प्रिय
- राकेश मिश्र, पुदुच्चेरी
प्रिय, जिसे तुम दान कह कर
कर्म पर धार्मिकता का चादर
चढ़ाती हो।
दरअसल ऐसा है नहीं।
मैं तो इसे दान मानता ही नहीं।
यह तो लोक हित और
ज्नहित का हेतु है।
बहुत सहज बात है,
जिसके त्याग से
किसी की क्षुधा तुष्ट होती है,
वही तो व्यक्ति का अभीष्ट होता है।
तुम दस कदम चल सकती हो,
जिसके पैर ही नहीं
क्या चलेंगे वे भला ?
चलाने के लिए सृष्टि को
चलना तो होगा ही।
चलायमान जगत के लिए
भला तुम्हें यह गवारा नहीं ?
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