‘रेत समाधि’ : कथानक, भाषा-शिल्प एवं अनुवाद
- दिनेश कुमार माली
तालचेर, ओडिशा
कथानक :-
महर्षि पतंजलि के 'योगसूत्र' में मनुष्य के पूर्ण कल्याण तथा शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शुद्धि के लिए अष्टांग योग (आठ अंगों वाले योग)
का मार्ग विस्तार से बताया है। योग के ये आठ अंग हैं: यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा,ध्यान और समाधि। ध्यान की उच्चतम अवस्था होती है समाधि।
निर्विकल्प और सविकल्प। इस उपन्यास में समाधि का साधारण भाषा में दूसरा अर्थ भी
लिया गया है, जैसे अक्सरतया यह कहा जाता है कि अमुक महात्मा ने वहां समाधि ली या अमुक महात्मा की समाधि वहाँ खुदी हुई है या बनी
हुई है। खासकर पौराणिक या उदात्त चरित्रों की मृत्यु को महिमा-मंडित करने के लिए
इस समाधि शब्द का सम्मान के अर्थ में प्रयोग किया जाता है, उदाहरण के तौर पर राम
भगवान ने सरयू नदी में जल समाधि ली, यह नहीं कहा जाएगा कि उन्होंने आत्महत्या की।
‘रेत समाधि’ उपन्यास में समाधि शब्द का अभिनव प्रयोग हुआ है
क्योंकि रेत में घुसकर कोई साधु-संत या महात्मा समाधि नहीं लेते हैं। यह दूसरी बात
है, हो सकता है, उनकी मृत्यु के बाद उन्हें वहाँ गाड़कर ऊपर रेत डाल दी जाए। इस
उपन्यास में देश विभाजन के दौरान थार मरुस्थल में आने वाली आंधी, रेतीले तूफान,घूर्णावृत
आदि की वजह से पाकिस्तान से ट्रक भर भरकर लाई गई हिन्दू लड़कियों को थार के असीम रेत समुंदर में दफन
होने की दास्तान का सजीव वर्णन है। रेत के समुद्र में जल नहीं है, केवल रेत ही रेत
है, इसलिए उपन्यासकार ने ‘जल समाधि’ शब्द का प्रयोग जान बूझकर नहीं करते हुए ‘रेत
समाधि’ शीर्षक हेतु शब्द चयनित किया है।
भाषा और संस्कृति के दृष्टिकोण से अगर देखा जाए समाधि विशिष्ट
संस्कृति का परिचायक है,जो अननुवाद्य शब्द है, अतः इसका अनुवाद Tomb न होकर समाधि रहना
ज्यादा उपयुक्त है।
Tomb किसी दरगाह,कब्रिस्तान या मकबरे की याद दिलाता है, जहां मुस्लिम
संप्रदाय के मुर्दों को गाढ़ा जाता है और
उनकी याद में यथाशक्ति कब्र, मीनार या महल बनाया जाता है। इस वजह से Tomb से न तो समाधि की तरह ध्यान की उच्चतम अवस्था की संकेत मिलता है और
यह भी जरूरी नहीं है कि समाधि में बैठा हुआ कोई पुरुष या योगी मुर्दा लाश ही हो,
क्योंकि समाधि टूटने पर वह अपनी सामान्य
अवस्था में लौट आता है,जबकि Tomb से क्या कभी कोई मुर्दा जीवित लौटा है?
सांस्कृतिक पार्थक्य होने के कारण या या फिर किसी संस्कृति के
विशेष शब्दों पर बौद्धिक आक्रमण की राजनीति से उनके सही अर्थ नहीं मिलने की वजह
उनके लगभग समतुल्य शब्दों का प्रयोग किया जाता है, उससे उस शब्द का महत्त्व
धीरे-धीरे क्षीण होता जाता है।
‘रेत समाधि’ उपन्यास भारत-पाकिस्तान विभाजन पर आधारित है। यह
विभाजन 1947 में हुआ था तो यह सवाल उठना लाजमी है कि क्या उपन्यासकार ने
भारत-पाकिस्तान विभाजन के वे दृश्य अपनी
आंखों से देखे हैं या खुद भोगे हैं? उत्तर मिलेगा, नहीं। उपन्यासकार का जन्म देश विभाजन के लगभग एक दशक बाद हुआ और फिर
विभाजन के सात दशक बाद उन भूली-बिसरी स्मृतियों को कुरेदने के पीछे क्या सार्थकता
रही होगी-- इस तरफ ध्यान जाना ज्यादा जरूरी है।
मानवता का संदेश देने या भारत-पाकिस्तान के विलय के वातावरण तैयार करने या भारत
में हो रहे हिंदू मुस्लिम झगड़ों को शांत करने की पहल करने या अपनी गुरु कृष्णा
सोबती के प्रति सम्मान व्यक्त करने हेतु उन्होंने इस उपन्यास की रचना की। जो भी
कारण रहे हो, यह सत्य है यह उपन्यास अतीत के इतिहास
को पूरे तरीके से झकझोर देता है, पुराने जख्मों को
ताजा करता है और वर्तमान पीढ़ी को अपनी पूर्व पीढ़ी के संघर्षों,यातनाओं,प्रताड़नाओं की याद दिलाता है। मानवीय
धरातल पर बहुत कुछ कह जाता है यह उपन्यास। धर्म,जाति, संप्रदाय और सीमा रेखा से कोसों दूर
भभक उठती है प्रेम की एक अनोखी महक। राजनेताओं ने धर्म के आधार पर समाज में घृणा
भाव पैदा कर अलग-अलग देश बांटे, लोगों को ऐसे बांटा
मानो वे अलग-अलग देश हो। देश की सीमा लोगों को जोड़ने का काम करनी चाहिए, समन्वय का काम करनी चाहिए, न कि उन्हें तोड़ने का काम। बंटवारे से पूर्व कभी पाकिस्तान वाली
जगह में हमारे देश के अग्रज रहा करते थे, आज उनसे मिलने के लिए, अपने पूर्वजों की या अपनी जन्मस्थली के दर्शन के लिए, वहाँ अपने बीते दिन, जलवायु परिवेश का सान्निध्य पाने के पासपोर्ट वीजा की जरूरत होती
है? जैसे कृष्ण सोबती की कहानी ‘सिक्का बदल गया’ में कभी अपना
शुभचिंतक रहा व्यक्ति ही कहानी के पात्र का जानलेवा दुश्मन बन जाता है, वैसे ही इस उपन्यास में भी मां को गोली मारने वाला और कोई नहीं, बल्कि अपने पहले प्रेमी अनवर का पुत्र अली अनवर ही होता है। अली अनवर मां के पुत्र के तुल्य है, वह बदल जाता है। ऐसा क्यों? क्या विवशता है? धर्म की, मान-मर्यादा की, राजनीति की, देश भक्ति की ? यशपाल के उपन्यास ‘झूठा सच’ में असद अपनी प्रेमिका तारा से शादी
नहीं कर पाता है, मगर उसे सरहद तक पहुंचाने में मदद
अवश्य करता है, वैसे ही ‘रेत समाधि’ में अनवर
अपनी प्रेमिका चंदा यानि चंद्र प्रभा, उपन्यास की प्रमुख पात्र मां से स्पेशल मैरिज एक्ट 1870 के तहत
शादी तो कर लेता है, मगर धर्म के आधार पर बंटे देश पाकिस्तान से अनवर उसे छोड़ देता है।
यह कैसा समय रहा होगा? क्या बीती होगी उन बिछड़े हुए युगलों
पर?
देश विभाजन पर आधारित साहित्य की रचना करने वाले भीष्म साहनी, बलवंत सिंह जोगिंदर पाल,मंटो, राही मासूम रजा, कृष्णा सोबती,इंतजार हुसैन,खुशवंत सिंह, रामानंद सागर, मंजूर एहेतशाम, राजेंद्र सिंह बेदी, कृष्ण बलदेव वेद, टोबा टेक सिंह, फजलदिन सभी को उपन्यासकार गीतांजलि श्री ने सम्मानपूर्वक याद किया
है और उनकी प्रमुख रचनाओं के को भी, जैसे ‘झूठा सच’,’तमस’,’सूखा बरगद’, ‘ए ट्रेन टू पाकिस्तान’, ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान, ‘जिंदगीनामा’ आदि कृतियों को
प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इस कृति में यथोचित स्थान दिया है। निस्संदेह यह कृति
लेखिका के अर्जित अनुभवों पर आधारित है, न कि स्वयं के द्वारा भोगे हुए। इस वजह से लेखिका ने ऐसे प्रमुख
पात्र की कल्पना की है,जिसने देश विभाजन से दस-पंद्रह साल
पूर्व से लेकर आज तक आधुनिक पाकिस्तान वाली जगह पर जीवन जिया हो और देश विभाजन के
बाद एक दीर्घ समय हिंदुस्तान में बिताया हो। इसके अतिरिक्त, उसका भरा-पूरा परिवार हो,बेटी-बेटा,पोता,सगे-संबंधी सभी हो।
ऐसा पात्र मिला उन्हें चंद्रप्रभा के रूप में। देश की आजादी के समय
वह तेरह-चौदह साल की स्कूल पढ़ने वाली छात्रा
रही होगी। अपने प्रेमी अनवर के साथ पाकिस्तान के बाजारों में गोश्त खाते
समय ‘ला इलाहा ईल्लल्लाह मोहम्मदुर रसूलल्लाह’ और घर आकर अपने माता-पिता के
सामने ‘ओम भूर्भुव स्व’ गायत्री मंत्र का जाप करती प्रगतिशील विचारधारा
वाली महिला थी। हिंदू और मुस्लिम धर्मभीरुता से ऊपर थी उनकी जिंदगी। मगर राजनीतिक
पलटवार ने उनकी जिंदगी में भूचाल ला दिया। हिंदू हिंदुस्तान बन गया और मुसलमान
पाकिस्तान। एक दूसरे के जानलेवा कट्टर दुश्मन। चंद्रप्रभा हिंदुस्तान लौट आई और
अनवर रह गया पाकिस्तान में ही। यद्यपि गीतांजलि श्री के उपन्यास का मुख्यपात्र माँ
फ्लैशबैक तकनीक से अपने बुढ़ापे की आंखों के लेंस उसे अपने बचपन की यात्रा करती
है।
‘पीठ’ भाग में मां सोई हुई है दीवार की ओर
पीठ किए, अपने पति की मृत्यु के बाद
अवसादग्रस्त होकर। उठ नहीं रही है, घरवाले उसे उठाने की भरसक कोशिश करते हैं तो मां की पीठ इस उपन्यास
की पृष्ठभूमि बन जाती है, जिससे यादों के अजस्र स्रोतें फूटने
लगते हैं। नहीं, नहीं उठने का कहने के बावजूद नई-नई और
अंत में वह पूरी तरह से नयी होकर उठती है। वहीं से स्वच्छंद नारीवादिता के स्वर
मुखरित होने लगते हैं।
मां के बेटे विदेशों में रहते हैं, पाश्चात्य संस्कृति में रचे-बसे; भारत और भारतीयता उन्हें रास नहीं आती है।हर चीज में बुराई नजर आने
लगती है। उनके चेहरे पर हंसी नहीं है। आधुनिक जीवन की आपाधापी में न केवल उनके
चेहरे की हंसी छीन ली है, वरन उनकी भाषा में भी अनर्गल शब्दों
की बाढ़ ला दी है। भाषा की शुद्धता और शुचिता बची नहीं रह गई। हिंदी अंग्रेजी और
देशज बाहुल्य शब्दों वाली मिश्रित भाषा में ‘फक यू’, ‘स्क्रू यू’, ‘वाऊ’, ‘ओ शिट’ ‘रेनबो चमकोड
हियर’,‘ए रेनबो चमकोइंग
दियर’,‘लंच टर्ण्ड डिनर’,’आरा हिले छपरा हिले’, ‘अरे ओ सांभा कितने आदमी थे!’, ‘माइक पर भाषण पेलते’, ‘भकोस गया’, ‘कुछ पैसा आ जाएगा
तो कोनो हर्ज नहीं’, ‘हाथ तेज चलेब ही
करबे’, ‘चिल्ल ग्रेनी
बुगीवुगी’, ‘ मैलिआ दे’, ‘लिंगेमरमर’, ‘अटकलपच्चू’,’गेंदतड़ी’ जैसे अनेक वर्तमान
की बोलचाल की भाषा के शब्दों का भरपूर प्रयोग हुआ है। अनेकता में एकता वाले युग का
शब्द भंडार! एक जगह तो गीतांजलि श्री ने लगभग दो पेज एक ही सांस में बिना रुके लिख
डाले अर्थात् न कहीं अर्धविराम, न कहीं पूर्णविराम, न कोई संबोधन सूचक और नहीं विस्मयादि बोधक चिह्न!! ऐसा प्रयोग
मैंने तो अपने जीवन में पहली बार हिंदी भाषा में देखा हो सकता है और लगता है कि
भाषा के माध्यम से आधुनिक जमाने की जटिलता को प्रकट करने के लिए लेखिका ने यह जोखिम भरा कदम उठाया हो।
मगर पाठक तो अपने हिसाब से ही पढ़ता है, दीर्घ वाक्यों को तोड़-तोड़कर। जबकि इस दो पेजों के अनुवाद में विराम
चिन्हों का भरपूर प्रयोग हुआ है।
आधुनिक युग की आपाधापी की वजह से मां के बड़े विदेशी लड़के के
चेहरे पर हंसी हमेशा गायब रहती है—वाक्य से लेखिका ने व्यंगात्मक रूप से आधुनिक
जीवन शैली पर करारा प्रहार किया है, इसी तरह रीबॉक का उदाहरण देकर भूमंडलीकरण पर। लेखिका के
अनुसार रीबॉक बिरादरी ने अपने विस्तार में
सिखों, गज्जूओं और चीनियों को भी पीछे छोड़
दिया है। उनकी भाषा में, “इतनी बढ़ी है रीबॉक बिरादरी कि सिखों, गुज्जुओं, चीनियों को पछाड़
दिया है, जिनमें बड़ी हांक
थी कि वे विश्व के कोनों कोनों में जा पहुँचते हैं। एक खबरिया इसी पर अहंकारी हुए
गया था कि आइसलैंड में सरदार जा पहुँचा है, मय पगड़ी कड़ा किरपान के। मगर रीबॉकों ने इन सबको धता बतला डाला
है। और जूते तो जूते, मोज़े, दस्ताने, टोपी, बस्ते, ब्रेसीयर्स की
शक्लो सूरत लेकर, कहाँ नहीं शान
बघारते हैं। (रेत-समाधि,पृष्ठ-35)”
घर गृहस्थी की छोटी-मोटी वस्तुओं, दैनिक दिनचर्या और गोपनीय रखी जाने वाली बातों जैसे खून से सना
ऋतुमती स्त्री का पैड,संयुक्त परिवार के विघटन, नाभिकीय परिवारों में स्त्री के
शोषण, समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, पहुंच वाले लोगों की पूँछ और पूछ, देश की सांस्कृतिक और वैश्विक परिपेक्ष में योगदान,, देश के कोहिनूर हीरे, नोबेल तमगे और राष्ट्रपति निवास से घंटा गायब होने के साथ-साथ
विलुप्त होने वाली भाषाओं जैसे अंडमान की अ-कोबा, अका-कोरा, अ-पुकिवार, कोचीन की वाइपिन और ऑस्ट्रेलिया की बिदमारा आदि का व्यंग्यात्मक प्रहार
करते हुए विशिष्ट संदर्भ दिया है।
कहीं-कहीं गीतांजलि श्री के दार्शनिक विचार भी इस उपन्यास में अपने
आप अभिव्यक्त हो जाते हैं, जैसे समय और परिस्थितियों ने दुर्योधन
रावण और जिन्ना को खलनायक का दर्जा दिया, वरना उनमें भी अच्छाई के अंश विद्यमान थे।उन्हीं के शब्दों में, “दुर्योधन
भी सुयोधन का पल पा सकता है रावण तो घोर प्रशंसा भी, और हमारे अपने वक्त में जिन्ना भी अच्छी बुरी - स्मृतियों से
संजोये जाते हैं, पर कुलजमा बात ये
कि जीवन जीवन है और मृत्युं, जो मौत है, और गया गया है, और व्यस्त व्यस्त । सार ये कि बड़ी हस्तियाँ और खज़ाने और
स्मृतियाँ जहाँ गयीं और नहीं लौटीं, वहाँ इन रोज के मामूली असबाब की क्या बिसात? कुछ नहीं।” (रेत समाधि,पृष्ठ-87)
इसी तरह कुछ और दार्शनिक विचार इस उपन्यास में आसानी से पढे जा सकते हैं, जैसे इस
उपन्यास के पृष्ठ 196 से उद्धृत है:-
“मौत है तभी जीवन अनंत है। आज जीवन खतरे में है
क्योंकि वैज्ञानिक पैदा हो गए हैं जो लगे हैं कि मौत को ही खतम कर दें और चिरकाल
के लिए जीवित हो लें। वे जरूर जीवन का खात्मा करने वाले हैं। उन्हें शायद पता नहीं
कि ययाति को हमेशा युवावस्था में रहने का वरदान मिल गया तो वे स्वयं उसे तज देने
को बेक़रार हो गए। दुश्मनी जवानी से नहीं, हमेशा से थी. क्योंकि हमेशा हो तो उसकी हस्ती मिट
जाती है। मौत से ही जीवन है और दुःख से ही सुख। आदि इत्यादि।”
और यथार्थपरक पारिवारिक मसले भी, जैसे हर माँ का एक ऐसा बेटा होता है, जो उसे बताता है कि मां
तेरी बलि चढ़ी है परिवार की वेदी पर। औरत हर रंग जाति की इस कसौटी पर खरी उतरती
है।(रेत समाधि,पृष्ठ-37)
दूसरे भाग ‘धूप’ में बेटी माँ के अंतस का अन्वेषण करती है और उसके
भीतर जिजीविषा के भाव पैदा करती है। कहीं मां के चेहरे पर दाढ़ी के बाल उगने लगते
हैं तो कई योनि में शिश्न जैसा सिस्ट। लेखिका उपन्यास में इस प्रसंग को लिखती है, “या
क्या शिव जी का दहकता लिंगम जिसे पार्वती ने अपने भीतर खींच लिया था कि शीतल जल
में डुबो के उसकी जलन बुझा दें ? श्शश शान्त शान्ति... योनि ने धधकते इरादों पर पानी फेर दिया, स्थिर रहें, निर्वाण, साधना, समाधि, जैसे हर शिव मन्दिर
में देख लो। योनि और योगी ।” (रेत समाधि,पृष्ठ-222)
बेटी नारीवादी विचारों की प्रबल समर्थक है और वह माँ को उसके
बुढ़ापे में उन्मुक्त भाव से जीवन जीते देखना चाहती है। वह जानती है कि एक ही खोल
माँ और प्रेमिका दोनों एक साथ नहीं रह सकती है या तो उस खोल में प्रेमिका रहेगी या
फिर माँ। वह माँ के भीतर प्रेमिका को
जगाने का अवसर प्रदान करती है। वह माँ के दोस्त हिंजड़ा रोजी बुआ और दर्जी मास्टर
रजा से भी मिलने का अवसर प्रदान करती है।लेखिका ने नारिवादिता संबंधित अपने
अंतर्मन के विचार तुलसीदास की रामचरित मानस के कागभुशुंडी की तरह अपने काल्पनिक
किरदार कौए की पत्नी कौवी के मुख से कहलवाए हैं, “वो अपने वक्त की दबंग
फेमिनिस्टों में, जिन्होंने ये हक
अपनी बहनों को दिलाया कि हम मादाएँ भी हर मीटिंग में आयेंगी और पूरी बिरादरी के
निर्णयों में हमारी भी साझेदारी होगी। ये भी कि कोई अपना अंडा दूसरे के घोंसले में
कौवाकाहिली में नहीं छोड़ेगा, और न सींक तिनका फेंकफांक कर घरौंदा बनेगा हम भी करीने से रहेंगी, और कौवा भी अंडे सेंएगा, क्योंकि जो बच्चे होंगे वो उसके भी हैं।” (रेत समाधि, पृष्ठ-185)
रोजी बुआ के चरित्र चित्रण के माध्यम से लेखिका ने किन्नर समाज की
समस्याओं को भी जनमानस के समक्ष लाने का सफल प्रयास किया है और किन्नर रोजी बुआ के
भीतर विद्यमान दयालु हृदय की भावना को उजागर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।रोजी
अपनी व्यथा समाज के समक्ष इन
शब्दों में रखती है, “न मेरे लिए फ़िल्म, न साहित्य, न कला, न कपड़े। जो आप उतार दें, उस उतरन में हम उतर लें।
अपनी कहीं। गिनती नहीं। झील में बाजी डाल आओ तो किसी को पता नहीं चलेगा कि एक कम
है।” (रेत समाधि,पृष्ठ-239)
माँ के बाल गूँथने, पैरों की मालिश करने तथा उसके सुख-दुख को बांटने वाली रोजी बुआ देश
विभाजन के समय माँ की साथिन है, इसलिए मां का उसके
प्रति विशेष लगाव भी साफ दिखाई देता है। वह माँ को अपने पूर्व वतन पाकिस्तान जाने
के लिए प्रेरित करती है और कहती है हिंजड़ों के लिए इस समाज में पासपोर्ट और वीसा
की क्या जरूरत है ? क्या तीसरे लिंग को समाज ने कभी
मान्यता दी है? तीसरे लिंग के इस दर्द
को उन्होंने अपने उपन्यास में प्रस्तुत किया है:-“मुझे पासपोर्ट से क्या ? न होने के फ़ायदे हैं। हमारी गिनती न मुस्लमीन किरस्तान में न
यहूदी पारसी हिन्दू में न आदमी औरत में, हमारा नाम नहीं लेना, हमें पहचानना नहीं। हमें असल क्या, तसव्वुर से ही गायब रखना चाहते हैं। तो हम तो कहीं भी घुस लें।” (रेत समाधि,पृष्ठ-238)
रोजी की मृत्यु के बाद मानवाधिकारों के संवैधानिक रक्षा और सामाजिक
स्वीकार्यता हेतु पत्रिका में लंबा लेख लिख कर बेटी का प्रेमी केके एक पत्रिका के
संपादक के पास भेजते हैं तो वे इसे पाठकों के दिलचस्पी के विरुद्ध समझकर लौटा देते
है, यहाँ तक कुछ स्वार्थी तत्व रोजी के
आगे-पीछे कोई न देख कर उसकी संपत्ति लूटने के चक्कर में उसकी हत्या तक कर देते
हैं। इस भाग के बीच-बीच में उपन्यासकार गीतांजलि श्री कृष्णा सोबती की कहानियों और
उपन्यासों के दृष्टांत देते हुए उनकी अप्रत्यक्ष रूप से उपस्थिति दर्ज करवाती है।
कृष्णा सोबती की कहानी ‘ए लड़की’ और उनके उपन्यास ‘गुजरात पाकिस्तान से
गुजरात हिंदुस्तान’ आदि के प्रसंगों को पाठकों के सामने रखती है।इस उपन्यास का
‘धूप’ वाला खंड पाकिस्तान में लाहौर कराची इस्लामाबाद जाने की पृष्ठभूमि तैयार
करता है।
तीसरा और अंतिम खंड ‘हद सरहद’ में लेखिका सर्वप्रथम देश-विभाजन के
कथानक को आधार बनाकर अपनी रचनाएं लिखने वाले सभी रचनाकारों के व्यक्तित्व और
कृतित्व को सम्मानित करते हुए बाघा बॉर्डर पर हो रहे ड्रामा में प्रमुख स्थान देती
है, जो साहित्यानुरागी पाठकों को रोमांचित
करती हैं और उनमें देश-प्रेम का जज्बा पैदा करती है। इस खंड में देश विभाजन के समय
होने वाली निर्मम हत्याओं का वर्णन रोंगटे खड़ा करने वाला है। बाप द्वारा अपनी बेटी
का सर कलम, पति द्वारा पत्नी की हत्या, बूढ़ी औरत को मोटे डंडे पर बांध कर लेजाना, जान बचाने के लिए पेड़ पर पर छुपे हुए छोटे बच्चों को गोली मारकर
हत्या आदि का वर्णन पाठकों की आँखों में आँसू ले आता है। साथ ही, अखंड भारत के इतिहास को भी बीच-बीच में रखते हुए आगे बढ़ाया गया है, बेटी जब माँ को लेकर पाकिस्तान आती है तो उसके मन में लाहौर का
किला, रावी, मांटेगमरी हॉल, शाही हमाम, बाजार -- पता नहीं क्या-क्या देखने की इच्छा जाग जाती है। यह वही
जगह है, जहां उसका अपना बचपन बीता था। अपनी
छड़ी को फैला कर उसकी मूठ पर तितलियों को बुलाकर देश विभाजन के जमाने की चार
मार्मिक कहानियां सुनाती है। पहली कहानी ‘कहानियां’ में रसोई में खाना
बनाने वाली हिन्दू लड़की को किस तरह मुसलमान लोग उसके रसोईघर से खींच कर, उसका घर जला कर, गाड़ी में जबरदस्ती
लादकर, ट्रक में भरकर बेचने के लिए ले जाते
हैं।उन्हें कभी खंडहर में रखते है तो कभी किसी कैदखाने में, नहीं तो कभी जानवरों के अस्तबल में उन्हें सुलाया जाता है। यह
लड़की और कोई नहीं होती है, होती है वह इस उपन्यास की मुख्य पात्र
माँ। जिसका प्रेमी अनवर कहीं दूर लायलपुर सिटी गया होता है, और उधर माँ किसी कैदखाने में, अनवर के साथ अजायबघर में देखी बूढ़े बुद्ध की मूर्ति मिलती है, जिसे वह अपने सीने से चिपकाकर साथ ले जाती है, प्रेम के निशानी के तौर पर। यहीं पर यह कहानी खत्म हो जाती है।
दूसरी कहानी ‘मूर्ति और वो लड़की’ है। इस कहानी में उस
लड़की को अन्य लड़कियों के साथ तारपोलीन ढके ट्रक से खोखरापार रेलवे स्टेशन ले
जाया जा रहा होता है कि कहीँ दूर से ऊंटों
का काफिला उधर आता हुआ दिखाई देता है तो ट्रक वाले उन्हें वही छोड़कर भागने
लगते हैं। उस लड़की की मूर्ति कहीं इधर-उधर
हो जाती है तो एक गूमड़ वाला आदमी उसे लाकर देता है। जैसे ही वह मूर्ति एक हाथ में पकड़कर लेकर जाने
ही वाली होती है कि दूसरा हाथ कोई छोटी लड़की पकड़ लेती है, सिसकती हुई। वह छोटी लड़की और कोई नहीं रोजी होती है। इस तरह
गीतांजलि श्री ने माँ का रोजी के साथ पुराने संबंध जोड़कर उपन्यास में एक रोचकता
पैदा की है।
तीसरी कहानी का शीर्षक है ‘रेत समुंदर’। जिस तरह तेज हवा
तूफानी समुंदर में जहाजी बेड़ों की दिशा
बदल देती है और उस पर सवार लोगों को इधर-उधर लुढ़का देती है, वैसे ही थार के इस रेत समुंदर में कोई सुनामी रेतीली लहरों को पैदा
करती है, जिसमें कई अपहृत लड़कियों की समाधि लग
जाती है। यही है ‘रेत समाधि’ उपन्यास की पराकाष्ठा। वहां एक ऋषि समाधि में मिलता
है, मगर धड़ कटा। कुछ सीटी बजाती हुई
लड़कियां उस समुद्र से अपने को बचाने का प्रयास करती है तो कुछ लड़कियां समुद्र में
डूबने लगती है।
चौथी कहानी ‘डूबों का होना’ में मूर्ति, रोजी (वो) और बच्ची (मां) बच जाती है, और जब उन्हें होश आता है तो वे मूर्ति के साथ किसी अनजान छावनी के
अस्पताल में नजर आती है। बाद में उन्हें पता चलता है कि वहां सरहद खींच ली गई है।
उपन्यास के अंतिम भाग में भारत विभाजन के निर्मम दृश्य को सजगता और सजीवता के साथ
प्रस्तुत किया है। प्रारंभिक दो सौ पृष्ठों तक
उपन्यास जनसाधारण पाठक को बोझिल लगने लगता है, वहाँ तीसरे खंड में उपन्यास अपनी यथार्थता, ऐतिहासिकता और सघन अनुभूतियों के बल पर अत्यंत ही रोचक और गतिशील
नजर आने लगता है। इस तरह यहाँ तक पहुंचने के लिए पाठकों को मानव मस्तिष्क के
विभिन्न पहलुओं से गुजरते हुए मानव मन की क्लिष्टताओं, निस्संगता, प्रेम, दोहरापन, दिखावा और कृत्रिमताओं आदि को महसूस
करते हुए जीवन की धूप-छाँव देखते हुए उपन्यास की पराकाष्ठा तक पहुंचते हैं, जहां अस्सी वर्ष की माँ के हृदय में पाकिस्तान भ्रमण के दौरान खैबर
में उसके पहले प्रेम के बीज प्रस्फुटित होकर वृक्ष का रूप धारण कर लेता हैं। वहाँ
वह पाकिस्तानी जेल को भी अपना घर समझने लगती है और अपने भीतर पहले प्रेमी अनवर को
पाने की गंभीर चाह। इस वजह से न केवल उसकी, बल्कि उसकी बेटी की जान खतरे में पड़ जाती है। वह खैबर में बिना
वीसा के भी बिंदास होकर घूमने लगती है। उसे यह आभास हो जाता है कि उसकी अंतिम
परिणति होगी मृत्यु। उस अंतिम परिणाम के लिए वह पहले से ही मानसिक तौर पर तैयार हो
जाती है और पीठ के बल जमीन पर गिरने का अभ्यास करती है ताकि मरते समय उसकी आंखें
आकाश की ओर हो और पीठ जमीन पर, इस दृश्य को ध्यान
में रखते हुए डेजी रॉकवेल अपने अनुवाद में इस भाग का नाम ‘बैक टू फ्रन्ट’ ( पीठ से
आगे की ओर) रखती है। खैबर में उसकी अनवर
अली नामक मिलिट्री ऑफिसर से मुलाकात होती है, जो उसके पहले प्रेमी अनवर का पुत्र होता है। वह पहले उसकी मूर्ति
को ले जाकर अपने लकवाग्रस्त पिता के सिरहाने पर रखता है और चन्दा को भी उनसे
मिलाने ले जाता है। उसे देखकर अनवर के मुंह से एक भी शब्द नहीं निकलता है तो वह
अतीत में उसके साथ गाए हुए गानों,भजनों और प्रार्थनाओं को गाकर उसकी
स्मृति लौटाने की कोशिश करती है,’मेरे प्रभु दीनदयाल, अरज करत इब्राहीम मेरे मौला’, ‘भेजूंगी संदेशवा जब से पिया परदेश गए सुख की नींद ना आए’।
अनवर की आंखों से आंसू टपकने लगते हैं, वह उसके सिर पर हाथ घूमाती है और अपने हाथों से उसके हाथ को रखती
है फिर उससे मिलने नहीं आ पाई, उसके लिए माफी
मांगती हैं तो अनवर के होंठ फड़क उठते है, ‘माफीनामा’ शब्द के साथ। मगर इस तरह मनुष्यों द्वारा खींची सरहद
उन्हें अलग नहीं कर पाती है। पहले ही सरहद पर माँ मिलिट्री ऑफिसर को लंबा
व्याख्यान सुना देती है कि सरहद तोड़ने के लिए वरन जोड़ने के लिए होती है जैसे रुमाल
की किनारी, मेजपोश की बार्डर, खेतों की मेड़, आसमान की सरहद, छत की मुंडेर, तस्वीर की फ्रेम
आदि सारी सरहदें एक वजूद को घेरती है, रोकती नहीं, जोड़ती है जैसे रात और दिन, जिंदगी और मौत। सरहद जेल नहीं बल्कि इश्क है,संगम है, मुलाकात है, मगर मां की सरहद वाली विचारधारा अली अनवर को नागवार गुजरती है और
उसे अपनी नौकरी,इज्जत, देश-प्रेम का ख्याल आते ही चंद्रप्रभा को अपने पति से अश्रुल विदाई
लेने के बाद बाहर जाते समय पीछे से वह गोली मारकर माँ की हत्या कर देता है। इस तरह
लेखिका अपने उपन्यास त्रासद अंत करती है। गोली मारने को उचित ठहराने के लिए लेखिका अनवर अली के माध्यम से कई काल्पनिक तत्वों का सहारा
लेती है जैसे कि वह लाहौर के मूर्ति चुरा कर भाग रही थी, वह उसके देश में जासूसी करने आई थी, उसे भयंकर जानवर समझ कर किसी ने मार दिया आदि-आदि; जबकि दिल्ली और पाकिस्तान के अखबारों में सुर्खियां इस तरह
प्रकाशित होती है ‘सीमा को लांघते हुए दिल्ली की अस्सी साला नारी बिना वीजा के
पैदल सीमा पर पुराने प्रेमी की खोज में’, ‘एक और गायब’, ‘सीमा पार खैबर
पख्तून में बुरी फँसी दो हिंदुस्तानी महिलाएं’, ‘चंद्रप्रभा देवी उर्फ चंदा के दावे’, ‘चढ़ी जवानी दादी नूँ’।इन तथ्यों को एकत्रित कर बॉलीवुड वाले फिल्म
बनाने के स्क्रिप्ट लिखने की तैयारी में लग जाते हैं। वे व्यापारी है न !
अंतिम पन्नों में विभाजन की त्रासदी को झकझोरती
किताब राष्ट्र और कौम की सरहदों की कृत्रिमता और अमानवीयता को दिखाती है और लिखती
है- “हमारी किसे पड़ी, हम
हैं ही नहीं, और
हैं नहीं तो अपने हक हुकूक क्या, और हैं नहीं तो पासपोर्ट क्यों,
ऐसे ही बॉर्डर आर
और पार”।
इस तरह देश विभाजन के सात दशक बाद भी मानवीय संवेदना को झकझोरने
वाले इस उपन्यास की नई आभा को नमन करते हुए अनुवादिका को, सांस्कृतिक पार्थक्य और
अनुवाद की अपनी सीमाओं के बावजूद डेजी रॉकवेल के अद्भुत श्रम ने हिंदी को विश्व
में बुकर पुरस्कार के माध्यम से अलग पहचान दिलाई है। इसके लिए समूचा हिंदुस्तान आप
दोनों के प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करता है।
भाषा-शिल्प :-
डेजी रॉकवेल ने ‘टॉम्ब ऑफ सैन्ड’ के अंतिम पृष्ठों में दिए
‘ट्रांसलेटर’ज नोट’ में लिखा है कि मूल उपन्यास कृत्रिम रूप से हिन्दी उन्मुखी है, इसमें हिन्दी,उर्दू,पंजाबी,बांग्ला,संस्कृत और भोजपुरी आदि अन्य देशज भाषाओं के शब्दों का भरपूर
समावेश है। यही वजह है कि इसका अनुवाद कृत्रिम रूप से अंग्रेजी उन्मुखी है। मूल और
अनूदित उपन्यास में भाषाओं की मिलावट है, साधारणतया यह वर्ण-संकर भाषा फिल्मों में प्रयोग में ली जाती है। ‘रेत समाधि’ की भाषा को मानक हिन्दी मानना तो
बहुत बड़ी गलती होगी। पूरे उपन्यास में कहीँ पर भी योजक रेखा का प्रयोग नहीं है
उदाहरण के तौर पर बात बात,बड़ी बड़ी, ताल तलैया,काली पीली,टपक टपक, धीरे धीरे, दायें दायें, जरा सी आदि शब्द ज्यों के
त्यों लिखे गए हैं। कहीँ जगह विभक्तियाँ भी मानक भाषा से पृथक लगती है जैसे माँ
पे बरसे,जिलाने के उनके स्वर, सड़क पे निकल आए,कुछेक महीनों आदि। अगर हिन्दी
भाषा के पाणिनी आचार्य किशोरीदास वाजपेयी जिंदा होते तो ‘रेत समाधि’ पर कह उठते कि
–‘भाषा बहता नीर है’, ठीक है, मगर इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि उसमें व्याकरण के नियमों का
उल्लंघन किया जाए। अगर उल्लंघन करना ही है तो नियम बनाना ही क्यों ? मानकीकरण की बात ही क्यों करना? बोलचाल की वर्ण-संकर भाषा प्रचलन में है, वही लेखन की भाषा बने। गूगल पर प्रकाशित धीरज तिवारी की एक समीक्षा
के अनुसार शैली, कथ्य, शिल्प से आजाद लेखन लेखिका गीतांजलि श्री का दावा है और जो उनके
लेखन में झलकता-छलकता भी है कि “गाथा की कोई मुख्यधारा जरुरी नहीं. उसे छूट है कि
भागे, बहे, नदी, झील, नए-नए सोते में”। यह किताब वाकई एक गाथा है जो शैली, कथ्य, शिल्प सब कुछ में
मुख्यधारा के लेखन की दीवार को ढाहती-लांघती नजर आती है। शब्दों और वाक्यों का
निर्माण और प्रयोग जो आमतौर पर हिंदी साहित्यिक लेखन से गायब होता जा रहा है, वह इस किताब की पहली पहचान है। रचना में दैनिक बोलचाल के भदेश
शब्दों का चयन और निर्माण व्याकरणीय शुचिता के बोझ से मुक्त है, एक प्रकार से यह लोकभाषा का विश्व-अवतार है।
लेकिन मेरे मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या हम जिसलिए, दंदफंद, टिन्नाई, नहनाह, खफाती, फंफाती, पींपियाती, फटेला, तना गई, उमगना, गपाष्टक, ठिलठिलाहत, बेहंस, लटालह, चुमकारने, गमकीली,भपारा,साड़ी मौसम,साड़ी कांड,लिंगेमरमर, भकोस गया, मैलिआ दे, माइक पे भाषण पेलते,हुहु फेफे फेन उड़ाते,खक्खों का फूटना, दो ठो, रांडू पांडू आदि और कुछ नए शब्दों जैसे कौवी(Crowess),कौवीहृदय (Heart of Poet),कौवानियत(Crow Law) ,कौवाकहिली(Crow pathy),कौवितामयगुंजन (elegant crow chantment) ,कौवाधिकार(Crowthority) ,कौवावीय करुणा, कौवानी चमक(Crowishly flash), कागाफूसी(Crowspered) आदि तथा बार-बार कोड़ परिवर्तन वाले वाक्यों का प्रयोग जैसे मुड़
पे डिपेंड, सर यहाँ रखिये तनिक
गोड़ दबा दूँ, माई री देखि बाल
कैसे उलझ गइन हैं, हाथ तेज चलेब ही
करबे, कुछ पैसा आ जाएगा
तो कौनों हर्ज नाहीं, ए रेनबो चमकोड हियर, एंड ए रेनबो चमकोइंग दियर जहाँ सड़क की भाषा को साहित्य के संसद में पहुंचाती है तो क्या
हजारों सालों से बनते-बनते साहित्य की वर्तमान पराकाष्ठा के लिए चुनौती नहीं है ?यह सवाल भी सोचने लायक है कि जब यह किताब विश्वविद्यालयों में पढ़ाई
जाएगी तो क्या इस भाषा को मानक मानकर आने वाली पीढ़ी इसे साहित्यिक भाषा का रूप
नहीं देगी ? या क्या यह भाषा आने वाली पीढ़ी की साहित्यिक भाषा की भविष्य का
प्रतिदर्श है ?
कहीं-कहीं तो
पात्रों की भाषा पूरी तरह इतर हिन्दी हो गई है जैसे:- “मैं भइया के पाँउ दबाइ
रहौ हो लेकिन बिनने ध्यान नाएँ हो। बिनकी आँखें मुंदी हीं और म्हों में जैसें कछु
फँसो भऔ है, निकारि रये हैं।
तभई चिम्पू अखबार लैकें दरबज्जे पै। भय्या जी उछले और बाई म्हों से बाके सामने। बु
तौ दैया रे, अखबार फँकि कँ भागौ
। बु कहतु है कि भइयाजी रोज जइ कत्तैं। उनैं कछु है गऔ है।” (रेत समाधि,पृष्ठ-46)
यह सत्य है किसी भी भाषा में जैसे बोला जाता है वैसे लिखा कभी-कभी
ही गया है, और जब लिखा गया तो वह कालजयी ही हुआ; चाहे प्रेमचंद की रचना हो या रेणु का ‘मैला आँचल’। ‘रेत समाधि’ में
ऐसे ध्वन्यात्मक अनगिनत प्रयोग है :-
1. नहीं नहीं मैं नहीं
उठूँगी। अब तो मैं नहीं उठूँगी। अब्ब तो मैं नइ उठूँगी। अब्ब तो मैं नइई उठूँगी।
अब मैं नयी उठूँगी। अब तो मैं नयी ही उठूँगी।" (रेत समाधि,पृष्ठ-13)
2. चिल्ला जाड़ा दिन
चालीस, पूस माघ पचीस । च्च चिल्ला ज़्ज़्जाड़ा
दिन चयालीस, पूस के पपन्द्रह म्माघ पच्चीस। (रेत
समाधि,पृष्ठ-15)
3. उसे तरह तरह से बजाने
में लगे, यों माँ अपनी साँस के संग करने लगी
है। लम्बी लम्बी श्वास निःश्वास। गहराती और ध्वनियाँ उनमें "अआ आअहा अहा
अआआहो। जम्हाई में मुँह फाड़ते हुए। ऊऊ ऊऊ ईईईईइमा उईउम्मा। कमर झुलाते हुए।
हिस्स्सअंग एहह्ह्ह्छ। छड़ी उठा के दीवार पर धूप और हवा छलकते हुए।
व्हीईईईईईईईईईईईइ। कान में उँगली डाले कस कस खुजाते हुए। अपने बदन के अन्दर बाहर
को कुरेद रही है और उसे बोलों में व्यक्त कर रही है।(रेत समाधि,पृष्ठ-135)
4. : हर जुम्बिश पर आह
कराह ऊह, को। ओओह, आहहहहो खर्राटे । इन नए स्वरों के बीच में माँ जाने पहचाने शब्द भी
कभी डाल देती हैं। अआहअच्छा हिस्सएको नहींफुरर्रऐ मुँहेव्हीए ऊऊओह्कनटोप
इईपलस्टरऊई।(रेत समाधि,पृष्ठ-135)
भारत की भाषाई विकलांगता को जोरदार धक्का देते हुए लेखिका लिखती
हैं-“जिस भी रांडू पांडू से पूछो, जिस भी
हिन्दुस्तानी जबान में, जवाब वो अंग्रेजी में देता है, वो भी गलत अंग्रेजी में, साइनबोर्ड पर हिंदी की भी वर्तनी गलत है, अंग्रेजी की तो माशाअल्लाह”। अंग्रेजी की बीमारी से ग्रसित समाज और
सत्ता में अपनी-अपनी भाषा और बोलियों को लेकर जो हीन ग्रंथि है उसपर लेखिका की यह
पंक्ति उन्हें औपनिवेशिक गुलामी से मुक्त करने की कोशिश है, न कि अंग्रेजी की आलोचना करना या फिर इसकी जरुरत को नकारना। जिस
भाषा में पले-बढ़े, जिसमें सपने देखे, जिसमें प्रेम किया, जिसमें रोया, जिसमें हंसा तो उस
भाषा को बोलने में यह संकोच, मानसिक गुलामी नहीं
तो और क्या है! मुक्त मस्तिष्क के लिए मूल भाषा का कोई विकल्प नहीं होता। मुक्त
मस्तिष्क में विशेषणों की भरमार उठती है जैसे :-
“रक्तलाल, अम्बरीन, हल्दिया, सुरमई, धानी,फिरोजी, बैंगनी, काली, सुगापंखी, सफ़ेद, सभी, सभी। उनके पंखों
में छींटे। धारी। छड़ी की मूठ एक चोंच। उसमें मुस्कान, उड़ान, बतियान। (रेत समाधि,पृष्ठ-48)
इसी तरह पर्यावरण के प्रति जागरूकता के लिए उन्होंने व्यंग्यात्मक
शैली का प्रयोग किया है,
“ऐ, कांव कांव, अपने घरों को मैला करो, हमारे में क्यों घुसे हो, गन्दगी बजबजाने ? हमारा घर तो ब्रह्मांड है और प्रकृति, जिसके नाश पे ये बेपंख कौम अपने घर खड़ी कर रही है। ख़ुदकुशी का
शौक़ चर्राया है तो करें पर हमें क्यों उसमें घसीटते हैं? हम कहाँ जाएँगे जब हमारा आसमान और हमारे दरख़्त धराशायी कर डालेंगे
ये। हमें मल मूत्र पे ऐतराज नहीं था जब तक वो आर्गेनिक थे। हमारे दरख़्तों को आता
था दूध पानी अलग करना और खिलना।”(रेत समाधि,पृष्ठ-183)
“पेड़ आसमान नदी पक्षी सबकी इज्ज़त सीमेंट में मिल चुकी है। पानी
है बदबू का नाला, आसमान धुएँ का पटल, पक्षी गर कौवा तो चोरने आया या मल मूत छींटने।(रेत समाधि,पृष्ठ-193)
हिंदुस्तान की जनता को भी ‘स्वच्छ भारत अभियान’ का मखौल उड़ाने के
लिए लताड़ा है:- 'बाजी ये हिन्दुस्तान है। जहाँ हगने
वाले ज़ंजीर में बँधा तामलोट रेलगाड़ी से उड़ा लेते हैं। ये तो अस्पताल है जहाँ
सबको नंगा दूंगा कर देते हैं।'(रेत समाधि,पृष्ठ-221)
जगमगाती-जागती, भागती-हांफती
सभ्यता और उसमें घुटन भर रहे लोगों की कथा भी है यह किताब। स्त्री, वृद्ध स्त्री दुख और वेदना, स्मृति और विस्मृति का प्रतीक ही तो है और यही किताब की केन्द्रीय
विषय वस्तु है।
अनुवाद :-
हम यह जानते हैं कि एक भाषा से दूसरी भाषा में महत्वपूर्ण
ग्रंथों का अनुवाद कभी भी पूरी तरह से सजीव या पूरी तरह से सच और मूल के प्रति
वफादार नहीं हो सकता है। वास्तव में शेक्सपियर को समझने और उसकी सराहना करने के
लिए आपको शेक्सपियर को उसकी मूल भाषा एलिजाबेथियन अंग्रेजी में पढ़ना होगा। राजीव
मल्होत्रा और सत्य नारायण दास बाबा ने
अपनी पुस्तक "Sanskrit Non-translatable:
The Importance Of Sanskritizing English" स्पष्ट रूप से दर्शाया है कि संस्कृत
जैसी अत्यधिक परिष्कृत, समृद्ध और
शक्तिशाली भाषा से अंग्रेजी भाषा में अनुवाद करते समय 'लॉस्ट इन ट्रांसलेशन' का प्रभाव
ज्यादा होता है। जिस प्रकार तत्व-मीमांसा में सगुण/निर्गुण (qualified/qualityless), आत्मा (Soul), माया (Illusion), जीव (Soul), कैवल्य (Salvation), हिंदू धर्म (Monotheism or polytheism ), ॐ (Amen), लौकिक तत्वों में शक्ति (Energy), प्रकृति
(नेचर), आकाश (Space), अग्नि (Fire),वायु (Air), शब्द (Word), इंद्रिया (Sense Organ) आदि अननुवाद्य शब्द है,उनका अंग्रेजी अनुवाद खरा नहीं उतरता है,
उसी तरह लोक,स्वर्ग,असुर,देवता,सूक्ष्म शरीर, मन, बुद्धि,चित्त, अहंकार, अहिंसा,प्राण,चक्र,ध्यान, समाधि,कर्मयोग,ज्ञान योग,भक्ति योग,शास्त्र,श्रुति, इतिहास/पुराण, हिन्दू संस्कार, हनुमान, संस्कृति, धर्म, दास,सेवा, गुरु,श्रद्धा, काम,भाव,रस,लीला,आनंद आदि शब्दों का सटीक अंग्रेजी अनुवाद नहीं हो सकता है।
इस उपन्यास को बौद्धिक
रूप से समझा जा सकता है, लेकिन उनमें से कुछ अर्जित अनुभव
हैं।हिन्दी ध्वनि के रूप में इस उपन्यास की प्रकृति इसे गैर-अनुवाद योग्य बनाती
है। उदाहरण के तौर पर ‘What did India teach us?’ पुस्तक में जर्मन और संस्कृत भाषा के विद्वान मैक्स मूलर ने
हिरण्यगर्भ का अर्थ ‘हिरण के गर्भ‘ (The foetus of deer) तथा ‘अज’ शब्द का अर्थ अजन्मा की जगह ‘बकरा’ (Goat)शब्द के रूप में लेते है तो संस्कृत श्लोकों का अर्थ अवश्य अनर्थ
हो जाता है, इसी तरह ‘रेत
समाधि’ शब्द का लक्षणार्थ रेत के भीतर दफन होने से है, जबकि अक्सरतया समाधि
स्वेच्छा से ली जाती है, कोई देता नहीं है, इसी तरह दफन कोई होता नहीं है, किया
जाता है या हो जाता है। इस उपन्यास में ‘कल्पतरु’ को ‘द विशिंग ट्री’,
उलटबाँसी को ‘टॉप्सी टर्वी’, पानी के बुलबुले की जगह बुलबुल समझ कर ‘नाइटेंजिल’,
तबला की जगह ‘अबला’, टीचर से बने व्यंग्यात्मक शब्द टीचरी की जगह ‘ट्रेचरी’,
हिन्दुस्तानी नकलची बंदर की जगह ‘indian bandar’, फिल्मी कैबरे की जगह ‘फिल्मी नंबर’,
कपड़ों से छोटे दिमाग की जगह ‘दिमाग से छोटे कपड़े’, कमीज के कॉलर की जगह ‘ब्लॉउज
कॉलर’, समाधि हिलने की जगह ‘समाधि शिफ्टिंग’,टीवी पर महाभारत आ रहा है
का ‘महाभारत इज कमिंग’, तीसमारखाँ
की जगह ‘पेटरिज पायजामा’, नागमणि की जगह ‘वाइपर स्टोन’ आदि
अनुवाद देखने को मिलते हैं।
पाकिस्तान से लाई गई वाली लड़कियों के रेत के बवंडर में दफन होने
के अर्थ में उपन्यासकार ने ‘रेत समाधि’ शीर्षक का प्रयोग किया है, ठीक उसी तरह जैसे ‘जल समाधि’ का अर्थ जल में डूबकर होने वाली मृत्यु के संदर्भ में
लिया जाता है। इस प्रयोग के आधार पर रेतीले तूफान की चपेट में आकर नाक, कान, आंख
और पूरे शरीर रेत से ढक जाने के कारण होने वाली मौत को ‘रेत समाधि’ के आर्थ में
हमारे देश की सांस्कृतिक कारणों की वजह से हिंदी भाषा में सही ठहराया जा सकता है,
मगर ‘Tomb of Sand’ का अभिधार्थ बालू
से बने मकबरे यानि बालू के मकबरे की ओर ध्यान जाता है। अगर ‘सेंड समाधि’ शीर्षक
रखा जाता तो अंग्रेजी और हिंदी भाषा का चांडाल प्रयोग होता, इस वजह से अनुवादक डेजी
रॉकवेल ने न चाहते हुए भी इसका शीर्षक ‘टॉम ऑफ सैंड’ रखा और अपने बचाव में
प्रारंभिक पृष्ठ पर समाधि के शब्द कोश से तीन
अर्थ दे दिए,
1.
A state of deep meditation or trance, the final
stage of Yagya
2.
Self immolation of an acetic by entombment
3.
Place of entombment specially of a saintly personage or one who died heroically
मेरा यह पूछना स्वाभाविक है कि उपर्युक्त तीनों अर्थों से यह कहीं प्रतीत
नहीं होता है कि अनूदित उपन्यास में Tomb शब्द का प्रयोग सही है, मगर लाशों के दफन वाले रेतीले स्थान की ओर अवश्य इंगित करता है। यहां
लाशें साधारण लोगों की है रेतीले टीलों में, न कि किसी साधु पुरुष या महात्मा की। उपन्यासकार
गीतांजलि श्री और अनुवादिका डेजी राक्वेल के व्यक्तित्व और कृतित्व अथवा प्रकाशक
की पकड़ या बुकर जैसे बड़े पुरस्कार की ओर ध्यान दिए बगैर आलोच्य कृतियों ‘रेत समाधि’ और ‘Tomb of Sand’ पर उन्मुक्त भाव से अनुवाद के संदर्भ में अपने
विचार प्रकट करना चाहूँगा।
गीतांजलि स्त्री का उपन्यास ‘रेत समाधि’ तीन भागों में ‘पीठ’, ‘धूप’,
‘हद-सरहद’ में विभाजित है तथा उपन्यास का पूरा कलेवर 375 पृष्ठों में समाया हुआ है, जबकि डेजी रॉकफील्ड द्वारा किया गया अनुवाद ‘Tomb of sand’ तीन भागों ‘मा’ज बैक’, ‘सनलाइट’, ‘बैक टू फ्रंट’ में विभाजित है कुल 775 पन्नों में, वह भी एपिलोग, ट्रांसलेटर्स नोट
और एक्नॉलेजमेंट को छोड़कर।
इसका मतलब यह भी नहीं है कि अनुवादिका ने अनुवाद प्रक्रिया के
दौरान अपनी तरफ से कुछ अतिरिक्त जोड़ने का प्रयास किया है। नहीं, उन्होंने इस कृति
की आत्मा को अक्षुण्ण न रखने का भरसक प्रयास किया है, मगर ‘रेत समाधि’ के पैराग्राफों
को उन्होंने अवश्य व्यवस्थित कर अलग पेज से शुरू किया है। ‘रेत समाधि’ के संक्षिप्त
शैली के वाक्यों को पाठकों को समझाने की दृष्टि से कुछ शब्द अवश्य जोड़े हैं,
उदाहरण के तौर पर मूल कृति के अनवर अली और अनवर को उन्होंने अनवर अली (जूनियर) तथा
अनवर (सीनियर) के नाम से संबोधित किया है, ताकि पाठक आसानी से समझ जाए कि अनवर (सीनियर)
अवश्य अनवर (जूनियर) के पिता है और उन्हें एक ही नाम की वजह से कथासूत्र पकड़ने के
लिए अपने दिमाग पर ज्यादा जोर लगाने की
जरूरत नहीं पड़े। इसके अतिरिक्त, हिंदी कविताओं के उद्धरणों को रोमन लिपि में लिखकर
उन्होंने उनका अंग्रेजी अर्थ भी लिखा है, एक-दो जगह छोड़कर। जैसे ‘अरे ओ सांभा,
इसमें कितनी गोलियां थी’ को अंग्रेजी में ऐसे ही रहने दिया है, जबकि नागार्जुन
की कविता ‘बहुत
दिनों तक कानी कुत्तिया सोई उसके पास/ बहुत दिनों बाद कौवे ने खुजलाई पाँखें’ की
हिन्दी पंक्तियाँ उद्धृत नहीं करते हुए सीधे अंग्रेजी शब्दानुवाद कर दिया गया किया
है,जो निम्न है:-
Every
one’s eyes sparkled for the first time in ever so long,
The
crow scratched his wings for the first time in ever so long…
यह दूसरी बात है की नागार्जुन की मधुरता इन पंक्तियों में नहीं
झलकती है क्योंकि हर भाषा की अपनी मिठास और अपना आंतरिक सौंदर्य होता है,जिसे शब्दानुवाद द्वारा
संप्रेषित नहीं किया जा सकता, क्योंकि उन शब्दों में स्थानिकता के साथ-साथ विशिष्ट
सांस्कृतिक सामाजिक,आर्थिक,धार्मिक परिवेश की भी उपस्थिति दर्ज होती है।
शुरू-शुरू में यह भी नजर आया कि अनुवादिका को कई जगहों पर विषय-वस्तु
को स्पष्ट करने के लिए कभी बहन को बेटी लिखती है, तो कभी मां को बहू। इसे ध्यान
पूर्वक पढ़ने वाले पाठक का मन अस्थिर होने लगता है क्योंकि बहू और मां, बहन और
बेटी हिंदी भाषा में बिल्कुल अलग है। उनमें रात-दिन का अंतर है। मूल कृति के इन
शब्दों का उन्होंने संशोधन क्यों नहीं किया या फिर प्रोफेशनल एडिटर का बुकर प्राइज
जैसी पुरस्कृत बड़ी महत्त्वपूर्ण कृति का संशोधन करते समय इस तरफ ध्यान क्यों नहीं
गया, यह सोचने का विषय है। उदाहरण के तौर पर,
1.
बहन के बारे में कुछ
कहना चाहिए। (रेत समाधि, पृष्ठ-20)
Something must be said about daughter (Tomb of Sand,Page-36)
2.
जैसे जैसे बहन की जवानी (रेत समाधि, पृष्ठ-20)
When Beti was growing up (Tomb of Sand,Page-36)
3. जैसे बहन!
बेचारी बेचारी । (रेत समाधि, पृष्ठ-33)
Like Beti, Poor,poor
thing. (Tomb of Sand,Page-36)
4.
मॉम, जिसे इस बेटे ने
मां कहना शुरू कर दिया था कि ये क्या सिद्धार्थ का सिड और पुष्पेश का पुश और शत्रुंजय का शैट और मां का
मॉम, को कुछ आभास हुआ कि उसका छोटा फिक्रों में घिरा है। मेरी चिंता करता है, उसे
पता था। (रेत समाधि, पृष्ठ-33)
Bahu, whom Serious Son
had started to call Maa, because what is all his shortening of siddarth to Sid
and Pushpesh to Push and Shatrunajya to Shat and Ma to Mom? Bahu, his mom
sensed her little one was besieged by worries. (Tomb of Sand,Page-81)
नोट:- अनुवाद में देखें तो आपको लगेगा
है कि शायद बहू उसकी मां का नाम है, नहीं तो माँ को बहू नाम से क्यों पुकारेगा,
जबकि बहु को हिंदी संस्कृति में माँ का दर्जा नहीं दिया जा सकता है और नहीं उसे माँ
के नाम से संबोधित किया जा सकता है। सांस्कृतिक पार्थक्य की जानकारी मूल लेखिका और
अनुवादिका को अवश्य रही होगी। भले ही, देखने में ये छोटी गलतियां लग रही है, मगर आगे
जाकर अगर किसी यूनिवर्सिटी कोर्स में इन पुस्तकों को शामिल कर लिया जाता है तो अंग्रेजी
और हिंदी पाठकों के समझने और उनकी विचारधारा में खलल अवश्य पैदा करेगी।
5.
मॉम क्या करें, माथे पे मलहम लगा
के उसे सुलाने लगीं और रतिलाल के भतीजे फितरू को स्कूल के बाद बुलवा भेजतीं कि
उसके पाँव मलते रहो। (रेत समाधि, पृष्ठ-45 )
What
was Bahu to do? She began to massage his forehead with balm to
help him sleep, and she sent for the servant Rati lal's nephew Fitroo so he
could massage his feet after school. (Tomb of Sand,Page-85)
6. इतनी कस के डांट पिलाई मेमसाहब
ने पर अब मॉम का दिल धड़ धड़ करने लगा और पसीना छूटने लगा और
निगरानी जो बढ़ी तो एक रात रात उन्होंने भी देख लिया.
(रेत समाधि, पृष्ठ-46 )
Bahu
gave them all a tongue-lashing but now her heart began to pound,
and she broke into a sweat. She increased her surveillance so that one night
she also saw. (Tomb of Sand,Page-86)
नोट:- अगर यहाँ मेमसाहब बहू है तो
हिन्दी में मॉम का दिल धडक रहा है, जबकि अंग्रेजी में बहू का।
7.
ये भी नहीं पता चलेगा जब तक गम्भीर बेटे या उसकी मॉम से बार
बार पड़ताल न की जाए और उनके कहे के पीछे भी झाँका जाए, कि हकीम नबीना ने
इसमें क्या किरदार निभाया ? (रेत समाधि, पृष्ठ-48 )
We'll
never know unless we question and counter-question Serious Son and Bahu,
reading between the lines and behind them too, what Pir Nabina's precise role
was. (Tomb
of Sand,Page-89)
8.
माँ
उर्फ मॉम (रेत समाधि, पृष्ठ-48)
Ma-a.k.a-Bahu (Tomb of Sand,Page-90)
नोट:- उपरोक्त उदाहरण समझाने के लिए काफी है कि
सांस्कृतिक पार्थक्य की वजह से अनुवादिका भारतीय रिश्तों में बहू-बेटी-बहन-माँ अच्छी
तरह से नहीं समझ पाई और नहीं संपादकों ने इस तरफ ध्यान आकर्षित किया होगा, अन्यथा
बुकर पुरस्कार तक पहुँचने वाली पुस्तक एडिटिंग के कई दौर तक गुजरती होगी।
9. खखानी धरती फटती है
और बुलबुले उठते हैं और फिर कलकलाते हुए झरने निकल आते हैं।(रेत
समाधि, पृष्ठ-21)
Dry
earth cracks nightingales rise gurgling springs surface, (Tomb
of Sand,Page-37)
नोट:- हिन्दी की पंक्तियों से सूखी
धरती के फटने और उसमें से पानी के बुलबुलों के उठने और कलकलाते झरने में बदल जाने
की ओर संकेत मिलता है, न कि धरती फटने से बुलबुल (कोयल) के उड़ने या उठने का अर्थ सामने आता है। ऐसा भी नहीं है कि
अनुवादिका को बुलबुलें (बबल्स) का आइडिया नहीं है, अन्यथा ‘फुस फस फूटते बुलबुलों’ (रेत समाधि, पृष्ठ-43) को ‘the hissing popping bubbles’,(Tomb of Sand,Page-79) और ‘हंसी के
बुलबुलों’(रेत समाधि, पृष्ठ-42) को ‘the bubbles of
laughter’(Tomb of Sand,Page-78) नहीं लिखती। यह अनुवाद की दृष्टि से अक्षम्य गलती है। कहाँ बुलबुल
और कहाँ बुलबुलें! एक पानी और दूसरी चिड़ियाँ!
10.
उस कीड़े ने अभी लुइ व्यत्तों कमीज़ के कॉलर पर पंजा
फेरा, इस ने नाक में उँगली घुसेड़ी ! (रेत समाधि, पृष्ठ-19)
That
bug just stroked the collar of its Louis Vuitton blouse with its
tiny hand, and that one has stuck its finger up its nose! (Tomb of Sand,Page-30)
नोट:- ‘कमीज का कॉलर’ और ‘ब्लॉउज
के कॉलर’ में भिन्नता है।
11. इक बार मुक़ाबला प्यार हुआ
एक सुक्खड़ एक व्यभिचार हुआ
एक ओट हुआ एक डटा
हुआ
ये भेड़ बना वो
चरवाहा
ये पाँव रहा वो
सर-निकला
एक नदीदा एक
मरभुक्खा
एक हवामार एक पामाल
इक खिला-खिला इक मिटा मिटा(रेत समाधि, पृष्ठ-22)
In love's struggle
one withers, as the
other blossoms
one
is shaded, the other illuminated
one's a sheep, the other a shepherd
one's
the feet, the other a towering head
one's
a glutton as the other starves
one
rides the winds as the other is trampled underfoot
one
blossoms, the other fades(Tomb of Sand,Page-33)
नोट:- अगर blossoms का अर्थ खिला-खिला है तो
ऊपर में उसका अर्थ व्यभिचार नहीं होना चाहिए।
12.
जैसे, एक थी माँ। माँओं जैसी। जिसने बेटे से कहा मेरे तुम भगवान और बेटे
ने उससे कहा तुम सबका दुःख हरने वाली महासतायी देवी। दोनों खुद को
दूसरे पर लपेटने लगे और एक बना अजगर, एक महबूब। (रेत समाधि, पृष्ठ-23)
For
example, once there was a mother. Like all mothers. Who had said to her son,
You are my God, and the son said to her, You are the Great Sacrificing
Goddess laying waste to every one's sorrows. Both began to map their
selves onto one an other, and one became a boa constrictor and the other the
object of love. (Tomb of Sand,Page-40)
नोट:- महासतायी देवी का अर्थ उस
देवी से जिसे बहुत सताया गया हो, न कि त्याग करने वाली।
13.
अब कुछेक महीनों में अवकाशप्राप्ति होगी, तब चिल्लाना सिड की झोली में गिरेगा, पर अभी तो बड़े में
जोश मारता है। लेकिन बड़े बहन पर नहीं चिल्लाये थे।(रेत
समाधि, पृष्ठ-25)
Now,
in just a few months, he too would retire to ample leisure, and the
yelling would fall to Sid. But for now, he still raged. (Tomb of Sand,Page-46)
14. आप भी । (रेत समाधि, पृष्ठ-25)
Well, you are the limit. (Tomb of
Sand,Page-46)
15. रेत में समाधि हिली
है। (रेत समाधि, पृष्ठ-31)
The
tomb of sand shifted. (Tomb of Sand,Page-57)
16. टीवी पर महाभारत आ रहा है।
(रेत समाधि, पृष्ठ-32)
The
Mahabharat is coming on TV. . (Tomb of
Sand,Page-59)
17. जिधर देखो वही भदेसपन, वही लालची
कंज्यूमरिज़म, वही नकलची संस्कृति, और वही न इधर के न उधर के न किधर के फरफरे छिछले उथले सिलबिले लोग।(रेत समाधि, पृष्ठ-38)
The same flittering flimsy frivolous ineffectual people who only
know how to imitate and ape, so they belong neither here nor there nor anywhere. (Tomb of Sand,Page-73)
18.
गम्भीर वहाँ से उठ लिया। उजाड़ते लोगों की उजड़ी दुनिया फिर से हर
तरफ दिखने लगी। बियर कैन और प्लास्टिक थैलियों से पीड़ित रेत, गोरों द्वारा छेंकी
हुई धरती, थुलथुले हिन्दुस्तानी नकलची बन्दर, प्रकृति को रुलाता
अपने को संगीत समझता शोर, हँसते चीखते स्टुपिड लोग, हँसो, कह रहे हैं, है कुछ आपके चलाये
इस देश में कि हँसें, भुन भुन भुन गम्भीर भुनभुनाता कमरे लौट गया।(रेत
समाधि, पृष्ठ-39)
Serious
Son got up and left. The world, wrecked by destructive humans, rematerialized
all about him. The sand, de filed with beer cans and plastic bags, the earth, colonized
by white people, the flabby Indian bandar log, the cacophony that
fancies itself music and makes nature weep, the laughing screaming stupid
people, laugh, they told him; what's there to laugh about-look at all you've
done to this nation! Fume fume fume. Serious Son went back to his room, fuming.
And fell asleep. . (Tomb of Sand,Page-75)
19.
दोबारा उसने होंठ फैलाये और जबड़ों से ठिलठिलाहट मारी और तीर की सी तेज़ी से बरामदे में लगे शीशे की तरफ मुड़ा कि हँसी मिटने के पहले
देख लूँ। वहाँ फटा कटा चेहरा, फैले होंठ, फूटते दांत, मिचती आँखें। हैं!
हँस नहीं सकते ? (रेत समाधि, पृष्ठ-41)
He
stretched his lips wide again and forced a chortling from his jaws, and swift
as an arrow, turned toward the veranda win dow to take a look before the
laughter disappeared. That torn face, outstretched lips, protruding teeth,
squinting eyes There! Who says I can't laugh? Isn't that a laugh? It is, isn't
it? But the situation only
grew more grave. Can't laugh, doesn't. (Tomb of Sand,Page-78)
20. गाड़ियों के बीच
चिथड़ों में फ़िल्मी कैबरे कर रही है, पढ़ी लिखी लड़कियाँ सड़क क्रॉस कर रही हैं और उनके
छोटे कपड़ों से छोटे उनके दिमाग हो गए हैं, और जिस भी रांडू पांडू से पूछो, जिस भी हिन्दुस्तानी जबान में, जवाब वो अंग्रेज़ी में देता है, (रेत समाधि, पृष्ठ-42)
she's dressed in rags, performing a filmi number
between he cars; educated girls crossing the street, their clothing
shrunk smaller than their minds, (Tomb of Sand,Page-78)
21. ये कथा बगिया है, यहाँ दूसरी ताब
और आफ़ताब वर्षा प्रेमी ख़ूनी चरिंद परिन्द पिजन कबूतर उड़न फलाइ लुक देखो आस्मान
इस्काई।(रेत समाधि, पृष्ठ-45)
This
is a story garden, here, a different light and sunlight rain lover murderer
beast bird pigeon fly look sky. (Tomb of Sand,Page-83)
22.
घर द्वार तरोताज़े बनाये, बेटी की शादी की, बेटे भांजे को
नौकरी से लगाया, और टर्म पूरा हुआ और ईमानदारी, गरीबी, टीचरी की खूंटी से वापस गऊ माफ़िक बंध गया।(रेत
समाधि, पृष्ठ-51)
He
redecorated his home, got his daughter married, got jobs for his son and
nephew, and then, when his term was up, he returned, 'docile as a cow, to the
bonds of honesty poverty treachery. (Tomb of Sand,Page-95)
23. कुर्सी है तो पूछ
है, पूछ है तो लम्बी पूँछ है, आगे तो दोनों ही नदारद हो जाते हैं।(रेत समाधि, पृष्ठ-54)
where
there's clout there's a queue, but if you lose the first, the second is
quick to follow.
24. पर खुदाई तो खुदाई है। खुदा भी, खोदना भी। सब कुछ
और कुछ भी वो निकालता है। रेत और मिट्टी से, जल और हवा से, पुरानी हड्डियाँ और कहानियाँ, खुदाई में और खुदाई में, अवतरित होती हैं। (रेत समाधि, पृष्ठ-85)
But digging holes is holy. Whether you are
excavating or expiating. It gets out anything and everything. Be they from sand
or earth, water or air, old bones and old tales take form through both
digging and divinity. (Tomb of Sand,Page-163)
25. एक तो हाल का
खुलासा है। बौद्ध योगी समाधि में बैठा, हजारों वर्ष पूर्व, और खुदी में मिल गया आज, तो उसे चमड़े में मढ़वाकर हाट में बिठाल दिया और अब वो पश्चिमी
देशों के संग्रहालयों में प्रदर्शनियों में अनचाही अनसोची समाधि गर्दिश में नाच
रहा है।(रेत समाधि, पृष्ठ-86)
This
one is a recent item: a Buddha sat in yogic samadhi thou Sands of years ago,
was then dug up by egotism, encased in a leather
preservative, and plonked down in the marketplace, and now he swirls about
Western museums and exhibitions in a tate of wandering samadhi, undesiring,
unthinking. (Tomb of Sand,Page-164)
26. जहाँ गार्गी ने याज्ञवल्क को हराया और मंडन मिश्र की
पत्नी ने शंकराचार्य को वहाँ रोते हो औरत के तिरस्कार, बलात्कार, बहिष्कार की बनाके बकवास ? (रेत समाधि, पृष्ठ-111)
And
how can you carry on about the disrespect, rape and casting out of women, when
this is the land where Gargi once beat Yagyavalk and Mandan
Mishra's wife beat Shankarachary. (Tomb of Sand,Page-218)
27. बेटी ने माँ बनकर
माँ को बेटी बनाया और उनके माथे पे हाथ फेरा। आ गयी यहाँ अब न जाने
दूँगी।(रेत समाधि, पृष्ठ-125)
Beti
became the mother, and made Ma the daughter, and stroked her brow,
(Tomb of Sand,Page-241)
28.
नू घर की न घाट की न अकेले की न केले की न काम की न खेल को न जागे
की न नींद की चौक नींद तो हर हालत में चाहिए और वो हम हर लेंगे और खनखन खनखन, खुसुरपुसुर खुसुर
पुसुर। उनकी भाषा मैं नहीं जानती मगर कुछ तो शैतानी पका रही हैं। कभी तो लग जाता
कि आपस में भिड़ के झकझक कर रही हैं — मैं तुमसे सुन्दर, तुम मुझसे निर्धन न न दोनों का
उद्देश्य एक मुझे सोने मत दो, कान में बजो। खी खी खिखी खनन खनन।(रेत
समाधि, पृष्ठ-149)
Not
alone, at with KK, not working or playing or waking or sleeping, not though she
wants sleep all the time, and We'll kidnap her and jingle jangle jingle jangle
whisper whisper whisper. I don't know their language but they're definitely
cooking up mischief. Sometimes it seems like they're clashing together and
squabing I'm prettier than you-no you're the pathetic,
one. No, no, the two of them have a single goal-don't let me sleep, ring in
years. Jingle jangle cling clang clang cling. (Tomb of Sand,Page-241)
29. थाप से पंचताल बजता है। इस ईंट में जलतरंग, उसमें तबला, इस खम्बे से बीणा, उससे मुर्दाराम पाणों से टकराव तो
घटले की जंजीर ख तो घंटी घंटा, स्लाइडिंग दरवाजा
खींचो तो शहनाई, धूल फूँको तो शंख, गमला हिलाओ तो डमरू।(रेत समाधि, पृष्ठ-162)
Ma tries it too. At the tap of her fingers, instruments are
summoned and notes emerge: sa re ga ma. At the thwap of het foot, the panchtaal
plays. A jaltarang from this brick, able from that, a veena from
this column, a mridangam from that, knock with your legs, you get a ghatam, if
you rattle the chains of the swing, bells ring, a shehnai from pulling the
sliding door, blow on the dust: a conch; shake a flower pot: damroo. (Tomb
of Sand,Page-334)
30. मनमाना मौसम मैन-माना
है और मैन मानता ज़्यादा है, जानता कम है। तो
धूमफिर के ईश्वर पे ही लौटा जाता है चूंकि सब कुछ रामभरोसे।(रेत
समाधि, पृष्ठ-172)
Wilful
weather becomes man-ipulated, and man is a know-it-all who
actually knows very little, just struts about, but ultimately re turns to God,
because everything is God-willing. (Tomb of Sand,Page-344)
31.
बादल घुमड़े तो नायिका का दिल बादल और मेघदूतम। कलियाँ चिटकी तो
पाँव थिरके और चैतन्य महाप्रभु। ओस की बूँद में टैगोर को दिखा ब्रह्मांड। हवा के
ठहराव में अरस्तू का जागा फ़लसफ़ा. (रेत समाधि, पृष्ठ-172)
When
the clouds lower, the heart of the heroine is filled with longing as in
Kalidasa's play Meghadutam. When blossoms bloom the foot dances and evokes
Chaitanya Mahaprabhu. In a drop of dew Tagore discerned the cosmos. In the lull
of wind Aristotle's philosophy wakes. (Tomb of Sand,Page-344)
32.
किसी को नहीं दिखा। क्योंकि कौन हर चीज़ देखने से समझ आती है? सामने से दृश्य
गुजर जाता है और देख कर भी कोई नहीं देखता, न प्रलय को आते, न प्यारे को जाते, न बिंदु को
चौकोराते, न चीता को चींटीयाते, न लकवे को नृतियाते, न बहाव को थम जाते।
कभी दीखता है तो हमारी कल्पना का गढ़ा। बाहर वही जो अन्दर है।(रेत समाधि, पृष्ठ-215)
No
one saw it. Because who understands everything just by seeing? A sight passes
right before us and even when we see it, we don't, don't see a catastrophe
approaching, nor a beloved departing, nor a dot turning square, nor a cheetah
becoming an ant, nor the stemming of the tide. If we do notice things
occasionally, then what we see is what our imagination has formed for us.
Outside same as within. (Tomb of Sand,Page-435)
33. तभी मिथ्या नहीं कि
नरसिंह नरभेड़िया मत्स्यकन्या कीड़ादिमाग तितलीहृदय कछुआमन रंगीलापतन
चीरहरण सीमावतन सब जोड़ बेजोड़ व्यक्तित्व हैं, चाहे पूरे या
अधूरे। और सब अनंत हैं, चाहे बुलबुले ।(रेत समाधि, पृष्ठ-227)
Then
it is not false or a myth that wolfman, fish girl, bug brain, butterfly heart, tortoise
head, colourfall garb grabbing border homeland are all matched
mismatched personalities I whether complete or incomplete. And all infinite, if
evanescent. (Tomb of Sand,Page-460)
34. दूतालय ऐसे देवालय जहाँ तैयारी के बिना कभी खेल पूरा हो
लेता है और कभी छक्के मारते रहे फिर भी हार गए।(रेत समाधि, पृष्ठ-263)
The diplomats are such deities, they can sometimes finish the game with no preparation at all,
and sometimes they keep hitting sixes and losing anyway. (Tomb of Sand,Page-532)
35.
देश बँटे तो दुश्मनी निभती है दोस्ती के साथ, और वीज़ा और बॉर्डर
मूडपेडिपेंड रहता है. कभी घावित, कभी प्लावित, कभी समाधिस्त।वाघा तक साथ आये
बड़े बँटी-बँटी नज़र से अम्मा को बहन के साथ देखते हुए, खुद कोई बॉर्डर हों
जैसे समाधिस्त।(रेत समाधि, पृष्ठ-264)
When
a country divides, enmity jostles amity and visas and borders depend on the
mood-be it slighted, delighted, even far-sighted. Or meditative.
In a state of samadhi. Bade came as far as Wagah, dividing his attention
between Ma and Beti as though he himself were a type of border slighted,
delighted, far-sighted. Entranced. In a trance. Samadhist. (Tomb of
Sand,Page-532)
36. वो इधर का नेशनल
बर्ड, तो अपने को बड़ा तीसमारखां
समझता था। मगर चतुर चटोरे अपने को तीतरमारखां साबित करने में लगे रहते।(रेत समाधि, पृष्ठ-350)
Being the national bird of Pakistan, he thinks he's the partridge's
pyjamas. But the wily greedy humans are always out to show what
prodigious partridge poachers they are. (Tomb of Sand,Page-686)
37.
दिल कलौंस जाता है । (रेत समाधि, पृष्ठ-19)
The
infamy (Tomb of Sand, Page-34)
38.
नारी
चेतना, लिंगभेद, फ़ीमेल ऑर्गेज़्म,ऊलजलूल,हाय हाय। (रेत समाधि, पृष्ठ-33 )
Women’s
consciousness, sexuality, the female orgasm, what gibberish,good God. (Tomb of Sand,Page-62)
39. कहो उस्ताद अमीर खां तो सूझेगी आमिर खां क्यूएसक्यूटी
(रेत समाधि, पृष्ठ-43 )
If you say Ustad Amir Khan, then everyone thinks Aamir
Khan QSQT . (Tomb of
Sand,Page-80)
नोट:- QSQT शायद ही कोई अंग्रेज पाठक समझ पाएगा क्योंकि यह आमिर
खान की हिन्दी फिल्म ‘कयामत से कयामत तक’ का
संक्षिप्तीकरण है। अतः उन्हें यहाँ पर हिन्दी फिल्म ‘कयामत से कयामत तक’ का जिक्र करना चाहिए
था।
40. गांधी औरताना
पालथी में बैठकर सीमा लांघते हैं। (रेत समाधि,
पृष्ठ-207)
Sitting legs tacked to one side in womanly pose, Gandhi
crosses a boundary, (Tomb of Sand,Page-429)
41.
अलग इतर स्वाभिमानी अभिमानी उनकी चाल साहित्यिक । (रेत
समाधि, पृष्ठ-356)
Literature
has a scent a soupcon, a je ne sais quoi, all its own. And
that is its style. (Tomb of Sand,Page-698)
42.
कौवी (crowess) तो कौवी हृदय (heart of poet) कैसे ?
43.
ईसीजी,ईएनटी,एमआरआई (रेत
समाधि, पृष्ठ-202)
ECU,ENT,MRI (Tomb of Sand,Page-409) ( Printing mistake ECU
instead of ECG)
44.
काला बैंगन भट्ट = Black skinned Baigan Bhatt ?
अनुवाद के बारे में
एक जगह लेखिका स्वयं लिखती है, “अनुवाद बलाओं में बला जहाँ मुस्कान माने चक्कू
और खाओ का खिलाओ और आ गए का जाते क्यों नहीं और जरूर का बुरे फँसे और आदि का अनंत
और अम्मा का बचपना और बेटी का सयाना और इससे भी ज़्यादा डरावना, तो कैसे भाषा गढ़े?” (रेत समाधि, पृष्ठ-214)
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