यशपाल और उनके उपन्यास -- एक सर्वेक्षण
- सत्यवाणी बी.
प्रेमचन्दोत्तर हिन्दी साहित्य क्षेत्र में जनवायी कला लेखक के रूप में श्री
यशपाल महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। उन्होंने प्रेमचन्द की कथा-परम्परा को अपने ढ़ंग
से विकसित करने का प्रयास भी किया। वे अपने समय के एक प्रखर जनवादी और प्रखर
यथार्थवादी कथाकार माने जाते हैं।
यशपाल ने कहानियों के अतिरिक्त उपन्यास, निबन्ध, यात्रा - विवरण, आदि विभिन्न
साहित्य-विधाओं के साहित्य का सृजन किया है। हिन्दी साहित्य के मूर्घन्य
उपन्यासकारों में उनका उल्लेखनीय स्थान है। उनकी साहित्य-संबन्धी चेतना ही उनकी
औपन्यासिक चेतना है। उनके अधिकांश उपन्यास साहित्य सम्बन्धी धारणाओं की कसौटी पर
खरा उतरते हैं। यशपाल के उपन्यासों ने मार्क्सवाद को लोकप्रिय बनाया है। अपना पहला
उपन्यास दादा कॉमरेड (1941) से लेकर अन्तिम उपन्यास "मेरी-तेरी - उसकीबात"
(1974) तक यशपाल एक ही समतल भूमि पर न चले, न विषयवस्तु की दृष्टि से, न कलात्मक
चित्रण की दृष्टि से। 'दादा कॉमरेड' का यशपाल अराजकतावादी और रोमानी
है। तो 'दिव्या' में वे अराजकता से मार्क्सवाद तक की यात्रा करते
हैं। झूठा-सच में वे रोमांस से यथार्थवाद तक की यात्रा करते हैं।
यशपाल का अपना अनुभव निम्न धर्म वर्ग का है।
उपन्यासों में व्यक्त होने वाला दृष्टिकोण यशपाल का अपना है, जो उनके निजी जीवन और
अनुभवों से निर्मित हुआ है। "यशपाल हिन्दी लेखकों में अकेले साहब थे।"[1] वे व्यक्तिगत जीवन को कथानक का आधार बना देने से
उनके उपन्यासों की विषयवस्तु में एक प्रकार की जीवन्तता मिलती है। उनकी लोकप्रियता
का मुख्य कारण भी यही है।
यशपाल साहित्य की महत्वपूर्ण उपलब्धि सामाजिक यथार्थ
है। मध्यवर्गीय समाज की समस्याओं की अभिव्यक्ति के लिये उन्होंने सामाजिक,
राजनैतिक, आर्थिक एवं मनोवैज्ञानिक कथावस्तु का चयन किया। यही कारण है कि उनके
उपन्यासों में जहाँ एक ओर सामाजिक समस्याओं का विश्लेषण है तो दूसरी ओर ऐतिहासिक
पृष्ठभूमि में रचित उपन्यासों इतिहासकार की सूझबूझ और गहनता भी है।
यशपाल के उपन्यास:-
यशपाल ने हिन्दी साहित्य को अपनी अनोखी रचना धार्मिता
से समृद्ध किया है। उनके बारह उपन्यास प्रकाशित हुए है।
उपन्यास प्रकाशन वर्ष
1. दादा कॉमरेड सन्
1941
2. देश द्रोही सन्
1943
3. दिव्या सन्
1945
4. पार्टी कॉमरेड सन्
1947
5. मनुष्य के रूप सन्
1949
6. अमिता सन्
1956
7. झूठा - सच भाग-1 सन्
1958
8. झूठा - सच भाग-2 सन्
1960
9. बारह घंटे सन्
1963
10. अप्सरा का शाप सन्
1965
11. क्यों फँसे? सन् 1968
12. मेरी-तेरी - उसकी बात सन्
1974
इनमें दादा कॉमरेड़ देशद्रोही,
पार्टी कॉमरेड, मनुष्य के रूप, झूठा-सच (दो भाग) और मेरी-तेरी उसकी बात राजनीतिक
उपन्यास की कोटि में आते हैं। इन सभी उपन्यासों में मानवतावादी दृष्टिकोण दिखाई
देते हैं।
दादा कॉमरेड : दादा कॉमरेड यशपाल का प्रथम उपन्यास है। इसमें
यशपाल की बदलती राजनैतिक चेतना और प्रेम तथा यौन विषयक परिकल्पनायें परिलक्षित हुई
है।
उपन्यास का एक छोर यदि राजनीति से
संबद्ध है तो दूसरा छोर प्रेम, काम, विवाह और नारी की सामाजिक स्थिति से। यह
उपन्यास बारह छोटे-छोटे अध्यायों में विभक्त है। जिस रोचक ढंग से उपन्यास का ताना-बाना
बुना गया है, वह यशपाल की रचनात्मक प्रतिभा का प्रमाण है। इस में गाँधीवाद,
क्रान्तिकारियों का प्रभाव, कांग्रेसी संघर्ष, साम्यवाद का प्रभाव, सर्वत्र
व्याप्त है। पूरे उपन्यास के मेरुदंड में अंग्रेजी सत्ता का शोषण, अफ्सरशाही तथा
उनके सिपाहियों के आतंक की व्याप्ति दिखाई पडती है। राजनैतिक एवं सामाजिक शक्तियों
की पहचान की दृष्टि से दादा कॉमरेड की अपनी एक विशिष्ट भूमिका रही है।
देश द्रोही : देश द्रोही यशपाल का दूसरा उपन्यास है। इसमें
सन् 1930 ई. से सन् 1942 ई. तक की राज नैतिक हलचलों को समेटा है। इस में साम्यवादी
दल के प्रति जनता में व्याप्त भ्रान्तियों का निराकरण किया गया है । दादा कॉमरेड में प्रेम की नयी नैतिकता है तो
देशद्रोही में रोमांस का रंग अधिक है । यशपाल ने इस उपन्यास में विभिन्न
राजनैतिक विचारधाराओं और उनकी नीतियों को उद्घाटित किया है। रोमानी प्रसंगों की
अधिकता के कारण इस में राजनैतिक पक्ष कम है। गोदान के बाद देश के राजनैतिक और
सामाजिक जीवन का इतना सफल चित्रण किसी अन्य उपन्यास में नहीं मिलता। इस उपन्यास से
व्यक्ति को जागरूक रहने, संघर्षों से जुडे रहने और अपनी मंजिल की ओर बढ़ते जाने की
प्रेरणा प्राप्त होती है।
पार्टि कॉमरेड : इस उपन्यास की रचना सन् 1946 ई. में हुई । यह लघु उपन्यास है । इस में राजनैतिक वातावरण का
चित्रण है । सामाजिक समस्याओं का वर्णन उपन्यास में कम ही हुआ है। फिर भी यहाँ भी पुरुष
सत्तात्मक समाज में नारी की निरीह स्थिति का चित्रण हुआ है। यह उपन्यास आकार में
छोटा होते हुए भी पूर्ण रूपेण सक्षम है। स्वतंत्रता के लिये संघर्ष रत काँग्रेस,
कम्यूणिस्ट के द्वन्द्व, अंग्रेजों के दमनचक्र, सैनिक-विद्रोह, पूंजीपतियों की
स्वार्थपरक विचार धारा तथा प्रचार के साधनों के दुरूपयोग का सशक्त दस्तावेज है यह
उपन्यास।
मनुष्य के रूप : सन् 1949 ई. में यह उपन्यास लिखा गया है। इस में
वर्तमान स्त्री-प्रेम विवाह, समर्पण भावना आदि समस्याओं को गंभीर पूर्वक प्रस्तुत
करने का प्रयास किया गया है। देशद्रोही और दादा कॉमरेड की तरह इस में भी लेखक ने
प्रेम-प्रसंगों को अधिक उभारा है।
झूठा-सच : 'झूठा-सच' में भारत और पाकिस्तान के विभाजन के पूर्व
हुए साम्प्रदायिक दंगों का व्यापक और यथार्थ चित्रण किया गया है। यह चित्रण इतना
वास्तविक और हृदय विदारक है कि यह उपन्यास न केवल हिन्दी साहित्य, बल्कि संपूर्ण
विश्वसाहित्य में अपनी अमिट छाप छोडता है।
झूठा-सच् भाग - 2 : 'झूठा-सच्' के द्वितीय भाग में स्वतंत्रता के
पश्चात् की स्थिति का सही चित्रण किया गया है। सत्तासीन नेताओँ की स्वार्थ सिद्धि
को व्यंग्यात्मक शैली में व्यक्त किया गया है। साम्प्रदायिकता की आग को भडकाने में
अंग्रेजों की साम्राज्यवादी चालों के उल्लेख के साथ-साथ नेताओं की अधिकार लिप्सा
और स्वार्थ परता का रेखांकन भी उपन्यास में दृष्टि गोचर होता है।
बारह घंटे : 'बारह घटे' में प्रेम और विवाह की नैतिकता
संबन्धी पुराने मूल्यों की चुनौती दी गयी है। प्रेम और विवाह की नैतिकता को
केन्द्र बनाकर यशपाल ने इसके स्वरूप पर गंभीरता से विचार किया है। लेखक ने प्रेम
और विवाह विषयक नैतिक मूल्यों को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयास किया
है।
क्यों फँसे? : 'क्यों फँसे' में उन्मुक्त यौनाचार और नर-नारे
संबन्धों का विश्लेषण है। प्रेम और यौन संबन्धों में किसी प्रकार की नैतिकता,
एकाधिकार और स्वामित्व को वे निरर्थक समझते हैं। नर-नारी संबन्धों में यशापाल
संतति निरोध के उपायों को महत्वपूर्ण मानते हैं।
संकट मोचक : 'संकट मोचक' में परिवार नियोजन के कार्यक्रम,
संततिनिरोध के उपायों को व्यक्त किया गया है। इस में सामान्य और सत ही कोटि की कथा
विन्यस्त की गयी है। यह उपन्यास बेहद कमजोर उपन्यास है।
मेरी-तेरी - उसकी बात : यह सन् 1947 में लिखा गया उपन्यास
है। लेकिन कथानक पराधीन भारत के तीव्र राष्ट्रीय आन्दोलन की पृष्ठभूमि से निर्मित
है। इस में यशपाल ने राष्ट्रीय आन्दोलनों को प्रमुख विषय बनाया है। उनका विश्वास था
कि क्रान्तिकारी ही भारत को स्वतंत्रता दिला सकते हैं। राजनैतिक प्रसंगों के साथ
लेखक ने राजनैतिक कार्यकर्ताओँ के व्यक्तिगत जीवन पर भी प्रकाश डाला है।
दिव्या : दिव्या में लेखक ने ऐतिहासिक वातावरण के
आधार पर यथार्थ का रंग देने का प्रयास किया है। यह उपन्यास इतिहास की नयी
संभावनाओं का संकेत देता है। यह उपन्यास युग-युग से प्रताडित, त्रस्त, शोषित दलित
नारी का प्रतिनिधित्व करता है। इसे 'बौद्धकालीन उपन्यास' की संज्ञा भी दे सकते
हैं। नारी उस युग में भी शोषण की शिकार थी, विलासिता की वस्तु थी, आज भी उसकी
स्थिति भिन्न नहीं। आज भी वह पूर्णतः स्वतंत्र नहीं। अतः दिव्या ऐतिहासिक और
समकालीन दोनों ही है।
अमिता : यह उपन्यास सन् 1956 ई. में
प्रकाशित हुआ। यह उपन्यास विश्वशाँति आन्दोलन की प्रेरणा से लिखा गया है। यशपाल ने
छः वर्षीय बालिका के माध्यम से यह प्रतिपादित किया है कि जब तक व्यक्ति अहंकारी और
अपनी महत्वाकाक्षाओं की परितृप्ति करता रहेगा तब तक सत्य, अहिंसा, प्रेम, शान्ति
आदि मूल्य प्रतिष्ठित नहिं हो सकते।
अप्सरा का शाप : इसमें दुष्यन्त-शकुन्तला विषयक
पौराणिक आख्यान को नवीन आयाम देने का प्रयत्न है। इस कृति के माध्यम से पुरुष सत्तात्मक
समाज में नारी शोषण की समस्याँ को एक बार फिर उठाया है।
लेखक ने उपर्युक्त तीनों (दिव्या,
अमिता, अप्सरा का शाप) उपन्यास ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि में नारी जीवन की स्थितियों को
मूर्तिमान किया है।
संदर्भ -
[1] यशापल पुनर्मूल्यांकन -- सम्पादक कुँवरपालसिंह -- पृ.सं.198
* * * * *
सत्यवाणी बी. कर्पगम विश्वविद्यालय, कोयम्बत्तूर, तमिलनाडु
में डॉ. के.पी. पद्मावती अम्मा के निर्देशन में शोधरत है।
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