श्यामल सुमन की काव्य-सरिता
घर मेरा है नाम किसी का
घर मेरा है नाम
किसी का
और निकलता काम
किसी का
मेरी मिहनत और
पसीना
होता है आराम
किसी का
कोई आकर जहर
उगलता
शहर हुआ बदनाम
किसी का
गद्दी पर दिखता है
कोई
कसता रोज लगाम
किसी का
लाखों मरते रोटी
खातिर
सड़ता है बादाम
किसी का
जीसस, अल्ला जब मेरे हैं
कैसे कह दूँ राम
किसी का
साथी कोई कहीं
गिरे ना
हाथ सुमन लो थाम
किसी का
रिश्ता भी व्यापार
रोटी पाने के लिए,
जो मरता था रोज।
मरने पर चंदा हुआ,
दही, मिठाई भोज।।
बेच दिया घर गांव
का, किया लोग मजबूर।
सामाजिक था जीव
जो, उस समाज से दूर।।
चाय बेचकर भी कई,
बनते लोग महान।
लगा रहे चूना वही,
अब जनता हलकान।।
लोक लुभावन घोषणा,
नहीं कहीं ठहराव।
जंगल में लगता
तुरत, होगा एक चुनाव।।
भौतिकता में लुट
गया, घर, समाज, परिवार।
उस मिठास से दूर
अब, रिश्ता भी व्यापार।।
मौन का संगीत
जो लिखे थे
आँसुओं से, गा सके ना गीत।
अबतलक समझा नहीं
कि हार है या जीत।।
दग्ध जब होता
हृदय तो लेखनी रोती।
ऐसा लगता है कहीं
तुम चैन से सोती।
फिर भी कहता हूँ
यही कि तू मेरा मनमीत।
अबतलक समझा नहीं
कि हार है या जीत।।
खोजता हूँ
दर-ब-दर कि प्यार समझा कौन।
जो समझ पाया है
देखो उसकी भाषा मौन।
सुन रहा बेचैन
होकर मौन का संगीत।
अबतलक समझा नहीं
कि हार है या जीत।।
बन गया हूँ मैं
तपस्वी याद करके रोज।
प्यार के बेहतर
समझ की अनवरत है खोज।
खुद से खुद को ही
मिटाने की अजब है रीत।
अबतलक समझा नहीं
कि हार है या जीत।।
साँसें जबतक चल
रहीं हैं मान लूँ क्यों हार?
और जिद पाना है
मंजिल पा सकूँ मैं प्यार।
आज ऐसा है सुमन
का, आज से ही प्रीत।
अबतलक समझा नहीं
कि हार है या जीत।।
भाई अच्छा कौन?
अहंकार से मिट गए,
नहीं बना जो हंस।
परिणति इनकी देख
लो, रावण कौरव कंस।।
सीता थी
विद्रोहिणी, तोड नियम उपहास।
राम संग सुख
छोडकर, चली गयी वनवास।।
ऑखें पर अंधा हुए,
फॅसा मोह में प्राण।
पुत्र-मोह
धृतराष्ट्र का, इसका एक प्रमाण।।
कहीं विभीषण था
मुखर, कुम्भकरण था मौन।
रावण पेशोपेश में,
भाई अच्छा कौन?
बेबस क्यों दरबार
में, भीष्म द्रोण सम वीर।
कुछ न बोले हरण
हुआ, द्रुपदसुता का चीर।।
गान्धारी को ऑख
पर, देखी ना संसार।
पतिव्रता या
मूर्खता, निश्चित करें विचार।।
दुर्दिन तो भाता
नहीं, नेक बात, सन्देश।
दुर्योधन ने कब
सुना, कान्हा का उपदेश।।
मूक नहीं सीता
कभी, जब तब किया प्रहार।
साहस था तब तो
गयी, लक्ष्मण-रेखा पार।।
लाख बुराई हो भले,
रावण था विद्वान।
राम स्वतः करते
रहे, दुश्मन का सम्मान।।
जो रिश्तों पर भारी है
अपना मतलब अपनी
खुशियाँ पाने की तैयारी है
वजन बढ़ा मतलब का
इतना जो रिश्तों पर भारी है
मातु पिता संग इक
आंगन में भाई बहन का प्यार मिला
इक दूजे का सुख
दुख अपना प्यारा सा संसार मिला
मतलब के कारण ही
यारों बना स्वजन व्यापारी है
वजन बढ़ा मतलब
का---------
भीतर से इन्सान
वो जैसा क्या बाहर से दिखता है
हालत ये कि
सन्तानों संग जिस्म यहाँ पर बिकता है
अपना मतलब पूरा
कर लें इसी की मारामारी है
वजन बढ़ा मतलब
का---------
जीवन मूल्य बचाना
होगा मुल्क बचाने की खातिर
पथ के कांटे
चुनने होंगे सुमन सजाने की खातिर
उस मतलब से क्या
मतलब जो घर घर की बीमारी है
वजन बढ़ा मतलब
का----------
जीवन है श्रृंगार
मुसाफिर
जीवन पथ अंगार
मुसाफिर,
खाते कितने खार
मुसाफिर
जीवटता संग होश
जोश तो,
बांटो सबको प्यार
मुसाफिर
दुखिया है संसार
मुसाफिर,
नैया भी मझधार
मुसाफिर
आपस में जब हाथ
मिलेंगे,
होगा बेडा पार
मुसाफिर
प्रेम जगत आधार
मुसाफिर,
फिर काहे तकरार
मुसाफिर
संविधान ने दिया
है सबको,
जीने का अधिकार
मुसाफिर
करते जिसको प्यार
मुसाफिर,
देता वो दुत्कार
मुसाफिर
फिर जाने कैसे
बदलेगा,
दुनिया का
व्यवहार मुसाफिर
कहती है सरकार
मुसाफिर,
जाति धरम बेकार
मुसाफिर
मगर लडाते इसी
नाम पर,
सत्ता-सुख साकार
मुसाफिर
खुद पे कर उपकार
मुसाफिर,
जी ले पल पल
प्यार मुसाफिर
देख जरा मन की
आंखों से,
जीवन है श्रृंगार
मुसाफिर
चाहत सबकी प्यार
मुसाफिर,
पर दुनिया बीमार
मुसाफिर
प्रेमी सुमन जहाँ
दो मिलते,
मिलती है फटकार
मुसाफिर
जिसकी है नमकीन जिन्दगी
जो दिखती रंगीन
जिन्दगी
वो सच में है दीन
जिन्दगी
बचपन, यौवन और बुढ़ापा
होती सबकी तीन
जिन्दगी
यौवन मीठा बोल
सके तो
नहीं बुढ़ापा हीन
जिन्दगी
जीते जो उलझन से
लड़ के
उसकी है तल्लीन
जिन्दगी
वही छिड़कते नमक
जले पर
जिसकी है नमकीन
जिन्दगी
दिल से हाथ मिले
आपस में
होगी क्यों गमगीन
जिन्दगी
जो करता है प्यार
सुमन से
वो जीता शौकीन
जिन्दगी
जगत है शब्दों का
ही खेल
शब्द ब्रह्म
कहलाते क्योंकि, यह अक्षर का मेल।
जगत है शब्दों का
ही खेल।।
आपस में परिचय
शब्दों से, शब्द प्रीत का कारण।
होते हैं शब्दों
से झगड़े, शब्द ही करे निवारण।
कोई है स्वछन्द
शब्द से, कसता शब्द नकेल।
जगत है शब्दों का
ही खेल।।
शब्दों से मिलती
ऊँचाई, शब्द गिराता नीचे।
गिरते को भी शब्द
सम्भाले, या फिर टाँगें खींचे।
शासन का आसन
शब्दों से, देता शब्द धकेल।
जगत है शब्दों का
ही खेल।।
जीवन की हर
दिशा-दशा में, शब्दों का ही
मोल।
शब्द आईना
अन्तर्मन का, सब कुछ देता बोल।
कैसे निकलें
शब्द-जाल से, सोचे सुमन बलेल।
चिन्गारी भर दे
मन में
ऐसा गीत सुनाओ
कविवर, खुद्दारी भर दे मन में।
परिवर्तन लाने की
खातिर, चिन्गारी भर दे मन में।।
हम सब यारों देख
रहे हैं, कैसे हैं हालात अभी?
कदम कदम पर
आमजनों को, मिलते हैं आघात अभी।
हक की रखवाली
करने को, आमलोग ने चुना जिसे,
महलों में रहते
क्या करते, हम सब की वे बात अभी?
सत्य लिखो पर वो
ना लिखना, मक्कारी भर दे मन में।
परिवर्तन लाने की
खातिर, चिन्गारी भर दे मन में।।
लिखो हास्य पर
व्यंग्य साथ में, लोगों से सम्वाद
करो।
भूत-प्रेत और
जादू-टोना, से उनको आजाद करो।
भूख-गरीबी से
लड़ना है, ऐसे शब्द सजाओ तुम,
जाति-धरम से ऊपर
उठकर, कोई नहीं विवाद करो।
कभी नहीं ऐसा कुछ
लिखना, लाचारी भर दे मन में।
परिवर्तन लाने की
खातिर, चिन्गारी भर दे मन में।।
बिना आग उगले
लेखन में, आपस का सद्भाव रहे।
लोग जगें और मिल
सहलायें, अगर किसी को घाव रहे।
शब्दों की दीवार
बना दो, रोके नफरत की आँधी,
सबको सुमन बराबर
अवसर, जहाँ पे जिसका चाव रहे।
ऐसी तान कभी मत
छेड़ो, बीमारी भर दे मन में।
परिवर्तन लाने की
खातिर, चिन्गारी भर दे मन में।।
घर मेरा है नाम किसी का
घर मेरा है नाम
किसी का
और निकलता काम
किसी का
मेरी मिहनत और
पसीना
होता है आराम
किसी का
कोई आकर जहर
उगलता
शहर हुआ बदनाम
किसी का
गद्दी पर दिखता
है कोई
कसता रोज लगाम
किसी का
लाखों मरते रोटी
खातिर
सड़ता है बादाम
किसी का
जीसस, अल्ला जब मेरे हैं
कैसे कह दूँ राम
किसी का
साथी कोई कहीं
गिरे ना
हाथ सुमन लो थाम
किसी का
खिलौना
देख के नए खिलौने
खुश हो जाता था बचपन में।
बना खिलौना आज
देखिये अपने ही जीवन में।।
चाभी से गुड़िया
चलती थी बिन चाभी अब मैं चलता।
भाव खुशी के न हो
फिर भी मुस्काकर सबको छलता।।
सभी काम का समय
बँटा है अपने खातिर समय कहाँ।
रिश्ते नाते
संबंधों के बुनते हैं नित जाल यहाँ।।
खोज रहा हूँ
चेहरा अपना जा जाकर दर्पण में।
बना खिलौना आज
देखिये अपने ही जीवन में।।
अलग थे रंग
खिलौने के पर ढंग तो निश्चित था उनका।
रंग ढंग बदला यूँ
अपना लगता है जीवन तिनका।।
मेरे होने का
मतलब क्या अबतक समझ न पाया हूँ।
रोटी से ज्यादा
दुनियाँ में ठोकर ही तो खाया हूँ।।
बिन चाहत की खड़ी
हो रहीं दीवारें आँगन में।
बना खिलौना आज
देखिये अपने ही जीवन में।।
फेंक दिया करता
था बाहर टूटे हुए खिलौने।
सक्षम हूँ पर
बाहर बैठा बिखरे स्वप्न सलोने।।
अपनापन बाँटा था
जैसा वैसा ना मिल पाता है।
अब बगिया से नहीं
सुमन का बाजारों से नाता है ।।
खुशबू से ज्यादा
बदबू अब फैल रही मधुबन में।
बना खिलौना आज
देखिये अपने ही जीवन में।।
आखिरी में सुमन तुझको रोना ही है
तेरी पलकों के
नीचे ही घर हो मेरा
घूमना तेरे दिल
में नगर हो मेरा
बन लटें खेलना
तेरे रुखसार पे
तेरी जुल्फों के
साये में सर हो मेरा
मौत से प्यार
करना मुझे बाद में
अभी जीना है
मुझको तेरी याद में
तेरे दिल में ही
शायद है जन्नत मेरी
दे जगह मै खड़ा
तेरी फरियाद में
मानता तुझको मेरी
जरूरत नहीं
तुमसे ज्यादा कोई
खूबसूरत नहीं
जहाँ तुमसे मिलन
वैसे पल को नमन
उससे अच्छा जहां
में मुहूरत नहीं
जिन्दगी जब तलक
प्यार होना ही है
यहाँ पाने से
ज्यादा तो खोना ही है
राह जितना कठिन
उतने राही बढे
आखिरी में सुमन
तुझको रोना ही है
-श्यामल
सुमन
www.manoramsuman.blogspot.com
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