हलधर योगी
कन्नड मूल: राष्ट्रकवि कुवेन्पु
हिन्दी अनुवाद: डॉ॰ माधवी एस॰ भण्डारी, उडुपि
हल को धरकर खेत में गाते
जोतते योगी को देख वहाँ
फल की अपेक्षा तज सेवा ही पूजा मान
कर्म ही इहपर साधन है
कष्ट में अन्न को कमाने के त्यागी
सृष्टि नियम में वही तो भोगी
जोतते योगी को देख वहाँ
लोक में कुछ भी चलता रहे
वह अपने कर्म से विमुख नहीं
भले ही राज्य बना रहे निर्नाम भी हो जाय
उड़ जाय सिंहासन मुकुट भले
चहुं दिशा से आक्रमण करले सैनिक
बोवना कभी वह छोड़े नहीं
जोतते योगी को देख वहाँ
पनपी अपनी नागरिक संपदा
मिट्टी के गलियारे हलाश्रय में
हल धरनेवाले के हाथ सहारे
राजाओं ने किया ठाठ से राज
हल के बल पर योद्धा धमके
शिल्पी चमके कविगण लिखाई कर पाये
जोतते योगी को देख वहाँ
अनजान हलधर योगी ही
जगती को देता अन्न यहाँ
ख्याति न चाहके अतिसुख तजके
कर्मठ वह गौरव की आशा छोड़
हल के कुल में छिपा है कर्म
हल के बल पर टिका है धर्म
जोतते योगी को देख वहाँ!
[कन्नड के ज्ञानपीठ पुरस्कृत राष्ट्रकवि कुवेन्पु द्वारा
रचित कन्नड के इस गीत को कर्नाटक सरकार ने कृषक गीत का दर्जा दिया है। सरकारी कार्यक्रमों में समूह गान
के रूप में इसे गाना अनिवार्य बना दिया है।]
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