नारी
- कवि कुलवंत सिंह
सौंदर्य भरा अनंत अथाह,
इस सागर की कोई न थाह .
कैसे नापूँ इसकी गहनता,
अंतस बहता अनंत प्रवाह .
ज्योति प्रभा से उर आप्लावित,
प्राण सहज करुणा से द्रावित .
अंतर्मन की गहराई में,
प्रेम जड़ें पल्लव विस्तारित
सरल हृदय संपूर्ण समर्पित,
कण- कण अंतस करती अर्पित .
रोम - रोम में भर चेतनता,
किया समर्पण, होती दर्पित .
प्रणय बोध की मधुरिम गरिमा,
लहराती कोंपल हरीतिमा .
लज्जा की बहती धाराएँ,
रग-रग में भर सृस्टि अरुणिमा .
जीने की वह राह दिखाती,
वेदन को सहना सिखलाती .
अखिल जगत की लेकर पीड़ा,
प्रीत मधुर हर घड़ी लुटाती .
प्रीतम सुख ही तृप्ति आधार,
उसी में ढ़ूँढ़े जग का प्यार .
पुलक-पुलक कर हंसती मादक,
प्रेम पाये असीम विस्तार .
आँखों में भर चंचल बचपन,
सरल सहज देती अपनापन .
राग में होकर भाव विभोर,
सर्वस्व लुटाती तन-मन-धन .
अंतस कितना ही हो भारी,
व्यथा मधुर कर देती नारी .
अपना सारा दर्द भुलाकर
हर लेती वह पीड़ा सारी .
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