अपना सपना
अपना वचन मंत्र-समान
निद्रा में भी निज-यशोगान
कण-कण में जान-अजान
स्वार्थ का चल रहा अभियान
बुझ गई है अंतर्ज्वाला
सूख गई हृदय-सुम माला
अधरों पर अजीब-सी भाषा
अनवरत बढ़ रही अतृप्त पिपासा
सजल नहीं होते नयन
चतुर्दिक फैल गया सूनापन
सच, मानव मानें तन-मन
मगर, छा गया निस्पंदन
आँखें मूंद कर
सदियों की लीक पर
चलने का यह चक्कर -
सोचते नहीं क्यों क्षण-भर ?
***
नगर
कितना क्रूर है यह नगर ?
कितना निष्ठुर है यह शहर ?
रसमय जीवन के प्रति
वह सचमुच अंधा है
सुम-सदृश चित्त को भी
वह बनाता गंदा है
कहीं भी देख तू,
चलते-फिरते शव हैं
बस, नाम के वास्ते
वे कहलाते मानव हैं
अधरों पर मधुर हास है
बातों में बहुत मिठास है
मगर, मन ही मन
खून की अबुझ प्यास है
अर्थ-हीन व्यर्थ यान है
पंख-हीन यह उड़ान है
मृत्यु-सा जीवन, किसका दान है ?
बता दो, इसका क्या समाधान है ?
***
Saturday, May 15, 2010
उप्पलधडियम वेंकटेश्वरा की दो कविताएँ
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment