Monday, August 23, 2010

कविता - मेरा सफ़र


मेरा सफ़र

- डॉ. एस. बशीर, उप प्रबंधक, राजभाषा, एच.पी.सी.एल, चेन्नै

सदियों से सफ़र मेरा जारी है
कोई हमसफ़र मिले या न मिले
मेरा सफ़र तो चलता ही रहेगा
सूर्योदय से सूर्यास्त तक
दिन से रात तक, सुबह से शाम तक
इस पार से, उस पार तक
पूरब से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण तक
कई सदियों से सफ़र मेरा जारी है
अंधेरों में, उजालों में
विभीषिकाओं में, संघर्षों में
फूल व कांटों में, आँसूं व मुस्कान में
मकसद का ये मशाल जलता ही रहेगा
अंधेरों को चीर, मंजिल की ओर बढ़ता ही रहेगा
जीवन नदी बन
कल-कल नाद करता चलता हूं
पल पल नये रंग में बदलता हूं
मौसम व माहौल से नहीं घबराता
जैसे वक्त है उस रूप में बदलता हूं
कर्त्तव्य को निभाना मेरी इबादत है
इन्सानियात को कायम रखना मेरी आदत है।
नव चेतना को जागृत कर
नव स्फूर्ति को फैलाता हूं
जड़ समाज में परिवर्तन कर
नव समाज के निर्माण में हाथ बढ़ाता हूं
कण कण जीवन में
क्षण क्षण नव ऊर्जा का सृजन करता हूं
नव उमंग, नव उत्साह का
नव गीत गुनगुनाता हूं
परिवर्तन ही जीवन है
यही बात दुहराता हूं
मैं अपने राह पर चलता हूं
आगे बढ़ता हूं
मंजिल मिले या न मिले
परवाह नहीं मुझे
अपना सफ़र हमेशा जारी रखता हूं।

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