Wednesday, August 5, 2009

कविता




तेरे बोल

-हरिहर झा

तेरे बोल से निकले तूफ़ानों ने
ऊधम मचाये बहुत
मुँह फुलाकर
जहाँ से मुड़ गई
ऊजली चाँदनी
लम्बे केशों सी
काली पड़ गई

तू कल ही तो
बतिया रही थी
खूसट एरे गैरो से;
और तब खिल उठी थी मेरे
मन की मुरझाई लता
जब तूने बीच में ही मोड़ दी
शीतल धार मेरी ओर
कलकल नदी की हवाओं में
तू उमंग में भर कर
फुदक रही थी
एक रंगीन चिड़िया की तरह
इन बाहों की
टहनियों पर ;
चेहरे पर चटकीले रंग देख कर
मैं मुस्काया, पुलकित भी हुआ
कि
फिर अचानक दो लाल वेषधारी
होंठों के पीछे बत्तीस की टीम
गले की गुफा से निकलती जुबान का हमला
दिमाग की नसों को ऐसा दबोचा
कि झटका खा गई
मेरे हौसलों की दीवारें ;
झुक गई बुलन्दियाँ मीनारों की
चल गया बुलडोज़र ऐसा
कि मैं कुछ ढूंढता रहा मलबे में ।

1 comment:

IMAGE PHOTOGRAPHY said...

सुन्दर अभिवयक्ति व रचना