Monday, July 13, 2009

व्यंग्य



रैली और बंद



- आर.के. भँवर




सड़क पर तिल धरने भर की जगह न थी। जब से वाहनों की खरीद किश्तों पर होने लगी या फिर आदमी में कर्जदार कहलाने की महत्वाकांक्षा पनपी, तब से दोपहिया और चौपहिए वाहनों की संख्या में मजीद इजाफा हुआ। फटफटियों, स्कूटरों और रंगरंगीली कारों और सायकिलसवारों समेत ग्यारह नंबरी सवारियों, ठेलों और रिक्षों के कारण सड़कों पर करोड़ों किलों की पसेरी का वजन हो जाता है। जो जहां है, वहीं से खिसक रहा है। चाहे या न चाहे, खिसकेगा तब भी। एक महाशय सरकार को कोस रहे थे कि अंधी है वह और बहरी भी। रैलियों से आम जनता को कितनी किल्लत होती है। दूसरा जिससे वो महाशय इरशाद लेना चाह रहे थे, तटस्थ भाव से मुंह घुमा लिया जैसे कह रहा हो, अपन की आदत में ये सब चलता है। दरअसल एक राजनैतिक पार्टी का बाजार बंदी की रैली रेंग रही थी।

आये दिन बंद, रैली, धरना, प्रदर्शन जैसे आयोजनों से सभी देश के प्रति अनिष्क्रिय लोगों को जूझना पड़ता है। ऐसे ही आम जनता की दिक्कतों को एक प्रदेश के मुख्यमंत्री, सुविधा के लिए प्रदेश का नाम कुतर प्रदेश और उसके मुखिया का नाम कठोर सिंह रख लेते हैं, से कल्पना में बतियाने का मौका मिल गया । जो बात हुई उसे मिश्राम्बु बनाये बिना पेश कर रहा हूं।

मान्यवर, आपको नहीं लगता है कि विपक्षी दलों द्वारा रैलियां, धरने और प्रदर्शन करने से आम जनता को काफी भुगतना पड़ता है।
देखिए, आम जनता में मैं भी आता हूं। मुझसे ज्यादा कौन उसका दर्द जान सकता है। दरअसल ये एक प्रकार का ध्यानाकर्षण ही है। गांधीजी होते तो इसे सत्याग्रह की संज्ञा देते।
आपके विचार में इससे जनता का नुकसान नहीं हो रहा ?
यह किसने कहा ? जनता इसे इंजाय कर रही है। कल हम विपक्ष में जायेंगे तो हम भी वही करेंगे जो विपक्षी दल अब कर रहे हैं। करनी और कथनी एक सी ही तो होनी चाहिये। एक बात और भाई, रैलियां थके हारे व्यक्ति का मनोरंजन करती है, उन्हें दिल खोल कर हंसने का मौका भी देती है।
जनता चाहती है विकास। क्या इससे उसकी ठगी नहीं हो रही ?
देखो भई विकास तो हो ही रहा है। इन गतिविधियों से हमारी जनता का मनोरंजन और टाईम पास होता है।
और बंद ?
हां बंद से निरंतर काम के बाद दुकान की शटर गिरा कर व्यक्ति को आराम मिलता है। आराम से तो आप जानते ही है कितने कष्ट मिटते हैं। दुकान के कर्मचारी अपने बच्चों को साथ लेकर चौराहों पर चाट चाटते हैं, जू में भालू, बंदर, लकड़बग्घे और भेड़िये देखते हैं। इस दिन कितने ही लाले घर पर रहते हैं। इससे घरवालियों की खुशी का हर काम कर सकते हैं।

देखिये आबादी तो बढ़ी ही है। ऊपर से आये दिन रैलियों से सड़कों पर चलना मुश्किल हो गया है। कोई वक्त से अस्पताल नहीं पहुंच पाता तो कोई बेरोजगार इंटरव्यू में नहीं जा पाता है, समय से लोग अपने काम पर नहीं पहुंच पाते। क्या आप अब भी नहीं मानते हैं कि इससे दिक्कतें बेतहाशा बढ़ी हैं ?
नो दृ आप गैरजरूरी दबाव बना रहे हैं। मैं कैसे मान लूं। आबादी बढ़ाने में सरकार का क्या रोल। आप चाहते हैं कि सरकार औरत आदमी को हमबिस्तर होने से रोकने का कानून बनाये, क्यों करे ऐसा भाई ? कितनी ही कारगिलें होंगी, तो कौन लड़ेगा उस वक्त ? रैलियां और बंद प्रदेश के विकास में कहीं किसी कोने से बाधक नहीं है। जन्म-मृत्यु के समीकरण को आप क्या नहीं जानते हैं। भगवान कृष्ण ने कितनी बार ये कहा है कि समय जिसका आ धमका, उसे तो जाना ही पड़ेगा। अब आप खामखाँ हमारे पर आप सत्याग्रही दोष मढ़ रहे हैं। ये न होते तो भी मरने वाले को मरना ही है। अमरौती का पाउच लेकर तो आता नहीं है कोई ! यह भी अब सुन लीजिए इस समय मैं बहुमत में नहीं हूं। मेरी सरकार बहुमत में आयेगी तो विधेयक लायेंगे कि प्रत्येक पार्टी एक साल में कितने बंद और कितनी रैलियां करेगी। अ ... ह ... हा .. हा .... बाकायदा शासनादेश लायेंगे।

मैंने कहा - सर, एक समय ऐसा भी आ सकता है कि रैलियों के लिए मुद्दें ही न हो।

हो ही नहीं सकता। जब हम राजनीति में आते हैं तो मुद्दों के साथ आते हैं और ज्यादा से ज्यादा गढ़े जा सकें, इसके लिए चैन नहीं लेते। अपने प्रथम प्रधानमंत्री जी ने ठीक ही कहा था न .... कि आराम हराम है। बुद्धिजीवी भी थे न ... वे।

मैंने कहा - बुद्धिजीवी ?

हां आज बुद्धिजीवी स्वयं में एक मुद्दा है। वह बुद्धि की खाता है और दिल से फटीचर रहता है। उसके पैरों में कोई शनीचर न रहे इसलिए हम पहले से ही थोक के भाव में उसके मुद्दे उगा लेते हैं।

तो आप मानते हैं कि बंद और रैलियों से आम जनता को कोई तकलीफ .....

बात काटते हुए बोले वह - ये कहां हम कह रहे हैं। कि तकलीफ नहीं होती है, वो भी आप जैसों को। और आप आम जनता नहीं हैं। आम जनता तो रैलियों में आती है, भूलभुलैया और इमामबाड़ा देखती है, चकाचक राजधानी को देखकर विकास कार्यों का जायजा लेती है।

तो रैलियों में आने वाली ही आम जनता होती है ?

आम जनता, बड़ा अच्छा सवाल किया है तुमने। बहुत खूब। दरअसल आम जनता थके-हारे सर्वहारा लोगों का पर्याय है जो क्रांति से पूर्व शांतिपूर्वक प्रदर्शन में विश्वास रखते हैं। लोकतंत्र में गहरी आस्था रखने वाला ही आम आदमी होता है। इसलिए आम आदमी वाणी की स्वतंत्रता और विरोध का अधिकार रखती है। अब समझे, आप ।

कहते हैं कि आम जनता को ढोने के लिए बसों का प्रबंध भी आपने किया है ?

कौन कहता है, समझ गया, ये सब विरोधियों का मिथ्या प्रचार है। पार्टी फंड आम जनता ही बनाती है और पार्टी फंड से इन्हें इनके संवैधानिक अधिकारों की लड़ाई लड़ने के लिए यहां लाया जाता है, तो इसमें बुराई क्या ?

कोई बुराई नहीं है, यदि पार्टी उनकी है तो फंड भी उनके कल्याण के लिए ही होता है। पर अभी एक सवाल अनुत्तारित है, वह यह कि आम आदमी आपकी नजरों में क्या है ?

आम आदमी, ओफ्फो भैये, जिसे भूलने और माफ करने की लाईलाज बीमारी हो। यह उनकी झुंझलाहट थी।

तुरंत ही महसूस किया मैंने कि आगे और सवाल करने में ये मुझे कागभुसुंडी बना देगा। अब इसके पेट का कारखाना भी खुराक लेने की फिराक में लगता है। तो वेलकम वाला जूटिया पांवपोंछ प्रसाधन बदशक्ल करता हुआ फुटपाथ पर आ खड़ा हुआ। देखता रहा कि सिर्फ तैंतीस परसेंट पाने के लालच में अंगप्रत्यंग का भरपूर इस्तेमाल करती ये रंगबिरंगी रैलिया-महिलायें भविष्य के प्रति कितनी चिंतित थीं।
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1 comment:

Divya Narmada said...

उपयोगी-सामयिक लेख.

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