पठनीय दोहा संग्रह : 'झुकता है आकाश'
- आचार्य संजीव 'सलिल'
विश्व-वाणी हिंदी के सनातन कोष में 'दोहा' एक ऐसा जाज्वल्यमान काव्य-रत्न है जिसकी कहीं किसी से कोई तुलना नहीं हो सकती. बिंदु में सिन्धु को समाहित करने की क्षमता रखनेवाला लह्ग्वाकारी छंदराज दोहा अपनी मर्मस्पर्शिता, क्षिप्रता, बेधकता, संवेदनशीलता, भाव-प्रवणता, सहजता, सरलता, लय-बद्धता, गेयता, लोकप्रियता तथा अर्थवत्ता के एकादश सोपानों पर आरोहित होकर जन-मन का पर्याय बन गया है.
हिंदी के समयजयी पिंगल-शास्त्र के अनूठे छंद 'दोहा; ने चिरकाल से शब्द्ब्रम्ह आराधकों को अपने आकर्षण-पाश में बाँध रखा है. दोहा के दुर्निवार आकर्षण पर मुग्ध संस्कृत, प्राकृत, डिंगल, अपभ्रंश, शौरसेनी, अंगिका, बज्जिका, मागधी, मैथिली, भोजपुरी, बृज, बुन्देली, बघेली, छत्तीसगढ़ी, हरयाणवी, मारवाडी, हाडौती, गुजराती, मालवी, निमाड़ी, मराठी तथा उर्दू के साथ अब बांग्ला, कोंकणी, मलयालम, कन्नड़, तमिल, कठियावाडी, सिरायकी, डोगरी, असमी, अंग्रेजी भी दोहा की विजय पताका थामे हुए हैं.
दो पद, चार चरण, ४८ मात्राओं के संयोजन से आकारित दोहे के २३ विविध प्रकार हैं जो लघु-गुरु मात्राओं की घट-बढ़ पर आधारित हैं. शताधिक बार दोहा ने इतिहास की गति व् दिशा को प्रभावित तथा परिवर्तित कर लोक-कल्याण का पथ प्रशस्त किया है. ऋषि-मुनि, साधु-संत, पीर-ककीर, विप्र-वनिक, स्वामी-सेवक, रजा-प्रजा, बाल-युवा, स्त्री-पुरुष, रागी-विरागी, धनी-निर्धन, मोही-निर्मोही अर्थात समाज का हर वर्ग दोहा को अपनी आत्माभिव्यक्ति का साधन बनाकर धन्यता अनुभव करता रहा है.
दोहकारों की चिर-चैतन्य, जाग्रत-जीवंत संसद में मालवा की माटी की सौंधी सुवास, क्षिप्रा और नर्मदा के सलिल की मिठास, गणगौर के लोक पर्व की मांगल्य भावना, लोक-गीतों का सारल्य, गाँवों का ठहराव, शहरों की आपाधापी, राजनीति की विषाक्तता, जनगण की वितृष्णा और तमाम विसंगतियों के संत्रास में भी जयी होते आशा-आकांक्षा के स्वरों की अनुगूंज को अपने सृजन कर्म के माध्यम से प्रबलतम और प्रखरतम बनाने का प्रणम्य योगदान कर भाई प्रभु ने प्रवेश किया है. राजनीति शास्त्र, हिंदी व् ज्योतिष में दखल रखनेवाले प्रभु जी ने जीवन बीमा अधिकारी के रूप में समाज के विविध वर्गों से तादात्म्य स्थापित कर उनकी मानसिकता, सोच, अपेक्षाओं, आशाओं-हताशाओं से साक्षात् कर अपने मानस में उसी तरह रख लिया जैसे कुशल कुम्हार अच्छी मिट्टी को रख लेता है. समय के पाद-प्रहारों और अनुभवों के कठोर करों ने शब्द, भाव, रस, बिम्ब लय, प्रतीक और सत्य के कथ्य को दोहाकारित कर दिया है जिसके लालित्य पर हम सब मुग्ध हैं.
दैनंदिन जीवन की जटिलताओं, भग्न होते स्वप्नों, दूर होते अपनों और विघटित होते नपनों की व्यथा-कथा कहते दोहे तपते आकाश में पर तौलने की जिजीविषा भी जगाते हैं. गिरकर उठाने की आकाँक्षा, खाली हाथों जाने के परम सत्य को जानते हुए भी साँसों के सफ़र के लिए कुछ पाथेय जुटा लेने की कामना, अपने से पीछेवाले को आगे न जाने देने-बराबरीवाले से आगे निकलने और आगेवाले को पीछे छोड़ने की जिद, पिछले मोड़ पर कुछ नया न घटने के बाद भी अगले मोड़ पर कुछ अघटित घटने का औत्सुक्य, निष्कलुष शैशव की खिलखिलाहट, कमसिन-किशोरों की भावाकुलता, तारुण्य का हुलास, यौवन का उल्लास, प्रौढ़ता का ठहराव और वार्धक्य की यत्किंचित कटु वीतरागिता के विविधवर्णी फूलों को दोहा के गुलदस्ते में सजाये प्रभु जी माँ शारदा के चरणों में अर्पित कर रहे हैं.
'झुकता है आकाश' के ५१ सर्गों में १०-१० दोहा-मणियों को गूँथते हुए दोहाकार ने यह मनोरम छंद-माल तैयार की है. मालवि के ही नहीं सकल हिंदी साहित्य-जगत के गौरव बालकवि बैरागी जी, शिखर दोहाकार-गीतकार-मुक्तककार-गजलकार अग्रज्वत चंद्रसेन 'विराट', बहुआयामी सृजनधर्मी भाई सदाशिव 'कौतुक' आदि के सत्संग का सौभाग्य पा रहे प्रभु जी का आदि दोहा संग्रह संभावनाओं का नया दीपक जला रहा है.
प्रभु जी के रचनाकार की प्रतिबद्धता शाश्वत मूल्यों की सनातनता और आम आदमी की शुभ-संकल्पमयी प्रवृत्ति को उद्घाटित कार्नर के प्रति है. उन्हीं के शब्दों में- ''मैं आश्वस्त हूँ सामाजिक समरसता, सद्भाव व सहिष्णुता के प्रति और इस तथ्य का पक्षधर हूँ की अँधेरा अधिक समय तक नहीं रहता.''
'झुकता है आकाश' का श्री गणेश राजनैतिक विद्रूपता और पाखंड को उद्घाटित करते दोहों से हुई है.
देश रहे बस ध्यान में, मिटें दलों के भेद.
संसद की दीवार पर, लिख दो इसे कुरेद..
जाति-धर्म के नाम पर, घर-घर भड़की आग.
जिसको देखो डस गया, राजनीति का नाग..
लंगडे-लूले मिल गए, कौन बताये खोट?
सुबह-शाम पहुँचा रहे लोकतंत्र को चोट..
देश रहे बस ध्यान में, समय चक्र की क्रूरता, सरे दल रचते रहे, धवल चाँदनी सी सजे, लोकतंत्र के रूप का, राजनीती में अब नहीं , लगा मुखुअता हंस का तथा भूल गए इतिहास को शीर्षक ८ अध्यायों में प्रभु जी ने सामयिक पारिस्थिक वैषम्य को इंगित करते हुए जन तथा जनप्रतिनिधियों दोनों को सचेत करने का कवि धर्म निभाया है.
चुनौतियों से बिना घबराए, सतत प्रयास से जयी होने का संदेश देते हुए दोहाकार प्राची से ऊषा करे, आलोकित आकाश में, पंछी का ये घोंसला शीर्षक अगले अध्यायों में उज्जवल भविष्य का संकेत करते करता है.
कलरव पंछी को दिया, मिली फूल को गंध.
यत्र-तत्र-सर्वत्र हैं, दाता के अनुबंध..
सूरज की पहली किरण, भरती मन-उल्लास.
कली बदलती फूल में, जीवन में विश्वास..
बैठा है चुपचाप क्यों, चेत सके तो चेत.
समय-चक्र रुकता नहीं, ज्यों मुट्ठी में रेत..
विषमताओं को जीतकर जीवन में छाते उल्लास की छटा है होली के हुडदंग में, वसन सभी गीले हुए, मौसम चढा मुंडेर पर, ताजमहल से झाँकता आदि अध्यायों में.
दर्पण में छबि देखकर, रतिका मत्त गयंद.
भीगे तन पर ज्यों लिखे, मादकता के छंद..
सरसों फूली खेत में, खिलता देख पलाश.
दोनों ही के खाव को समझ गया आकाश..
कोयल कूके डाल पर, सरसों फूली खेत.
टेसू खिलकर दे रहा फागुन के संकेत..
मौसम खिला मुंडेर पर, लिखता मोहक छंद.
धुप सुहागिन फागुनी, बाँटे मधु मकरंद..
इन दोहों में दोहाकार ने चाक्षुष बिम्बों को चिरन्तन प्रतीकों में ढालकर दोहों को सार्थकता दी है. सफलता और सुख का आधिक्य विलासिता को जन्म देता है. इसे इंगित करता कवि अगले अध्यायों में भोग के आधिक्य से बचने का संकेत करता है.
प्रेम-ग्रन्थ वो लिख गए, नजर डालकर एक.
पृष्ठ खोलकर प्यार के, हमने पढ़े अनेक..
गाँव की याद में विकल कवि को महानगर नहीं सुहाता-
मन-पंछी भी चाहता, चलें गाँव की ऑर.
पनघट-पनिहारिन जहाँ, और प्रेम की डोर..
ग्रामीण पृष्ठभूमि के इन सरस दोहों में समाये माधुर्य का आनंद लें-
अल्हड अलसी पूछती, सरसों से ये बात.
चकवा-चकवी जागते, क्योंकर सारी रात..
रूप-रंग का छा गया, अबके बरस बसंत.
नतमस्तक सब हो गए, धूनीवाले संत..
मौसम चढा मुंडेर पर, लिखता मोहक छंद.
धूप सुहागिन फागुनी, बांटे मधु मकरंद..
सरसों फूली खेत में, खिलता देख पलाश.
दोनों के ही भाव को, समझ गया आकाश..
प्रभु जी ऐसे दोहों में अपनी प्रवीणता प्रगट कर सके हैं. इनमें सटीक बिम्ब, मर्यादित श्रृंगार, उन्मुक्त कल्पना तथा सरस सृजनात्मकता सहज दृष्टव्य है.
श्रृंगार और भोग के अतिरेक की वर्जना करता कवि दुराचार ने रच लिया, भौतिक सुख ककी छह में, दौलात्वलों के यहाँ, भय हो मन में राम का आदि अध्यायों में संयम का आग्रह करता है. यह सकारात्मक चितन प्रभु जी का वैशिष्ट्य है.
हिंदी के अमर दोहों में नीतिपरक दोहों का अपना स्थान है. प्रभु जी ने इस परंपरा का निर्वहन पूरी प्रवीणता से किया है-
अधिक बोलने से नहीं, हुआ किसी का मान.
वरना तोते आज तक, कहलाते विद्वान्..
देते रहने का सदा, मन में रखिये ध्यान.
देने से घटता नहीं दान-मान-सम्मान..
क्षणजीवी भोगवादी संस्कृति में 'ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत' की चार्वाकपंथी जीवन शैली के प्रति कवि चेतावनी देता है-
सपने में भी माँगता, कर्जा साहूकार.
कभी ख़त्म होता नहीं, ब्याज-त्याज का भार..
धूप-छाँव की तरह आते-जाते सुख-दुःख पर कवि की समदर्शी दृष्टि देखिये-
सुख की बूँदों ने किया, जब अपना सत्कार.
बैरी बनकर आ गया, दुःख पंछी है बार..
इस दोहा संग्रह के उत्तरार्ध में दोहाकार फिर सामयिक समस्याओं, विसंगतियों और विडंबनाओं पर केन्द्रित होता है, मानो एक चक्र पूर्ण हुआ...जहाँ से इति वहीं अंत...इसे जीवन चक्र कहें या प्रकृति चक्र...यह आप पर निर्भर है.
शब्द-सिपाही प्रभु शब्द-शक्ति से सुपरिचित हैं. वे कहते हैं-
खेल बड़ा गंभीर है, शब्दों का श्रीमान.
शब्दों से ही देवता, हो जाते पाषाण..
पर्यावरण की समस्या को कवि ने अपने ढंग से उठाया है-
पनिहारिन का रंज ये, कौन निहारे रूप?
ताल-तालियाँ रिक्त हैं, सूखे हैं नल-कूप..
आम्रकुंज की कोकिला, गुमसुम है भयभीत.
ज्न्गाक में दिनभर चले, आरी का संगीत..
पभु जी ने मानवीय संबंधों को लेकर भी अच्छे दोहे कहे हैं-
घर में तीरथ आपके, क्या काशी-हरिद्वार?
मात-पिता की भावना, का होता सत्कार..
शीतल मंद बयार है, सुख-सागर का रूप.
हरे नीम की छाँव सी, माँ जाड़े की धूप..
बेटी घर की आबरू, आँगन की मुस्कान.
कस्तूरी मृग जिस तरह, जंगल का अभिमान..
मिसरी जैसी घुल सके, खुशियों की बरसात.
हृदयवान के घर बसे, बहिना की सौगात..
भाभी माँ का रूप है, भाई पिता समान.
आँखें अपनी खो रही, इस युग की सन्तान..
उच्चतम न्यायालय ने जीवन में सुख चाहनेवालों को पत्नी के अनुरूप चलने की सलाह अब दी है किन्तु कवि तो इस सत्य को चिर काल से मानते आये हैं स्व. गोपालप्रसाद व्यास तो 'पत्नी को परमेश्वर मानो' का आव्हान कर पत्नीवाद के प्रवर्तक ही बन गए. प्रभु जी भी भार्या-वन्दन की महिमा से परिचित हैं-
पत्नी घर की मालकिन, चाबी उसके पास.
ताले में सब बंद हैं, सुख-दुःख, हास-विलास..
इस संग्रह के दोहों में प्रभु ने भाषिक औदार्यता को अपनाया है. वे जाय, छाय, फ्रीज (फ्रिज), पशु (पशु), नय्या (नैया), आवे (आये), इक (एक), पंगु (पंगु), भय्या (भैया), बतियांय, लगांय, होय, सिखलाय, पांय, गाय(पशु नहीं), लेय, छलकाय, बौराय, पाय, सुनाय, रोय, होय, पे(पर), घबराय, प्रभू (प्रभु), कबिरा, आँय, रख्खा, समझाय,राखिए (रखिये), जाव, सुझाव जैसे शब्द-रूपों के प्रति सदय हैं. संस्कृत, उर्दू, अँग्रेजी बृज आदि के शब्द इन दोहों में हैं किन्तु मालवी-निमाड़ी का स्पर्श न होना विस्मित करता है.
पाकर फूल किताब में, गुल्बदानों के हाथ.
होंठ नहीं जो कह सके, समझ गए वह बात..
में सम चरणों में तुकांत दोष है.
'इज्जत मान-अपमान का' (१४ मात्रा) में मात्राधिक्य है. यह अपवाद स्वरूप है.
'नव वर्ष है नई सदी' का लय-दोष नया वर्ष है नव सदी' करने से दूर हो सकता है.
चन्द्र के दाग सदृश अपवादों को छोड़कर सकल संकलन दोहों के उत्तम रूप को सामने लाता है.
कवि ने जहाँ-जहाँ प्रकृति का मानवीकरण या मानव का प्रकृतिकरण किया है वहाँ-वहाँ दोहों का शिल्प निखरा है. आँगन की मुस्कान, अल्हड अलसी, चित्त चकोर, धूप सुहागिन, हवा निगोड़ी, देह हुई कचनार, प्यासी धरती, सुबह सलोनी, प्रकृति नटी, बेटी कोमल फूल सी, मन पंछी, प्रेम ग्रन्थ, प्रेम पुष्प आदि प्रयोग पाठक के मन को बाँधते हैं.
श्रृंगार, शांत, वात्सल्य, भक्ति, करुण रसों की उपस्थति इस संग्रह में है किन्तु हास्य, वीर, वीभत्स, अद्भुत या भयानक अनुपस्थित हैं. व्यंग भी कहीं-कहीं मुखर हुआ है.
दीवारों के कान, आँगन की लाज, खून बहाना, कोल्हू का बैल जैसे मुहावरों और उलटबांसियों का प्रयोग दोहों को जीवन्तता प्रदान करता है.
कवि ने शब्दालंकारों और अर्थालंकारों दोनों का कुशलता से प्रयोग किया है. कवियों में सर्वाधिक लोकप्रिय अनुप्रास में वृन्त्यानुप्रास तथा लाटानुप्रास नहीं है किन्तु दोहा के छंद-विधान-बंधन के कारण सम तुकान्ती सम चरणान्त में अन्त्यानुप्रास सर्वत्र है. 'दीप धरो उस द्वार पर', 'निकल पड़ा दिनमान', किसका चलता जोर', भारत में बाज़ार' आदि में श्रुत्यानुप्रास, है जबकि 'स्वर्ण कलश कर में लिए' में छेकानुप्रास है.
यमक अलंकार अपवादवत् 'माया ने माया रची' में है. श्लेष अलंकार -'कली बदलती फूल में' में है जहाँ कली तथा बेटी के बढ़ने के दो अर्थ मिलते हैं.
प्रभु जी उपमा तथा रूपक अपेकशाकृत अधिक प्रिय हैं.
पूर्णोपमा - दुल्हिन सी लिपटी रही, बेल प्रेम के साथ, हुए कागजी फूल सम आपस के सम्बन्ध, जल जैसा निर्मल रहे, ऐसा व्यक्ति महान आदि में है, जहाँ उपमेय, उपमान, साधारण धर्म तथा वाचक शब्द सहज दृष्टव्य हैं.
'सोने जैसी रात', मतदाता से मिल रहे जैसे भारत मिलाप, तथा 'पल-पल भरता आह सा' आदि में उपमान लुप्तोपमा है. 'मरहम जैसी बन गयी यह पहली बरसात' तथा 'हवा निगोडी यूं चले ज्यों बिरहा के तीर' में धर्म लुप्तोपमा है. लालच-गैया, प्रेम-प्यार की बेल, खुशियों का मधुमास, यादों के मेहमान,तन-मन का भूचाल, मन-मौर, बर्बादी के किवाड़, मन तेरा आकाश, समय-चक्र आदि में रूपक की छटा है.
'खाली बर्तन हो रहा इस युग का इन्सान', दर्पण में छवि देखकर, खुद है रतिका दंग' तथा 'समाया गवाही दे रहा' आदि में उत्प्रेक्षा है.
प्रभु त्रिवेदी जी के ये दोहे मन को स्पर्श करते है तथा तथ्य-कथ्य को पाठक तक पहुँचा पाते हैं. दोहाकार का सकारात्मक चिंतन उज्जवल भविष्य को संकेतित करता है-
स्वर्ण-कलश कर में लिए निकल पड़ा दिनमान.
दिशा-दिशा सुख बाँटता, यही महा अभियान..
दीप धरो उस द्वार पर, जहाँ अभी अँधियार.
संभव है इस रीत से जगमग हो संसार..
प्रभु जी का यह प्रथम संकलन अपने गुणवत्ता से अगले संकलन की प्रतीक्षा करने के लिये प्रेरित करता है. इस अच्छी कृति के लिए वे बधाई के पात्र हैं.
कृति- झुकता है आकाश,
विधा- दोहा संग्रह,
कृतिकार: प्रभु त्रिवेदी,
आकार- डिमाई,
आवरण- सजिल्द-बहुरंगी,
पृष्ठ- ११८, मूल्य- १५०रु.,
प्रकाशक- नमन प्रकाशन, दिल्ली,
कृतिकार संपर्क- १११ राम-रहीम उपनिवेश, राऊ, इंदौर, दूरभाष- ०७३१-२८५६६४४, चलभाष- ९४२५० ७६९९६, चिटठा- ह्त्त्प://प्रणम्यसाहित्य.ब्लागस्पाट.कॉम, ई डाक- प्रभुत्रिवेदी२१@जीमेल.कॉम" href="http://mail.google.com/mail/h/unlpnaq8a752/?v=b&cs=wh&to=प्रभुत्रिवेदी२१@जीमेल.कॉम)