Thursday, May 14, 2009

नव-गीत

नव-गीत

- आचार्य संजीव सलिल, जबलपुर ।

कहीं धूप क्यों?,

कहीं छाँव क्यों??...

सबमें तेरा

अंश समाया,

फ़िर क्यों

भरमाती है काया?

जब पाते तब-

खोते हैं क्यों?

जब खोते

तब पाते पाया।

अपने चलते

सतत दाँव क्यों?...

नीचे-ऊपर,

ऊपर-नीचे।

झूलें सब

तू डोरी खींचे,

कोई डरता,

कोई हँसता।

कोई रोये

अँखियाँ मींचे।

चंचल-घायल

हुए पाँव क्यों?...

तन पिंजरे में

मन बेगाना।

श्वास-आस का

ताना-बाना।

बुनता-गुनता

चुप सर धुनता।

तू परखे,

दे संकट नाना।

सूना पनघट,

मौन गाँव क्यों?...

***

1 comment:

अजित गुप्ता का कोना said...

श्रेष्‍ठ रचना, आचार्य जी।