आलेख
उदयप्रकाश की कवितओं में चित्रित
बदलते सामाजिक परिवेश
– एक मूल्यांकन
– एक मूल्यांकन
-
मिनी. एस*
समकालीन सामाजिक जीवन में
जो-जो बदलाव आता रहता है उसकी झलक समकालीन साहित्य में भी हम देख सकते
है। समकालीनता से हमें भाव एवं काल का बोध मिलता है। आजकल मूल्यों में परिवर्तन के
साथ- साथ नैतिकता का अर्थ भी कुछ बदल गये है, क्योंकि आज की जीवनस्थितियों एवं धारणाओं
में बदलाव आ चुका है ।
जैसे:
“आलू दो रुपये किलो थे
मैंने डेढ़ किलो खरीदे।
अगर ये आलू
जो झोले के अंधेरे में है
रास्ते में कहीं
हरी मिर्ची में बदल जाएँ
अदरक
या धनिया डरी पत्ति बन जाएँ
तो पत्नी क्या समझेगी ?।
कि ज़रूर मैंने
दोस्तों का चाय पिला दी है
या पानवाले का
उधार पटा दिया है
और अब बहाने बना रहा है
मैं बहुत
डर गया
क्योंकि
अभी भू घर दूर था ।”1
सुनो कारीगर उदयप्रकाश का पहला काव्य संग्रह है। मानवीय रिश्तों
की गहरी आत्मीयता पर आधारित है यह। आज की क्रूर अमानवीय व्यवस्थाओं से उत्पन्न
संकट और ऐसी सामाजिक स्थिति को पार करने में सामान्य जन की आकांक्षा अधिक है।
जैसे
मैं
अकेला
थका हारा कवि
कुछ भी नहीं हूँ अकेला
मेरी छोड़ी गई अधूरी लडाईयाँ
मुझे और थका देंगी।
सुने यहीं था मैं
अपनी थकान, निराशा, क्रोध
आँसुओं, अकेलापन और
एकाध छोटी-मोटी
खुशियों के साथ
यहीं नींद मेरी टूटी थी
कोई दुख था शायद
जो अब सिर्फ मेरा नहीं था।“ 2
बदलते सामाजिक परिवर्तनों का उल्लेख और एक कविता
में भी आप ने व्यंग्य किए है-
जैसे
“व्यापारी बंद दूकानों के
भीतर
बैठे हैं
नई घोषणाओं के इन्तज़ार में
शिकारियों ने दीवारों पर
टाँग दी है बन्दुके।
न्यायाधीशों ने उतार दिए है
अपने काले लबादें
क्या कहेंगे सम्राट अब
सोचते है नागरिक ।“ 3
साहित्य या भाषा की रचनात्मक संभावनाओं को खोजकर इंसानी जीवन के
यथार्थ के साथ होनेवाले उनके संरचनात्मक तरीकों पर उदयप्रकाश की रचनादृष्टि चलती
है । इसलिए हिंदी
साहित्य को श्रेष्ठ दार्शनिक परिवेश देने का श्रेय उनके मिलता है।
‘ तिब्बत ‘ उदयप्रकाश की बहुचर्चित कविता है। आज भी नैनिताल में
तिब्बती बाज़ारे और बस्तियों से गुजरते हुए उनकी इस कविता में समकालीन सामाजिक
समस्याओं और परिवर्तनों का भरमार है, लेकिन कविता सरल है। इस कविता में कवि एक
बच्चे की ओर से सवाल करता है। बच्चा अपने पिताजी से सवाल करता है-
जैसे
“तिब्बत से आये हुए
लामा घुमते रहते है
आजकल मंत्र बुदबुदाते
उनके खच्चरों के झुंड
बगीचे में उतरते है
गेंद के एक फूल में
कितने फूल डोतो हैं पापा
तिब्बत में बरसात
जब होती है
तब हम कि मौसम में होते हैं
तिब्बत में जब तीन बजते हैं
तब हम किस समय में होते है तिब्बत में गेंद के फूल होते हैं-
क्या पापा लामा शंख बचाते है पापा । ” 4
ये सभी सवाल शिशु-स्वाभविक जिज्ञासाएँ हैं। लेकिन इनका जवाब बहुत
ही जटिल है। यहाँ मुख्य विषय विस्थापन ही है। एक विस्थापित की मानसिक पीड़ा एवं
चिंता से उत्पन्न आकांक्षा है यह। तिब्बती इसका प्रतीक मात्र है। तिब्बती तो बेघर
और बेवतन है। आज विस्थापन की समस्या गहरी होती जा रही है।
उदय प्रकाश की कविताओं की विशेषता यह है कि उनकी भाषा सहज और सरल
जो कभी-कभी अत्भुत और जीवंत अनूभव-सा महसूस होता है। इनकी कविताओं में अपार शक्ति
है जो पाठकों के हृदय में प्रत्येक भाव उत्पन्न करने में सक्षम है। जोश और उत्साह
के साथ लिखी गयी कविताएँ उसी जोश उत्साह और कुछ बदलने के भाव आस्वादकों के मन में
संचरित भी करती है।
जैसे:
”वह हिंदी समाज था सुन लें
जिसमें कोई खुसरो, कोई कबीर, कोई मीर तकी मीर
कोई कबीर कोई प्रेमचंद
और यह भी वही समाज है जिससे बनाया है, खौर छोडिए
रोटी और रोज़ी न हीं प्राण को भी बाधा है । ” 5
कविता में भाषा के सवाल पर बातें करनेवाली कविता है “एक भाषा हुआ करती है।“ हिंदी का और उसके मूल
जनवादी रूप का सवाल है प्रस्तुत कविता-
जैसे:
बहुत
अधिक बोली-लिखी सुनी-पढ़ी जाती
गाती बजाती एक बहुत कमाऊ और बिकांऊ
ब़डी भाषा,
दुनिया के सबसे बदहाल और सबसे असाक्षर
सबसे गरीब और सबसे खूंखार,
सबसे काहिल और सबसे थके-लूटे लोगों की
भाषा
अस्सी करोड या नब्बे करोड़ या एक अरब
भूखंडों, नंगों और गरीब-लफंगों की
जनसंख्या की भाषा
वह भाषा जिसे वक्त ज़रूरत तस्कर, हायारे
नेता, दलाल, अफसर, भडुए, रोडियां और कुछ
जुनूनी नौजवान भी बोला करते है
वह भाषा जिसमें लिखता हुआ डर ईमानदार कवि
पागल
हो जाता है
आत्मघात
करती है प्रतिभाएँ।
मानव सभ्यता एवं सामाजिक परिवर्तन पर आधारित एक कविता है, ‘मैं लौट आऊँग। इस कविता की
कुछ पंक्तियाँ देखें-
इतिहास
जिस तरह विलीन हो जाता है
किसी समुदाय की मिथक गाथा में
विज्ञान किसी ओझा के टोने में
तमाम औषधियाँ आदमी के असंख्य
रोगों से हारकर अंत में जैसे
लौट जाती है किसी आदिम स्पर्श या
मंत्र में।
गहरी
सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक रचनात्मकता की सही जानकारी रखने वाले उदयप्रकाश का व्यक्तित्व थोड़ा अलग है।
क्योंकि वे तो काल से पहले उड़नेवाले पंछी है।
भूमंडलीकरण से उपजी
उपभोक्ता संस्कृति और बाज़ारवाद के साथ उत्तर आधुनिकतावाद को लेकर भी उनकी कविता
समय-सजग है। उदयप्रकाश समय के सामाजिक सरोकारों व वक्त की माँग के कवि है। उनकी यह
कविता पढें।
और इस लड़ाई में
जितने घाव बनते हैं
हथियों के उन्मत्त शारीरों पर
उससे कहीं, ज्यादा
गहरे घाव
बनते है जंगल और समय
की छाती पर।
आज
साम्राज्यवाद से भी खतरनाक है नव-उपनिवेश। नव-उपनिवेश वाद शायद वैश्वीकरण का उपज
होगा जिस के फलस्वरूप भारतीय सस्कृकि और नौतिक मूल्यों का निरंतर शोषण हो रहा है।
नव उपनिवेशवादी प्रवृत्तियों से भारतीय जनता के अपनी इन कविताओं के द्वारा
उदयप्रकाश सचेत करते है-
जैसे
1.
इन पेडों की छाँह में
चुप थकी बैठी
बढई की लड़की
तेरी उम्र
क्या होगी इस वक्त
इक वक्त
जब पेड़ चुप-चाप
एक दूसरे की
जड़ों को छू रहे हैं।
चुप थकी बैठी
बढई की लड़की
तेरी उम्र
क्या होगी इस वक्त
इक वक्त
जब पेड़ चुप-चाप
एक दूसरे की
जड़ों को छू रहे हैं।
2.
ये तुम कौन-से सरकार हो जी
राच्छस की तरह आते हो
तबाही माचाते हो
तबाही माचाते हो
सब समेट-बटोर कर ले जाते हो।“
अपने
समय की वास्तविकता का उभार हो या अन्य कलात्मक प्रौढ़ता या अन्य किसी विरूपता हो
उनके खिलाफ आवाज़ या प्रतिरोध करने से उदयप्रकाश की कविताएँ हिंदी काव्य लोक को
नया स्वर देता है। समकालीन हिंदी साहित्य के एक समर्पित कार्यकर्ता उदयप्रकाश की
लेखकीय प्रतिबद्धता का प्रमाण है उनकी चिंताद्योतक कविताएँ।
सन्दर्भ
1.
घर की दूरी / पृ.सं. 78
2.
सुनो कारीगर / पृ.सं. 9
3.
सम्राट की वापसी / सुनोकारीगर / पृ.सं. 80
4.
तिब्बत / सुनो कारीगर / पृ.सं. 88
5.
समाज के बारे में एक व्यक्तिवादी कविता / एक भाषा हुआ करती है। / पृ.सं. 80
(मिनी. एस, करपगम
विश्वविद्यालय, कोयंबत्तूर, तमिलनाडु में डॉ. के.पी. पद्मावती अम्मा के निर्देशन
में पी.एच.डी. के लिए शोधरत हैं)
2 comments:
inhe padhna achchha laga .
अच्छा लगा पढ़ना..
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