विवेकी राय का औपन्यासिक कृतित्व
अनिल
कुमार एन.
स्वाधीनता परवर्ती उपन्यासकारों में हिंदी साहित्य के धुरीण
हस्ताक्षर, प्रख्यात कथाकार एवं शिल्पकार है डॉ. विवेकी राय। उन्होंने अपने
उपन्यासों में उन्हीं तथ्यों को रेखांकित किया है जिन्हें उन्होंने देखा, भोगा तथा
अनुभव किया। स्पष्ट है कि आज का साहित्यकार युग-जीवन का सजग प्रहरी है। इसलिए वे
युग-जीवन की समस्याओं व विषतमताओं से मुख मोड नहीं सकते। आज का कोई भी साहित्यकार
कल्पना-लोक में विचरण करना पसंद नहीं करता। वह जीवन के यथार्थ का साहस से सामना
करता है और संघर्षों से जूझता है। यह उसका धर्म मानता है और अपने सांस्कृतिक
इतिहास को बनाए रखना ही पड़ता है। गँवई माटी से जुड़े सीधे-सच्चे, सरल एवं
संवेदनशील-मन-रचनाकार डॉ. विवेकीराय अपने उपन्यासों में यह धर्म व दायित्व बखूबी
निभा रहे हैं।
डॉ. राय ने अपना पहला उपन्यास ‘बबूल’ (1967) में दलितों के चिर-उपेक्षित
एवं शोषित जीवन को केंद्र में रखकर गरीबी व अमीरी की विशद व्याख्या किया है।
पूर्वाचल के, अन्योक्ति के माध्यम से पूरे भारत के मज़दूरों एवं दलितों की भयावह
स्थिति का चित्रण उपन्यास में किया गया है। इसके साथ-साथ इन दयनीय दशा के
उत्तरदायी कौन हैं, इनके कारण क्या है आदि का भी विश्लेषण किया गया है।
दूसरे उपन्यास ‘पुरुष-पुराण’ (1975) में इस सत्य को खुला देने का
प्रयास किया है कि नई पीढ़ी के लोगों द्वारा पुरानी पीढ़ी के लोगों, खासकर
आदर्शवादी एवं मूल्यों के समर्थक लोगों की अवज्ञा हो रही है। उपन्यास का ‘दूखन’ पुराने मुल्यों का पक्षधर एवं गांधीवादी
विचारों का समर्थक है। वह अपने आपको आज के इस बदलते हुए परिवेश एवं कृत्रिमतावादी
युग से एक कदम पीछे रह गया है। पीढ़ियों का संघर्ष तो पहले भी हुआ करता था,
वैचारिक मतभेद, रगड़े-झगडे भी हुआ करते थे। किंतु उनके बीच आदर्श एवं मर्यादा का
भाव बना रहता था। लेकिन आज इस तरह के उदात्त मूल्य एवं सामाजिक सरोकार नहीं दिखाई
देते।
तीसरे उपन्यास ‘लोकऋण’ (1977) में मूल्यों में बिखराव, सांस्कृतिक
पतन व विकास की हकीकत का सूक्ष्म एवं वैज्ञानिक विश्लेषण है। इसमें
स्वातंत्र्योत्तर ग्राम-जीवन के विविध आयामों को दर्शाते हैं। उपन्यास में वे
स्पष्ट तथा खुलकर कह उठते हैं कि गाँव के विनाश के पीछे गाँव के शिक्षित, समझदार व
संवेदनशील लोगों द्वारा गाँव से पलायन करने की बुरी प्रवृत्ति है। वे सचेत करते
हैं कि वे गाँव में रुककर गाँव का विकास करने व अपनी जिम्मेदारियों तथा कर्तव्यों
को पहचानने व समझने का प्रयास करें।
‘श्वेतपत्र’ (1979) आत्मकथात्मक शैली में
लिखा उनका उपन्यास है जिसमें 1942 के जनांदोलन को पूरी सजगता से वर्णन किया है। ‘सोनामाटी’ (1983) उनका पाँचवाँ उपन्यास है। इसमें
गाँव के सामाजिक व सांस्कृतिक जीवन में आई भयावह गिरावट तथा मूल्यों की रक्षा के
लिए लेखकीय पीड़ा व छटपटाहट की अभिव्यक्ति है। यह कृति प्रेमचंद के ‘गोदान’ की ही तरह से किसान-जीवन की महागाथा है जो
अपने बृहद् रचनात्मक सरोकारों के साथ व्यापक तौर पर राष्ट्रीय समस्याओं के
परिप्रेक्ष्य में जुड़कर अपनी सृजनात्मकता के उद्देश्य को स्पष्ट करती है।
‘समर शेष है’ (1988) उनकी छठीं महत्वपूर्ण
कृति है। यह प्रतीक शैली में लिखा उपन्यास है। इसमें भी अन्य उपन्यासों के समान
युगीन समस्याओं को उठाया गया है। मुख्य समस्या के रूप में सड़क की समस्या है, और
उसके साथ-साथ स्कूल, शिक्षा, चिकित्सा, अस्पताल आदि की दुर्दश का अत्यंत सूक्ष्म एवं
यथार्थ चित्रण किया गया है।
डॉ. राय की सातवीं महत्वपूर्ण रचना ‘मंगल भवन’ (1994) में लेखक ने दो भाइयों
(सेना के अवकाशप्राप्त अधिकारी – मेजर जगदीश व उसके अनुज तुलसी) के बीच उनकी
स्वार्थी प्रवृत्ति के चलते पैतृक निवास ‘मंगल भवन’ के दो फाड़ अर्थात् बँटवारे को अन्योक्ति के माध्यम से भारत-पाकिस्तान के
बँटवारे से जोड़कर देखता है। इस उपन्यास की सबसे खासियत यह है कि इसके केंद्रीय
पात्र विक्रय मास्टर द्वारा लिखे जा रहे उपन्यास ‘फिर
मिलेंगे’ की कहानी भी साथ-साथ चलती है। इससे पाठक दो-दो उपन्यासों
का आस्वादन एक ही साथ करते हैं। डॉ. रायजी से पहले केवल हिंदी साहित्य में अमृतलाल
नागर ने अपनी विख्यात रचना ‘अमृत और विष’ में ऐसा प्रयोग किया है।
अपनी ‘नमामी
ग्रामम्’ (1977) में लेखकने कथानकहीन एवं पात्रहीन कथा की
सृष्टि कर अपनी उत्कृष्ट रचना-कला का परिचय दिया है। इसमें सबकुछ गाँव ही है।
उपन्यास में उन्होंने न गाँव की प्राचीन परंपरा व आदर्श मूल्यों का गुणगान किया है
अपितु उसके चहुँमुखी विघटन का भी कारण सहित, यथार्थ के धरातल पर, सम्यक विश्लेषण
किया है। गाँव की रक्षा करना ही इन सबका मतलब है।
डॉ. राय की नौंवी महत्वपूर्ण कृति है अमंगलहारी (2000)। यह
लघु उपन्यास एक प्रकार से उनके पूर्व प्रकाशित विशाल उपन्यास ‘मंगल भवन’ का दूसरा भाग अथवा उससे जुड़ा
उपसंहार अंश है। उपन्यास की मूल कथा युद्ध-वीरों से संबंधित है किंतु मूल कथा के
साथ ही एक और कथा बराबर चलती रहती है, वह है- वर्तमान समय में मूल्यों में आई
भयंकर गिरावट की परिणति के रूप में दो सगे भाइयों के रूप में, लड़ाई-झगड़ा,
मार-पीट, कलह, हिंसा आदि के रूप में; अर्थात् समाज के आदर्श
व नैतिक मूल्यों के पतन के रूप में।
‘देहरी के पार’ (2003) उनकी दसवीं
महत्वपूर्ण कृति है। हिंदी में निराला के ‘सरोजस्मृति’, शिवप्रसाद सिंह का ‘मंजुशिमा’ (उपन्यास), अमृत राय रचित ‘सुख-दुख’ कहानीकार देवेंद्र की ‘क्षमा करो हे वत्स’ जैसी रचनाओं के समान ‘देहरी के पार’ भी आत्मकथात्मक शैली में लिखी गई है। इसमें लेखक ने अपने बत्तीस वर्षीय
पुत्र ज्ञानेश्वर, जो उसके लिए पुत्र, मित्र, अभिभावक, सबकुछ एकसाथ रहता है, कि
असमय मृत्यु का मार्मिक चित्रण है।
संक्षेप में, ‘बबूल’ से लेकर ‘देहरी के पार’ तक के दस उपन्यासों में लेखक कहीं भी अपने गाँव और गँवई-मोह को छोड़ नहीं
पाता। अपनी आँखों से गाँव ओझल होना वे सह नहीं सकते। उनका वाद-विवाद, लडाई सबकुछ
उसके लिए है। गाँव की रक्षा में वे प्रायः सजग व सचेत दीखता है जिससे उनकी रचनाएँ
विशिष्ट गंध-स्वाद-अनुभूति कराती आगे बहती रहती हैं।
संदर्भ ग्रंथ :-
बबूल, पुरुष-पुराण, लोकऋण, श्वेतपत्र, सोनामाटी, समर शेष है, मंगलभवन, नमामि
ग्रामम्, अमंगलहारी, देहरी के पार –-
डॉ. विवेकी राय
विवेकी राय और उनका सृजना-संसार –- डॉ. मान्धता राय
अनिल कुमार एन., कर्पगम
विश्वविद्यालय, कोयंबत्तूर, तमिलनाडु में
डॉ. के.पी. पद्मावती अम्मा के
निर्देशन में शोधरत हैं।
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