Sunday, October 20, 2013

सन्त श्री विष्णुचित्त

आलेख

सन्त श्री विष्णुचित्त
(पेरियाल्वार)
-    एस.वीणा*


        
                                                                  

"ज्येष्टे स्वातीभ्व विष्णुरथांशं धान्विनः पुरे  ।
 प्रपद्यश्रेवशुरं विष्णोः विष्णुचित्तं पुरः शिखम ॥"

     श्री धन्वीनगर में जेठ महीने में स्वाति नक्षत्र के दिन अवतरित संत श्रीविष्णुचित्त की वन्दना करता हूँ जो पुरः शिखकुलीन है।  जो विष्णुरथांश (अर्थात गरुडांश ) है और जो (श्रीरंगनाथ) के ससुर माने जाते है ।

     कलियुग के आरम्भ में दक्षिण भारत के श्रीविल्लिपुत्तूर क्षेत्र में जो धन्वीक्षेत्र भी कहलाता है -एक पूर्वशिख ब्रह्मण कुल में जेठ मास स्वाति नक्षत्र में विष्णुचित्त का जन्म हुआ । कहा जता है कि वह श्रीमन्नारयण के वाह्न गरुड का अंश था। परमात्मा की निहेंतुक कृपा से बालक में ईश्वर-भक्ति का उदय हुआ और वह दिन-दिन बढती रही । जात्युचित वेदाध्ययन और शास्त्र शिक्षा आदि प्रप्त कर के वह सोचने लगा कि आत्मोज्जीवन का समीचीन उपाय कौन है, वह इस निश्चय पर आया कि परमत्मा की सेवा ही सर्वश्रेष्ठ है और उसमें ही पुष्प-माला गूंद कर उसके भगवान को समर्पित करना। इतिहास में कृष्णवतार में एक मालकार की कथा है । वह कंस का सेवक था और उसे प्रतिदिन मालाएँ देता था । एक दिन जब श्री कृष्ण मथुरा आकर वीथी में जाते थे और दैववशात देखा कि एक मालाकार सुंदर पुष्पमालाएँ ले कर राजमहल की और जा रहा है, कृष्ण ने उससे माला मांगी, मालाकार ने कृष्ण की शोभा और सौंदर्य देखकर सब मालाएँ उन्हें दे कर अपने को कृतार्थ माना । कृष्ण भी मालाएँ ले कर बहुत प्रसन्न हुए और मालाकार पर अनुग्रह किया।  इस कथा से विष्णुचित्त बहुत प्रभावित हुआ ।
      श्रिविष्णुचित्त ने एक फुल्वारी तैयार कर के रंगबिरंगे सुगंधित फूलों की लताएँ, पौधे और वृक्षा लगाये। प्रतिदिन तुलसी और चम्पक, मालती और मल्लिका के पुष्प चुनकर गूंथ कर श्री विल्लिपुत्तूर के भगवन श्रीवटपत्रशायी को समर्पित करके अपने को कृतकृत्य मानते थे |
    इस समय दक्षिण मथुरा (कूडल) में पांड्य वंश का वल्लभदेव नाम का एक नृपति राज करता था । वह बडा धार्मिक और प्रजा प्रेमी था और स्वयं रात में वेष बदलकर नगर में घूम कर जान लेता था कि प्रजा को किसकी कमी है और कैसे उसे संतुष्ट करे । एक रात इस प्रकार जाते समय उसने देखा कि एक वृद्ध ब्राह्मन एक घर की बाहरी वेदी पर लेटा था । उसे जगा कर राजा ने पूछा की तुम कौन हो और कहाँ से आये हो । ब्राह्मन ने कहा "मैं एक ब्राह्मन हूँ । गंगा-स्नान कर के आया हूँ और अब रामेश्वर जा रहा
हूँ । रात होने से यहाँ ठहरा हूँ । राजा ने उससे प्रर्थना की कि आप बडे विद्वान दिखाते है । मुझे कुछ उपदेश दीजिये । ब्राह्मन बोला

          "वर्षर्थमष्टौ प्रयतेत मासान निशर्थमर्थ दिवसं यतेत ।
      वार्धक्यहेतो: वयसा नवेन परत्र हेतोरिह जन्मना च ॥"

    यह श्लोक का तत्पर्य है कि  वर्षा के दिनों में जीविका के लिए अन्य महिनों में अर्थ कमाना चाहिए, रात्रि के लिए दिन में, वार्धक्य के लिए यौवन में तर्था परलोक की प्रप्ति के लिए इसी जन्म में ।
       उपदेश ग्रहण कर के नृपति महल लौटा । प्रतःकाल होते ही अपने पुरोहित घनपूर्ण को बुला कर उससे प्रशन किया कि सर्वश्रेष्ठ पुरुषार्थ प्रप्ति का ज्ञान हमें कैसे होगा ? पुरोहित ने उत्तर दिया-राज्य के सुशिक्षित विद्वानों को बुलाकर उनसे चर्चा कर के निश्चय कर लें । राजा को भी वह उचित लगा । उसने एक थैली में धन बाँध कर एक खंभे के सिरे पर लटका दिया और घोषण करवायी कि सभी विद्वान लोग आवें और अपनी बुद्धिमता से परतत्व   निर्णय के वाद-विवाद में जीत कर धन ले लें । दुसरे दिन वैसे ही किया गया और पढेंलिखे शास्त्रज्ञ विद्वान आ कर एकत्रित हुए।

     श्रीविल्लिपुत्तूर के भगवान ने संकल्प किया कि मैं अपने भक्त विष्णुचित्त से परतत्व का निर्णय कर के लोकहित का काम करूँ । रात में विष्णुचित्त को स्वप्न में दर्शन दे कर भगवान ने कहा कि आप मथुरा जाइए और विद्वत्सभा में परतत्व का निर्णय कर के विजय-सम्मान प्राप्त कर आइये । विष्णुचित ने निवेदन किया मुझे वेदांत का ज्ञान कहाँ है ? मेरा तो परिचय हंसिया और कुदाली से, फुल्वारी और टोकरी से है। पंडितों के आगे मैं बोल कैसे सकता हूँ? भगवान ने कहा - "आप सभा में आइये और बोलिये । जिह्वाग्र में रह कर परतत्व निर्णय की वचनशक्ति देंगें ।

    दूसरे दिन श्री विष्णुचित्त प्रातःकाल उठ कर दैनिक कर्मानुष्ठान समाप्त कर के पुष्पमालएँ लेकर मंदिर गये और भगवान को पहना कर अंजलिसहित खडे रहे । भगवान ने पूजकों द्वारा अपनी माला उतरवा कर उन्हे पहनवा कर मथुरा जाने की आज्ञा दी । भक्तियुक्त विष्णुचित्त मथुरा आये और पांड्य नृपति ने आदर पूर्वक स्वागत कर के सभा में स्थान दिया । चर्चा प्रारंभ हुई । विद्वानों ने अपने-अपने अधीन शास्त्र के अनुसार पुरुषार्थ तथा तत्प्राप्ति के उपाय का उल्लेख किया । अंत में श्री विष्णुचित्त उठे और सांजलिबंध भगवान का ध्यान कर के पंडितों की युक्तियों का सप्रमाण खंडन किया और यह सिध्दान्त स्थापित किया कि श्रीमन्नारायण ही परतत्व है । उसके चरण कमल ही उपाय है और उसकी सेवा ही परम पुरुषार्थ है ।

     "श्रीमान नारयणो नः पतिः अखिलतनुः मुक्तिदः मुक्त भोग्यः "

   श्रीमन्नारायण ही हमारे स्वामी सब चेतानाचेतन उसके शरीर है, वही मोक्ष-दाता है और मोक्ष दशा में उसी का अनुभव किया जाता है । श्री विष्णुचित्त के सुदृढ श्रुति-स्मृति आदि के प्रमाण वचनों के साथ युक्तियुक्त और निष्पक्षपात वाद सुनकर सब पंडितों ने उनकी प्रशंसा की । नृपति इससे बहुत प्रभवित हुआ। एक अद्भुत घटना दैवयोग से हुई कि धन-थैली युक्त स्तंभ झुक कर थैली श्रीविष्णुचित्त के हाथ में रख दी ।
     पांड्य नृपति ने श्रीविष्णुचित्त को हाथी पर बिठा कर छत्रचामर और वाद्य-वृंद के साथ मथुरा की विथियों में एक जुलूस निकाला । श्रीविष्णुचित्त की प्रशंसा करते हुए सब पंडित और नृपति उसमें सम्मिलित हुए। जब जुलूस चल रहा था तब गरुड पर आरूढ हो कर आयुध-आभरणों से भूषित साक्षात लक्ष्मी और नारायण अंतरिक्ष में दिखाई दिये मानो अपने पुत्र की विजययात्रा देखने के लिये माता पिता निकल आये हों। उनके दर्शन कर के श्री विष्णुचित्त पहले आनन्दित हुये । परंतु उत्तरक्षण में उनके मन मे यह आशंका उत्पन्न हुई कि उसके निरुपम सौंदर्यमय जलद सदृश मनोहर रूप को देख कर संसारियों की बुरी दृष्टि उस पर पडे तो क्या करें ।  
             अतिस्नेह के कारण श्री विष्णुचित्त भूल गये कि परमात्मा सर्वशक्त है और जगद्रक्षक है। सर्वरक्षक का रक्षा मंगल करने के लिये(अर्थात मंगलाशासन) करने के लिये श्री विष्णुचित्त ने हाथी पर लटकती घंटियाँ हाथ में लेकर झाँझ के काम में लाए और दिव्यदंपति लक्ष्मी-नारायण की रक्षा के लिये "जुग जुग जीओ "(पल्लाण्डु-पल्लाण्डु) गाने लगे । विद्वद गोष्ठी भजन मंडली बन गई ।
     सर्वशक्ति परमात्मा की रक्षा करने के लिये उत्कंठित हो जाने की यह भावना और प्रवृत्ति असाधारण ही है । अधिक स्नेह से भय की आशंका होती है - अतिस्नेह पापशंकी और यह प्रेमभक्ति ईश्वर को अपनी रक्षा वस्तु समझ कर उसकी रक्षा में लग जाती है। जीवात्मा और परमात्मा में रक्ष्य-रक्षक भाव है वह उल्टा हो जाता है अत्यंत भक्तियुक्त संतों में । 
     इस प्रकार कूडल क्षेत्र में  (जो आजकल मथुरा नाम से प्रसिद्ध है) संत श्री विष्णुचित्त के प्रबंधम् (श्री विष्णुचित्त पद्यावली पेरियळ्वार तिरुमोलि) का अवतार रक्षामंगल से आरब्ध  होता है । श्री विष्णुचित्त पांडय नृपति का सम्मान और पंडितों की प्रशंसा पा कर अपने स्थान श्री विल्लिपुत्तूर लौटे और सीधे वट-पत्र-शायी के मन्दिर जा कर अपने सम्मान को उसके चरणों में अर्पित किया । फिर यथापूर्व माला-कैंकर्य में लग गए और भगवान के गुण और विभूति के अनुभव में मग्न हो कर रहे। आण्डाल नाम से प्रसिद्ध श्रीगोदादेवी इन की पुत्री थी जिसका अविर्भाव इसकी पुल्वारी में तुलसी पौधे के पास हुआ था जैसे सीता जी का मिथिला के जनकमहाराजा की यज्ञभूमी से । आण्डाल भी तमिल्नाडु के संतों बारह आळ्वरों में एक है, साथ ही भगवान श्रीरंगनाथ की प्रियतमा ।



* एस॰वीणा   कर्पगम विश्वविद्यालयकोयम्बत्तूर, तमिलनाडु में डॉ. के.पी. पद्मावति अम्माल के निर्देशन में शोधरत हैं |

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