उन्हें भारत से नफरत क्यों है?
एक सार्थक परिवर्तन के दौर से गुजर रहे राष्ट्र के रास्ते में मत आइए
-संजय द्विवेदी
यह समझना मुश्किल है कि संस्कृत का राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ और भाजपा से क्या लेना-देना है। किंतु संस्कृत का विरोध इस नाम पर
हो रहा है कि संघ परिवार उसे कुछ लोगों पर थोपना चाहता है। इसी तरह धर्मांतरण की
किसी घटना से भाजपा या उसकी दिल्ली में बैठी सरकार का क्या रिश्ता हो सकता है? सरकार अगर धर्मांतरण के खिलाफ कड़े कानून की बात करे तो भी हंगामा है।
मीडिया ऐसी खबरों को सनसनी देने में माहिर है और बिना बात के सवालों पर संसद और
देश की जनता का दोनों का वक्त खराब करने में मीडिया की मास्टरी है। निरंजन ज्योति
कोई पहली और आखिरी नेता नहीं है जिनकी जुबान फिसली है। हमारे देश में मुलायम सिंह,
मायावती, लालू प्रसाद, आजम खां, ओवैसी से लेकर हर दल में ऐसे नेताओं की एक लंबी
श्रृखंला है जिनकी जबान फिसल-फिसल पड़ती है। किंतु निरंजन ज्योति ने क्योंकि भगवा
पहन रखा है और वे भाजपा से आती हैं इसलिए उनके पीछे जमाने का पड़ जाना स्वाभाविक
है। यही सेकुलर राजनीति है और यही भारत विरोध है।
देशतोड़कों से प्यार, देशभक्तों को दुत्कारः
आप देखें तो कुछ लोग हर उस चीज के खिलाफ हैं
जिसका रिश्ता भारत से जुड़ता हो। जो अरुंधती राय की बदजुबानियों के साथ खड़े हैं,
जिन्हें कश्मीर के पाक प्रेरित अलगाववादियों से मंच साझा करने में गुरेज नहीं है,
जो देशतोड़क माओवादी आतंकवादियों के प्रति भी उदार हैं वही संस्कृत, हिंदी, हिंदू
समाज और भारतीयता के किसी भी प्रतीक के खिलाफ हैं। किसी भी लोकतंत्र में रहते हुए
ऐसी वैचारिक छूआछूत और असहिष्णुता की छूट नहीं दी जा सकती। संस्कृत भाषा इस देश
की भाषा है। उसकी जर्मन से क्या तुलना। हमारा समूचा साहित्य, वांग्मय और दर्शन इसी
भाषा में समाया हुया है। सही मायने में वह एक लोकप्रिय भाषा भले न हो किंतु बेहद
वैज्ञानिक और भारत को समझने की एकमात्र खिड़की जरूर है। भारत की भाषाओं के खिलाफ़
इस प्रकार की सोच क्यों है? क्या भारतीय भाषाएं अपनी ही जमीन पर अपमानित
होने के लिए हैं। अंग्रेजी के खिलाफ़ आपकी सोच इतनी आक्रामक क्यों नहीं है? क्यों एक ऐसे देश का राज और अदालतें एक ऐसी भाषा में चलती हैं, जिसे देश के ज्यादातर लोग नहीं समझते? किंतु अंग्रेजी साम्राज्यवाद को बचाए और बनाए रखने के लिए सत्ताएं
अंग्रेजी को पोषित कर रही हैं। अंग्रेजी के खिलाफ़ जिनके बोल नहीं फूटते वे
संस्कृत के खिलाफ़ और हिंदी के खिलाफ़ तलवारें भांजने का कोई अवसर नहीं चूकते। आखिर यह किस तरह का भारत हम बना रहे हैं जहां
अपनी विरासतों के प्रति भी हममें संदेह जगाया जा रहा है। अयोध्या में रामजन्मभूमि
से लेकर तमाम ऐसे सवाल हैं जो बताते हैं कि हम दरअसल अपनी विरासतों, पुरखों और
मानविंदुओं पर भी अदालती फरमानों के इंतजार में हैं।
माटी के प्रति कम होता मोहः
अदालतें
हमें बता रही हैं कि हमारा इतिहास क्या है। वे हमें बताएंगी कि बाबर कौन हैं और
राम कौन हैं। क्या ही अच्छा होता कि हमारी राजनीति और समाज इतना वयस्क होता कि वह
स्वयं आकर समस्याओं के समाधान में सहायक बनता। आखिर क्यों अयोध्या के हाशिम अंसारी
जब रामलला पर चिंता जताते हैं तो कई खेमों की नींद हराम हो जाती है। क्यों कुछ
लोगों और दलों को अपनी राजनीति दुकान उजड़ने का खतरा दिखता है। देश में समस्याएं
बहुत हैं किंतु ज्यादातर हमने स्वयं पैदा की हैं। अपने देश और उसकी माटी के प्रति
कम होते प्यार, राष्ट्रीयता की क्षीण हो रही भावनाएं हमें गलत मार्ग पर ले जाती
हैं। यह साधारण नहीं है कि हमारे वतन में पैदा हो रही पौध किसी धार्मिक अतिवादी
संगठन के आह्वान पर किसी दूसरे देश जमीन पर जाकर जंग में शामिल हो जाती है। यानी
आप माने न मानें हमारा राष्ट्रवाद पराजित हो रहा है। वह विचलित हो रहा है। अतिवादी
विचार युवाओं को इतना आकर्षित कर रहे हैं कि वे अपनी माटी को छोड़कर कथित जेहाद
में शामिल हो जाते हैं। ये हालात बताते हैं कि हमने आजादी के बाद अपनी भारतीयता
को, अपनी राष्ट्रीय चेतना को कमजोर किया है। आज हमारे देश में वंदेमातरम् गाने न
गाने को लेकर, रामजन्मभूमि को लेकर, संस्कृत को लेकर, गौहत्या को लेकर, राष्ट्रभाषा
हिंदी को लेकर, कश्मीर को लेकर, जातियों और पंथों को लेकर अनेक विवाद हैं।
किसी मुद्दे पर तो एकमत हो जाइएः
किसी
भी राष्ट्रीय सवाल पर पूरा देश एकमत नहीं है। यह हमारी बहुत बड़ी कमजोरी है। क्या
इसी तरह खंड-खंड होकर हम इस देश को अखंड बनाएंगे। क्या टुकड़ों में बंटी सोच,
बांटने की राजनीति हमें एक समर्थ देश के रूप में स्थापित होने देगी ? क्या राजनीति का यह रूप हमारी राष्ट्रीय भावना के लिए चुनौती नहीं
है। आखिर हम कब समग्रता में सोचना और विविधता का सम्मान करना सीखेगें। हमारी
भाषाएं हमारी माताओं की तरह पूज्य हैं। किंतु हम भाषा की राजनीति में ऐसे उलझे हैं
कि अपनी माताओं को अपमानित करते हुए एक विदेशी पर पूरी तरह अवलंबित हो गए हैं। इस
चित्र में हाल-फिलहाल कोई बदलाव आने की संभावना भी नहीं दिखती।
एक भारत बना हुआ है तो एक नया भारत बनता हुआ
दिखता है। देश की राजनीति और समाज जीवन में एक नया दौर प्रारंभ हो गया है। उसे
भटकाने के लिए, मुद्दों से अलग करने के लिए तमाम ताकतें नए सिरे से लगी हैं।
उन्हें एक भारत- समर्थ भारत पसंद नहीं है। वे आपस में लड़ता हुआ, टूटता हुआ, कमजोर
भारत चाहती हैं। वे चाहते हैं कि भारतीयता अपमानित हो और दुनिया हम पर हंसे। किंतु
उनके सपने थक रहे हैं, वे चूक रहे हैं। भारत से भारत का परिचय हो रहा है। वह एक
नए सपने की दौड़ लगा रहा है। वह मानवता को सुखी करने और दुनिया को शांति-सद्भाव का
पाठ पढ़ाने की अपनी विरासत की ओर देख रहा है। भारत को पता है वही है जो
सह-अस्तित्व के मायने जानता है। वह अकेला है जो जिसका मंत्र ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ है,
वही है जो कह सकता है जो कह सकता है कि ‘सर्वे
भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामया’। वही है जो कहता है ‘मैं ही
नहीं तू भी’। यह तिरस्कार का नहीं स्वीकार का दर्शन है।
पीड़ित मानवता को सुखी बनाने का दर्शन है। इसलिए दुनिया के सामने भारतीय एक तेजोमय
विकल्प बनकर उभर रहा है।
सच होंगें विवेकानंद के सपनेः
भारत का समाज, उसकी संस्कृति और परिवार व्यवस्था
आज दुनिया के सामने एक सार्थक जीवन के विकल्प के रूप में दिखते हैं। अपनी विरासतों
और अपने साहित्य पर गर्व करता यह समाज अनेक कमजोरियां से घिरा है। वह विस्मृतियों
के लोक में है। वह भूल चुका था वह क्या है। आज फिर भारत खुद को याद कर रहा है,
अपना पुनर्स्मरण कर रहा है। अपने वैभव को पुनः पाने को आतुर है। ऐसे समय में
विरोधी ताकतें हताशा में हैं। वे ऐसा होते हुए देखना नहीं चाहतीं। उन्हें लग रहा
है कि उनके सतत प्रयासों, षडयंत्रों के बावजूद आखिर क्या हो रहा है। क्या महर्षि
अरविंद, स्वामी विवेकानंद के वचन सत्य होने वाले हैं? अगर हो जाएं तो आखिर आप कहां जाएंगे? किंतु
घबराइए मत इस भारत में आप अपनी व्यापक असहमतियों के बावजूद भी सुरक्षित हैं। यही
विचार है जो विरोधी को समाप्त करने में नहीं उसे साथ लेने के लिए, संवाद के लिए
आतुर है। ऐसे समय में भारत से भारत का परिचय हो रहा है तो होने दीजिए... बाधक मत
बनिए। क्योंकि यह परिर्वतन तो होगा, आप नहीं चाहेंगें तो भी होगा।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय,
भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)
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