संजीव
का उपन्यास ‘रह गईं दिशाएँ इसी पार’ में
चित्रित
पारिस्थितिक समस्याएँ
- बीना बी.एस.
सर्वविदित है कि प्राकृतिक संपत्ति धरती की शोभा को हमेशा
बढ़ाती है। जैववैविध्य से पर्यावरण ओतप्रोत है। मनुष्य एवं प्रकृति के बीच का
संतुलन हमेशा होना है। लेकिन अब प्रकृति और मनुष्य के बीच की यही आत्मीयता टूट गई
है। आज का मानव प्रकृति से बहुत दूर है।
औद्योगिकीकरण के कारण पारिस्थितिक संतुलन बिगड़ गए है।
हमेशा सुख के पीछे की दौड़ में मानव यह भूल जाते हैं कि स्वच्छ एवं स्वस्थ
पर्यावरण की विकास का आधार है। औद्योगिकीकरण के कारण प्रकृति का शोषण होते है।
मानव की सुख – सुविधाओं को बढ़ाने के लिए वैज्ञानिक आविष्कारों ने सहायता दी।
परंतु विकास की ओर अग्रसर मानव अब प्रकृति का शोषण कर रहे हैं। जल, वायु, मिट्टी –
सब को विषमय बना दिया।
इस पारिस्थितिक विनाश से सजग होना हर एक का कर्तव्य है।
प्रसिद्ध साहित्यकार संजीवजी भी इस से भिन्न नहीं है। प्रकृति की ओर उन्मुखता
दिखानेवाला संजीवजी ने पारिस्थितिक सजगता को बनाने का काम अपनी रचनाओं के द्वारा
किया है। इस का ज्वलंत उदाहरण है उनका उपन्यास ‘रह गईं दिशाएँ इसी पार’। इस उपन्यास के द्वारा अनेक
पारिस्थितिक समस्याओं की ओर उन्होंने प्रकाश डाला है।
मनुष्य की स्वार्थता के कारण प्रकृति का शोषण होता है।
सुंदरवन 54 द्वीपों का समूह है। चार द्वीप-हल्दीबाड़ी, साईमारी, बाघमारा और चामटा –
व्याघ्र प्रजनन के लिए सुरक्षित रखे हैं। सुंदरवन वही नाम को सार्थक बनानेवाला
स्थान है। पहले यहाँ जंगल की हरियाली थी। संजीवजी के अनुसार दो सौ वर्ष पहले यहाँ
आदमी पाँव रखे। मछली पकड़ना, मधुसंग्रह और लकड़ी काटना मुख्य धंधा है। मनुष्य के
हस्तक्षेप के कारण वहाँ का प्राकृतिक वातावरण आजकल बिगड़ गया है कि द्वीपों में
पेयजल की समस्या है। नदियाँ समुद्र से फीड़बैक लेती है। इसलिए पानी खारा है। इसी
कारण से सुंदरवन का फुड हैबिट्स बदल गई है। बंदर शाकाहारी है। लेकिन फल नहीं मिलने
के कारण मछली पकड़ते हैं। शुद्ध पानी के अभाव में बाघ खारा पानी पीता है।
इस
उपन्यास का एक मुख्य पात्र है विस्नु बिजारिया। उनकी कंपनी मांसाहार उत्पादन
सप्लाई करनेवाली दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी होनेवाली है। भारतीय समुद्री तट पर
मछली पकड़ने का एकाधिकार उसे मिलना चाहिए। दूसरा है विश्व के सबसे बड़ी पिगरी का
अधिग्रहण। “फोर बाई सिक्स के दड़बे में एक मादा सुअर और उनके
दर्जन पर छौने हैं जहाँ वे कायदे से घूम भी नहीं सकते। अपने ही गू-मूत और गंदगी से
लिथेड़े। उस दड़बे में जो कर्मचारी या मज़दूर है, उनकी भी हाल प्रायः वैसी ही।
साढ़े चार मिलियन गैलन मल-मूत्र गंदगी का डिस्पोसल सीधे नदी में।”1
विस्नु
बिजारिया को एजिंग रोकना है। वह अजर बनना चाहता है। अजर होने के लिए वह
प्रयोगशालाएँ खुलते हैं ताकि वैज्ञानिक उपयुक्त प्रयोग कर सकें। एजिंग को रोकने के
लिए स्टेमसेलस के ज़रिये क्लोन अंग बनाकर ट्रांसप्लांट करना है।
इस
उपन्यास का गौणपात्र है नीलाचलम्। उनका कहना है— “समुद्र एक डस्टबिन
हो गया है। कोस्टल रेगुलेटरी ज़ोन पाँच सौ किलोमीटर का। सागर तट से पाँच सौ मीटर
के अंदर आप कोई निर्माण कार्य नहीं कर सकते। लेकिन उसका उल्लंखन सर्वत्र है, खुद
सरकार के हाथों ही...। आप यहाँ ही देख लें, हारबर से भीमली तक विकास, आधुनिकीकरण
और सुंदरीकरण के नाम पर सरकार ने जगह वयोलेट किया है। दूसरे स्टील प्लांट, विद्युत
उत्पादन और दूसरी इंडस्ट्रीज़ का कवस कहाँ गिरेगा तो समुद्र में। पूरे शहर का कचरा
कहाँ गिरेगा तो समुद्र में। मोटर निर्माण उद्योग, पर्यटन उद्योग,
फिल्म उद्योग आ रहे हैं। इनका कचरा भी समुद्र में ही आएगा। मछलियाँ ज़िंदा रहें तो
कैसे?”2
उपन्यास में विस्नु बिजारिया की भाई किस्नु बिजारिया गो
रक्षा आंदोलन चलाते हैं। बछडों का क्वालिटि इंप्रूव करने के लिए अच्छी नस्ल के
साँडों को छांट लेते हैं। लेकिन
(क)
बछडा पैदा
होने पर कसाइयों को बेच देते हैं।
(ख)
वे प्लास्टिक
और कचरा खाकर जीवन खुद के लिए भार बनाते हैं।
(ग)
काऊ-मैड,
बर्ड-फ्लू आदि मारी भी होती है।
मनुष्य के हस्तक्षेप के कारण ही हमारी वनसंपत्ति घट हो गई
है। सभ्यता का विकास और वन – विनाश में अटूट संबंध है। वन विनास के कारण अन्तरिक्ष
में कार्बण – डाई – ऑक्साइड बढ़ते हैं। तापमान में वृद्धि होती हैं। वनस्पति और
जीव जंतुओं का संचित कोश है वन। वनों की कटाई पर रोक लगाना है। साथ ही वन उपजों के
उपयोग में संयम होना है। विकास की ओर अग्रसर मानव औद्योगिकीकरण के नाम पर वनों का
नाश करता है। जून 5 विश्व पर्यावरण दिन है। वनसंपत्ति की रक्षा के लिए वर्ष में केवल
एक दिन हम व्यतीत करने हैं। पेड़ों के काटने पर जो जीव जंतु वन में रहते हैं, उनका
आवास स्थान भी नष्ट हो जाते हैं।
मनुष्य अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए नदी का शोषण करते हैं।
दूषित पानी कई तरह की बीमारियों का कारण बन जाते हैं। जो प्रदूषित जल कारखानों से
निकालते है, प्लास्टिक – सब चीज़ों को हम नदी में डालते हैं। कई उद्योग जिनमें
कागज़, चमड़ा, रंगाई एवं रसायनिक उद्योग है, रसायन मिश्रित पानी छोड़कर जलसोतों को
विषयुक्त बना रहे हैं। रासायनिक खादों, कीटनाशकों आदि के कारण भी पानी प्रदूषिति
होती है। गंगा नदी को हम पुण्य नदी मानते हैं। हिमालय से निकलेनेवाली गंगा
धातुलवणों के साथ, की तरह की जड़ीबूढ़ियों से होकर आ रही हैं। गंगाजल स्वास्थ्यदायक है। ऐसा विश्वास है कि
गंगा स्नान मोक्षदायक है। लेकिन लाशों के कारण आज गंगाजल अपवित्र है। नदी प्रदूषण
के कारण मछलियाँ मर रही हैं और मछुआरों के लिए यह बहुत संकट की बात है। “नदियाँ प्रदूषित होती जा रही है। कारखानों एवं अन्य उद्योगों से
बाहर छोड़नेवाला प्रदूषित जल हमारी स्वच्छ नदियों को भी प्रदूषित करता है। टूरिस्टों
के कारण भी नदियाँ तथा टूरिस्ट जगहें गंदगी से भर जाती है। इसलिए आज टूरिज़्म को इको – फ्रेंडली बनाने की कोशिश ज़ारी है।”3
पारिस्थितिक
प्रदूषण के साथ साथ इस उपन्यास में सांस्कृतिक प्रदूषण की भी झलक हमें मिलती है।
क्लोनिंग के ज़रिए नए जीव का निर्माण करते हैं। लेकिन यह प्रक्रिया प्रकृति के
अनुकूलन नहीं है। मनुष्य के लिए एक जीवनचक्र है। नई पीढ़ी का निर्माण प्रकृतिक रूप
से होना है। संजीवजी के अनुसार क्लोनिंग से उत्पन्न होनेवाला जीव दुर्बल मस्तिष्क
का आज्ञाकारी गुलाम होता है। इसकी ज़रूरत नहीं है। इस उपन्यास के माध्यम से
उपन्यासकार ने क्लोनिंग के विरुद्ध आवाज़ उठाता है। हमारे समाज में आज मूल्यों का
हास हो रहा है। इस अपच्युति के विरुद्ध उपन्यास के ज़रिए उपन्यासकार अपना मत प्रकट
करता है। सही और सच्चे मूल्यों को इस समाज में उद्घाटन करना यहाँ उपन्यासकार का
लक्ष्य है।
सस्य,
जानवर एवं सूक्ष्म जीवियों की विविध जातियों का समूह है जैववैविध्य। इसे हम
क्रित्रिम रूप से बना नहीं सकते। इसके प्रभाव पृथ्वी, जल और जलवायु पर होता है।
इसलिए जैववैविध्य अनिवार्य है। गायों को मोटे – तगड़े बनाने और ज़्यादा दूध मिलने
के लिए गायों की ही हड्ड़ियाँ पीसकर खिला दी जाती है जिसके कारण काऊ-मैड नामक
बीमारी फैल हो जाती है। बर्ड – फ्लू को रोकने के लिए लाखों मुर्गियों और बतखों को
मारे जाते हैं। इस प्रकार पशु – पक्षियों को मारने पर प्रकृति संतुलन नष्ट हो जाते
हैं।
इस
उपन्यास का सशक्त नारी पात्र बेला फिश प्रोसेसिंग यूनिट में काम करती है। वहाँ
अमोनिया, ब्लीचिंग पाउडर आदि केमिकल्स की तीखी सड़ी बदबू है। फिश प्रोसेसिंग यूनिट
में जो लोग काम करते हैं, वे इन केमिकल्स के कारण जल्दी रोगग्रस्त हो जाते हैं।
इसके कारण मिट्टी, जल एवं वायु का प्रदूषण भी होता है जो परिस्थिति के लिए
हानिकारक है। फिश प्रोसेसिंग यूनिट में काम करनेवाले मज़दूरिनें इस तरह के गंदी
वातावरण में दुर्गंध सहकर काम करने के लिए विवश हो जाती है।
सारे
कचरे फेंककर हम समुद्र को भी प्रदूषित करते हैं। इंडस्ट्रियल वेस्ट मिलने पर
समुद्र अशुद्ध हो जाते है और इससे पैदा होनेवाली रेडियोधर्मिता का प्रभाव समुद्री
जीव-जंतुओं पर पड़ेगा। यह अनेक महामारियों का कारण बन जाएगा। इंडस्ट्रियल वेस्ट
सड़ नहीं जाते हैं। वे पानी में वैसे ही रहते हैं। जलसोतों को स्वच्छ रखना हमारा
कर्तव्य है।
जानवरों
की मौत का एक कारण प्लास्टिक है। प्लास्टिक और अन्य कचरे मिट्टी में मिलकर सड़
नहीं जाते। पशु चराते समय घास के साथ इन कचरों को भी खाते हैं। यह उनके पाचन
व्यवस्था को खराब करते हैं। प्लास्टिक का उपयोग रोकना है और मिट्टी में मिलनेवाली
किसी अन्य वस्तु का अविष्कार करना भी है।
उपर्युक्त
बातों से स्पष्ट हुआ है कि आज के युग में परिस्थिति की रक्षा करना मनुष्य का प्रथम
कर्तव्य है क्योंकि प्रकृति हमारे जीवन की सहजता बनानेवाली शक्ति है। प्रकृति का
विनाश मानव का ही विनाश है। इसलिए समकालीन रचनाकारों ने अपनी रचनाओं में
पारिस्थितिक सजगता को प्रमुखता दी है। इससे प्रेरित होकर मानव को अपनी निष्क्रियता छोड़नी चाहिए। इसी लक्ष्य को सक्षम बनाने के लिए
संजीवजी ने अपनी लेखनी चलाई है और संपूर्ण रूप से सफलता भी प्राप्त की है।
संदर्भ ग्रंथ:-
1. रह गईं दिशाएँ इसी
पार – संजीव, पृष्ठ संख्या 153
2. रह गईं दिशाएँ इसी
पार - संजीव, पृष्ठ संख्या 194 - 195
3. साहित्य का
पारिस्थितिक दर्शन – के. वनजा, पृष्ठ संख्या 33
सहायक
ग्रंथ:-
1. आज का उपन्यास, एन.
मोहनन
2. हिन्दी उपन्यास का
इतिहास, प्रो. गोपाल राय
3. नागरी पत्रिका –
जनवरी 2014
4. अनुशीलन – जनवरी 2013
*डॉ. के.पी. पद्मावती अम्मा के निर्देशन में कर्पगम
विश्वविद्यालय, कोयमबत्तूर में पीएच.डी. के लिए शोधरत
हैं ।
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