Wednesday, December 15, 2010

कविता - साहित्य सेवा

साहित्य सेवा


- राकेश ‘नवीन’, पुदुच्चेरी ।


तुम्हें साहित्य की सेवा करनी है, करो !
मुझे नहीं करनी ।
मुझे तो साहित्य से धन अर्जित करना है ।
मुझे तो भावनाओं का भ्रम पैदाकर
लोगों के हृदय में जगह पानी है
और जेब के पैसे ।
अरे ! तुम समझते नहीं
आज के चर्चित वादों में
खूब बोलता हूँ ।
मुँह बदल बदलकर ।
क्या पता कब किसका पुरोहित बन जाऊँ
उसके कर्मकांडों के तरण-तारण के लिए ।
अरे ये वाद, विमर्श तो
समयानुसार बहते हुए बयार हैं
पीठ करोगे तो धक्का खाओगे
मुँह करोगे तो हवा पाओगे ।
साहित्य तो बरगद के वृक्ष की तरह है
आए दिन नए सोर उपजते हैं
अब दो-चार मैंने काट ही लिये ।
तो क्या बुरा ।
तुम करो, खूब करो
भैया, मुझे नहीं करनी है
साहित्य सेवा ।

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