त्री समाज के समुचित विकास के लिए पुरुषों के कन्धे में कंधा डालकर आगे बढ़ रही है। इसके द्वारा स्त्री अपनी अलग पहचान, अस्मिता ढूँढ रही है। नारी चेतना नारी अस्मिता से जुड़ा अहसास है। नारी चेतना में सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक क्षेत्र में दबी नारी का विरोध और उसके बाहर आने का प्रयास भी है।
पुराने काल में स्त्री का आदर मिलता था। कालान्तर में नारी की स्थिति में कमज़ोरी होती गई। लेकिन स्त्री शिक्षा के फलस्वरूप सामाजिक कुप्रथाओं के विरुद्ध आवाज़ उठाने की क्षमता उसमें उभर आई। घर की चार दीवारें तोडकर स्त्री अपना अस्तित्व खोजने का धैर्य दिखाने लगी। वह वर्तमान समाज में अपनी अस्मिता के प्रति सचेत है। फिर भी इस पुरुषसत्तात्मक समाज में स्त्री अब भी पीड़ित है और दलित भी। नारी का पति, पुत्र, परिवार और समाज द्वारा अलग अलग तरीके से शोषण होता है। स्त्री इसका खिलाफ करे तो समाज में यह अनर्थ हो जाएगा। मैत्रेयीजी ने चाक की भूमिका में इस प्रकार कहा है— पर सुन मेरी बच्ची! अपनी कटी हुई हथेलियाँ न फैलाया, उस बनाने वाले के सामने की पिछली बार बनाते समय जो भूल की थी उसे सुधार ले! नहीं तुझे फिर वही बनना है! फिर औरत! सौ जन्मों तक औरत जब तक मेरे हिस्से का आसमान तेरे और सिर्फ तेरे नाम न कर दिया जाय।1
समकालीन महिला लेखिकाओं ने नारी शोषण के विरुद्ध अपनी तूलिका चलाई। कृष्णा सोबती, उषा प्रियंवदा, चित्रा मुद्गल, मैत्रेयी पुष्पा, मन्नु भंडारी, ममता कालिया आदि इस कोटि में आती है। इनमें से मैत्रेयी पुष्पा का नाम शीर्षस्थ है। उन्होंने अपने उपन्यासों में स्त्रियों की दुनिया की बाहरी और भीतरी छटपटाहटों को अभिव्यक्त किया है।
मैत्रेयी जी नारी वर्ग को उसका स्वत्व बोध कराना चाहती है। वे नारी में नारीत्व को जागृत करना चाहती है। लेखिका ने महज नारी जीवन पर ही नहीं लिखा है, बल्कि जीवन की तमाम संवेदनाओं को रूपायित करके कई मायनों में वर्तमान रचनाकारों में विशेष कामयाबी भी हाँसिल की है। नारी की कलम से नारी के विषय में जो कुछ लिखा गया है, वह अत्यंत सार्थक और प्रशंसनीय है। मैत्रेयी जी के उपन्यास उनके नारीवादी सारोकार के साक्ष्य है। उनका चाक हिंदी के सर्वोत्तम उपन्यासों में चर्चा के केन्द्र में है। 1997 में प्रकाशित चाक उनका दूसरा उपन्यास है। यह ग्रामीण परिवेश में स्त्री चेतना के प्रसार को आख्यायित करता है। उपन्यास की नायिका सारंग है। वह अपनी फुफेरी बहन रेश्मा की हत्या से विद्रोह हो उठती है। इस गाँव की औरतें पुरुष अहं, शील और सतीत्व की रक्षा के नाम पर बलि चढ़ा दी जाती है। इसका वर्णन लेखिका ने इस प्रकार किया है कि – इस गाँव के इतिहास में दर्ज दस्तानें बोलती है— रस्सी के फंदे पर झूलती रुक्मणी, कुएँ में कुदनेवाली समदेई, करबन नदी में समाधिस्थ नारायणी – ये बेबस औरतें सीता माइया की तरह भूमि प्रवेश कर अपना शील – सतीत्व की खातिर कुरबान हो गई। ये ही नहीं, और न जाने कितनी...2
रेशम जो विधवा स्त्री है, अपने पति की मृत्यु के पाँच महीने के बाद वह अवैध गर्भधारण करती है। रेशम को इस पर अपराध बोध नहीं होता। लेकिन परंपरावादी सास घर की इज्जत बचाने के लिए जेठ डोरिया के साथ थापने को तैयार करती है। रेशम के इनकार से क्रुद्ध होकर जेठ डोरिया छल से रेशम की हत्या कर देता है। सारंग अपने पति रंजीत की सहायता से उनका गिरफ्तार कराती है।
लेखिका इन शब्दों में युवा विधवा को लेकर समाज की सोच पर सवाल उठाती है— रेशम विधवा थी – ज़माने के लिए, रीति रिवाज़ों के लिए, शास्त्र पुराणों के चलते घर – गाँव के लिए। विधवा सिर्फ विधवा होती है। वह औरत नहीं रहती फिर। यह बात पता नहीं उसे किसी ने समझाई कि नहीं? किसी ने कहा कि इच्छाओं के रेशमी तार में आग लगा दे रेशम? उसने तो केवल इतना माना कि पेड़ हरा-भरा रहे तो फूल-फल क्यों नहीं लगेंगे? ऐसा हो सकता है कि ऋतु और बल्लरी लता फूले नहीं?”3
सारंग संवेदनशील नारी है। रेशम के वध को जानकर भी गाँववालों की मूकता देखकर सारंग उसकी जाँघों में जूते से मारती है। इससे डोरिया सारंग के गर्दन में दबोचकर कहता है कि – तेरे छोरा की नार और मसकनी है। फिर भूल जायेगी बिफरना। साली इकबंझिया! पूरी ज़िंदगी निपूती होकर बिसूरती रहना।4
मैत्रेयी पुष्पा ने चाक में स्त्री शोषण के विविध आयामों को अत्यन्त सहज और यथार्थपरक ढंग से प्रस्तुत किया है। मैत्रेयी पुष्पा के अनुसार – मेरी सारंग अपने अधिकार का मूल्य जानती है। सांस्कृतिक मनो भूमिकाओं में वह किसी पुरुष से ऊपर है। अपमान, घृणा, उपेक्षा जो पति से मिलती है, उसका निदान हमख्याल मित्र के साथ अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने में है। उसे पति नहीं, साथी चाहिए। साथी मन का भी, तन का भी।5
मैत्रेयी पुष्पा ने अपनी रचनाओं में स्त्री के सामने आने वाली अनेक समस्याओं को अभिव्यक्त किया है। उनकी रचनाओं में जो प्रश्न उठाये जाते हैं, वे अत्यंत आधुनिक होते हैं। वे स्त्री विमर्श के सभी आयामों – यौन – मुक्ति, नारी – चेतना, नारी – अधिकार, सहअस्तित्व को विश्लेषित करने में सक्षम हो गया है। नारी अस्मिता को उजागर करना वह अपना धर्म समझती है। नारी चेतना केवल शब्द में नहीं उसे व्यवहार में लाना भी अनिवार्य समझती है। नारी का अपना जीवन है, और सिर्फ महिमा मंड़ित होकर नहीं जीना, अपितु मानव समाज में गरिमापूर्ण, सम्मान एवं अधिकार से जीना है। उसका लेखन बहुस्तरीय, सच्चा, ईमानदार है। मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यासों में चित्रित नारी भारतीय नारी है और इन उपन्यासों में नारी विषयक धार्मिक संवेदना के विविध आयामों का यथार्थ अंकन हुआ है।
संदर्भ ग्रंथ:-
1.  चाक, मैत्रेयी पुष्पा
2.  चाक, मैत्रेयी पुष्पा, पृष्ठ संख्या 7
3.  चाक, मैत्रेयी पुष्पा, पृष्ठ संख्या 17
4.  चाक, मैत्रेयी पुष्पा, पृष्ठ संख्या 46
5.  सुनो मालिक सुनो, मैत्रेयी पुष्पा, पृष्ठ संख्या 223
हायक ग्रंथ:-
1.  दसवें दशक के हिन्दी उपन्यासों में दलित चेतना, वसानी कृष्णावंती पी. पृष्ठ संख्या 172
2.  ममता कालिया के कथा साहित्य में नारी चेतना, डॉ. सानप शाम, पृष्ठ संख्या 100
3.  सुनो मालिक सुनो, मैत्रेयी पुष्पा, पृष्ठ संख्या 223
4.  हिन्दी साहित्य में नारी संवेदना, डॉ. एन.पी. दौड़ गौडर, डॉ. डि.बी. पांड्रे
पत्रिका:-
1.  आज कल, मार्च 2014
2.  केरल हिन्दी साहित्य अकादमी शोधपत्रिका, 2 जुलाई 2012
*डॉ. के.पी. पद्मावती अम्मा के निर्देशन में कर्पगम विश्वविद्यालय, कोयमबत्तूर में पीएच.डी. के लिए शोधरत हैं ।