यात्रा-संस्मरण
पूर्व
और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’
-दिनेश कुमार माली
यह भी कितना
विचित्र संयोग था कि पहली बार दो विख्यात महिला साहित्यकारों का ओड़िशा की धरती पर
मिलन हो रहा था, 26.5.2019 को भुवनेश्वर की ट्रिबो किंग होटल में। दोनों ही अलग-अलग
संस्कृति और अलग-अलग परिवेश में पली-बढ़ी। दोनों के वैचारिक धरातल में कुछ जगह
साम्य तो कुछ जगह असाम्य, मगर मिलने का अवसर कुछ ऐसा ही था मोनों बचपन की बिछुड़ी हुई बहिनें पहली
बार मिल रही हो, सारे धार्मिक, सांस्कृतिक, पारिवारिक, वैचारिक
मतभेदों को
एक तरफ ताक पर रखकर।
पहली केन्द्रीय साहित्य अकादमी से पुरस्कृत हिन्दी
की वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती विमला भंडारी, तो दूसरी अंतरराष्ट्रीय
ख्याति-लब्ध नारीवादी लेखिका- ओड़िया औपन्यासिक एवं कहानीकार श्रीमती सरोजनी
साहू। इस मुलाकात
का
अवसर भले ही साहित्यक
उद्देश्य नहीं था, पर मांगलिक कार्यक्रम अवश्य
था। ऐसे विमलाजी मेरी साहित्यिक गुरु भी है और राजस्थान के मेवाड़ अंचल के पारंपरिक
परिवेश में पली-बड़ी होने के कारण उनके वात्सल्यता से परिपूर्ण चेहरे पर बड़ी बहिन
की तस्वीर देखता हूँ। कहने का वही प्रशांत सौम्य अंदाज, नेतृत्व
की अद्भुत क्षमता और दैदीप्यमान चेहरे पर वही सुकान्ति- जो मुझे उन्हें ‘दीदी’ कहने के लिए प्रेरित करता है। कोई भी साहित्यिक आलेख
लिखते समय मेरे लिए उनका नाम या दीदी का सम्बोधनसूचक शब्द चयन करने में गहन
अंतर्द्वंद्व पैदा होता है। एक तरफ नाम से साहित्यिक गरिमा तो दूसरी तरफ दीदी शब्द
की आत्मीयता, इसलिए जहाँ साहित्य की बात आ जाती है, वहाँ उनका नाम ‘विमला जी’ और जहाँ अन्तर्मन आत्मीयता
की हिलोरे खाने लगता है, वहाँ ‘दीदी’ शब्द का प्रयोग करता हूँ। ऐसा ही डॉ॰ सरोजिनी साहू के नाम से
जुड़ा हुआ दृष्टिकोण है। एक तरफ ईब घाटी कोयलांचल में एक दशक से ज्यादा पड़ोसी रहने
के कारण और वयस में डेढ़ दशक का अंतर होने के कारण अलग-अलग धरातल पर कभी उन्हें ‘भाभीजी’ के नाम से लिखता हूँ तो कभी सरोजिनी साहू के नाम से।
पाठकों की सुविधा के लिए यह सब लिखना मैंने आवश्यक समझा।
दीदी के देवर की बेटी की शादी भुवनेश्वर में हो रही थी- अतः उन्हें सपरिवार वहाँ
आना ही था। यह समय की लीला ही
तो है कि राजस्थानी और ओड़िया संस्कृतियों का सम्मिश्रण का उदाहरण बनती जा रही है
हमारी नई पीढ़ी पुरानी
पीढ़ियों द्वारा स्थापति जाति-संप्रदाय, धर्म, गोत्र आदि के बंधन को तोड़कर उन्मुक्त हवा में साँस
लेने के लिए बेताब होकर अपने
जीवन,रहन-सहन,भाषा- शैली
और वैचारिक मापदंडों को स्वयं तैयार कर रही है।
सही
में, जगदीश जी भंडारी (विमला जी के पति) के चेहरे के हाव भावों
में कुछ मायूसी जरूर थी। यह सही
है कि प्रेम-विवाह के बिलकुल खिलाफ तो वह खुद भी नजर नहीं आ रहे थे, मगर उन्हें याद सता रही थी अपने
पूर्वजों
की स्मृतियां, उनकी ढानियां, रेत
को थोरे, बड़े-बड़े राजप्रसाद, झीलें, राजस्थानी खान-पान और सर्जनशील
कलात्मक परिवेश। मुझे कहीं से ऐसा लगा कि विमला जी भी शायद
उस सांस्कृतिक विरासत को
मन ही मन कहीं खोया हुआ महसूस कर रही थी। यह
स्वाभाविक है, मगर दो विभिन्न संस्कृतियों
का समावेश अपने आपमें किसी सहृदय साहित्यकार के
लिए अनुपम उपहार
से कम नहीं होता है। पुरानी पीढ़ी को घुटन तो तब लगती है, जब वैष्णव परिवार को शादी के भोजन में अगर अंडे या
मांसाहार परोसा जाए। उससे ज्यादा और क्या दर्दनाक अनुभूति होगी! राजस्थान के अधिकांश परिवारों के लिए यह किसी असहनीय प्रसव-वेदना से कम नहीं है। भारतीय संस्कृति
को वैचित्र्य ही
देखिए, राजस्थान के ब्राह्मण परिवार जन्मजात
शाकाहारी होते है तो ओड़िशा के ब्राह्मण परिवार जन्मजात मांसाहारी। कहने
को तो दोनों ही ब्राह्मण ! ओड़िया शादियों
में अगर बारातियों को मछली खाने को नहीं दी जाएगी, तो वे रूठकर चले जाएंगे और उस शादी को ‘घासफूस’ वाली शादी कहेंगे।
मेरा उद्देश्य
अलग-अलग प्रान्तों के भोजन-शैली का वर्णन करना नहीं है, बल्कि साहित्यकारों में मन में उठ रही जिज्ञासाओं, उनकी धारणाओं, जीवन-शैली और वैचारिक दृष्टिकोण को अपने नजरिए से सामने रखना है। यह
तो पूर्णतया सही है, साहित्यकार
की परिधि भी
समाज होती है
अतः सामाजिक संरचनाएं उन्हें अवश्य प्रभावित करती है, उसके उपरांत भी,
उनका अपना वैचारिक दायरा बहुत फैला हुआ होता है, जिसमें उनके अर्जित अनुभवों के अरण्य, कल्पना-शक्ति की सरिताएं और निरीक्षण शक्ति की सूक्ष्म-अनुभूतियों के विभिन्न क्षेत्र
देखने को मिलते हैं।
बाहरी दुनिया की घटनाओं
से अविचलित हुए अपने मन की दुनिया में क्या हलचल हो रही है, उन्हें शब्दों में पिरोना किसी मनोवैज्ञानिक लेखक
के लिए भी किसी चुनौती से कम नहीं होता है। या तो शब्द कम पड़ जाते है या फिर
अभिव्यक्ति की शैली लड़खड़ाने लगती है।
ओड़िया साहित्य से विमला जी से पूर्व
परिचित थी, उन्होंने मेरे कई
ओड़िया कृतियों के हिन्दी अनुवाद पढ़ रखे थे। यहाँ तक कि सरोजिनी साहू की कई कहानियों, उपन्यासों और आलेखों पर उन्होंने अपने अभिमत भी
दिये थे। ‘पक्षीवास’ उपन्यास पर तो उन्होंने प्राक्कथन तक लिखा था। यह पहला प्राक्कथन था, जिसने मुझे साहित्य लेखन के प्रति सचेत किया। मैं यह
अच्छी तरह जानता हूँ कि उनके अंतस में ओड़िया संस्कृति और साहित्य के प्रति
अगाध श्रद्धा पैदा हो चुकी थी। यह भी
भाग्य की बात है, उन्हें केंद्रीय
साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला तो वह भी ओड़िया-अंग्रेजी के विश्व-विख्यात लेखक
मनोज दास के हाथों से। उन्हें ओड़िया लेखकों में सीताकांत महापात्र, रमाकांत
रथ, जगदीश मोहंती, प्रतिभा राय, गोपीनाथ
मोहंती तथा सरोजिनी साहू आदि अतिप्रिय है और
मेरे साहित्यिक मित्रों में डॉ० प्रसन्न कुमार
बराल, उदयमान बेहेरा और
हरिराम पंसारी जी । नंदिता मोहंती ने उनकी प्रसिद्ध कहानी ‘नभ के
पंक्षी’ का
ओड़िया में अनुवाद तक किया था। इतनी गहरी पैठ वाली साहित्यिक पृष्ठभूमि लिए अगर
विमला जी का ओड़िशा की धरती पर पर्दापण होता है तो समन्वय सेतु के रूप में काम रहे
लेखकों को विशेष
प्रेरणादायक महत्वपूर्ण
अवसर प्राप्त होता है।
मेरे लिए तो अत्यंत
ही हर्ष का विषय था कि डॉ॰ सरोजिनी
साहू और डॉ॰ विमला
भंडारी की मुलाकात अपने आप में
एक अविस्मरणीय यादगार बन जाएगी, क्योंकि दोनों लेखिकाओं पर
मैंने गवेषणात्मक काम किया है। विमला
जी के समग्र साहित्य पर मैंने ‘डॉ० विमला भंडारी की रचनाधर्मिता’ अपनी आलोचना-कृति की रचना की तो सरोजिनी साहू की
अनेक ओड़िया कहानी-संग्रहों जैसे ‘रेप तथा अन्य कहानियाँ’, ‘सरोजिनी साहू की दलित कहानियां’, उनके उपन्यास ‘बंद कमरा’, ‘पक्षीवास’, ‘विषादेश्वरी’ आदि का हिन्दी अनुवाद और उनके स्वर्गीय पति जगदीश
मोहंती की श्रेष्ठ कहानियों और
उपन्यासों का भी मैंने अनुवाद किया था। इस प्रकार पूर्व-पश्चिम की लेखिकाओं को जोड़ने
के लिए पुल का काम कर रही थी मेरी अनूदित कृतियां।
ओड़िशा के पौराणिक उत्कल और
कलिंग का
अविस्मरणीय इतिहास देश के कोने-कोने में विख्यात है। यहाँ कभी पांडवों ने द्रौपदी समेत उत्कल के धूल-धूसरित
जंगलों में विचरण किया और अपने कर्मो के प्रायश्चित के लिए जाजपुर की वैतरणी तथा पुरी
के महोदधि
में गोते लगाए थे। यह वह धरती है, जहाँ
कभी शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, माधवाचार्य, वल्लभाचार्य, चैतन्य महाप्रभु, नानक और कबीर की वाणी मुखरित हुआ करती थी। अद्भुत धार्मिक समन्वय की धरती
है यह! महात्मा गांधी के पद भी यहाँ पड़े थे, कस्तूरबा के साथ। सन् 1933
या 34 की बात रही होगी। भले ही, कस्तूरबा का
जगन्नाथ-दर्शन महात्मा गांधी को रास नहीं आया।
उनके दृष्टिकोण में अगर वे जगत के नाथ होते
तो निचली जातियां उनके दर्शन के लिए वंचित क्यों रहती? क्या निचली जातियां समाज का हिस्सा नहीं है? मलेच्छ
और विदेशी जातियों को उनके दर्शन
के अधिकार क्यों नहीं है?
भीमभोई जैसे महिमापंथी संत भी इसी धरती पर पैदा हुए। भौतिक आँखों से, भले ही अंधे रहे हो, मगर आत्मा की आँखों से उन्होंने अध्यात्म का
प्रकाश देखा। मूर्तिपूजा का घोर-विरोध किया और निराकार ईश्वरीय
सत्ता को मानने का आह्वान।
धार्मिक
उथल-पुथल वाली इस जगह में दिनांक 25.5.19 को विमला जी अपने पति जगदीश जी भंडारी के साथ भुवनेश्वर नीलाद्री चैराहे
के पास ट्रिबो
किंग होटल में दो दिन रूकी।
पहले दिन ही सुबह
हम यानी उदयनाथ बेहेरा, डॉ०
सरोजिनी साहू और नंदिता मोहंती उन्हें मिलने गए तथा शॉल एवं पुष्पगुच्छ से इस सारस्वत दंपति का अभिवादन किया।
नंदिता ओड़िया कहानीकार
है और हिन्दी
से ओड़िया भाषा की अनुवादिका। मृदुभाषी है, भारतीय डाक विभाग में कार्यरत। उनके कई ओड़िया अनुवाद प्रकाशित हो चुके है और मौलिक कृतियां भी ।
मैं विमला जी को मिलने ट्रेन में तालचेर से
भुवनेश्वर गया और वहाँ
मेरा इंतजार कर रहे थे उदयनाथ बेहेरा, एम०सी०एल के सेवानिवृत्त प्रबंधक (राजभाषा), ओड़िया कवि, अनुवादक। यह अलग बात है कि
कविता-संग्रह छपवाने में उनकी कभी दिलचस्पी नहीं रही।
केवल पठन-पाठन, चिंतन-मनन और
सरस-सरल जीवन-यापन में सदैव उनका अटूट विश्वास रहा। साई भक्त होने के कारण जीवन में पूरी तरह सीधा-सादा।
डॉ० सरोजिनी साहू किसी परिचय की मोहताज नहीं है। उनका फ्लैट ‘ट्रिबो
किंग’ होटल के सामने से
गुजरने वाली गली के दाहिनी ओर वाले मोड़ पर था। इसलिए इन्हें इस होटल में आने में ज्यादा समय नहीं लगा। इस अवसर पर उन्होंने
अपनी पुस्तक ‘विषादेश्वरी’ की
प्रति नंदिता जी भेंट की तो दूसरी प्रति ‘विमला जी’ को।
विमला जी के पास भी कई अपनी पुस्तकें थी। हम सभी ने होटल के गलियारे में विशिष्ट
भित्तिचित्र के सामने किताबों को अपने हाथों में पकड़कर दर्शकों को दिखाने की
मुद्रा में रखते हुए तस्वीरें खिंचवाई, मानो हमारी पुस्तकों का सचमुच विमोचन पर्व हो।
कुछ समय इधर-उधर की
बातें करने के बाद हमारा सफर शुरू होता है:-
भुवनेश्वर
से पुरी
न्ंदिता जी को उनके
ऑफिस में छोड़कर हमारी कार दौड़ने लगती है पुरी की तरफ जाने वाली विस्तृत सड़क पर।
पर्यटन की दृष्टि से बनाई हुई इस विस्तृत सड़क के दोनों ओर की प्राकृतिक सुषमा मन के अंदर असीम शांति पैदा कर रही थी। हो भी
क्यों नहीं, शांति का दूत था यह प्रांत, कभी
विश्व-इतिहास में। कभी अशोक जैसे निर्दयी सम्राट को शांतिपूर्ण
जीवन जीने की सीख यहीं पर तो मिली थी। अचानक सामने
दिखाई पड़ने लगी, दयानदी। उसे देखते ही उदयनाथ बेहेरा कहने लगे, “यही वह नदी है, जहाँ अशोक सम्राट (269-232) के मन में दया की भावना पैदा हुई थी। हजारों निर्दोष लोगों का वध हुआ, अशोक की कलिंग-विजय की अदम्य
इच्छा की पूर्ति के लिए।”
इतिहास विषय में विमला जी की
विशेष रूचि होने के कारण उनका मन इतिहास के किन पृष्ठों को टटोल रहा होगा,
यह तो मैं नहीं कह सकता, मगर इतना जरूर कहूँगा कि जगन्नाथ की इस पवित्र धरती के पौराणिक विषय-वस्तु,भौगोलिक, ऐतिहासिक एवं मिथकीय पात्रों को जानने की उनकी इच्छा अवश्य बलवती हुई होगी कि किस
तरह दुष्ट यानि चंडाशोक धर्माशोक में बदल गया होगा? तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक परिस्थितियां कैसी रही होगी? उत्तर में वैतरणी से गंगा नदी तक तथा दक्षिण में
गोदावरी में फैले हुए इस भूखंड में कितनी धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक क्रांतियां हुई होगी?
रघुवंश में कालिदास
ने इस प्रांत का नाम ‘उत्कल’ रखा, बाद शैवमत
के आने से अर्थात् शिवलिंगों की पूजा होने से कलिंग और बाद में ‘ओड्र’ नामक बर्बर जातियों के प्रवेश से ओड़िशा। आज के
पढ़े-लिखे ओड़िया लोग अपने प्रदेश का ‘उत्कल’ या ‘कलिंग’ प्रदेश कहना ज्यादा क्यों पसंद करते है? मेरे मन में याद आ गया डॉ० काली चरण चैधरी का वह वक्तव्य, जिसमें उन्होंने ‘ओड़िशा’ के अनेक प्राचीन
नामों जैसे ओड्र,
कोशल, तोषालि, कलिंग, कंगोद, समाप, बोषली, मोषली आदि का उल्लेख किया था। ‘महाभारत’ के समापर्व के अनुसार सहदेव ने ‘ओड्र’ राज्य पर विजय प्राप्त की थी। पुराण के अनुसार सुद्युम्न के पुत्र ‘उत्कल’ ने इस राज्य की प्रतिष्ठा की थी, इसलिए इसका नाम ‘उत्कल’ पड़ा तो कई विद्वानों के अनुसार यह भूमि विविध
कलाओं की उत्कर्षता को प्रतिपादित करती है, इसलिए यह प्रांत ‘उत्कल’ कहलाता है। जो भी हो, धार्मिक विप्लव की कहानी कुछ और ही है। पता नहीं, क्या-क्या बातें विमला जी के दिमाग में चल रही
होगी। दया नदी के पास उनका मन हुआ कि क्यों नहीं कार को एक पल रोककर
ही सही, कभी रक्तरंजित रही इस
दयानदी के किनारे बैठकर बौद्ध भिक्षु और अशोक के वार्तालाप के क्षणों और कंपनों अपनी स्मृति-वातायन से देखने और अनुभव करने का
प्रयास करती।
अचानक यर्थाथ
स्थिति में आते हुए उन्होंने प्यार भरी दृष्टि मेरी ओर बेहेरा साहब की तरफ देखा, मानो उनकी
तंद्रावस्था टूट रही हो। फिर अपनी चेतना को दूसरे धरातल पर लाते हुए डॉ॰ सरोजिनी से पूछने लगी, ‘‘आज
भी आपकी कई कहानियां ‘रेप’, ‘प्रतिबिंब’, ‘बेड़ी’, ‘दुख
अपरिमित’, ‘बलात्कृता’, मेरे
मन-मस्तिष्क पर ज्यों की त्यों छाई हुई है। आपके उपन्यास ‘विषादेश्वरी‘ ‘बंद
कमरा‘ और ‘पक्षीवास‘ ने तो बहुत प्रभावित किया है। ‘विषादेश्वरी‘ की नायिका तो पुरी की थी, जहाँ
तक मुझे याद है? ‘पक्षीवास‘ का तो कहना ही क्या, पढ़ने मात्र से शरीर में सिहरन उठने लगती है और
रोंगटे खड़े हो जाते है, इतना
दर्द आपके कथानकों में कहाँ से आता है? ‘दुख अपरिमित‘ कहानी का अंत तो आपने
अधर झूल में ही छोड़ दिया है, ऐसा क्यों? उस
छोटी बच्ची का क्या हुआ होगा, जो
दलदल में धंस रही थी, एक हाथ में अपना स्कूल बैग उठाए हुए थी, वह
बची होगी भी या नहीं? आज भी पाठकों को आपके
उत्तर का इंतजार होगा। यहीं नहीं, आपकी
एक और कहानी ‘बलात्कृता’ में एक सामान्य-सी घटना को लेकर जिस तरह मार्मिक वर्णन किया है कि कहना ही क्या! सच पूंछू तो, सरोजिनी जी
आप इतना अच्छा लिखती कैसे है? मुझे वह टेबल और कुर्सी देखनी है, जहाँ पर बैठकर आप लिखती है।”
एक ही सांस में
विमला जी ने उनकी लिखी हुई कहानियों और उपन्यासों पर अपनी पाठकीय प्रतिक्रिया
व्यक्त कर दी।
सरोजिनी जी के
चेहरे पर एक मृदु मुस्कान स्पष्ट दिखाई देने लगी। एक सच्चे पाठक की प्रतिक्रिया
पाकर एक समर्पित लेखक अपने आपको इस कदर भाग्यशाली समझता है मानों उसे कोई खोया हुआ
खजाना मिल गया हो।
एक बार मेरी तरफ स्नेहभरी
निगाहें डाली हुए मुस्कराते
हुए वह कहने लगी, ‘‘मैं
अपनी कहानियों और उपन्यासों के पात्र इर्द-गिर्द के परिवेश, समाज और यहाँ तक कि परिवार के सदस्यों में खोजती
हूँ। मैं यथार्थ पर लिखना चाहती हूँ, न कि कल्पना के बल पर अर्थात् अनुभूतियां जो मैं अनुभव करती हूँ, वही लिखती हूँ।”
उनके कथन को काटते
हुए मैं अपनी तरफ से उनके उत्तर को आगे बढ़ाता हूँ, ‘‘भाभीजी, अक्सर अपने परिवार
और इर्द-गिर्द के जीवित पात्रों अथवा घटनाओं को अपनी कहानियों में समेटती है, जैसे ‘दुख अपरिमित’ कहानी उनकी बेटी मयूरी पर लिखी गई है, तो ‘बेड़ी’ अपनी पड़ोसी महिला
पर। ‘बलात्कृता’ अपने घर में हुई
चोरी की घटना पर टूटी अलमारी देखकर तो ‘प्रतिबिंब’ कोयलांचल
के किसी श्रमिक नेता की जिंदगी को केन्द्रित कर। इसी तरह उपन्यासों में बहुत सारे
पात्रों को वह अपने भीतर इस तरह समेट लेती है मानो वह खुद ही उसकी भूमिका अदा कर
रही हो मतलब लेखिका
की आत्मा ही पात्र की आत्मा बन जाती है।”
यह कहकर मैं अपने
भीतर समाए हुए आलोचक को चुप करने का
संकेत करता हूँ। अभी भी विमला जी का आधा सवाल अनुत्तरित
था, इनका सवाल का बचा
हुआ हिस्सा था कि वह कब और किस जगह पर बैठकर लिखती है।
विमला जी के आशंका
भरे चेहरे की तरफ देखकर नीरवता को तोड़ते हुए सरोजिनी जी उत्तर देती है, ‘‘मेरे लिखने का समय या स्थान निर्धारित नहीं है।
पारिवारिक महिला होने के कारण यह संभव भी नहीं हैं टेबल और कुर्सी पर बैठकर लिखना
मेरे बस की बात नहीं है। मैं एक डायरी में लिखती हूँ बिस्तर पर बैठकर, तकिए को गोदी में रखकर। समय के बारे में क्या कहूँ, जब मुझे लगता है कि मेरे भीतर से कोई लिखने के लिए
फोर्स करता है तो मैं लिखना शुरू कर देती हूँ, अन्यथा कुछ समय बाद वह भाषा, वह बिंब, वह
दृश्य सब कुछ या तो धूमिल पड़ जाएगा या फिर गायब हो जाएगा। कभी-कभी तो केवल एक ही
सीटिंग में पूरी कहानी लिख डालती हूँ ताकि कहानी की अंतर्वस्तु, उद्देश्य भंग न हो जाए। यह मेरी ड्राफ्ट कहानी
होती है, उसे बाद में किसी ‘पत्रिका’ में भेजने के लिए फिर से ‘रिराइट’ करती हूँ आवश्यक संशोधनों के बाद। इस प्रक्रिया में
कुछ छूट जाता है तो कुछ जुड़ जाता है। ऐसी ही प्रक्रिया उपन्यासों के साथ होती है। ‘बंद कमरा’ जैसा उपन्यास तो मैंने सात-आठ दिन में ही लिख डाला
था, बिस्तर पर पेट के
बल सोकर लिखते हुए। दोनों हाथों की कोहनियों में घाव तक पड़ गए थे। खाना बनाना तक
भूल गई थी। मैं जगदीश (उनके पति का नाम) की सदैव आभारी रहूंगी कि उन्होंने मुझे
पूरा सहयोग दिया और खाना खुद जाकर बाजार से लेकर आने लगे। वे मेरी कृतियों के पहले
पाठक बनते थे। मेरा मानना है कि जब आपके भीतर अभिव्यक्ति की तीव्रता जन्म लेती है, तभी
लिखना चाहिए, अन्यथा नहीं। मैं
तो इसी किसी दैविक-सत्ता
का वरदान ही मानती हूँ, जो
मन को शब्द, रंग, गंध, स्पर्श आदि के बिम्ब-प्रतिबिंब, अनुभूतियों और स्मृतियों से ऐसे अप्लावित कर देता है कि आप लिखे बिना रह
नहीं सकते।”
पहले
ही कह चुका हूँ कि मैं सरोजिनी जी का पड़ोसी रहा था, लगभग एक दशक तक और उनकी कृतियों के अनुवाद के दौरान रचना-प्रक्रिया से परिचित था।
जगदीश मोहंती और सरोजिनी साहू का नाम ओड़िया साहित्य में बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। सरोजिनी साहू के कहानियों और उपन्यासों का देश-विदेश
की कई भाषाओं में अनुवाद होने के कारण, उन्होंने समकालीन भारतीय
साहित्य में न केवल ओड़िशा की उपस्थिति दर्ज कराई, वरन श्रीलंका इंग्लैंड, अमेरिका, फ्रांस, चीन आदि विदेशों में भी भारतीय साहित्य की गरिमा को आगे बढ़ाया है। ‘रेप’ कहानी के अनेक विदेशी अनुवादों ने उन्हें विश्व परिदृश्य पर न केवल अज्ञेय की तरह मनोवैज्ञानिक मौलिक
साहित्यकार के रूप में स्थापित किया है, वहीं ओड़िशा की मिट्टी की महक और संस्कृति को विश्व दरबार से परिचित करवाया है।
इधर-उधर की
साहित्यिक चर्चा, ओड़िशा की लोक-कथाएं
और संस्कृति पर आपस में चर्चा करते हुए हमारी कार पता नहीं, कब पुरी के प्रवेश द्वार पर पहुँच गई। जगन्नाथ धाम
पुरी में प्रवेश करते ही एक
प्रकार की सकारात्मक ऊर्जा, आध्यात्मिक
शक्ति अनुभव होने लगती है और प्राकृतिक सुषमा आपके मन
के द्वार खोलने लगती है।
राजस्थान के
विभिन्न मंदिरों पर शोध करने वाली तथा भारतीय इतिहास में अत्यधिक रूचि रखने वाली
विमला जी के मन-मंदिर में
अवश्य राजा ययाति
केशरी, चोडंगदेव और अनंगभीम
के नाम प्रवेश कर रहे होंगे- ऐसा मैं सोच रहा था। सरोजिनी जी उन्हें ‘रथ यात्रा’ के
बारे में बता रही थी।
“आषाढ़
शुक्ल पक्ष द्वितीया यानि जून महिने में रथ-यात्रा होती है। बलभद्र,
जगन्नाथ जी और सुभद्रा दारू ब्रहा के रूप में
अपने-अपने रथों में यानि तालध्वज (चौदह पहियों वाला, 13.2 मीटर ऊँचा), नंदिघोष (सोलह पहियों वाला, 13.5 मीटर ऊँचा) और देवदलन (बारह पहियों वाल, 12.9 मीटर ऊँचा) जगत-जन दर्शन देने की इच्छा से मंदिर से बाहर निकलते है, अपने-अपने सारथियों मातलि,
सात्यकि और अर्जुन के साथ। लाखों श्रद्धालु रथ खींचते
है और अपने को भाग्यशाली मानते है। ये रथ पहुँचते है-गुडिचा मंदिर, अपने मौसी के घर। वहाँ नौ दिन
रूकने के बाद फिर अपने मंदिर में लौट आते है। इस वापसी यात्रा को ‘बाहुड़ा यात्रा’ कहते
है।”
यह बताते हुए वह
चुप हो गई और मंदिर के सामने पानी के नलों के नीचे अपने पांव धोने लगी। यह देखकर
हम सभी भी अपने पांव प्रक्षालित करने लगे। पांव प्रक्षालन शायद मंदिर की स्वच्छता
के लिए अभिन्न अंग माना गया होगा, ताकि
मंदिर में किसी भी प्रकार की गंदगी न फैले, आखिर हजारों लोगों का मंदिर में तांता बना रहता है।
मेरे मन में एक
ख्याल अवश्य आया कि नारीवादी लेखिका होने के कारण सदैव से ही सरोजिनी जी का ध्यान
नारी शक्ति और नारी अधिकारों के प्रति अवश्य जाता है, कभी उन्होंने सोचा क्या रथ के बारे में सुभद्रा देवी के साथ पक्षपात नहीं किया हमारे
पूर्वजों ने? इस देश में नारी को
जगत जननी का दर्जा दिया जाता है, नारी
की पूजा की जाती है। उस देश में महापुरूषों ने सुभद्रा जी की श्रेणी दूसरे समतुल्य देवताओं की तुलना
में नीचे क्यों की? यह तो झंझावात मेरे अंदर में चल रहा था, मगर
बाहर निकलकर मूर्त रूप नहीं ले पा रहा था, शायद साहस नहीं जुटा पा रहा था। आखिर देवी-देवताओं का मामला जो ठहरा और वह भी ब्रह्मांड के पति के परिवार पर अंगुली उठाना था।
जिस परिवार का हर कार्य के आगे या तो ‘महा’ जुड़ता है या फिर ‘बड़’ यानि बड़ा, उदाहरण
के तौर पर- छप्पन भोग का प्रसाद महाप्रसाद, उनकी बाहों को महाबाहु, उनकी आँखों को बड़ आँखि, मंदिर की ध्वजा को महाबाना, मंदिर को बड़ मंदिर, सामने के रास्ते को बड़ दांड, मंदिर के आंगन के वटवृक्ष को ‘महाद्रुम’, प्रभु की देवदासी को ‘माहारी’ और उनकी प्राचीर को
‘मेघनाद पाचेरी’ कहा जाता है।
कहते है, जगन्नाथ नारी सशक्तिकरण के हिमायती है तभी तो उनका प्रसाद पहले मंदिर के
प्रांगण में विमला देवी को चढ़ाया जाता है, तब जाकर वह ‘महाप्रसाद’ बनता है। फिर अपनी बहिन सुभद्रा के लिए छोटा रथ, कम पहियों वाला, ऐसा क्यों?
मन में उठ रहे अनेक
प्रश्नों के झंझावत को विराम करते हुए चुपचाप एक स्थित-प्रज्ञ की भांति मैं हमारे दल के पीछे-पीछे जाने लगा, जिसका नेतृत्व कर रही थी सरोजिनी साहू, उनके पीछे पंक्तिबद्ध चल रहे थे उदयनाथ बेहेरा, जगदीश भंडारी और विमला भंडारी और मैं। मंदिर के भीतर की
मोटी दीवार को देखकर जहाँ मन के कौतूहल पैदा होता है, वहाँ बाईस
सीढ़ियों को पारकर
श्रद्धालुओं की लम्बी लाइन में लगना सभी के भीतर आध्यात्मिकता के स्फुरण पैदा कर
रही थी। बीच-बीच में कुछ पंड़े सिर के ऊपर लकड़ी के चिमटे से हल्का-सा वार कर रहे थे
तो बाईस सीढ़ियों पर यत्र-तत्र आदमी और औरतें पंडों के पास बैठकर दुख-क्लेश को
मिटाने के लिए नन्हें-नन्हें हवनों का कर्म-कांड
कर रहे थे। यह कहना असंगत होगा या सुसंगत, पता नहीं, क्या वास्तव
में कर्मकांड से उनके दुख दूर हो रहे थे? क्या यह
तो नहीं परंपरा के नाम पर, केवल मनोवैज्ञानिक
ढंग से उनके ऊपर अदृश्य आवरण बिछाया जा रहा था, सदियों से चली आ रही मानसिक गुलामी को बरकरार रखने
के लिए?
भीड़ की एक हिलोर से हम गर्भ-गृह में पहुँच गए और
सामने थी काष्ठ से बनी तीन मूर्तियां- अपाद
और अहस्त-जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की। विमला जी और सरोजिनी जी ने साड़ी के पल्लू से अपना
सिर ढककर दोनों हाथ ऊपर उठाते हुए
जोर से उच्चारण
किया- ‘जय जगन्नाथ’ और हम लोगों ने भी उनका अंधा-अनुकरण। देव-दर्शन के दौरान महिलाओं द्वारा पल्लू से सिर ढकना अगर हमारी
सांस्कृतिक पहचान है तो पुरूष रुमाल से सिर क्यों नहीं ढकते, जैसे
मुसलमान मस्जिदों में या नमाज पढ़ते समय करते है- ‘या अल्लाह इल्लाह’? खैर जो भी हो, आरती पर हाथ घुमाकर आँखों और चेहरे पर स्पर्श करते
हुए हमने मंदिर के दूसरे दरवाजे से बाहर गलियारे
में प्रवेश किया-सामने थी शंकराचार्य गादी यानि चबूतरा, जिसके ऊपर जनेऊ धारी पोपले मुंह वाले शरीर के ऊपरी
हिस्से पर कोई वस्त्र नहीं, सिवाय
धोती पहने हुए कुछ पंडों की जमात मंत्रोच्चारण कर रही थी। इस चबूतरे के नीचे जमीन पर हम लोग कुछ समय तक बैठे, मेरे शरीर का कुछ हिस्सा इस वेदी को स्पर्श किया
तो ऊपर बैठे पंडे ने तुरंत टोक दिया और दूर बैठने का निर्देश दिया, शायद उसे लगा हो कि मैं चबूतरे में संचित वर्षों
पुरानी आध्यात्मिक ऊर्जा को कहीं सोख तो नहीं लूंगा या कहीं
मेरे शरीर के स्पर्श से चबूतरे की आध्यात्मिक ऊर्जा प्रदूषित तो नहीं हो जाएगी ?
चबूतरे के नीचे
बैठते समय मेरे मन में कई विचार आने लगे, शायद यह वही चबूतरा होगा, जहाँ
आदि शंकराचार्य ने मंडन मिश्र को शास्त्रार्थ में हराकर बौद्ध धर्म से आक्रांत इस मंदिर को मुक्त
कराकर सनातन हिन्दू धर्म में लाने का सफल प्रयास किया। आदि शंकराचार्य हिन्दू-धर्म
में आई कई अनैतिक कुरीतियों
जैसे मद्य, मांस, मैथुन, मत्स्य और मुद्रा
(पंच मकार) से दुखी थे, जोकि
बौद्ध धर्म की जाति विहीनता और भिक्षु-भिक्षुणियों के पारस्परिक अश्लील संबंधों से समाज में प्रचलित हो रही थी तंत्र-साधना
के नाम पर।
वाम-मार्गी, चोल-मार्गी
संप्रदाय, भैरवी-चक्र सभी तो
धार्मिक-शास्त्रों में प्रवेश पाते जा
रहे थे।
लेकिन अभी भी मेरे लिए जिज्ञासा का विषय
है कि अचानक बौद्ध मंदिर जगन्नाथ मंदिर
में कैसे बदल गया? अचानक
बुद्ध कृष्ण कैसे बन गये? और
बुद्ध हिंदूओं के अवतार ? फिर हिंदुओं के खिलाफ इतना बड़ा धार्मिक विप्लव, वह भी बिना किसी खून-खराबे के? क्या यह संभव है? ये
सारी विचार-तरंगे चबूतरे की नींव की ईट और प्रस्तर
पर हजार
साल पुराने धार्मिक बदलाव को मेरी आँखों के सामने एक-एक कर पेश कर रही थी, मगर मैं हमारे दल के किसी भी सदस्य के सम्मुख
आस्था-विहीन तर्क प्रस्तुत कर अपने नास्तिक होने का सबूत नहीं देना चाहता था। किसी
भी आस्थावान आदमी के मन में अनास्था के बीज बोना अपराध है।बहुत बड़ा अपराध है, किसी
भी विचारशील प्राणी के मन में नई विचारधारा पैदा करना, बिना उसकी सहमति और तर्क-सम्मत अनुभवों के। और ऐसे भी अध्यात्म में तर्कहीनता
ही पहली सीढ़ी होती है, समर्पण
की, जैसे जगन्नाथ जी के
प्रवेश द्वार पर बाईस सीढ़ियां है आपको समर्पण के बाईस अवसर प्रदान करती है।
उसके बाद हम सभी
मंदिर की परिक्रमा करने लगे, इसकी
दीवारों पर विभिन्न देवी-देवताओं के चित्र और सूक्ष्म नक्काशी के कार्य देखकर विश्व के लोग दंग रह जाते
है।
परिक्रमा के दौरान
उदयनाथ बेहेरा जगन्नाथ मंदिर की स्थापना के बारे में लोक कथाएं सुनाने लगे- ‘‘सारला दास की ओड़िया महाभारत के अनुसार भगवान कृष्ण की मृत्यु जारा शबर नामक
एक शिकारी के तीर से होती है, जब वह उनके दो जामुनी पांवों को गलती से हिरण के कान समझ बैठता
है। जब उनके शरीर को जलाया जाता है तो उनका हृदय आग से नहीं जल पाता है, अतः उनके अर्ध-दग्ध शरीर को समुद्र में विसर्जित
कर दिया जाता है। जो द्वारिका से अरब सागर से बहते-बहते बंगाल की खाड़ी यानी ओड़िशा
के पूर्व तट तक पहुँच जाता है। चमत्कार से उनका दिव्य हृदय एक नीले पत्थर में बदल
जाता है, जिसकी जारा और उसकी
पीढ़ियां पूजा करती है। समय गुजरता चला जाता है। मालवा नरेश सम्पूर्ण भारत में
विष्णु पूजा को फिर से चालू करवाना चाहते थे, मगर उसके लिए कोई उपयुक्त मूर्ति नहीं मिल पा रही थी। राजा ने चारों
दिशाओं में अपने दूत भेजे। उनमें एक विद्यापति विश्ववसु ब्राहमण पूर्व
दिशा में खोजने गया और बहुत खोजबीन के बाद उसे जारा शबर का गाँव मिला।
विश्ववसु बहुत सुंदर था, शादी-शुदा
होने के बाद भी गांव के मुखिया ने अपनी बेटी की उसके साथ शादी कर दी। जिसके माध्यम
से उसको पता चला कि उस गांव के पास घने जंगलों में नीले पत्थर की बनी मूर्ति को
शबर जाति वाले लोग गुप्त रूप से पूजा करते है। इस आश्चर्यजनक खोज के बाद विश्ववसु मालवा नरेश
इन्द्रद्युम्न के पास गया और अपनी विशाल सेना को लेकर ओड़िशा लौटा, मगर शबर आदिवासियों ने अपने भगवान को बाहरी लोगों
को देने से इंकार कर दिया। यह सुनकर राजा ने गांव वालों को बंदी बना दिया। उसके
बाद विश्ववसु के कथनानुसार उस घने जंगल में नीले पत्थर के भगवान को खोजने लगा, मगर सब व्यर्थ। रात को राजा को स्वप्नादेश हुआ कि तुमने गांव
वालों के साथ निर्दयतापूर्वक व्यवहार किया है, अतः मैंने यह स्थान छोड़ दिया है। मगर तुम्हारे कठिन परिश्रम को देखकर मैं
खुश हूँ। अतः अगली सुबह मैं प्रस्तर प्रतिमा के रूप में प्रकट होऊंगा, जिसे तुम अपने मंदिर में लगा सकते हो। अगली सुबह
वह प्रतिमा जलाशय में मिली, मगर
न तो वह खुद और न ही उसकी संपूर्ण सेना मिलकर उठा सकी। रात को फिर राजा को स्वप्नादेश हुआ कि अगर इस प्रतिमा को शबर मुखिया और विश्ववसु
स्पर्श करेंगे तो वह उठेगी। ऐसा ही किया गया। यह प्रस्तर प्रतिमा ही जगन्नाथ का प्रारंभिक स्वरूप
है।”
बेहेरा साहब की यह
लोककथा मुझे किसी फैंटेसी से कम नहीं लग रही थी, मगर साहित्यिक दृष्टिकोण से बहुत सारे ऐसे मसले आ रहे थे, जो तत्कालीन समाज में हो रहे परिवर्तनों की साक्षी
बन रहे थे। उदाहरण के तौर पर, कृष्ण
तो आर्यों के देवता थे और शबर अनार्य, तब क्या इस लोक-कथा के माध्यम से आर्यों और अनार्यों को जोड़ने का प्रयास चल रहा था? विश्ववसु की शबर लड़की से शादी भी इस बात का प्रमाण
है। स्वप्न के आधार पर कहानी कर आगे बढ़ना किसी चमत्कारिक फैंटेसी से कम प्रतीत
नहीं हो रही है और सबसे प्रमुख सवाल जो मेरे मन में उठ रहा था, क्या मालवा देश के लोगों की भाषा जंगली लोगों की
भाषा से मेल खाती थी? अपने
आपको सुपीरियर मानने वाले ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्ग के लोग जंगली आदिवासी लोगों के देवता को अपना देवता
क्यों बनाएंगे? जब
कृष्ण की मृत्यु द्वारिका के जंगल में जारा शबर के तीर से होती है तो वह कैसे
पहुंच जाता है द्वारिका से पुरी, हजारों किलोमीटर की दूरी
तय करते-करते, कृष्ण के अर्धदग्ध हृदय की तलाश में ? पैदल चलकर या किसी
विमान में बैठकर ? जबकि उस जमाने में यानी हजार साल पहले खूंखार जानवरों की भरमार रही होगी। खैर, लोक-कथा है, आस्था है, मानना
है, आखिरकर जगन्नाथ जी
की उत्पत्ति का सवाल है!
जगन्नाथ की
लोक-कहानियों में कई बदलाव देखने को मिलते हैं। जब मैंने सर हेन्स सिंगर की पुस्तक
‘द हिस्ट्री ऑफ जगन्नाथ टेंपल’ पढ़ी तो कई चौंकाने वाले तथ्य
सामने आए। ऐसे तो यह पुस्तक इतिहास है, इसमें कोई मिथकीय पात्र नहीं हैं। विश्वस्त सूत्रों जैसे पुरी के
तत्कालीन जिलाधीशों,
सेक्रेटरी और लॉर्ड आदि की टिप्पणियों पर आधारित आधिकारिक फुटनोटों के माध्यम से
देश,काल और पात्र की
सही-सही जानकारी का वर्णन किया गया है। कभी-कभी तो ऐसा भी लगने लगता है कि
अंग्रेजों ने भारतीय समाज की धार्मिक कुरीतियों को मिटाने में सशक्त भूमिका निभाई
है। जब भारत में सती-प्रथा का प्रचलन था, सतीत्व की रक्षा के लिए उन्हें मृतक पति की लाश के साथ जिंदा जला दिया
जाता था और उनके घर वाले इस पर गर्व की अनुभूति करते थे। क्या अग्नि-दाह अमानवीय
आत्म-हत्या नहीं है?
राजा राम मोहन राय ने अंग्रेजों से मिलकर जब ‘सती उन्मूलन अधिनियम’
पारित करवाया तब जाकर सदैव के लिए यह कुरीति भारत के नक्शे से मिट गई, ठीक ऐसे ही जैसे मोदी सरकार में ट्रिपल तलाक से
मुस्लिम औरतों को राहत मिली। फिर भी इस देश में अभी भी ऐसी छुट-पुट घटनाएँ घटती
रहती है। कभी नर्मदा नदी के तट पर बने काल-भैरव मंदिर में अपने जीवन से दुखी लोग
नर्मदा नदी के पुल
से पथरीले चट्टानों पर कूदकर अपना जीवन त्याग देते थे। नारियल के फूटने की तरह नरमुंड
फूटकर खून के फव्वारे निकलते थे तो काल-भैरव प्रसन्न होकर उस दुखी प्राणी को मोक्ष
प्रदान कर देते थे। पता नहीं,
भारतीय धर्मों में या विश्व के धर्मों में मोक्ष का कांसेप्ट कहाँ से आ गया ? एक ऐसा काल्पनिक शब्द – जिसे पाने के लिए अनगिनत लोगों ने अपनी जानें दे दी। ठीक ऐसी ही परंपरा
का जगन्नाथ मंदिर में भी प्रचलन था, जब
पुरी के बड़-डाँड पर जगन्नाथ जी रथ-यात्रा चलती थी तो आर्तप्राणी रथों के भारी भरकम
पहियों के नीचे आकर अपनी मृत्यु का वरण करते थे- यह सोचकर कि जगन्नाथ भगवान उन्हें
अपने लोक में ले जाकर जन्म-मरण के बंधन से मुक्ति प्रदान करेंगे। आधुनिक युग में
कितना हास्यास्पद लगता है यह सब! पंडों और पाखंडियों ने धर्मभीरु साधारण जनता को
अपनी आस्था के केंद्र में लाकर उनमें ऐसा सम्मोहन पैदा कर देते थे कि दुख सहने में
अक्षम निस्सहाय प्राणी मोक्ष के लालच में रथों के पहियों के नीचे घुसकर मरना पसंद
करते थे।
सर हेन्स सिंगर की
पुस्तक ‘द
हिस्ट्री ऑफ जगन्नाथ टेंपल’
में 18 वीं शताब्दी की अनेक ऐसी मर्मांतक घटनाओं का आँखों-देखा वर्णन मिलता है, जिसे यहाँ प्रस्तुत करना इस आलेख के कलेवर को
दीर्घ करने का दुष्कर प्रयास है। अंग्रेजों ने तो तत्कालीन मृत्युदर्शी रथ
यात्राओं को ‘सैटेनिक कार
फेस्टिवल’ कहा, जो
तत्कालीन भारतीय समाज में व्यापत घोर अंध-विश्वास,निम्न धार्मिक चेतना और प्रचंड धर्मभीरुता को दर्शाता है। जब सलमान रश्दी
ने ‘सैटेनिक वर्सेज़’ पुस्तक लिखी तो पूरे विश्व के मुस्लिम समुदायों
में हलचल मच गई और लेखक का मारने के लिए फतवे भी जारी कर दिए गए। अंग्रेजों ने अगर
उस जमाने की रथ-यात्रा को ‘सैटेनिक
कार फेस्टिवल’ कहा तो क्या बुरा
किया ? आप ही जरा सोचिए, आपकी आँखों के सामने कोई रथ जीवित लोगों के शरीर
पर से होते हुए गुजर जाएगा तो क्या किसी सभ्य समाज को उसे स्वीकार करना चाहिए ? वह भी धार्मिक आस्था के नाम पर ? आज भी अंग्रेज़ जगन्नाथ को ‘क्रूएल डेटी’ (क्रूर भगवान) कहते है और अँग्रेजी में जगन्नाथ न लिखकर ‘जगएरनौट’ या ‘जगरनॉट’ लिखते है। यह उनके उच्चारण की भूल नहीं हो सकती
है, बल्कि जगन्नाथ को ‘लॉर्ड ऑफ यूनिवर्स’ नहीं मानकर उनका मज़ाक उडाना होगा। अँग्रेजी मिशनरियों की चाल-बाजी भी हो
सकती है। जगन्नाथ के लाल होठ देखकर उन्हें वे रक्त-पिपासु तक कह देते है। केवल
अंग्रेज़ लोग मूर्तिपूजा के खिलाफ थे, ऐसा नहीं है।
जगन्नाथ मंदिर की
पत्रिका मादलापाँजी में आता है कि एक अफगानी पठान काला पहाड़ ने पुरी पर आक्रमण
किया तो दिव्यसिंह नामक किसी भक्त ने भगवान को चिलिका की किसी गुफा में छुपा दिया,मगर धनपत सिंह जैसे गद्दार ने काला पहाड़ को उस जगह
का पता बता दिया। काला पहाड़ जगन्नाथ जी को हाथी की पीठ पर बांधकर गंगा नदी के तट
पर लेकर गया और उन्हें आधा जलाकर गंगानदी में फेंक दिया। बेसुरा मोहंती नामक
वैष्णव संन्यासी ने अर्ध-दग्ध जगन्नाथ जी को वहाँ से लाकर कुजांग के किनारे पर रख
दिया। उस अफगान ने मंदिर के ‘कल्पवृक्ष’ को भी उखाड़कर फेंक दिया था और फिर उसे जला दिया।
उसके बाद मंदिर का सारा खजाना लूटकर अपने देश लौट गया।
कहानी कितनी सही है
या कितनी गलत- यह तो नहीं कहा जा सकता है। मगर अबुल फजल ने ‘तबाकत-ए-अकबरी’ में इस घटना का जिक्र किया है। अब आप ही सोचिए, जगन्नाथ की जो मूर्ति अफगानों से अपनी रक्षा नहीं कर पाई, वह जगत की रक्षा कर पाएगी? जिस जगन्नाथ (विश्व-स्रष्टा) ने अफगान को जन्म
दिया, उसी अफगानी ने
उन्हें चुराकर जलाने की हिम्मत कैसे कर दी ? इसका अर्थ यह हुआ- ‘ न
काष्ठे न मृण्मये विद्यते देवो’
केवल मुस्लिम धर्म
की ही बात क्यों करें?
ओड़िशा का अपना महिमा अलेख क्या कम है ? सन् 1881 में महिमा संप्रदाय का वल्कल कोपीनधारी साधु दासाराम ने अपने
कुछ अनुयायियों और कुछ महिलाओं के साथ जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश किया- उद्देश्य था
जगन्नाथ की मूर्ति का आहरण कर पुरी के तट पर जलाने का। मंदिर की भीड़ ने ‘मॉब लिंचिंग’ कहिए, दासराम को
लात-मुक्कों की बरसात से सिंहद्वार पर ही मृत्यु के घाट पर पहुंचा दिया, बाकी बचे उसके अनुयायियों पर कचहरी में मुकदमा
दर्ज हुआ। उन्हें कुछ महीने की जेल हुई और फिर छोड़ दिया गया।
मुसलमानों के बाद
जगन्नाथ मंदिर पर मराठाओं ने अपनी रोटी सेंकी और अंग्रेजों ने तो इस मंदिर को दुधारू
गाय मानकर दर्शनार्थियों पर मराठाओं की तरह ‘यात्रीकर’
(पिलग्रीम टैक्स) लगा दिया, जो
सन् 1803 से 1863 तक चला,पूरे
साठ साल और अंग्रेजों के राजस्व का साधन बना । अंग्रेजों ने मंदिर के संचालन हेतु
नियम-विनियम-अधिनियम भी बनाए,
जिसमें मुख्य है – रेग्युलेशन
IV ऑफ 1806 , जिसके अनुसार पुजारियों और सेवकों की तंख्वाह
बांध दी गई थी।
कहते हैं, जगन्नाथ मंदिर कैथोलिक है यानि जाँत-पांत का कोई
लेना-देना नहीं है। हकीकत में मगर ऐसा कुछ भी नहीं था, कई निम्न जातियों जैसे हाड़ी,पाण,मछुया,घुसकी,कुस्बी,चमार,धोबी,जोगी,अघोरी साधू आदि का
प्रवेश निषेध था।
आचार्य हजारी
प्रसाद द्विवेदी ‘हिन्दी
साहित्य की भूमिका’
में जगन्नाथ मंदिर को बुद्ध
मंदिर मानते है, जगन्नाथ जी की
प्रतिमा में बुद्ध का दांत रखने का उल्लेख करते है। शंकराचार्य की वेदी भी इस बात की
प्रतीक है कि शैव मत के प्रचारक को वैष्णव संप्रदाय के क्या लेना-देना? यह बुद्ध
मंदिर था, तभी तो वे मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ करने यहाँ आए थे अपने शैव मत की स्थापना के लिए।
शास्त्रार्थ में उनकी
जीत होने के बाद उनके अनुयायियों ने उन्हें जहर खिला दिया,
जिसमें उनकी मृत्यु हो गयी और वे इस विशाल मंदिर
के मठाधीश बन गए। स्वामी दयानंद सरस्वती की ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में इस घटना का उल्लेख मिलता हैं कि शंकराचार्य बौद्धों को वहाँ से हटाकर
वैदिक स्कूल खोलना चाहते थे, मगर
उनका यह सपना पूरा नहीं हो पाया।
डॉ० मायाधर मानसिंह भी अपनी
पुस्तक ‘द
सागा ऑफ द लैंड ऑफ जगन्नाथ’ में इस मंदिर को तंत्रपीठ मानते है
क्योंकि साल में एक बार जगन्नाथ मंदिर के परिसर में
विमलादेवी (काली का एक रूप) के सामने पशु बलि दी जाती है।यही नहीं, मंदिर की दीवारों
पर उत्कीर्ण नग्न मूर्तियां तंत्र-साधना की पुष्टि करती है। इतना ही नहीं, डॉ० मायाधर मानसिंह उस शबर जाति के पास मिले नीले पत्थर को शिवलिंग का प्रतिरूप
ही मानते हैं, जैसे कि
आंध्रप्रदेश के श्रीसेलम की
नदियों में अपवाहित चिकने गोल पत्थरों को शिवलिंग का स्वरूप समझा जाता है। यह भी
सोचने वाली बात है, शुरू-शुरू
में जगन्नाथ को ‘नीलमाधव’ कहा जाता था। क्यों? नीलमलई पर्वत श्रृंखला से मिले हुए भगवान होने के कारण यह संज्ञा दी गई
थी। आज भी इस पर्वत को ‘नीलाचल’ या ‘नीलाशैल’ कहते
है।कभी-कभी जगन्नाथ धाम को श्रीशैल और श्रीसेलम परंपराओं का निर्वहन करने के कारण
पुरी को ‘श्रीक्षेत्र’ कहा जाता है। शायद कृष्णा नदी के किनारे ओरिजनल
देवता का आवास होना ही सारलादास
की कल्पनाशक्ति को उद्दीप्त करने के लिए पर्याप्त था कि नील मलाई के नीले पत्थर के शिवलिंग को कृष्ण के हृदय से जोड़कर ‘नील माधव’ कहते हुए उन्हें ‘श्रीशैल’ या ‘नीलाचल’ में
नया घर प्रदान कर दिया। क्या यह उम्दा फैंटेसी नहीं है? धीरे-धीरे यह फैंटेसी किसी धर्म
का अभिन्न अंग बनकर साधारण
लोगों के लिए आस्था का प्रमुख केन्द्र बन जाती है।
बेहेरा साहब की लोक-कथा
सुनकर जगन्नाथ पूजा की प्रारंभिक चेतना के बारे में ज्ञान हुआ, मगर अचानक नीले पत्थर की एक प्रतिमा तीन अपाद-अहस्त
के स्वरूप में कैसे
बदल गई?
इस प्रश्न पर
सरोजिनी जी ने प्रकाश डाला, ‘‘बेहेरा साहब की कहानी मध्ययुग तक सही है। मगर उसके बाद विप्र नीलांबर
(देऊल तोला सौंगा) यानी मंदिर निर्माण के बारे में उल्लेख आता है। सारला महाभारत
की कहानी में कुछ बदलाव हो जाता है, ब्राह्मण विश्ववसु
विद्यापति बन जाता है और शबर मुखिया जारा, विश्ववसु। ऐसे भी शबर का नाम विश्ववसु होना असंगत है मगर तत्कालीन समान
में हो रही ब्राह्मणीकरण को दर्शाता है। उसके बाद कहानी में जो बदलाव हुए, वे इस प्रकार है। शबर मालवा के राजा इन्द्रद्युम्न
को नए अन्वेषित
शबर देवता की पूजा करने की अनुमति इसी शर्त
पर देते है कि वह उनके लिए एक भव्य मंदिर बनाऐंगे। राजा यह शर्त मान लेता है और एक सुंदर मंदिर का निर्माण
करता है। मगर शास्त्रोक्त रीति से मंदिर में
प्राण-प्रतिष्ठा कैसे होगी-यह सोचकर वह स्वयं ब्रह्मलोक में ब्रह्मा जी को आमंत्रित
करने जाता है। ब्रह्माजी उस समय ध्यान मग्न होते हैं और इन्द्रद्युम्न को इन्तजार करना
पड़ता है। ब्रह्मा जी का एक दिन पृथ्वी के कितने युगों के बराबर होता है, यह बताने की आवश्यकता नहीं है। इतने युगों में
राजा का नव-निर्मित मंदिर रेत के टीबों से ढक जाता है। नए-नए शासक पैदा हो जाते है, जिन्हें इन्द्रद्युम्न की इस स्थापत्य उपलब्धि के
बारे में पता नहीं होता है। एक बार गाल माधव राजा वहाँ से गुजरता है तो रेत के टीबों
में उसके घोड़े के खुर किसी ठोस चीज से टकरा जाते है। राजा उतरकर बालू हटाने लगता
है तो मंदिर का शूल नजर आने लगता है। फिर वह खुदाई शुरू करवाता है तो सामने प्रकट
होता है- इन्द्रधुम्न का निर्मित भव्य मंदिर।
इसी समय, स्वर्ग के इन्द्रद्युम्न और ब्रह्माजी उतरकर नीचे वहाँ पहुँचते है। उन्हें अपरिचित मान
लिया जाता है और सारा क्रेडिट गाल माधव लेना चाहता है। मगर वहाँ काम करने वाले मजदूर कछुआ बनकर
पास वाले तालाब में रहने लगते है। वे साक्षी देकर इस मंदिर को इंद्रद्युम्न का
बताते हैं। आज भी पुरी में बड़े-बड़े कछुओं वाले तालाब को ‘इंद्रद्युम्न तालाब’ कहा
जाता है।
इस प्रकार गाल माधव और
इंद्रद्युम्न का विवाद खत्म हो जाता है। ब्रह्मा जी मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा करने के लिए तैयार
हो जाते है। मगर मूर्ति कहाँ? सारला
महाभारत की कहानी फिर से यहाँ दोहराई जाती है, मगर प्रस्तर प्रतिमा काष्ठ
प्रतिमा का रूप ले लेती है। दारू ब्रह्म (लकड़ी का लट्ठा) वास्तव में प्रस्तर युग से काष्ठ
युग में परिवर्तन का संकेत करती है। इस कहानी में लकड़ी का लट्ठा इतना भारी होता है कि राजा और उसकी सेना उसे नहीं
खींच पाती है, मगर उनके भक्त ब्राह्मण विद्यापति और शबर
विश्ववसु के एक-एक किनारे को पकड़ने से उठ जाता है और किनारे पर लाया जाता है। मगर
इंद्रद्युम्न की रानी गुंडिचा सही मायने में नारीवादी और
कला-अनुरागी स्त्री थी, जहाँ तक मैं सोचता हूँ क्योंकि वह
इस लकड़े की जगह कुछ यथार्थ वस्तु चाहती थी। वह चाहती थी, इससे कुछ मूर्तियां बनाई जाए। राजा ने कई सुथारों को बुलवाया,
मगर लकड़ी इतनी कठोर थी कि उनके सारे औजार खराब हो
गए। अंत में, बूढ़े सुथार के रूप में
विश्वकर्मा जी वहाँ आते है और एक शर्त पर मूर्तियां बनाना स्वीकार करते है।पहली शर्त, वह
बंद मंदिर में मूर्तियां बनाएंगे। दूसरी शर्त, इक्कीस दिन लगेंगे। तीसरी शर्त, इस दौरान किसी भी
प्रकार का उन्हें
व्यवधान नहीं पहुँचाया जाए। सभी
शर्तें मान ली गई। शुरू-शुरू में औजारों की आवाज सुनाई देती थी, मगर धीरे-धीरे कम होती गई। आवाज नहीं सुनकर रानी
अधीर हो उठी और इक्कीस दिन पूरे हुए बिना ही मंदिर का दरवाजा खोल दिया तो देखा कि
तीन मूर्तियां वहाँ थी, मगर वह सुथार गायब। ये तीन मूर्तियां ही कृष्ण, सुभद्रा और बलभद्र की है। ओड़िया में कहावत आती है- “It is for listening to a women that even the lord remains mutilated”
यह कहते हुए डॉ०
सरोजिनी साहू के चेहरे पर स्वतः स्मित खिलने लगी,
शायद उन्हें लगा होगा कि एक नारीवादी लेखिका होने
के बाद भी वह इस कहावत दुहरा रही
है, जिसमें नारी-निंदा है।
विमला जी दोनों की
कहानियों को सुनकर अपने इतिहास-बोध का सहारा लेते हुए आश्वस्त स्वर में कहने लगी, ‘‘मुझे लगता है कि पुराने जगाने में जितने भी काम
हुए हो, चाहे स्थापत्य के
हो, पेंटिंग के हो, या फिर किसी भी कलात्मक सौंदर्य के हो, चाहे कविता, कहानी, काव्य, महाकाव्य, नाटक, दर्शन। सभी चीजों को किसी भी तरह अध्यात्म से जोड़ दिया गया है, ताकि मनुष्यों के आध्यात्मिक-विकास के साथ-साथ
तत्कालीन समाज में किसी भी प्रकार की विशृंखलता पैदा नहीं हो।”
मुझे विमला जी के
इस व्यक्तव्य में नृतत्व-विज्ञान की धुन सुनाई दे रही थी कि शायद वह मानव जीवन के क्रामिक विकास से इन लोक-कथाओं, मिथकों, सांस्कृतिक-उपादानों और जीवन-चर्या को जोड़कर देखना
चाहती है। आधुनिक भारतीय समाज इन परिवर्तनों से गुजरते हुए इस मुकाम पर पहुँचा है
कि अपने विकसित चेतना से पूर्वजों की कृतियों, कथानकों, स्थापत्य-कलाओं
और मिथकों का स्वतंत्र-भाव से विवेचन कर सकें। डॉ० सरोजिनी साहू, उदयनाथ बेहेरा जी की किंवंदतियों अथवा लोक-कथाओं पर विमला जी की निष्पक्ष टिप्पणी सुनकर भी मेरा मन शांत नहीं हुआ। इतिहास-मिथकों में दूध
का दूध और पानी का पानी करना आधुनिक युग में इतना सहज नहीं है, जबकि हजार साल से ज्यादा का समय पार हो गया है।
इतने दीर्घ समय में न केवल पृथ्वी पर अनेक परिवर्तन हुए होंगे, वरन्
मनुष्य की भाषा और चेतना के भी कई स्तर बदल चुके होंगे। जहाँ ‘भाषा बहता नीर’ है
तो चेतना भी किसी बहते महासागर
से कम नहीं है, जिसमें कितने
ज्वार-भाटा आए होंगे, कितनी
ज्वालामुखी फूटी होगी-अनगिनत। युग-युग के हिसाब से मनुष्य की चेतना भी मूलाधार से सहस्रार तक पहुँचने लगी
होगी, तभी तो महर्षि अरविंद ने अपनी पुस्तक ‘डिवाइन लाइफ’ में ‘मैन से सुपरमैन’ यानी
मानव से अति मानव की कल्पना की है।
डॉ० मायाधर मानसिंह
अपनी पुस्तक ‘The saga of the land of jagannath’ में नीलमलई के शिवलिंग को जैन तीर्थकर जिननाथ को जिनेश्वर में
परिवर्तित होते देखते हैं कि गाल माधव और कोई नहीं, बल्कि खारवेल का राजा था, जो मगध से जैन प्रतिमा को लाकर समुद्र के किनारे
प्रतिष्ठापित करते है। ऐसे भी जैन धर्म में पार्श्वनाथ, ऋषभनाथ
जैसे तीर्थकरों
के नाम आते है। हटीगुफा का यह
वर्णन पुरी से मेल खाता है। खारवेल नरेश ने अपने ओडिशा राज्य में बौद्ध धर्म को हटाकर जैन धर्म स्थापित
किया था, जो उनके सौ साल के
बाद फिर से बुद्ध धर्म
में बदल गया और जैन प्रतिमा बुद्ध ट्रिनटी
(त्रिरत्न) बुद्ध, धम्म और संघ में विभाजित हो गई। इस समय जैनों के जिननाथ, जगन्नाथ में बदल गए। इससे पूर्व उन्हें ‘नील माधव’ ही कहा जाता था। बुद्ध धर्म की शाखा महायान के प्रचार के समय पूरे भारत
में मूर्तिपूजा का प्रचलन बढ़ गया था और कुछ सदियों तक शायद जगन्नाथ मंदिर में
बुद्ध, धम्म और संघ तीनों
मूर्तियों की पूजा होती थी। अरूण जोशी ‘ओड़िशा रिव्यू’ (1968)
में अपने आलेख ‘ओरिजन ऑफ लार्ड जगन्नाथ एंड कार फेस्टिवल’ में लिखते है,
“ भुवनेश्वर के
ओड़िशा स्टेट म्यूजियम में हमने देखा कि दो पहियों वाली कार को दो बैल खींच रहे
हैं। ड्राइवर आगे बैठा है और एक आदमी पीछे। कार में तीन कमल के फूल जैसी वस्तुएं
रखी हुई है, जो
बौद्ध धर्म के त्रिरत्न है- बुद्ध, संघ, धम्म।”
बौद्ध धर्म के ये
त्रिरत्न ही आगे जाकर जगन्नाथ के त्रिरत्न यानी जगन्नाथ, बलराम और सुभद्रा बन गए।
यह भी आश्चर्य जनक
बात है कि बौद्ध धर्म की माहियान शाखा के महिमा (लेख) संप्रदाय के कुछ धर्मावलंबियों ने जगन्नाथ मंदिर पर आक्रमण
किया था, यह कहते हुए कि
जगन्नाथ बुद्ध के अवतार है, न
कि हिन्दु पंडों के जगन्नाथ। इसमें काफी लोग हताहत भी हुए थे। मंदिर में कई
दुर्घटनाएँ भी हुई,
कभी रथ-यात्रा के समय मंदिर की दीवारों से बड़े-बड़े पत्थर गिर गए तो कभी भगदड़ में
कई लोगों की जानें चली गईं,
इसके बावजूद भी लोगों की आस्था में कोई कमी नहीं आई, वरन दिन-दूनी रात चौगुनी गति से न केवल अशिक्षित बल्कि शिक्षित वर्ग को
भी अपने अंध-विश्वास के घेरे में लपेटता चला गया। अंग्रेजों ने भी तत्कालीन अंधेरे
में डूबे भारतीय समाज का खूब फायदा उठाया, वे स्वयं भी जगन्नाथ मंदिर से मूर्ति पूजा समाप्त करना चाहते थे। बाइबिल
के अनुसार मूर्तिपूजा सबसे बड़ा अपराध है, मगर अंग्रेज़ पक्के व्यापारी थे, जैसे-तैसे लोगों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाए बिना अपना मुनाफा
कमाना ही उनकी कंपनी का मुख्य उद्देश्य था। इसके बाद भी उनका मानना था – “Blow at Idolatry,
blow at root”
उनके लिए अगर भारत
को मूर्तिपूजा से मुक्त करना था तो जगन्नाथ मंदिर से ही मूर्तिपूजा पर प्रहार करना
जरूरी था। बहुत प्रयास के बाद भी उन्हें सफलता नहीं मिली। उन्होंने यात्रीकर
समाप्त कर दिया और जगन्नाथ मंदिर के प्रबंधन की डोर खुर्दा के राजा को सौंप दी, बाद में पुरी के
राजा को और जब पुरी का राजा रामचन्द्र देव मुसलमान बन गया तो उनके पोते को राजा की
पदवी देकर मंदिर का भार सौंप दिया गया। उस मुसलमान राजा के लिए बाहर में मूर्ति
लगवाई गई । वह मूर्ति पथभ्रष्ट राजा के लिए ‘पतितपावन’ बनी। ऐसा ही माहौल गया और इलाहाबाद के मंदिरों
में था।
सर हेन्स सिंगर की
पुस्तक ‘द हिस्ट्री ऑफ
जगन्नाथ टेंपल’ में राम शंकर भारती का दृष्टांत मिलता है। भारती जी आदि गुरु शंकराचार्य
के अनुयायी थे, अतः वे भैरव की
मूर्ति यानि शिव की लीलामूर्ति को जगन्नाथ ,बलभद्र और सुभद्रा के रत्नवेदी के पास स्थापित करना चाहते थे, इसके लिए उन्होंने सन् 1806 में अंग्रेज़ सरकार को
उचित कार्रवाई हेतु पत्र लिखा था,
मगर आगे जाकर यह मूर्ति कहीं ‘भैरवी
चक्र’ का प्रतीक न बन
जाए- इस हेतु अनेक हिंदु विद्वानों ने राय-मशविरा करने के बाद अंग्रेजों से उस
दरखास्त को नामंज़ूर करवा दिया। यह घटना पुरी के जगन्नाथ मंदिर को बुद्ध मंदिर का
संशोधित रूप मानने के लिए मजबूर करती है।
विमला जी और जगदीश
जी को ये सारी
किंवदंतिया अच्छी लग रही थी, चाहे ऐतिहासिक हो, या पौराणिक या श्रुति आधारित लोक-कथाएं। इन कहानियों में उन्हें रस आ रहा
था, अध्यात्म का पुट लिए इन कहानियों में
जगन्नाथ मंदिर पर शैव मत, बौद्ध
और जैन संप्रदायों, यहाँ
तक कि महिमा धर्म, सनातन हिन्दु
धर्मावलंबियों का संघर्ष साफ नजर आ रहा था। एक अनार सौ बीमार! सारे धर्म वाले
आखिरकार इस भव्य मंदिर पर अपनी छाप क्यों छोड़ना चाहते है?
मैं विमला जी के
चेहरे के हाव-भाव देखकर इस अनुत्तरित प्रश्न को सहजता से समझ पा रहा था। पुरी के ‘ड्रिस्ट्रिक्ट गजट’ में जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियों को बौद्ध धर्म से
उत्पन्न माना हैं। ‘द
एनसिएंट ज्योग्रॉफी ऑफ इंडिया’ के जनरल कनिंघम भी इन तीनों मूर्तियों को बौद्ध धर्म के त्रिरत्नों की
प्रतिच्छाया
मानते है, जो बुद्ध का ब्राह्मणिक अवतार हैं।
नवकलवेर के दौरान इन मूर्तियों में से बुद्ध का दाँत स्थानांतरित जाता है, कहीं ब्राह्मण लोग बुद्ध
के अवशेष को नष्ट नहीं कर दे,
इसलिए रेशम की गठरी में रखे बुद्ध के दांत को ब्रह्म कहकर पुकारते है- वह ब्रह्म, जो
सारे ब्रह्मांड का कर्ता-धर्ता है। जगन्नाथ
मंदिर की जाति-हीनता, रथ-यात्रा
और मंदिर के भीतर सामान बेचने की प्रक्रिया रंगून के प्रसिद्ध शवे डेगन पैगोड़ा से
मिलती-जुलती है। इतना ही नहीं, जिस
चबूतरे पर जगन्नाथ मंदिर की तीनों मूर्तियां रखी जाती है,
उसे ‘रत्नवेदी’ कहा
जाता है, जबकि इस चबूतरे में
कहीं कोई रत्न नजर नहीं आता है। भाषाविदों का मानना कि ‘त्रिरत्न वेदी’ शब्द
धीरे-धीरे ह्रास
होते हुए ‘रत्नवेदी’ में बदल गया होगा, जो कि बुद्ध के त्रिरत्नों का आसन है।
एक तथ्य में
नारीवादी लेखिका डॉ० सरोजिनी साहू के सामने रखना चाहता था कि विप्र नीलांबर के
बैलेड-लिजेंड के अनुसार ब्रह्मा द्वारा प्रतिष्ठापित तीनों अपूर्ण मूर्तियों की सेवा के लिए राजा इंद्रद्युम्न
को निम्न आदेश
दिए गए थे।
- पहला, हर साल रथ-यात्रा के नौ दिन में शबर
मुखिया के वंशज उनकी सेवा करेंगे, जो शुरू में ‘नील माधव’ के रूप में उनकी पूजा करते थे। इस दौरान वे उन्हें कच्चे फल और
अनपकी दाल चढाएंगे।
- दूसरा, विद्यापित और उनकी ब्राहमण पत्नी के
संतति उनके पुजारी होंगे।
- तीसरा, विद्यापति और उनकी शबर पत्नी की संतति रसोई
तैयार करेंगे।
मंदिर के सेवक आज भी इन आदेशों का पूर्णतया पालन करते है, मगर मेरे मन में, जो सवाल उठा था,
ब्राह्मण पत्नी की संतति और शबर पत्नी के लिए ब्रह्मा ने पक्षपातपूर्ण आदेश क्यों दिया, जबकि जगन्नाथ का प्रारंभिक स्वरूप तो शबरों के
हाथों में था? जो जगन्नाथ मंदिर
में जातिहीनता की बातें करते हैं, उनका
ध्यान इन सेवकों की
ओर क्यों नहीं जाता है?
क्या शबरी की संतति के साथ भेदभाव नहीं किया गया? क्या
दोनों पत्नियों में विद्यापति ने भेदभाव
नहीं किया? क्या ‘मनुसंहिता’ का प्रचलन उस समय भी था?
इन प्रश्नों के उत्तर न तो सरोजिनी जी के पास थे, न विमला जी के पास और न ही बेहेरा साहब, भंडारी साहब या मेरे पास। एक लोक-कथा और मुझे उस समय याद आ गई- ‘‘जब जगन्नाथ प्रभु ने राजा इंद्रद्युम्न को वरदान दिया तो हाथ जोड़कर
उन्होंने विनती की- ‘हे
प्रभु! मेरा परिवार
पूरी तरह समाप्त हो जाए,
ताकि पीछे कोई ऐसा नहीं कह सके कि मेरे पूर्वजों ने यह मंदिर बनवाया था।’
राजा की यह प्रार्थना स्वीकार कर ली गई और उस दिन
से राजा इंद्रद्युम्न एक पहेली बनकर रह गए। राजा इंद्रद्युम्न की प्रार्थना, मेरी नजरों में बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि ईश्वर
के आगे संपूर्ण समर्पण, अपने
अहंकार का हनन और अपनी व्यक्तिगत चेतना को परम चेतना में देखना ही मनुष्य जीवन का
सही उद्देश्य हैं। भगवत गीता में भी मनुष्य का ईश्वर के प्रति समर्पण ही ईश्वर
प्राप्ति का प्रथम कदम हैं। वह ईश्वर ही पुरूषोत्तम है और वह ही जगन्नाथ। इस
प्रकार जगन्नाथ, जहाँ भगवत-गीता में
पुरूषोत्तम है, वहीं बुद्ध भी
महायान शाखा में दुखियों का दुखहर्ता-पतित पावन। कहाँ पुरूषों में उत्तम और कहाँ
पतितों में पावन । ठीक ऐसा ही, कहाँ
राजा भोज और कहाँ गंगू तेली!
ऐसी ही विडंबना एक और है,
सूक्ष्म नक्काशी और कलाकृतियों से भरे पूरे इस
मंदिर में ईश्वर की आकारहीनता के पीछे क्या राज है? क्या यह इस बात का द्योतक है कि मनुष्य कभी भी ईश्वर को अपने आकारों में
बांध नहीं सकता, सिवाय प्रतीकात्मक चिह्नों के?
जब मैंने विरंचि महापात्र के कविता-संग्रह ‘चकाडोला की ज्यामिति’ का अनुवाद किया था, ओड़िया
से हिन्दी में, तब मुझे प्रतीकों
के बारे कुल जानने का अवसर मिला था। प्रतीक था- चकाडोला यानी जगन्नाथ की गोल आँखें वैज्ञानिक
दृष्टिकोण लिए उनका उत्तर था, जिस
तरह किसी गोले का एक केन्द्र बिंदु होता है और दूसरा उसकी परिधि। केन्द्र बिंदु से परिधि के सारे बिंदु
समान दूरी
पर होते है-इसी तरह जगन्नाथ की गोलाकार आँखों का केन्द्र बिंदु सृष्टि में हर जगह
अनुभव किया जा सकता है और उसकी परिधि पर सारे प्राणी उसके लिए बराबर दूरी पर है। न कोई जात, न कोई पात। सब बराबर है, न कोई ऊँचा, न
कोई नीचा। जगत के सारे जीव-जंतु, स्थावर
या जंगम, सब बराबर है उसके
लिए, समतुल्य हैं।
विवेकानंद ने भी ठीक ही परिभाषित किया कि सृष्टि के हर कण में ईश्वर की अनुभूति
प्राप्त की जा सकती है, मगर
ईश्वरीय वृत्त की परिधि असीम है।
‘The centre of god is everywhere, but the circumference
is nowhere’
इस प्रकार एक-दूसरे
से जगन्नाथ जी से संबंधित कथाओं, कहानियों
और किंवदंतियों पर बातचीत करते हुए हम सभी जगन्नाथ मंदिर की चार-दीवारी का चक्कर
लगाने लगे। इस चार-दीवारी के भीतर वेणुगोपाल, दामोदर लक्ष्मी, राधा-कृष्णा, मंगला, शिव आदि देवताओं के छोटे-छोटे मंदिर भी है। इस प्रकार जगन्नाथ ने ‘लॉर्ड ऑफ यूनिवर्स’ होने की भूमिका निभाई है और इस्कान ने तो जगन्नाथ-संस्कृति और परंपरा को
विश्वव्यापी बनाने में अहम भूमिका अदा की है।
मंदिर के प्रांगण
से बाहर जाते समय मुझे यह महसूस होने लगा था कि हमारे पूर्वजों ने जगन्नाथ के रूप
में भगवान का मानवीकरण किया है। तभी तो ओड़िशा के निर्धनतम वर्ग के लोगों की सब्जी-चावल
का बना पीढ़ा उन्हें चढ़ाया जाता है। उनके
रसोई में चीनी-आलू आज भी वर्जित है, क्योंकि विदेशों से उन्हें मंगवाया जाता हैं। उनका प्रतिदिन का खाना नाप
से तैयार किया जाता है ताकि यह संदेश जा सके कि खाने को उबालने से उनके विटामिन्स चले जाते है।
इस प्रकार जन सामान्य को संतुलित आहार करने का संदेश देते है। फिर उनका बीमार पड़ना, मौसी के घर जाना, दवाई-दारू करना, उनकी
पत्नी लक्ष्मी का रूठना आदि बहुत
कुछ ऐसे प्रसंग है, जो भगवान को मानवीकरण के द्योतक है।
‘सत्यार्थ प्रकाश’ में स्वामी दयानंद सरस्वती ने दो भाइयों के बीच सुभद्रा की मूर्ति रखने
पर भी प्रश्नवाचक उठाया कि दो भाइयों के बीच या तो माँ का स्थान होता है या फिर
पत्नी का, बीच में बहिन को
बिठाना क्या भैरवी-तंत्र की ओर तो संकेत नहीं कर रहा था या फिर incestuous relationship की ओर?
चार-दीवारी का
परिभ्रमण करने के बाद हम उस स्थान पर गए-जिसे सामान्य भाषा में ‘श्मशान घाट’ कहेंगे। मंदिर के अंदर ही बारह साल के बाद जिस साल दो आषाढ अर्थात् मलमास
आते है, उस समय पुरानी
मूर्तियां को समाधि दी जाती है और पहले से निर्मिति नई मूर्तियों को उस आसन पर आरूढ़ किया जाता है, इस प्रक्रिया को ‘नवकलेवर’ कहते
है और समाधि स्थल को ‘कोइलि
बैकुंठ’। इसका अर्थ भगवान
भी मरते है और उनकी आयु होती है केवल बारह साल, जबकि मनुष्य की औसत
उम्र होती है साठ-सत्तर साल। जो जगत का नाथ है, वह तो सनातन है, अव्यक्त है, आकार में निराकार, निराकार में आकार है, केवल
बारह साल में उनकी समाधि? क्या
यह लकड़ी की आयु है या चिरायु, परमायु
ब्रहम की? जन्म-मरण तो मनुष्य
का होता है, भगवान का नहीं।
इसका अर्थ जगन्नाथ भगवान नहीं है, मनुष्य
है यानी उनका मानवीकरण किया गया है, क्षणायु, क्षण-भंगुर
मनुष्य को श्रेष्ठ जीवन जीने के लिए? जगन्नाथ
का मंदिर अपने आपमें किसी भंवरजाल से कम नहीं है, कहाँ से प्रवेश करेंगे और कहाँ से निकलेंगे, कहाँ से
जन्म-मरण की चर्चा करेंगे और कहाँ पर खत्म करेंगे, अपने आप में एक अबूझ पहेली हैं। शबर जाति के घर में बनी लकड़ी की छोटी-सी
प्रतिमा या खिलौना कह लें, देखते-देखते
हजार साल के अंतराल में एक अलग संस्कृति के रूप में निखरकर सामने आएगी, जिसमें अध्यात्म होगा, साधारण जीवन जीने की शैली होगी, पारिवारिक संबंधों को निस्पृहतापूर्वक निर्वहन करने का संदेश होगा-कभी किसी प्रत्यक्षदर्शी ने सोचा
तक नहीं होगा कि काष्ठ-प्रतिमा लाखों लोगों के जीवन जीने का अभिन्न अंग बन जाएगी।
जगन्नाथ मंदिर के
बाहर आते ही विमला जी के मुख से एक ही स्वर निकला- ‘‘आह! कितना
अच्छा मंदिर है यह! मुझे पूरे मंदिर में सकारात्मक ऊर्जा महसूस हुई।”
मुझे यह ज्ञात है
कि वह विज्ञान की अध्येता है और इतिहास की भी, और ऐसे रैकी का कोर्स भी उन्होंने कर रखा था, अतः उनके शब्दों में प्रयुक्त ‘ऊर्जा’ शब्द मुझे बेहद
अच्छा लग रहा था। जहाँ विज्ञान की सीमा खत्म होती हे, वहीं से अध्यात्म की शुरू होती है। कुछ ऐसे क्षेत्र भी होते है, जहाँ विज्ञान और अध्यात्म एक साथ अध्यारोपित होते
है एक-दूसरे के ऊपर। वहाँ आत्मा, ऊर्जा, परमात्मा, शक्ति, संचरण, स्वर्ग, नरक, मोक्ष, सकारात्मक, नकारात्मक आदि शब्दों का बाहुल्य मिलता है। ओड़िया
भाषा के प्रसिद्ध लेखक मनोज दास का भी मानना है कि मनुष्य जाति के लिए विज्ञान एवं
अध्यात्म का संतुलित विकास अत्यंत आवश्यक है, अन्यथा यह सृष्टि अपना संतुलन खो देगी। यही बात तो विमला जी के वक्तव्य
में हमें मिल रही थी।
मंदिर परिसर से
जैसे ही हम बाहर निकले, बाईं ओर
था जगन्नाथ की
चमत्कारिक रसोई-घर और दाईं ओर आनंद बाजार। रसोईघर में हांडों में चावल पकता है। ऊपर वाले हांडे में
पहले, नीचे वाले हांडे
में बाद में। यहाँ विज्ञान फेल हो जाता है, मगर ‘सत्यार्थ-प्रकाश’ चावल
पकने की इस चमत्कारिक क्रिया को केवल गपोडा कहती है। मगर आनंद बाजार में तो आनंद ही आनंद है, चावल के पानी में नींबू डालकर जो तरी बनाई जाती है, एक के बाद एक श्रद्धालु एक-दूसरे का जूठा पीते है।
न कोई जाति है, न कोई धर्म और न ही
कोई वर्ण। क्या ‘आनंद बाजार’ वर्ण-वर्ग-जाति विच्छेद करने के लिए बनाया गया है
या एक-दूसरे को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संक्रमित करने के लिए? ‘आनंद बाजार’ में बहुत सारी सूखी प्रसाद, दूसरे शब्दों में महाप्रसाद, चावल की हांडी, गजा
और अनेक प्रकार के व्यंजन और मिठाईयां भी
मिलती है, मगर स्वच्छता के दृष्टिकोण से तो इतना साफ-सुथरा बाजार नहीं है, मक्खियों की भिनभिनाहट ही आपकों वहाँ से तुरंत
जाने का आग्रह करती है।
‘आनंद बाजार’ से
बाहर निकलते ही हम पहुँच गए बाईस सीढ़ियों पर। जगन्नाथ जी का मंदिर है तो बाईस सीढ़ी
होने का भी तो कोई रहस्य होगा? इस
रहस्य के बारे में तो मुझे कोई समझा नहीं सके, मगर मनौती मानने वालों को मैंने इन सीढ़ियों से नंगे बदन लुढ़कते देखा है, जैसे मुसलमानों के ताजिए के समय दो-तीन आदमी सड़क
पर लुढ़कते हुए जाते है और बीच-बीच में खड़े होकर अपने शरीर पर जोर-जोर से चाबुक भी मारते
है। ये आर्त-भक्त
नहीं है तो क्या है? गीता
में चार भक्तों का उल्लेख आता है-ज्ञानी, अर्थाथी, जिज्ञासु
और आर्त।
अपने शरीर को कष्ट देकर
भगवान को रिझाना अध्यात्म की पराकाष्ठा हो सकती है या फिर आर्त-नाद?कहीं ऐसा तो नहीं, बाईस
जैन तीर्थंकरों की यादगार में तो बाईस सीढ़ियाँ बनाई गई हो।
इतना
ही कहा जा सकता है कि जगन्नाथ मंदिर अपने आप में एक अनसुलझी गुत्थी है, कई रहस्यों को अपने उदर में समेटे हुए। कई पीढ़ियाँ पार हो गई, मगर न तो इस मंदिर का कोई आदि मिला और न ही कोई अंत। जिसने जैसा
सुना, जैसा देखा, वैसा कहा या वैसा लिखा; मगर यह कभी नहीं सोचा कि हम अपने आने वाली पीढ़ी को धर्म और
अध्यात्म का संदेश दे रहे हैं या अंध-विश्वास के कृष्ण गह्वर में धकेलने का।
यात्रा-संस्मरण
का उद्देश्य किसी भी पाठक की भावनाओं को हताहत करना नहीं है, वरन सत्य को परखने के लिए अपनी जिज्ञासा,बुद्धि
और मीमांसा का भरपूर प्रयोग करने के लिए प्रेरित करना है। तभी तो यह कहा जा सकता
है- ‘सा विद्या विमुक्तये’, ‘तमसो माँ ज्योतिर्गमय’, ‘मृत्युर्मा
अमृतंगमय’ ।
ओड़िशा में विगत
पच्चीस सालों से रहने के कारण जगन्नाथ मंदिर में जाने का अनेक बार अवसर मिला है, मगर इस बार एक साथ असंख्य तरंग-दैधर्य मेरे मन-मस्तिष्क पर आघात कर रही थी। हो सकता है, मेरे सहयात्रियों का ऊर्जा-स्तर मेरे हृदय को
आंदोलित कर रहा हो और झकझोर रहा हो सूक्ष्म निरीक्षण और नैसर्गिक कल्पना शक्ति को। ब्रिटिश साहित्य आलोचक
कॉलरिज के
अनुसार कल्पना शक्ति ही लेखन का मूलाधार है तो फ्रायड के अनुसार काम मनोविज्ञान और
टी.एस. इलियट के
अनुसार हमारी परंपराएं। जगन्नाथ मंदिर में तो असंख्य परंपराएं है। नग्न कामुक
मूर्तियां भी है, काम मनोविज्ञान का आधार और असंख्य फैंटेसियां भी। कुल मिलाकर जगन्नाथ
मंदिर का परिवेश आपके अंदर सोए हुए लेखक, कवि, समालोचक, गीतकार, दार्शनिक किसी को भी जगा सकता है, बस आवश्यकता है तो किसी उद्दीपण की, किसी उत्प्ररेक की। कौन-सा पल आपके जीवन को किस मोड़ पर
ले जाएगा, आपको भी मालूम नहीं
चलेगा, आपकी आस्था-विश्वास
जगन्नाथ जी का आर्शीवाद या अभिशाप बनकर उभरेगा, यह सब आपके भाग्य का खेल होगा या फिर प्रारब्ध।
जगन्नाथ मंदिर की
सकारात्मक ऊर्जा वाली तरंगों की अनुभूति के बाद विमला जी का मन हुआ कि हम सभी पुरी तट देखने जाए। पुरी
का तट यानी ‘महोदधि’, दूसरे शब्दों में जगन्नाथ जी का ससुराल। पिता रत्नाकार और बेटी लक्ष्मी।
हल्का-सा व्यंग लिए बेहेरा साहब ने कहा, ‘‘जगन्नाथ
जी अपनी पत्नी लक्ष्मी से पता नहीं क्यों दूर रहते है? सदैव अपनी बहिन सुभद्रा के साथ रहते है और रथ-यात्रा के दौरान भी जब बाहर
घूमने निकलते है तो भी अपनी बहिन के साथ
ही, ऐसे भी अगर लक्ष्मी
गुस्सा नहीं होगी तो क्या होगी।”
बड़ी सादगी से
सरोजिनी जी ने उत्तर दिया, ‘‘गुस्सा
होने की बात भी है और
बाहुड़ा के दिन जब जगन्नाथ घर लौटते है तो लक्ष्मी मंदिर के सारे झरोखे बंद कर देती
है। जगन्नाथ जी को तो उनके क्षणिक गुस्से की प्रवृत्ति के बारे में पता है, अतः
वे उन्हें
खुश करने के लिए गुंडिचा मंदिर से अपने साथ लाए रसगुल्ले आगे बढ़ा देती है। इसी में
वह खुश हो जाती है और अपने घर में दरवाजे-खिड़की खोल देती है।”
यह सुनकर सब
हँसते-हँसते, लोट-पोट हो गए और
कार में बैठकर समुद्र की ओर हमने प्रस्थान किया।
विमला जी और जगदीश
जी समुद्र-स्नान करना चाहते थे। वे इसके लिए अलग से कपड़े भी लाए थे। मगर हमारे पास
कोई तैयारी नहीं थी। इसलिए मैं और बेहेरा साहब आस-पास की दुकानों पर छोटी-मोटी
खरीददारी करने लगे और भाभीजी को छोड़ दिया, उनके समुद्र-स्नान का साक्षी बनने के साथ-साथ कैमरे में उनके फोटों कैद
करने के लिए।
जब वे समुद्र तट से
कार की ओर लौटे और भाभी जी ने मुस्कारते हुए हमारी तरफ देखते हुए कहा, ‘‘कितनी जिंदादिल खुशनसीब दंपत्ति है। हर पल खुश
रहना जानते है। एक-दूसरे की खुशी इससे बढ़कर और क्या हो सकती है?”
वाकई पति-पत्नी का
प्यार एक-दूसरे का समर्थन एवं एक-दूसरे का समर्पण ही तो सब-कुछ
है। कभी-कभी लक्ष्मी जी और जगन्नाथ जी भी एक-दूसरे से नाराज हो जाते है, मगर एक-दूसरे की गलतियों को नजर अंदाज कर फिर से
प्यार के बंधन में बंध जाते है। भले ही, बेहेरा साहब और सरोजिनी भाभी जी ने मजाक-मजाक में जगन्नाथ जी और लक्ष्मी
जी के एक-दूसरे के पृथक रहने पर हल्का कटाक्ष किया हो, मगर
मुझे ऐसा लग रहा था कि यह भारतीय समाज में यूनिवर्सल-सा हो गया है। आधुनिक युग में
बाल-बच्चों की पढ़ाई के लिए बच्चों को दूर छोड़ते है या फिर आपस में अनबन, मनमुटाव हो जाने पर साथ रहना नहीं चाहते है। क्या
हमारे पूर्वजों को इस परिपाटी का पूर्व में ही अहसास हो गया था या फिर पुरूष-सत्ता
वाले परिवार को श्रेष्ठ मानकर केवल सम्मान के योग्य उसके घर के
सदस्य भाई और बहिन ही रहेंगे, और दूसरे घर से आई पत्नी सदैव समुद्र के गर्भ में सोई रहेगी? यह तथ्य भी भारतीय समाज में नारीवादी लेखन के लिए विषय-वस्तु बनना चाहिए। मगर
जिन लोक-कथाओं में, या
यूं कहें लोक-साहित्य में, या फिर
मिथकीय शास्त्रों में नारी की हीनग्रंथि को
धर्म का आवरण ओढ़ा दिया गया हो तो उसे हटाने के लिए सरोजिनी भाभी जी जैसे
गिने-चुने साहित्यकार ही साहस करेंगे। आज भी दूसरे
शब्दों में, हम पहले से ज्यादा धर्मभीरू हैं। हमारे व्यवहार
में पूरी तरह कृत्रिमता आ गई है, नैसर्गिकता
का दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं रहा।
अब हमारी कार का
अगला गंतव्य-स्थल कोणार्क।
पेट में चूहे कूदने
शुरू हो गए थे। शाकाहारी भोजनालय की तलाश थी, कहीं रोटी मिल जाए तो और ज्यादा अच्छा। पचास-साठ किलोमीटर की दूरी पर एक भोजनालय मिला, मगर खाना खत्म हो चुका था। न तो चावल थे, और न ही रोटी। भूख में मेरा पेट बिलबिला रहा था, शायद दूसरे सहयात्रियों का भी, मगर शर्म के मारे
कोई किसी को कुछ कह नहीं रहा था। आखिर सरोजिनी भाभी जी ने ही चुप्पी तोड़ी, यह कहते हुए, ‘‘अगर डोसा, इडली
होगा, तब भी चलेगा।”
जब बैरे ने हामी
भरी तो हम सभी ने इस होटल में मसाला-डोसा खाते ही हुए तृप्ति की सांस ली। मन ही मन
सोचतता
रहा था कि अगर नंदिता मोहंती जी भी साथ में होती तो आज का यह साहित्यिक सफर और
ज्यादा सार्थक होता, मगर
कामकाजी महिला के लिए नौकरी और घर-परिवार से बढ़कर दुनिया में और कुछ भी नहीं होता
है। साहित्य तो
एक धुन होती है, सनक होती है, पागलपन होता है, आपके भीतर उठ रही अभिव्यक्ति की ज्वालामुखी फूटने से पहले अपने रास्तों
का निर्धारण स्वयं करती है। जब भी किसी साहित्यकार को अपने से बड़े, परिपक्व, चिंतनशील और प्रतिभाशाली व्यक्तित्वों से मिलने का छोटा-सा अवसर प्राप्त
होता है तो उसे कभी नहीं
छोड़ना चाहिए।
कोणार्क जाने का
रास्ता काफी विस्तृत था, दोनों
तरफ काजू और झाऊं वन, पोलांग
के चमकीले पेड़, बांस की झाड़ियां।
शाम होने लगी थी, सूर्य की लालिमा यह
दिखा रही थी कि कुछ ही क्षणों में उसका क्षेत्र मद्धिम-मद्धिम रोशनी वाले बल्बों
से जगमगाने लगेगा और वह अपने कार्य से मुक्त होकर विश्राम लेने जाएंगे। मुझे भानु जी राव की कविता ‘कोणार्क’ की कुछ पंक्तियां याद हो आई। मन ही मन, मैं उन पंक्तियों को दोहराने लगा,
‘‘उसके बाद पार किए
हमने
अनेक झाऊं-जंगल
अनेक रेत के टीले
गोप गांव....निमापाड़ा
सोचा हमने बहुत बड़े होंगे
कोणार्क के हाथी और घोड़े।”
कार अपने पूरे वेग में थी। जंगलों के गतिशील दृश्य
तुरंत आँखों के सामने से गुजरने लगे। लोकसभा चुनाव का माहौल था। कहीं बीजू जनता दल
पार्टी के समर्थक अपनी साइकिलों पर हरे झंडे पर शंख की तस्वीर वाले चुनाव चिह्न लेकर पार्टी का
प्रचार कर रहे थे तों कहीं दूर घरों या दुकानों या रास्तों के तोरनों पर भारतीय
जनता पार्टी का कमल चिह्न वाली
प्लास्टिक की छोटी-छोटी पताकाएं लटकी हुई नजर आ रही थी।
जगदीश भंडारी जी का राजनीति में रूचि होने के कारण
बीजेपी के प्रत्याशी संचित पात्र के फटे हुए फोटों को देखकर कहने लगे, ‘‘ओड़िशा में बीजेपी को सीटें नहीं मिलेगी। यहाँ पर
नवीन पटनायक का जोर
ज्यादा है। आखिर, उनका गढ़ जो ठहरा।”
एक अच्छे राजनैतिक
विश्लेषक की भांति उन्होंने भविष्यवाणी की थी, जो आगे जाकर सही साबित हुई। चुनाव परिणामों में पुरी से बीजेपी की हार
हुई और बीजेड़ी की जीत। बीजेड़ी की जीत के पीछे नवीन पटनायक का सभ्रांत चेहरा ही
पर्याप्त है।
एक मोड़ पर कार घुमते समय सरोजिनी भाभी
ने कार से हाथ बाहर निकालकर दूर एक नदी की ओर ईशारा करते हुए कहा, ‘‘वो सामने देखो, यह है चंद्रभागा नदी, जहाँ
सूर्य की प्रथम किरण गिरती है।”
जिज्ञासावश मैंने
बात छेड़ते हुए उनसे पूछा, ‘‘भाभीजी, इसकी भी कोई लोक-कथा है क्या?‘‘
‘‘है न! राधानाथ राय ने इसके ऊपर एक
काव्य लिखा है- ‘चंद्रभागा‘ काव्य।
मैं अपने कॉलेज में पढ़ाती थी। कभी इस इलाके में सुमन्यु ऋषि तपस्या किया करते थे, उनकी एक सुंदर लड़की की अपूर्व सुंदरता को देखकर सूर्य का मन डोल गया। यह कथानक यूरोपियन मिथक
अपोलों और डाफने से लिया गया है। जगन्नाथ के पुष्पाभिषेक
में बहुत सारे देवी-देवता स्वर्ग से आमंत्रित किए गए थे। संबलेश्वरी से समलाई, चिलिका
लेक से कालिजाई इस तरह कई
देवी-देवता पधारे थे।
सूरज भी था और कामदेव थी। दोनों में कुछ अनबन हो गई, इसलिए मजा चखाने के लिए कामदेव ने सूरज पर काम-वासना का तीर चला दिया और
उसका विपरीत तीर चंद्रावती पर। सूरज से बचने के लिए चंद्रावती ने नदी में कूदकर
आत्महत्या करली। तब
से इस नदी का नाम पड़ा- ‘चंद्रभागा’।
जब सुमन्यु ऋषि को ध्यान में अपनी बेटी की आत्महत्या का कारण पता चला तो उसने
सूर्य को अभिशाप दे दिया कि इस क्षेत्र में कभी भी तेरा मंदिर नहीं बनेगा और नहीं
तेरा यहाँ पूजा होगी। उस अभिशाप से कोणार्क में न तो सूर्य मंदिर बन पाया और न ही
वहाँ उसकी पूजा होती है।”
‘‘क्या आप चंद्रभागा नदी देखना चाहेंगे ?” बेहेरा
साहब ने विमला जी की तरफ देखते हुए पूछा।
‘‘नहीं, काफी समय हो चुका
है। कोणार्क भी देखना है और भुवनेश्वर भी जल्दी ही जाना है, शादी-ब्याह की रस्में अदा करनी है।” जगदीश जी ने कार ड्राइवर को ईशारा करते हुए आगे बढ़ने के लिए कहा।
भाभी जी की कहानी अत्यंत दिलचस्प थी। चंद्रभागा नाम भले ही रहा हो, मगर थी तो अभागिन ही, तभी तो अहिल्या को दूषित करने वाले चंद्रमा की तरह उसके पीछे सूरज लग गया। भारत में देवी-देवता भी
बड़े खतरनाक होते है, अविश्वसनीय
होते है, कब किसे कौन पसंद आ जाए, कह नहीं
सकते और वे अपना रूप बदलकर कब किसका शीलहरण कर ले। अगर
यह असत्य है तो राधानाथ राय जैसे कल्पनाशील कवि अपनी फैंटेसियों में देवी-देवता, ग्रह-उपग्रह आदि को भी इस तरह ले आते है, मानों घटना मिथकीय, लोक-कथा न
होकर सत्य लगने लगती है। शायद कोणार्क के सूर्य मंदिर के भग्न होने का राज खोजने के लिए
उन्होंने अपने काव्य की अंतर्वस्तु में चंद्रभागा नदी का मानवीकरण तो नहीं कर लिया ?
चंद्रभागा से थोड़ा-सा आगे
जाने पर एक राजकीय विश्रामालय आता है और कुछ सरकारी कार्यालय, उसके थोड़ा-सा आगे यूनेस्को द्वारा मान्य विश्व
धरोहर कोणार्क मंदिर। आज का कोणार्क मंदिर पुराने कोणार्क मंदिर से पूरी तरह अलग
है, अलग बस स्टेशन है, टैक्सी स्टैंड है, लाइट-साउंड शो की व्यवस्था है, प्रेक्षागृह है-जहाँ ऑडियो-विजुअल फिल्म दिखाई जाती है और कोणार्क का
अर्काइव-म्यूजियम भी। अंधेरा हो चुका था, अतः कोणार्क पर ऐतिहासिक फिल्म देखना तो दूर की बात, कोणार्क का परिभ्रमण करना भी मुश्किल था। लाइट-साउंड शो देखा जा सकता था, मगर समय के अभाव में वह भी नहीं हो सका, फिर भी भाभी जी, दीदी और जगदीश जी ने कोणार्क के
परिसर में जाने का निर्णय किया, मैं
और बेहेरा साहब बाहर में इंतजार करने लगे। बहुत जल्दी ही एकाध घंटे में वे सभी भी
कार के पास आ गए और अपने-अपने निर्धारित जगह पर बैठ गए।
कोणार्क देखने जाएँ और कोणार्क की
कहानी और इतिहास पर अगर चर्चा न हो तो फिर इस साहित्यिक-यात्रा का क्या अर्थ? बेहेरा साहब की लोक-कथाओं पर अच्छी पकड़ थी और खासकर ओड़िया सांस्कृतिक पृष्ठभूमि वाली। एक
शिक्षक की शैली में उन्होंने कोणार्क के बारे में बताना शुरू किया, ‘‘अभी आप कोणार्क देखकर आए है। कोणार्क का अर्थ
जानते है। कोण-अर्क, अर्क
मतलब सूर्य तो कोणार्क का अर्थ हुआ सूर्य का कोण, इसी कोण पर सूरज की पहली किरण पूर्वाशा में गिरती हैं। जयशंकर प्रसाद जी
ने अपनी कविता में लिखा है-
हिमालय के आंगन में उसे प्रथम किरणों का दे उपहार
उषा ने हंस अभिनंदन किया और पहनाया हीरक हार
अगर जयशंकर प्रसाद जी कोणार्क में आँगन में आते तो
उनके मुख से कविता की ये पंक्तियां ऐसे बदल जाती-
कोणार्क के आँगन में उसे
प्रथम किरणों का दे उपहार
“कोणार्क भी तो स्थापत्य-कला का हिमालय ही है।” विमला जी ने सहमति जताई।
फिर से बेहेरा साहब
ने कहना शुरू किया-
‘‘एक राजा था, लांगुला
नरसिंह देव। शायद 1200-1300 की
बात होगी। वह सूर्य मंदिर बनाना चाहते थे, क्योंकि सूर्यदेव की कृपा से उन्हें पुत्र प्राप्ति हुई थी। जहाँ यह
सूर्य मंदिर बना है, वहाँ
कभी बहुत बड़ा समुद्र हुआ करता था। उन्होंने मंदिर निर्माण का कार्य अपने
प्रधानमंत्री सिबाई सांतरा को
सौंपा। उसने पहले-पहले
समुद्र के बीचों-बीच पत्थर डलवाना शुरू किए, मगर
पानी के बहाव में पत्थर इधर-उधर हो जाते थे और मंदिर बनाने का कठोर धरातल उन्हें
नहीं मिल पा रहा था। दुखी मन
से जब वह घर की ओर लौट रहे थे, काफी
देर हो चुकी थी, जंगल का रास्ता था तो उसने एक बुढ़िया के घर
में शरण ली। उस बुढ़िया ने उन्हें संभ्रात घर का अतिथि समझकर गरम-गरम जाऊं (एक
प्रकार की खीर) बनाकर परोसी। भूख से बेहाल होने के कारण सिबाई सांतरा ने थाली के
बीचों-बीच हाथ डालकर जाऊं खाना शुरू किया तो उसमें हाथ जल गए। उफ! की आवाज सुनकर
बुढ़िया ने उसकी तरफ देखा और कहा-तुम भी तो सिबाई सांतरा की तरह काम कर रहे हो तो
हाथ नहीं जलेगा तो और क्या होगा? बीचों-बीच
हाथ न डालकर अगर किनारे से तुम खीर खाना शुरू करते तो तुम्हारे ये नरम कोमल हाथ
नहीं जलते। बुढ़िया सिबाई सांतरा को नहीं जानती थी, मगर उसे एक बहुत बड़ा सबक मिल गया और उसने समुद्र को किनार से पाटने का
आदेश दिया, अपने कामगारों को।
धीरे-धीरे उसे मंदिर बनाने की यह जमीन मिल गई।”
अभी बेहेरा साहब की
कहानी पूरी भी नहीं हुई थी कि विमला जी ने उनकी बात को काटते हुए कहा, ‘‘ऐसी एक लोककथा तो राजस्थानी लोक-साहित्य में भी आती है।”
यह कहकर वह चुप हो
गई। मैंने बात को आगे बढ़ाया, ‘‘कौन-सी
लोक-कथा? सुनाइए न।”
सरोजिनी भाभी जी की
ओर देखते हुए उन्होंने कहानी सुनाना शुरू किया मानो सत्य नारायण पूजा में अपने
सहेलियों और सगे-संबंधियों को सुना रही हो।
‘‘मेवाड़ के एक राजा थे मोकल। उनके परिवार में आपसी कलह चल रही थी। पड़ोसी
राजा चूड़ा ने उनके वंशज रणमल को मौत के घाट उतार दिया, यह देखकर राजकुमार जोधा,( जिन्होंने
राजस्थान में जोधपुर की स्थापना की थी) मारवाड़ प्रांत में सैन्य-बल को संगठित कर
चूडा के खिलाफ युद्ध की तैयारी करने लगे, मगर हर युद्ध में
उन्हें मुँह की खानी पड़ रही थी। रात के समय जोधा ने किसी बुढ़िया की झोपड़ी में शरण ली और बुढ़िया ने
उन्हें खीर परोसी। चेहरे के हाव-भाव और उदासी देखकर बुढ़िया से रहा नहीं गया और
पूछा, “बेटा! किस बात की
चिंता कर रहे हो। पहले खाना खा लो, फिर
थोड़ा विश्राम कर लेना।”
बुढ़िया को उस
राजकुमार के बारे में बिल्कुल पता नहीं था। भूखे राजकुमार ने थाली में परोसी गई
गरम खीर को बीच में से खाना शुरू किया तो उसके हाथ जल गए और कहने लगा, ‘उफ्फ! बहुत गरम है खीर।’ बुढ़िया ने यह अपनी आँखों से देख लिया था इसलिए कहने लगी, ‘बेटा, तुम तो राव जोधा की
तरह कर रहे हो। वह भी अपने प्रांत के किनारे वाले गांवों को न जीतकर सीधा बीचों-बीच बसी हुई बस्तियों
पर आक्रमण करता है, इसलिए
वह चारों तरफ घिर जाता है और उसे मुँह की खानी पड़ती है। तुम भी तो ऐसा ही कर रहे
हो, किनारे-किनारे से
क्यों नहीं खाते!’
राव जोधा और सिबाई
सांतरा की लोक-कथाओं अद्भुत सामंजस्य है। एक राजस्थान की लोक-कथा तो दूसरी ओडिशा
की।
कोणार्क की कहानी
का सूत्र मध्य में कहीं टूट न जाए-
सोचकर फिर से इस सूत्र को जोड़ते हुए जगदीश जी ने कहा, ‘‘उसके बाद क्या हुआ? बेहेरा साहब !”
“जब उसे कठोर धरातल
मिल गया तो बारह सौ कारीगरों में जिसका मुखिया विशु महाराणा
ने सोलह साल के भीतर यह मंदिर तैयार किया-224.फुट ऊँचा। यह मंदिर इस प्रकार का है कि मानों सात घोड़े बारह
जोड़े पहियों वाले रथ में सूर्य भगवान को आरूढ़ कर आकाश में उड़ने की तैयारी कर रहे
हो। ये सात घोड़े सात दिनों का प्रतीक है, और बारह जोड़े पहिए बारह महीनों का। सात घोड़ों का नाम संस्कृत साहित्य में
है- गायत्री, वृहति, उष्णीह, जगति, त्रिस्तूभ, अनुष्टुप और पंक्ति है।
पूर्व दिशा में यह रथ उदय होकर धीरे-धीरे अंतरिक्ष में परिक्रमा करने लगेगा, अंधेरे को भगाने में दो देवियां इस कार्य में मदद
करेगी, उषा और प्रत्युषा।”
‘‘इसका अर्थ यह हुआ कि स्थापत्य-कला, ओड़िया भाषा में भास्कर्य कह लो, में भी सिंबोलिज्म
यानी प्रतीकों का स्थान है।” मैंने
अपनी बात रखी।
‘‘हाँ, बिल्कुल है। कला और
विज्ञान तो आपस में एक-दूसरे
से पूरी तरह जुड़े हुए है। क्या प्रतीक भाषा में ही होंगे,
दूसरी जगह नहीं? खैर, मंदिर तो बन गया, मगर कलश-स्थापना का काम उनकी टीम नहीं कर पाई। उसी
दौरान विशु महाराणा को मिलने के लिए उनका, बारह वर्षीय पुत्र धम्मपद मिलने आया और सभी कारीगरों को हताश-निराश-उदास अवस्था में देखकर दुखी
स्वर में कहने लगा- ‘आप
सभी इतने दुखी क्यों हो?’ जब
उन्होंने अपनी समस्या सामने रखी तो धम्म पद ने हँसते हुए कहा- ‘यह काम तो मेरे बाएं हाथ का खेल है।’ और अपने चुंबक
और कलश ले जाकर सही जगह पर स्थापित कर लिया। अब बात ठहरी अस्मिता की, जब बारह सौ कारीगर जिस
काम को नहीं कर सके,एक छोटे से बारह वर्षीय बालक ने कर दिया। तब राजा को
क्या जबाव दिया जाएगा? राजा बच्चे को पुरस्कृत करेगा और बारह सौ कारीगरों
के सिर धड़ से अलग। इस अवस्था में क्या किया जा सकता है? लड़के को
या तो दूर भेज दिया जाए या फिर ... ? जब धम्मपद ने उनकी आशंका
भरी बातें सुनी तो स्वयं मंदिर के चूल पर चढ़कर नीचे समुद्र में कूदकर आत्मा-हत्या
कर ली। मंदिर और आत्महत्या? यह भी तो पाप है। उसके बाद वह मंदिर अपने आप गिरना शुरू हो गया और आज जो
मंदिर आप देखकर आए है, वह
उसी का भग्नावशेष
हैं। यह है कोणार्क की कहानी, जो
मुझे आती है। अगर और कोई कहानी होगी तो मुझे मालूम नहीं।”
धम्मपद की
आत्महत्या से कार के भीतर बैठे सभी साहित्यकारों की मन में करूणा और दया के भाव
स्पष्ट झलकने लगे।
माहौल कुछ गमगीन-सा लग रहा था। इतनी बड़ी जीती जागती ऐतिहासिक धरोहर, लाखों-करोड़ों का खर्च, फिर
भी प्रोजेक्ट असफल। केवल एक आत्महत्या के कारण, क्या तत्कालीन राजाओं के मन में प्रेम- भावना बिल्कुल भी नहीं होती थी।
बारह सौ मिस्त्रियों का शोषण भी किया, उनकी जवानी छीन ली, मंदिर
के निर्माण में, और मिला क्या ? नरसिंह देव का तो नाम रह गया अभी तक, मगर नींव की ईंट बने कारीगर ? कलश स्थापित नहीं होने के बाद भी राजा ने अपने आपको कंगूरे के
रूप में स्थापित कर
ही लिया। ये सारे विचार मेरे मन के किसी कोने में विषैले सांप की तरह फुफकार रहे
थे। परिवेश को सामान्य बनाने के लिए पहले-पहल तो भाभी जी ने दीदी से घर-गृहस्थी की बातें करना शुरू कर दिया।
फिर कुछ समय बाद
कोणार्क की बची-खुची पौराणिक गाथा की तरफ वह
लौट आई- ‘‘कृष्ण के पुत्र शांब को दुर्वासा मुनि का अभिशाप लगा था इसलिए उन्हें कोढ़
हो गया था। उन्होंने ऋषियों के वचनानुसार इस अर्क क्षेत्र में आकर सूर्य की पूजा-तपस्या
की और रोग मुक्त हो गए। द्वापर में यह स्थान धार्मिक स्थल के रूप में मशहूर हुआ है। इस अर्क क्षेत्र के
पुराणों में कई नाम है जैसे-कोणादित्य, सूर्यक्षेत्र, मित्रवन, मैत्रेयवन, रवि क्षेत्र आदि। यही ही नहीं
कोई-कोई तो कहते हैं कि राजा नरसिंह देव का शिशुपालगढ़ की राजकुमारी पद्मा से प्रेम संबंध था, मगर राजा का पंजाब राजकुमारी से विवाह होने के बाद
पद्मावती विरह-ज्वाला सह न सकी और अपनी देह को काल के हाथों में सौंप दिया। राजा ने ढूंढते हुए
उसके शव को वहाँ
पाया था। उन्होंने अपनी प्रेमिका की याद में यहाँ कोणार्क मंदिर बनाया। इसलिए इस
क्षेत्र को ‘पद्म क्षेत्र‘ भी कहते है।”
जितने मुँह उतनी
बातें। कोणार्क मंदिर के बारे में काफी प्रकाश डाला जा चुका था, मगर फिर भी किसी ठोस ऐतिहासिक सबूतों की जानकारी
नहीं मिल पाई।
इतना भव्य मंदिर अपने पीछे शून्य इतिहास छोड़ गया। इतिहास-शून्य कोणार्क मंदिर? ऐसे कैसे हो सकता है? घर
आकर मैंने डॉ० मायाधर मानसिंह की पुस्तक ‘The Saga of
land of Jagannath’ का खंगालना शुरू किया, कुछ तो ऐतिहासिक तथ्य मिलें, जिस पर कम से कम विश्वास किया जा सके।
मायाधर मानसिंह
कहते हैं कि चंद्रभागा
नदी पर बहुत बड़ा बंदरगाह था, वहाँ
से श्रीलंका और अन्य दक्षिण एशियाई देशों के व्यापार होता था। राजा नरसिंह देव के
समय में भी यह बंदरगाह चालू रहा होगा, अन्यथा इतना वीरानी जगह पर कोई राजा क्यों अपना और प्रजा का विपुल धन
खर्च करेगा? इस मंदिर के पहले
भाग ‘जगमोहन’ में जो भित्तिचित्र है, उसमें एक राजा हाथी पर बैठा हुआ है और कुछ संभ्रात
वर्ग के लोग, अच्छे परिधान पहने
हुए, उनका तालियों से
अभिनंदन कर रहे है। इस भित्तिचित्र में लंबी गर्दन वाला जिराफ है, वह पूर्व अफ्रीका का जंतु है। अगर वह समुद्री
रास्ते से कोणार्क नहीं लाया गया होता तो उस आकृति में वह कहाँ से समाविष्ट हो
जाता? इसका मतलब सुदूर
देशों से कोणार्क के वाणिज्यिक संबंध बने हुए थे इस बंदरगाह के माध्यम से। यह भी
हो सकता है राजा नरसिंह के पूर्वजों ने पुरी (विष्णु क्षेत्र), जाजपुर (शक्ति क्षेत्र) और भुवनेश्वर (शिव
क्षेत्र) में मंदिर बनाकर अपने आपको कालजयी बना दिया था तो हो सकता है, उनके मन में भी यह ख्याल आया होगा कि पृथक क्षेत्र
(अर्क क्षेत्र) में कतार से हटकर एक नया मंदिर बनवाकर अपने आप को अमर बना दूँ। यह
भी हो सकता
है कि राजा ने इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में लिखवाने के उद्देश्य से इसे बनवाया हो, क्योंकि 13 वीं शताब्दी में भारत के उत्तर, दक्षिण और बंगाल में मुसलमानों के लगातार आक्रमण हो रहे थे केवल यही एक
ऐसा हिंदू राजा था, जिसने मुसलमानों को अर्क क्षेत्र में भटकने नहीं
दिया। जितनी भी बार युद्ध हुए, उन्हें
परास्त किया। अतः विजय की खुशी में, विजय-स्मारक के रूप में राजा ने कोणार्क की स्थापना की हो, क्योंकि इतिहास में कहीं पर भी यह नजर नहीं आता है
कि वह संत-साधू प्रवृत्ति का राजा था। वह भौतिकवादी था और एक महान योद्धा भी।
कोणार्क की दीवारों पर बने हाथी, घोड़े, सेना, रथ आदि तत्कालीन पृष्ठभूमि के प्रतीक है क्योंकि ओड़िशा का कोई भी ऐसा
मंदिर नहीं है, जिसमें सैन्य-बल को
भित्ति चित्रों में आँका है।
आज भी कोणार्क, जो कला-प्रेमियों को पसंद आता है, उसका कारण यह नहीं है कि उन्हें सूर्य देवता
आकर्षित कर रहे हैं या राजा नरसिंह पर उन्हें दया आ रही है। वे आतें हैं उसे देखने, उस पर अंकित जीवन के आंनद की दिव्य-भाषा को पढ़ने
के लिए।
अगर सही-सही कहा
जाएं तो कोणार्क ‘थ्री डब्ल्यू‘ का केन्द्र है। थ्री डब्ल्यू अर्थात् वार, वर्शिप एंड वूमेन। कोणार्क के पहिए आज दुनिया भर
में आकर्षण के केन्द्र है न केवल सूर्यदेवता के रथ के होने के कारण, बल्कि भवसागर के भी, जीवन के भी पहिए है। कोणार्क में कुछ भी शांत नहीं है, कुछ भी गतिविहीन नहीं है। कुछ भी अनुर्वर नहीं है।
पत्थर गीत गाते है, प्रतिध्वनियां
निकलती है, मृदंग और ढोल की थापों पर। पत्थर दौड़ते है, वेगवान घोड़ो की तरह, सूरज के रथ को तेजी से दौड़ाते हुए। यहाँ पत्थरों पर फूल खिलते है, सहस्र
हाथों में चमक लिए।
इतिहास जो कुछ भी
कहें, पौराणिक गाथाएं जो
कुछ भी कहें, लेकिन एक अभियंता
होने के कारण मेरी निगाहों में कोणार्क का कुछ और ही महत्व है। 13वीं शताब्दी में इतने बड़े-बड़े पत्थर और आयरन बीम सौ फीट से ज्यादा ऊँचाई पर कैसे
ले जाया गया होगा, उस
समय न तो कोई स्टीम इंजिन था और न ही कोई सिविल इंजिनियरिंग के आधुनिक उपकरण जैसे
डैरिक या वायर रोप या पुली ब्लॉक सिस्टम। यह सोच से परे है कि बड़े-बड़े पत्थरों को कैसे उतनी ऊँचाई पर
फिट किया होगा? आस-पास पत्थरों की
खदानें भी रही होगी, वहाँ
से इतने विशाल पत्थरों को किसी पर लादकर लाया गया होगा, हाथियों
या किसी और यंत्र पर ? ऐसी अवस्था में कोणार्क को विश्व-धरोहर के रूप में शामिल किया जाना सारे विश्व कें लिए
गौरव का विषय है। कितने कारीगर, राजमिस्त्री
राजा की
बर्बरता का शिकार हुए होंगे, कितने
मंदिर बनाते समय ऊँचाई से गिरकर मौत के शिकार हुए होंगे और कितने धम्मपदों ने चंद्रभागा में कूदकर आत्म-विजर्सन किया होगा?
सारे दृश्य एक-एक
कर आपकी आँखों से गुजरने लगे तो अवश्य आँखों के दोनों में आँसुओं की स्फिटक बूँदे
साफ दिखाई देने लगेगी ओर आपके दोनों हाथ अपने आप जुड़कर उन अज्ञात कलाकारों की
आत्मा को शांति-सद्गति देने के लिए उतावले हो उठेंगे। अगर हम हमारी इस विश्व-धरोहर
को सही सम्मान नहीं देते है या उनकी कला की कद्र नहीं करते है तो यह अपने आप में
डूबकर मर जाने जैसी घटना होगी।
अंत में, मैं भानु जी राव जी की कविता ‘कोणार्क’ में यह उदृत करना चाहूँगा-
हम शहरी लोग
निकले देखने को कोणार्क !
गाडी से उड़ाते लाल धूल के गुबार
मुँह में चुरूट , कंधे पर थैली
बैठे चिपकाकर कुर्ते और चोली।
हम भद्र जन
पहने हुए सोने के बटन
साथ में ताश ,ग्रामोफोन
और पास बोतल में रम
शहर की सीमा से दूर अंधेरे में
एक ग्राम
पता नहीं उसका नाम
वहाँ पर ठहरे हम
नारियल पानी पीने की हुई इच्छा भारी
सामने दिखाई पड़ी एक किशोरी ?
देख रही शांत-भाव से वह गोरी
गाय की तरह भोली
चुपचाप बैठा मैं
ध्यान-मग्न
तभी दिखाया संगिनी ने
बॉस की झाड़ियों के सामने कबूतर
कहीं धान के खेत
कहीं झाऊँ और बादाम के वन
किसी के बरामदे में लटकती लौकी
ये सब देखा हमने
सूरज रहते- रहते।
उसके बाद हो गई रात
चमकने लगे पोलांग पेड़ के पात
ऊपर चाँद की चांदनी
नीचे विस्तीर्ण घास की चटाइयां
जिस पर बादलों के जादू से
कई छोटी कई बड़ी परछाइयां ।
ये सब देखा हमने
धूल और चुरूट के धुँए में
“क्या तुमने कोणार्क देखा है ?”
लाल होठों वाली लड़की ने पूछा
“अंगडाई लेती कन्या की छाती
वास्तव में पत्थर से गठित ?”
दांत दबाकर हँसा वह
अपनी बहुत कीमती हँसी
उसके बाद पार किये हमने
अनेक झाऊँ-जंगल
अनेक रेत के टीले
गोप गाँव ...निमापाड़ा
सोचा हमने बहुत बड़े होंगे कोणार्क के हाथी
और घोड़े ।
यहाँ पर रोकी गाड़ी
रेत में घसीटकर पांव
पहुँचे हम सभी दूर वहां
सुनाई देता समुद्र-नाद जहाँ ।
मुर्गी की हड्डी लेकर कुत्ता
चबा रहा चुपचाप
अंडे के खोल और मछली के काँटे
चारों तरफ रेत ही रेत
यहाँ पर है डाक-बंगला
झालर-पंखा, आराम-चौकी
निश्चित नींद का मजा
कुछ नहीं केवल शौक़ीन मिजाज।
सोते- सोते सोच रहा था मैं
भूल जाउंगा आगे और पीछे
आँखें तरेरते, भृकुटी सिकोड़ते
थोड़ा हँसते हुए पूछा,
उस लड़की ने मुझसे
“ क्या तुमने कोणार्क देखा है ?”
ज्ञानपीठ से पुरस्कृत प्रतिभा राय ने अपने ओड़िया ‘शिलापद्म’ (जिसका हिन्दी अनुवाद डॉ० शंकर लाल पुरोहित ने ‘कोणार्क’ नाम
से लिया है।) की भूमिका में भी भानू जी राव की कविता की तरह अपनी मनोव्यथा
प्रस्तुत की है-
‘‘परंतु आज जो कोणार्क देखने आते है, उनमें धर्म भावना या कलानुराग से बढ़कर आमोद-प्रमोद, मनोरंजन या मौज-मस्ती की वासना अधिक मुखर होती है।
वे आज कोणार्क को तीर्थ या कला के दर्शन का पीठ नहीं मानते, बस आमोद-प्रमोद की जगह मानते है- पिकनिक स्पॉट के
स्तर पर। कोणार्क मंदिर जीवन चक्र की एक चित्ताकर्षक चित्रशाला होते हुए भी यहाँ
खुदी सृष्टिचक्र की प्रतीक शृंगार रस संबलित मिथुन मूर्तियां ही ज्यादातर लोगों के आकर्षण का प्रधान
केन्द्र रही है। कुछ विद्वान तो कहते हैं कि मिथुन मूर्तियां कोणार्क कला का कलंक
है। कुछ इन दृश्यों के प्रति मन में वितृष्णा भाव रखते है और कुछ तो मंदिर
निर्माता, तत्कालीन सामाजिक
जीवन और कलिंग शिल्पियों की विचारधारा अतिनिम्न कहने से भी नहीं चूकते।”
मगर मुझे ओशो रजनीश
का एक कथन याद आता है जिसमें उन्होंने कहा था कि कोणार्क मंदिर की परिधि में बनी
कामुक मूर्तियां यह दर्शाती है कि मनुष्य पहले अपनी काम वासना से ऊपर उठे, तभी तो उसे ईश्वर के सच्चे दर्शन हो सकते हैं, अन्यथा नहीं।
इसी
वार्तालाप के साथ मैं भुवनेश्वर रेलवे स्टेशन उतर गया। वहाँ विमला
दीदी और सरोजिनी भाभी ने स्नेहमयी निगाहों से मुझे विदा किया और आर्शीवाद भी दिया। मेरी मंजिल शुरू
हो गई, भुवनेश्वर से
तालचेर की ओर, स्मृतियों से भरे खचाखच भानुमति का
पिटारा लिए। सोच रहा था, मस्तिष्क
बिंदु के रूप में इकट्ठी होगी और समय आने पर साकार रूप ले लेगी। सावन के महीने में
पुरी और कोणार्क मेरे हृदय में धड़कने लगा और भीतरी दबाव देखकर मैं उन्हें शब्दों
की माला में पिरोता चला गया।
********
भुवनेश्वर
के सैंडी टॉवर होटल में दूसरे दिन विमला दीदी के देवर
की बेटी की शादी राजस्थानी और ओड़िया संस्कृतियों का सेतु बन रही थी, वहीं विमला दीदी का कला-बोध उत्कल संस्कृति को
नजदीक से जानने का प्रयास कर रहा था और हम बन रहे थे उनके इस पुनीत कार्य में
निमित्त-मात्र। आज के दिन हमारे साथ न तो सरोजिनी भाभी जी की और न ही बेहेरा साहब।
बेहेरा साहब थे तो सही, मगर
शादी की रस्मों के समय मात्र एकाध घंटे के लिए नजर आए। अब मेरे पास और कोई साधन नहीं बचा था, सिवाय नालकों
के राजभाषा अधिकारी हरिराम पंसारी जी को इस बचे हुए सफर में साथ देने और साथ-साथ
भुवनेश्वर के इर्द-गिर्द ऐतिहासिक धरोहरों और धार्मिक मंदिरों की व्याख्या करने के
लिए आमंत्रित करने का।
हरिराम पंसारी जी
ने मेरी बात को माना तो जरूर, मगर
ज्यादा साथ देने में असामर्थ्य जताया अपनी पारिवारिक
समस्याओं के चलते। कम ही सही, मगर
जितना भी उनका साथ मिला, अपने
आप में किसी प्रोफेशनल टूरिस्ट गाइड से कम नहीं था। चूंकि उनका बचपन भुवनेश्वर में
ही बीता था और हिंदू धर्म में अगाध-आस्था, विश्वास और अनुराग के कारण धार्मिक-स्थलों की विशेष जानकारी भी। विमला
दीदी ने कार के अंदर ही अपने मोबाइल पर उनकी आवाज रिकॉर्ड करना शुरू की, ताकि संस्मरण लिखते समय पाठकों को आधिकारिक
जानकारी दी जा सके और साथ ही साथ, लोक-कथाओं
और किंवदंतियों का अर्काइव भी तैयार हो जाए।
सबसे पहले वे हमें
मुक्तेश्वर मंदिर की तरफ ले गये। 10वीं
सदी का शिव मंदिर। वास्तुकला के आधार पर बना हुआ यह खूबसूरत मंदिर आज जीर्ण-शीर्ण
अवस्था में है। मंदिर की दीवारों पर पंचतंत्र की कहानियों में ‘बंदर और मगरमच्छ’ की कहानी पंसारी जी ने हमें दिखाई और एक गौतम बुद्ध की। शायद उस समय
हिन्दु और बुद्ध धर्म में समन्वय होना शुरू हो गया, तभी तो शिव मंदिर में बुद्ध की प्रतिमा स्थापित की गई होगी। वहाँ चार
कुंड भी थे, जैसे किसी वाटर
फिल्टर प्लांट में बनाए जाते है। जल-शुद्धीकरण के लिए यह सब किया गया होगा। एक जगह
कुंड में गंदेला पानी दिख रहा था, पंसारी जी के अनुसार जिसे पीने से पेट की
व्याधियां दूर हो जाती है क्योंकि वह मैग्नीशियम और कैल्शियम क्लोराइड की चट्टानों
से गुजर कर आता है। चौथे
साफ कुंड के पानी से मंदिर की रसोई तैयार होती है, दूसरे कुंड में बिना साबुन लगाए नहाया जा सकता है। मंदिर की स्थापत्य-कला
ज्यादा मेरे समझ में नहीं आ रही थी, जैसे-जैसे पंसारी जी बता रहे थे, उन्हें सच मानूँ या
झूठ, यह तो अभी भी नहीं
कह सकता। मगर मुक्तेश्वर का ऐतिहासिक मंदिर मेरे मन के कोने में बस गया था। आठ
सौ-नौ सौ साल पुराने दीर्घ धार्मिक विप्लवों को अपने भीतर अक्षुण्ण रखने के कारण।
शायद वहाँ जाने से
कोई भी व्यक्ति मुक्त चिंता धारा से सोच सकता है, तभी तो मंदिर का नाम पड़ा होगा-मुक्तेश्वर। यह भी हो सकता है कि धार्मिक
श्रद्धालुओं की राय में, कि
उनके दर्शन मात्र से मोक्ष मिलता हो, मगर कभी
भी मेरी चेतना ने मोक्ष वाले कंसेप्ट को स्वीकार नहीं किया। हो सकता है, मेरे भीतर अभी ऊर्ध्वगामी चेतना के बीज अंकुरित नहीं हो पा रहे होंगे।
मुक्तेश्वर मंदिर
में दर्शन करवाने के बाद पंसारी जी अपने घर की ओर रवाना हो जाते है और हम लिंगराज मंदिर की ओर। यह वह मंदिर
है, जिसके आधार पर
भुवनेश्वर का नाम पड़ा है। पहले इस मंदिर को त्रिभुवनेश्वर कहा जाता था, फिर ‘त्रि‘ हट जाने से बचा रह
गया भुवनेश्वर। लिंगराज मंदिर के अंदर प्रसाद लेकर जाते समय दीदी की इच्छा हुई कि किसी पंडे से भी इस मंदिर
के बारे में भी ऐतिहासिक/धार्मिक जानकारी प्राप्त कर ली जाएं। सोचने में देर नहीं
थी कि सामने जनेऊ धारी एक पंडा खड़ा हो गया, केवल धोती पहना हुआ था और नंगे बदन से पसीना निकल रहा था। कहने लगा, ‘‘आप लोग मंदिर का दर्शन करेंगे? चलिए, मंदिर के बारे में बता भी दूंगा और अच्छी पूजा भी करवा दूंगा।”
दीदी ने अपने पति जगदीश जी की ओर देखा और आँखों
ही आँखों में सहमति का इशारा पाकर कहने लगी। ‘‘ठीक है चलो।”
वह पंडित हमें एक
कोने की तरफ ले गया और वहाँ से मंदिर के गुंबद की तरफ ईशारा करते हुए मंदिर के कलश
पर फहर
रहे ध्वज की ओर देखकर कहने लगा, ‘‘माता जी, आप देख रही है। मंदिर के ऊपर वह पताका फहर रही है। उसके नीचे एक गोल-सा
चक्र है। यह कोई सामान्य चक्र नहीं है, यह सुदर्शन चक्र है अर्थात् महादेव के साथ-साथ विष्णु भगवान भी यहाँ पूजा
पाते है।
ऐसा पूरे भारत वर्ष में और कोई मंदिर नहीं है। इसलिए इस मंदिर को हरिहर मंदिर कहते
है। हरि मतलब विष्णु और हर मतलब महादेव। आप सभी हाथ जोड़कर उस सुदर्शन चक्र और
पताका को मन ही मन प्रणाम कर लीजिए।”
पंडे की आज्ञा का
पालन करते हुए सोच रहा था कि विष्णु भगवान तो समुद्र के अंदर रहते हैं और महादेव
जी कैलाश-पर्वत पर।
दूर-दूर तक दोनों के साथ-साथ होने का सवाल ही नहीं उठता है। वास्तव में, यह कोई विशिष्ट मंदिर ही होगा, तभी तो दोनों व्यतिरेकी भगवान एक साथ रहते है। अगर
विष्णु सर्जन करेंगे तो महादेव उसका नाश, फिर विष्णु सर्जन करेंगे तो महादेव उसका नाश- दोनों का यह सिलसिला
विपर्यय भाव चलता ही रहेगा। मेरे आस्थाविहीन चेहरे को देखकर पंडों ने मुझे लंबी
लाइन में खड़ा रहने का ईशारा किया। जैसे ही हम भीतर गए, मंदिर की दीवारें बहुत मोटी-मोटी और ऊँची-ऊँची, मगर चारों कोनों में मकड़ी के जालों की तरह अलंदू के जाले साफ नजर आ रहे थे। देवस्थान है, इसलिए मन ही मन मैंने इसका विरोध किया, मगर मुँह से एक भी शब्द नहीं निकाल पाया। आखिरकर सदियों से
संस्कार के बोझ से दबी मेरी हिंदू आत्मा में विद्रोह की शक्ति भी आती तो कहाँ से? धीरे-धीरे हमारी पंक्ति भी आगे बढ़ते-बढ़ते लिंगराज मंदिर के स्फुट-लिंग के
सामने पहुँच गई। मेरी दृष्टि फूलों से लदे, नाग के फन से आच्छादित और चारों तरफ बिखरे हुए बिल्व-पत्रों की तरफ न
जाकर दीवार पर टंगे पिपली कारीगारी वाले गंदे
शामियाना पर अटक गई। इतना गंदा! छि:!
क्या पंडित लोग भोली-भाली जनता का आस्था के नाम पर
इकट्ठा कर रहे चढ़ावे से
मंदिर के रख-रखाव और स्वच्छता पर खर्च नहीं कर सकते? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का स्वच्छता अभियान तो मंदिरों में भी विफल है। जबकि
अगर आपने माऊंट आबू का दिलवाड़ा जैन मंदिर देखा होगा तो आप उसकी स्वच्छता, रख-रखाव और बारीक नक्काशी को देखकर दांतों तले अंगुली दबा देंगे। मंदिरों
की तुलना करना मेरा
मुख्य उद्देश्य नहीं है, मेरे
मन की आवाज यह कि, जो
हमारी सांस्कृतिक, धार्मिक
धरोहर है, उन्हें कम से कम
ऐसा बनाया जाए और सुंदर रखा जाए कि आने वाले दर्शक न केवल दर्शक, बल्कि श्रद्धालु बनकर जाए।
जैसे मंदिर का नाम ‘लिंगराज‘ खुद बताता है कि यहाँ का शिवलिंग साधारण शिवलिंग नहीं है, वरन् (King of Lings) लिंगों का राजा है।
आकार में सबसे बड़ा और श्रेष्ठ, इसे
‘गुप्तकाशी’ और ‘एक्रामवन’ भी कहते है। यहाँ गुप्त रूप से काशी छोड़कर महादेव
जी तपस्या करने आए थे। यह भी 10वीं
सदी का मंदिर है, राजा ययाति केशरी
ने निर्माण कार्य शुरू किया और उनके वंशज राजा उद्योत केशरी ने पूरा। यह मंदिर भी
चार हिस्सों में बांटा गया है- विमान, जगमोहन, नाट्य मंदिर और भोग
मंडप। कांवड लेकर भक्त जन इस मंदिर में भी जल चढ़ाने आते है। इस मंदिर के पास ही एक
तालाब है-बिंदु सागर। लोक इस तालाब में नहाते है और श्राद्ध तर्पण भी करते है।
इतिहासकारों के अनुसार
ओड़िशा का यह त्रिभुवनेश्वर मंदिर लिंगराज में बदल गया, इस बारे में कोई ठोस जानकारी नहीं मिल पा रही है। वेदों के पहले रूद्र, वैदिक शिव और शिव-बिन्दु की जोड़ी (हरिहर) कब
वैष्णव और शैव संप्रदायों के बीच पारस्परिक सौहार्द्र संबंधों का आधार बनी, कहा नहीं जा सकता है।
पहले भुवनेश्वर एक
छोट-सा गांव हुआ करता था, पास
में ही एकाम्र और
तोशाली के जंगल-यह गांव कब उजड़कर वर्तमान भुवनेश्वर की भीड़ वाला इलाका बन गया, कोई जानकारी नहीं है। इस बारे में जानकारी पाने के
संस्कृत साहित्य का सहारा लेना पड़ता है, जो मिथकों, लोक-कथाओं
और कल्पनाओं से ओत-प्रोत है। इस मंदिर के संदर्भ में एक संस्कृत पुस्तक प्राप्त
होती है- ‘एकाम्र चंद्रिका’, इसके अंदर वर्णित रीति-रिवाज आज पूरी तरह से बदल
चुके है। एकाम्र
चंद्रिका में उल्लेख आता हैं,
‘‘ऋषियों ने शिवजी को अभिशाप दिया कि अब से तुम्हारी पूजा शूद्र लोग
करेंगे। कहा जाता है कि इस मंदिर में शिव स्वयंभू के रूप में प्रकट हुए है और
शुरू-शुरू में उनके पुजारी शबर आदिवासी हुआ करते थे। फिलहाल कोई शबर दिखाई नहीं
देता है, और जब यहाँ शिव और
विष्णु के मिले-जुले स्वरूप की पूजा होती है और वह भी छत्तीस जातियों द्वारा, इनमें भी कोई आदिवासी जाति के पुजारी नहीं है।
इसलिए इस मंदिर में तुलसी और बेल पत्र दोनों एक साथ चढ़ाए जाते है।‘‘
इतिहासकारों के
अनुसार 1960 के बाद में शूद्र
सेवायतों
ने जनेऊ पहनना और अपने आपको ब्राह्मण सिद्ध करने के लिए सक्रिय प्रयास किया, इस वजह आजकल केवल पंडे ही पंडे वहाँ नजर आते है। शंकराचार्य ने इस मंदिर
में वैदिक रीति से पूजा-पाठ करने की प्रक्रिया आरंभ की, मगर लिंगराज मंदिर में कहीं पर भी यह उत्कीर्ण किया हुआ नहीं मिलता है।
ईश्वर, धर्म, रीति-रिवाजों और आजीविका के प्रति मानव समाज की विचारधारा जैसे-जैसे
बदलती है, वैसे-वैसे नए समाज
का निर्माण होता जाता है। 10वीं
सदी से 21वीं सदी तक हुए
बदलाव को हम अनुभव कर रहे थे, हमारे
पूर्वज किस तरह सोच रहे होंगे और हमारी आधुनिक विचारधारा कितनी बदल चुकी है कि
हमारे अधिकांश शिक्षित वर्ग शिवलिंग को सृष्टि की उत्पत्ति का प्रतीक मानते है, कल्पना की उड़ान मानते है,
जिसके आगे समर्पण करने से मन में सात्विक भाव पैदा
होते हैं और मनुष्य जीवन जीने का उद्देश्य मिलता है।
पंडित जी ने विमला
दीदी और जगदीश जी को सपरिवार
‘ऊँ त्रयम्बंक
यजामहे’ मंत्र के साथ
शिवलिंग का जलाभिषेक करवाया और उनके द्वारा चढ़ाई गई पूजा-सामग्री में तुलसी के कुछ
पत्ते और टूटे नारियल का एक टुकड़ा दिया, प्रसाद के रूप में। उसके बाद मैंने भी जलाभिषेक किया और प्रणिपात भी।
इसके बाद मंदिर से
बाहर निकलकर हमारी यात्रा का अंतिम पड़ाव शुरू होता है धौलीगिरि की ओर। मुझे
धौलीगिरि की तुलना में इन पहाड़ियों को धवलगिरि कहना ज्यादा अच्छा लगता है, शायद मुख सुख या कोमल स्वरों के कारण। ये पहाड़ियां
8 किलोमीटर दूर है
भुवनेश्वर से और दयानदी के किनारे पर स्थित हैं। दयानदी का नाम आते ही सीताकांत
महापात्र की कविता ओड़िशा की कुछ पंक्तियां अपने आप होठों पर उभर आती है-
‘‘रक्त रंजित दया नदी
के किनारे
पश्चाताप में डूबे सम्राट के निद्रा विहिन प्रहर”
यह सम्राट और कोई नहीं अशोक है और कलिंग-युद्ध के
कारण यह नदी रक्तरंजित हो गई थी। सैकड़ों लोगों की लाशों को देखकर अशोक सम्राट का
हृदय बदल गया। एक बुढ़िया ने जब अपने मृतक जवान बेटे को जिंदा करने की अशोक सम्राट से प्रार्थना की तो वह शर्म से
पसीज गया और मन ही मन क्रंदन और असहायता अनुभव करने लगा। आज भी पहाड़ी के शिखर पर अशोक के शिलालेख उत्कीर्ण
है, जिसे पूरी दुनिया
के कल्याण के लिए सम्राट अशोक ने चिंता व्यक्त हैं। उन्हीं शिलालेखों के ऊपर
चट्टानों को काटकर हाथी बनाया गया है, जो पुरानी बौद्ध मूर्तियों में एक है। यही नहीं,
सन् 1970 में जापान बुद्ध संघ और कलिंग निप्पान बुद्ध संघ ने पहाड़ी के शीर्ष पर सफेद चमकदार बौद्ध-स्तूप
बनाया हैं और पास में ही एक पुराना शिव-मंदिर है। विमला दीदी और जगदीश जी स्तूप के चारों तरफ
घूम-घूमकर बौद्ध-प्रतिमाओं का निरीक्षण करने लगे। कहीं सोते हुए बुद्ध तो कहीं
ध्यान-मग्न, कहीं दयानदी के
खुले मैदानों की तरफ अपलक निहारते जंगल के राजा शेर की
एकाग्र चित्त
वाली पीली प्रतिमा।
विमला
दीदी की सांसे फूलने लगी थी, सीढ़ियां
चढ़ने के कारण, इसके बावजूद भी
ध्यानावस्था में बैठे बुद्ध की पदमासन वाली प्रतिमा में उनकी हस्त-मुद्रा देखकर अपने एक हाथ पर दूसरा हाथ रखकर
वैसी ही हस्त-मुद्रा बनाने की कोशिश करने
लगी। अवश्य ही, सुबह जब वह ध्यान-धारणा करेंगी तो उनकी वह मुद्रा उन्हें याद आएगी और वह अपनी साधना में भी उसका
प्रयोग करेगी। स्तूप के
नीचे गन्ना रस बेचने वालों की कुछ दुकानें नजर आ रही थी, हमारे चेहरे पर थकान की मुद्रा देखकर जगदीश जी ने सभी को दो-तीन गिलास
गन्ना जूस पिलाया। शरीर के भीतर ग्लूकोज की मात्रा बढ़ते ही फिर से चेहरे पर रौनक
लौट आयी थी।
लगभग तीन-साढ़े तीन बज चुके थे, अभी तक पेट में चावल का एक दाना या रोटी का एक
टुकड़ा नहीं पड़ा था। सुबह का होटल में किया गया नाश्ता कहाँ विलय हो गया था, बिल्कुल
ही पता नहीं चला। हमने वहाँ से तुरंत होटल की तरफ लौटने का निश्चय किया, क्योंकि एक घंटे बाद मुझे भुवनेश्वर से तालचेर के लिए ट्रेन भी पकड़नी थी।
फिर से हमारी कार तेज गति से पहाड़ी इलाकों को पार करते हुए मुख्य सड़क पर आकर अपने
गंतव्य स्थान की तरफ दौड़ने लगी। सारे रास्ते भर मुझे धवलगिरि की पहाड़ियों की प्रतिध्वनियां सुनाई
देने लगी। आज धवलगिरि मौन क्यों है? क्या है इसके अतीत का राज? क्यों धवलगिरि अपने रूखे मुख पर दुख
पोतकर तपस्वी की तरह बैठी हुई है? क्या प्रायश्चित अभी खत्म नहीं हुआ। अरे! धौलगिरि
तुम्हीं तो वह गुरू थी, जिसने
खून के फव्वारे बहाने वाले नरभक्षियों को, नरमुंड
गिराने में माहिर थे, उनका
हृदय बदल दिया। तुम्हारे आंगन में उनकी तलवार उठ न सकी। समझ गए होंगे वे हिंसक पशु
कि धौलगिरि
कोई साधारण पहाड़ी नहीं है, यह
देवताओं की लीलाभूमि है। जिसके जाल में फंस गए योद्धा और सम्राट अशोक। यह कैसा
युद्ध! यह कैसा युद्ध! क्यों मैंने खून की नदियां बहाई? क्या मिला मुझे? सारा
जीवन मेरा व्यर्थ हुआ? पूरा
पापी हो गया हूँ मैं? कभी
तुम्हारे सुंदर गोधूलि गगन में सिंदूरी तरंग बिखेर कर पश्चिम में तेजी से बढ़ रहा
होगा अस्तांचल, कभी तुम्हारे शीर्ष
पर सुमधुर विहंग गीत कानों में असंख्य युगों की दुंदुभि बजा रहे होंगे। दयानदी के
गर्भ में समा रहे होंगे दया, क्षमा
और कलिंग की पुरानी गौरव महिमा। भावावेश के उच्च धरातल पर पहुँचने पर मुझे धौलगिरि
कविता (पदमचरण पटनायक जी) की विस्मृत पंक्तियां रह-रहकर हृदय में आघात करने लगी, मानों कई युग पीछे छोड़ आए है हम, और न कभी कलिंग-युद्ध
होगा और न ही कभी कोई विश्व-युद्ध। शायद दयानदी की सूनी रेत याद दिला रही है-
‘‘राजघराने खत्म हो
गए
बह गए सारे दयानदी में
परछाई तक नजर नहीं आई
विलीन हो गए सारे महाशून्य में
धवलचूल में!
लिंगराज विशाल मंदिर बचा है
बची है धवलगिरि
बची है पास में खंडगिरि
बेगाना बनकर हतशिरी!
चुपचाप अनकही हृदय विदारक
कलिंग-पुराण महिमा कथा
अतीत काल के गौरव बखान
असंख्य प्राणों की दारुण व्यथा!
प्रत्येक चट्टान के लटके मुँह पर
लिखा हुआ कीर्ति का राज
सपनों पर गिर न जाए गाज।
कहो, तब, तुम
मुझे धवलगिरि
कहो भला, मेरा मुँह देखकर
धवली देश में अतीत का
जीवन लौटेगा या नहीं।”
कुछ ही समय बाद होटल ‘सैंड़ी टॉवर’ आने
वाला था। मैंने विमला दीदी को प्रसिद्ध ओड़िया कवि डॉ० सीताराम महापात्र की कविता ‘ओड़िशा’ सुनाना चाहा, जो
कि दो दिन की इस धार्मिक, साहित्यिक
या यूं कहें गवेषणात्मक
दृष्टि से महत्वपूर्ण यात्रा का संक्षिप्त में पूरा निचोड़ प्रस्तुत करती है।
यद्यपि कविता पुरानी थी, सन्
1970-75 की रही होगी, उस समय का ओड़िशा और आज के ओड़िशा में रात-दिन का
फर्क हो गया है। अब छपरीले घरों की जगह गगनचुंबी इमारतें नजर आ रही है। घर के आगे
पुरवाई पवन के हिलोरे खाने वाले मंजरी से लदे आम्रवृक्षों में किसी सपने की तरह
लुकाछिपी खोलने वाली हल्दी बसंत दूर-दूर तक नहीं दिखाई देती है। जब आम के पेड़ ही
काटे जा चुके हैं तो हल्दी बसंत चिड़ियों की चहचहाहट कहां से सुनाई देगी? अब ओड़िशा इतना निर्धन नहीं रहा है कि रास्तें में
नारियाल की खोल से खोलते हुए छोटे-छोटे मासूम बच्चों की उदास आँखें दिखाई पड़ेगी या
टूटी कुर्सी का विकेट बनाकर दोपहर की तपती धूप में क्रिकेट खेलने वाले किशोर के
चमकते चेहरे या धान के खेतों में गीली मिट्टी को रोलते हुए झुकी कमर वाले ‘कुशा डेरा’, ‘रघुमलिक’ का अनिश्चित अंधकारमय भविष्य नजर आएगा। सब कुछ बदल चुका है, विगत पचास सालों में, मगर जो नहीं बदला है कवि की अंतरात्मा में बसी हुई अतीत की स्मृतियां।
तभी तो कवि सीताकांत जी कहते है-
‘‘अपने साथ ले जाता
हूँ
सूर्योदय की पूर्व बेला में
कजलपाती, कौआ
या कोयल की कूक
सुनाई देने से पहले
खंडगिरि की गुफाओं से सुनाई देने वाले
जैन मुनियों की प्रार्थना के उदात्त स्वर,
रक्त-रंजित दयानदी के किनारे
पश्चाताप में निमग्न सम्राट के निद्राहीन प्रहर
सांझ के अंधियारे में पिता को पहली बार
मिलने आए पुत्र के आत्म-विर्सजन से
पैदा हुई शोक-लहर
चित्रोत्पला घाट से
स्नान-तर्पण करके लौटते
दादा जी की खड़ाऊं के
प्रभात बेला में मधुर स्वर”
आज भी सीताकांत महापात्र अपने भीतर एक सीधे-साधे
ओड़िया इंसान, एक साधारण ओड़िया
परिवार का अन्वेषण करते है। उनकी स्मृतियों में हल्दी-पत्र की सुगंध, काकरा, चकुली पीठा, रंगोली, दशहरे के मिष्ठान, द्वार से दहलीज तक बने लक्ष्मी पद के छोटे-छोटे निशान और गोधूलि बेला में
बरामदे में सहारा लेकर बैठी हुई दादी माँ का चेहरा उभर आता है, तो कभी उनकी निगाहें भागवत की छोटी-छोटी पंक्तियों
पर तो कभी निर्माल्य कणिका और अभय वरदान देती हुई चक्राकार आँखों की तरफ चली जाती
है, तो कभी उन्हें
तुलसी चौरा
के सामने अपने दुख को छुपाकर मुस्काराहट बिखेरती गृहलक्ष्मी की नीरव प्रार्थना
सुनाई पड़ने लगती है। तभी तो उनका हृदय कह उठता है- ‘इतना ही बस मेरे लिए ओड़िशा।’
और मैं भी इन
पंक्तियों पर अपना अधिकार जमाते हुए दोहराने लगता हूँ, आधुनिक परिवेश, परिदृश्य
और परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखते हुए-
‘‘यही है मेरा ओड़िशा,
इतना ही मेरे लिए ओड़िशा।”
‘इतना ही मेरे लिए
ओड़िशा’ पंक्ति की दो-तीन आवृत्ति करते हुए मैंने विमला दीदी और भंडारी साहब से
रेलवे स्टेशन जाने की अनुमति मांगी। दीदी की आँखों में स्नेह-वात्सल्य और अपनापन
साफ नजर आने लगा था, मानों उन्हें ऐसा लग रहा था कि उनका कोई सगा भाई
बिछुड़ रहा हो। और मुझे भी ऐसा लग रहा था कि मेरी कोई बड़ी बहन मुझे मिलने के लिए, कोयलांचल के 25
साल की नौकरी करने के बाद पहली बार मिलने आई
हो।
‘अलविदा‘ शब्द कहना मानों आँखों में आँसुओं को आमंत्रित
करना है, अतः केवल हाथ जोड़कर
होटल ‘सैड़ी टॉवर’ से मैंने उनसे विदा ली। उनका कहना था कि वह बहुत
जल्दी ही एक महीने के लिए अमेरिका जाने वाली है। और मेरा उनसे निवेदन था, एक बार कम से कम तालचेर आ जाते तो आपको मेरी कॉलोनी
और कोयले की खदानें दिखा पाता। मुस्कराते
हुए उन्होंने कहा, ‘‘जिस
समय शीतल भाभी आएगी तो हम सपरिवार आपके यहाँ रूकेंगे। हमारी सेवा के लिए कम से कम
भाभी को होना चाहिए न।”
इतनी आत्मीयता से
मुस्कुराते हुए उन्होंने कहा था कि उनकी हँसमुख छवि और ममता भरी नजरें हमेशा के
लिए मेरे मन-मस्तिष्क में एक खूबसूरत अविस्मरणीय यादगार बनकर रह गई।
उन्हें राजस्थान गए
हुए, ज्यादा दिन नहीं
हुए थे कि एक बार अचानक उनका फोन आया, ‘‘मैं भुवनेश्वर में जिस किसी को फोन लगा रही हूँ,
कोई मेरा फोन ही नहीं उठा रहा है। मैंने टी.वी.
में पुरी और भुवनेश्वर में तेज आँधी-तूफान वाले साइक्लोन ‘फनी‘ के बारे में देखा
तो मन हुआ कि आप सभी लोग किस हाल में है, पता कर लूं।”
उधर से मैंने उत्तर
दिया, “दीदी, तालचेर में तो सबकुछ ठीक-ठाक है, सिवाय कुछ दिन तेज बारिश के। लेकिन पुरी और
भुवनेश्वर तो काफी हद तक तबाह हो गए है। पुरी के जगन्नाथ मंदिर में आप जिस कल्पवृक्ष पर
धागे से मिट्टी का टूटा छोटा ठीकरा बांधना चाहती थी और जिसके बारे में पंडे लोग, उसकी उत्पत्ति सतयुग से बता रहे है, वह जड़ों से उखड़ गया है। जहाँ-तहाँ बिजली के खंभे
टूट गए है। पुरी के समुद्र तट के सामने वाली सड़क पर जहाँ हम खड़े थे, वह तो कम से कम दो तीन फीट समुद्री बालू से ऐसा भर
गया है कि कोई आदमी पैदल भी नहीं चल सकता है। चारों तरफ बड़े-बड़े पेड़ टूटे हुए है, फनी के तेज हवाओं और क्रोधित लहरों के कारण
इंटरनेट-वंटरनेट सब कटे हुए है। चारों तरफ तबाही ही तबाही। लोगों को पीने का पानी
और खाना भी नसीब नहीं हो पा रहा है। बहुत सारी कंपनियां, एनजीओ और मारवाड़ी युवा मंच वाले जहाँ-तहाँ जाकर भुवनेश्वर और पुरी में रिलीफ
कार्य कर रहे है। मिनरल वाटर और खाने के पैकेटों के वितरण पर नंगे बदन वाले
लोगों की ऐसी भीड़ उमड़ रही है कि आप सोच भी नहीं पाएगी कि यह वहीं पुरी है, जहाँ कुछ दिन पूर्व हम भ्रमण पर आए थे या फिर
दक्षिण अफ्रीका का नाइजीरिया या इथोपिया।
दीदी पूरा नक्शा ही
बदल गया है भुवनेश्वर और पुरी का। जरा-सा सोचिए आज हम अपने जीवन-काल में उन जगहों
पर प्राकृतिक विपदा से हो रहे विनाश के साक्षी बन रहे हैं तो युगों-युगों से
पृथ्वी पर हो रहे भौगोलिक और प्राकृतिक आपदाओं को इन स्थानों से कितना सहा होगा? मुझे तो ऐसा लग रहा है कि मानों भुवनेश्वर और पुरी
में किसी ने परमाणु बम फेंक दिया है, जैसे सन् 1945
में अमेरिका ने जापान के नागासाकी और हिरोशिमा पर फेंका है। सही कहूं, आप बुरा मत मानिएगा, जिस जगन्नाथ के हमने दर्शन किए थे, उनका देहावसान हो गया है। अगर उनमें ईश्वर बचा रहता तो क्या वे अपने इन
स्थानों को उजड़ते देख पाते? उनके
हाथ में सुदर्शन चक्र है, अगर
वे चाहते तो ‘फनी’ को सुदर्शन चक्र चलाकर दूसरी तरफ डायवर्ट भी कर
सकते थे। मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया, इसका मतलब साफ जाहिर है कि जिस तरह कृष्ण ने अपने मृत्यु से पूर्व अपने
वंश का समूल नाश देखा था, दुर्वासा
मुने के श्राप से पूरे साम्राज्य में ‘कोकुआ भय’ फैला
दिया था। कहीं ईश्वर इस युग में ऐसी मंशा तो नहीं है ?”
एक दीर्घ सांस में
मेरे मन में जो कुछ भी आया मैंने उन्हें कह दिया। बाद में मुझे लगा कि जर्मन
दार्शनिक नीत्शे का कहीं मुझ पर प्रभाव तो नहीं पड़ रहा है,
जो हमेशा कहते थे, ‘गॉड इज डेड’ और
मैं कह रहा हूँ, ‘जगन्नाथ जी का
देहावसान’ हो गया है। कहीं
मेरे मन-मानस पर काम्यू, काफ्का, सात्रे, हेडगर, मार्सल, कार्ल जास्पर आदि अस्तित्ववादियों का प्रभाव तो नहीं पड़ रहा है। वास्तव
में, मैं भी यही अनुभव
कर रहा हूँ। न आगे की सोच रहा हूँ और न ही पीछे की। जन्म और मृत्यु में बीच में
जितनी सांसे लेना लिखा है, उतना
ही लेना होगा। फिर क्या आगे और क्या पीछे? क्या लोक और क्या परलोक? सैमुअल
ब्रेकेट के
नोबेल पुरस्कार से नवाजे गए नाटक ‘वेटिंग
फॉर गोडोट’ ने मेरे जीवन के प्रति सोचने का सारा दृष्टिकोण ही बदल दिया, नाटक के पहले दृश्य में पोजो मालिक है और अपने
गुलाम लकी पर अत्याचार करता है, और
कुछ ही समय बाद दूसरे दृश्य में वही पोजो अंधा हो जाता है और लकी गूंगा। दूसरे
शब्दों में लकी मालिक हो जाता है और पोजो उसका गुलाम। परिस्थितियां क्या से क्या
कर देती है-
‘‘राजा हो जावे रंक
रंक नृप भारी
योगी हो जावे भोगी
भोगी गृह वनचारी”
हमारी इस यात्रा के समय भुवनेश्वर और पुरी खिल-खिलाकर हँस रहे थे और एक हफ्ते बाद अचानक दारिद्रय, नैराश्य, अराजकता, असहायता, आपदा, विनाश और किन शब्दों में कहूँ, भुवनेश्वर और पुरी अपनी प्रगति के दो दशक पीछे चले गए। लोग ये स्थान
छोड़-छोड़कर दूसरी जगह जाकर रहने लगे थे। परिस्थितियां इतनी विषम थी कि लोगों के
मुँह से एक ही शब्द निकल रहा था- या तो ईश्वर नहीं है और अगर है तो शायद ईश्वर मर
चुका है, या फिर लोगों ने ईश्वर का अंत्येष्टि-कर्म कर दिया है। पाश्चात्य लोगों ने भी ‘Fureral of god’ जैसी कविताएं लिखी
थी, निराश मन से और ‘गोडोट‘ का इंतजार करते-करते थक हारकर।
गोडोट को अगर हम अवतार मान भी लेते हैं अपने हिंदू
धर्म में, तो क्या अभी ईश्वर
के अवतार लेने का समय नहीं आया है?
चारों तरफ बलात्कार, लूटपाट, हत्या, रिश्वतखोरी, अविश्वास
फिर कब समय आएगा कि जयदेव के ‘गीत
गोविंद’ का कृष्ण फिर से अपनी बांसुरी बजाने लगेगा और दुनिया में शांति और धर्म
की स्थापना होगी।
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