Tuesday, March 24, 2009

ओरिएंटल इंश्योरेंस कं.लि. में हिंदी कार्यशाला आयोजित




ओरिएंटल इंश्योरेंस कं.लि., क्षेत्रीय कार्यालय, कोयंबत्तूर में आज दि.24 मार्च, 2009 को हिंदी कार्यशाला का आयोजन किया गया । राजभाषा अधिकारी श्री प्रवीण कुमार ने सभी का स्वागत किया । कार्यशाला का उद्घाटन करते हुए डॉ. सी.ए. मनोरंजन, मुख्य क्षेत्रीय प्रबंधक ने प्रतिभागियों को हिंदी में कार्य करने हेतु प्रेरित किया । उद्घाटन कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में डॉ. सी. जय शंकर बाबु, सदस्य सचिव, नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति, कोयंबत्तूर ने कहा कि आज राजभाषा कार्यान्वयन कार्य में भी कंप्यूटरों के प्रयोग की ज़रूरत है । यूनिकोड के विकास के कारण हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं का प्रयोग ई-मेल, वेब साइट तथा अन्य वेब अनुप्रयोगों के अब तमाम दिक्कतें समाप्त हो चुकी हैं । उद्घाटन के अवसर पर क्षेत्रीय प्रबंधक डॉ. एम.के.एस. नायुडु तथा डॉ. एम. जानसन ने भी हिंदी के महत्व पर प्रकाश डाला एवं सरकारी कामकाज में हिंदी को अपनाने के लिए सभी अधिकारियों तथा कर्मचारियों से अनुरोध किया । कोचिन क्षेत्रीय कार्यालय के राजभाषा अधिकारी श्री गौतम कुमार मीणा ने हिंदी से संबंधित विभागीय प्रोत्साहन योजनाओं पर प्रकाश डाला ।
प्रथम सत्र में कंप्यूटर पर भाषाई अनुप्रयोगों के लिए उपलब्ध संसाधनों के संबंध में डॉ. सी. जय शंकर बाबु, सदस्य सचिव, नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति, कोयंबत्तूर ने पवर पाइंट प्रस्तुती के साथ व्याख्यान दिया तथा कंप्यूटर पर हिंदी तथा अन्य सभी भारतीय भाषाओं के प्रयोग के लिए यूनिकोड के उपयोग के संबंध में अपेक्षित प्रशिक्षण दिया । कई भाषाओं में कंप्यूटर में शब्द-संसाधन हेतु आवश्यक तकनीकों की जानकारी भी उन्होंने दिया ।
द्वितीय सत्र में कर्मचारी राज्य बीमा निगम के सहायक निदेशक (राजभाषा) तथा युनाइटेड इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड के हिंदी अधिकारी श्री ए. सूर्य प्रकाश ने हिंदी प्रयोग के संबंध में व्याख्यान दिए । इस कार्यशाला का संयोजन ओरिएंटल इंश्योरेंस कं.लि., क्षेत्रीय कार्यालय के राजभाषा अधिकारी श्री प्रवीण कुमार ने किया ।

Saturday, March 21, 2009

हिंदुस्तान पेट्रोलियम कंपनी लिमिटेड, मदुरै एल.पी.जी. संयत्र में हिंदी कंप्यूटर प्रशिक्षण सुसंपन्न

हिंदुस्तान पेट्रोलियम कंपनी लिमिटेड, मदुरै एल.पी.जी. संयत्र में हिंदी कंप्यूटर

आज हिंदुस्तान पेट्रोलियम कंपनी लिमिटेड, मदुरै एल.पी.जी. संयत्र में श्री ए.वी. सुरेश, संयत्र प्रबंधक के निर्देशन में हिंदी कंप्यूटर प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किया गया । कंप्यूटर में यूनिकोड के माध्यम से हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में कार्य करने का प्रशिक्षण डॉ. सी. जय शंकर बाबु, सहायक निदेशक (राजभाषा), कर्मचारी भविष्य निधि संगठन, कोयंबत्तूर एवं सदस्य सचिव, कोयंबत्तूर नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति द्वारा दिया गया । हिंदुस्तान पेट्रोलियम कंपनी लिमिटेड, दक्षिणी क्षेत्र के उप प्रबंधक (राजभाषा) डॉ. बशीर ने कार्यक्रम का संयोजन किया । हिंदी में ई-मेल प्रेषण, वेब साइट में हिंदी का प्रयोग, अनुवाद एवं लिप्यंतरण उपकरण आदि का प्रशिक्षण पवर पाइंट प्रस्तुति के साथ दिया गया । इस प्रशिक्षण कार्यक्रम में मदुरै एल.पी.जी. संयंत्र के अधिकारी श्री एस.वी. मोहन, श्री जी. कार्तिकेयन, श्री गौतम कुमार, सुश्री सुमती आदि तथा मदुरै डिपो के हिंदी समन्वयक आदित्य पगारिया भी उपस्थित थे । प्रशिक्षण कार्यक्रम में अंत में श्री गौतम कुमार हिंदी समन्वयक ने धन्यवाद ज्ञापन किया ।

Friday, March 20, 2009

तुलसी शशि


तुलसी शशि

- वी.डी. विश्वकर्मा, रांची (झारखंड)

-कुमुद कलाधर तुलसी शशि, तुम्हें प्रणाम ।

तेज पुंज, प्रखर प्रकाश, कला कौशल का कर विन्यास,
जग को जिसने प्रदान किया अपना अमर अभ्यास ।

प्रकृति के धानी आंचल से प्रकृत भए तुलसी कवि महान,
अपनी सूक्ष्म सुगम सरल सुबुद्धि में विदित हुए सकल जहान ।

खिल पड़े तड़ाग में कीचड़-जल बीच कुमुतिनी ज्यों,
तू प्रकाश-पुंज बन प्रकट हुए अखिल विश्व में त्यों ।

तम हर प्रकाश दिया मानस में हमारे लिए,
भारत के मान मस्तक को ऊँचा किया कर में पर-कांड लिए ।

विष्णु के अवतार राम, लक्ष्मी के रूप सिय को मानस पियो दियो,
मानव रूप में चित्रण कर जीवन आदर्श का हमें सम्यक ज्ञान दिया ।

मानस के मंदिर में बसाया अनुपम राम सिय को,
प्रेरणा के पंख लगाए, नहलाए जन-जन के हिय को ।

नहीं केवल व्याख्या किया, जग को दिव्य दृष्टि का नया अनुदान दिया,
पुष्पक विमान के उदाहण से मानव को आकाशीय दृष्टिकोण दिया ।

कृषि मुनि के योग बल-प्रदर्शन का दर्शन विज्ञान उसको मिला,
सकल जग को आज टीवी कंप्युटर का विशेष ज्ञान मिला ।

सुंदर प्रकृति चित्रण के यथोचित वर्णन का क्या और ऐसा वर्णन हो सकता है,
इसकी अद्भुत लीला एवं संवेदनशीलता मन को सरोबोर ही कर देता है ।

नारी के हृदय पारखी सौम्य सुशीला सीता का आदर्श जग को,
जननी के अस्तत्व को स्थायित्व आदर्श तूने प्रदान किया ।

प्रेम, भक्ति भावों, अनुरागों से भरा पड़ा यह रामचरित मानस है,
अनुप्राणित हमें कर रहा, शशि तुलसी का यह अथक चिर सफल प्रयास है ।

पवित्र मानस के रचयिता राम सिय के अनन्य प्रेमी भक्त महान,
कुल कुमुद कलाधर तुलसी शशि करता हूँ मैं तुम्हें प्रणाम ।


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Thursday, March 19, 2009

आलेख


‘जा घट प्रेम न संचरै...’


- डॉ. सी. जय शंकर बाबु


‘प्रेम’ ढ़ाई अक्षरों का अप्रतिम शब्द है । ‘ढ़ाई आखर प्रेम का पढ़े सुपंडित होय’ – उक्ति कोई निरर्थक कथन नहीं है । एक दार्शनिक कवि के अनुभव के सार के रूप में ही यह व्याख्या निसृत हुई है । वास्तव में प्रेम एक ऐसी अनूठी भावना है, जिसे समझे बिना संसार में कोई कवि नहीं बन पाया है । प्रेम-भावना अथवा प्रेम की अवधारणा को समझे बिना संसार में कोई दार्शनिक भी नहीं बन पाया है । प्रेम ईश्वरीय भावना का प्रतीक है । असीम प्रेम की अलौकिक शक्ति की संज्ञा ही ‘ईश्वर’ है । आधुनिक विज्ञान के सिद्धांत भले ही ईश्वरीय तत्व को नहीं मानते हैं, किंतु मनोवैज्ञानिक अध्ययनों में एक विशेष मनोविकार के रूप में अवश्य ही मान्यता है ।


प्रेम व्यापक अर्थ वाला शब्द है, जिसकी सीमित शब्दों में कोई सर्वमान्य परिभाषा देना अथवा सीमित वाक्यों में विश्लेषण करना कठिन कार्य है । प्रेम भावना में एक चमत्कारी शक्ति है । प्रेम का इतना महत्व है कि प्रेम के बिना संसार का अस्तित्व अकल्पनीय है । प्रेम अस्तित्व का एवं अमूर्त शक्ति स्रोत का प्रतिरूप है । प्रेम एक विशिष्ट एवं अनूठा दैवी गुण है । मानव की संज्ञा मनुष्य के साथ जुड़ने का मुख्य कारण यह है कि वह अन्य प्राणियों की तुलना में गुण-संपन्न एवं बुद्धि-कुशल है ।


हिंदी में प्रेम भावना को अभिव्यक्त करने के लिए कई शब्द प्रयुक्त होते हैं – जैसे अनुराग, प्यार, प्रीति, स्नेह, इश्क़, मुहब्बत आदि । इन तमाम शब्दों में जो भी उत्कृष्ट आयाम हैं, वे सब ‘प्रेम’ में समाविष्ट हैं । ऐसे अनूठे प्रेम तत्व के विभिन्न आयामों के संदर्भ में कई विद्वानों ने अध्ययन किया है । ऐसे अध्ययनों से कई तथ्य उजागर हुए हैं । प्रेम भावना संबंधी संकल्पना, विवेचन, विश्लेषण एवं चिंतन – ये सब किसी रूप में प्रेम का गुणगान ही है । प्रेम में कई श्रेष्ठ तत्व मौज़ूद हैं जो असाध्य को सुसाध्य में परिवर्तित करने में सक्षम हैं । इन तमाम सुगुणों को ध्यान में रखते हुए प्रेम को ‘गुणों की खान’ कहना भी उचित ही लगता है । प्रेम को सांसारिक, असांसारिक (लौकिक – अलौकिक), दैवी, मानवीय आदि कई रूपों में मानते हैं । भले ही जितने भी उसके रूप हम मानते हैं, प्रेम की मूल भावना एक ही है, वह अतुलनीय है, अप्रतिम है ।


प्रेम भावना को धारण करने वाले जीव से बढ़कर न कोई पंडित है, न कोई वीर, न कोई साहसी, न संत, न कोई योगी, न मानव, न कोई दैवी शक्ति ही है । तमाम उत्कृष्टताओं के कारण प्रेम तत्व के संदर्भ में विवेचन, विश्लेषण, चिंतन एवं अनुचिंतन के आधार पर कई विद्वान पुरुष, चिंतक, दार्शनिक एवं संत महात्माओं ने अपने उदगार प्रकट किए हैं ।


हिंदी के संत एवं दार्शनिक कवि कबीरदास जी ने प्रेम का मार्मिक विवेचन प्रस्तुत किया है । कबीर के विचार में बृहत ग्रंथ पढ़कर संसार में कोई पंडित नहीं बन पाए हैं, ढ़ाई अक्षरों के ‘प्रेम’ शब्द के समूचे तत्वों को समझनेवाले निश्चय ही अच्छे पंडित साबित हुए हैं । कबीरदास जी ने कहा है –


“पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोय ।

ढ़ाई आखर प्रेम का पढ़े सुपंडित होय ।।”


उन्होंने यह भी कहा है –

“प्रेम न बाड़ी ऊपजौ, प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा परजा जेहि रुचै, सीस देइ लै जाय ।।”

कबीरदास जी की राय में प्रेम न तो बगीचे में पैदा होता है और न वह बाज़ार में बिकता है । राजा और प्रजा जो किसी भी स्तर का क्यों न हो, जिसको यह प्रेम अच्छा लगे वही अपना सिर देकर अर्थात अहंकार छोड़कर उसे ले जा सकता है । अहंकार और प्रेम का एक साथ पनपना संभव नहीं है । अहंकार रहित हृदय में ही प्रेम का दर्शन संभव है । इस संदर्भ को कबीरदास की एक और उक्ति स्पष्ट करती है –

“प्रेम गली अति साँकरी, तामें दो न समाहिं....”

इसी विचार को कबीरदास जी ने एक और ढंग से प्रस्तुत किया है –

“पीया चाहे प्रेम रस, राखा चाहे मान ।
एक म्यान में दो खड्ग, देखा सुना न कान ।।”

अर्थात् जो व्यक्ति प्रेम रस पीना चाहता है, वह यदि अभिमान भी रखना चाहता है – ये दोनों एक साथ निभाना कैसा संभव है ? एक म्यान में दो खड्ग रहने की बात न तो कानों से सुनी है और न उसे आँकों से देखा है । अहंकार प्रेम का शत्रु है । प्रेम और अहंकार को एक ही हृदय में स्थान नहीं मिलता है ।

मानव को सृष्टि में उत्कृष्ट प्राणी के रूप में मान्यता है । प्रेम मानवीयता का एक महत्वपूर्ण आयाम है । यदि मनुष्य को सृष्टि का शृंगार कहा जाए तो अवश्य ही प्रेम को मानवीयता का शृंगार कहा जा सकता है । इसलिए यहाँ तक कहा गया है –

“प्रेम भाव एक चाहिए, भेष अनेक बनाय ।
चाहे घर में बास कर, चाहे बन को जाय ।।”

अर्थात् चाहे लाख तरह के भेष बदलें, घर पर रहें, चाहे वन में जाएं परंतु प्रेम-भाव ज़रूर होना चाहिए । अर्थात् संसार में किसी भी स्थान पर, किसी भी स्थिति में रहें, मगर प्रेम भाव से रहना चाहिए ।
प्रायः कबीरदास की तुलना तमिल के संत कवि तुरुवल्लुवर से की जाती है । इन दोनों संत कवियों के विचारों में कई आयामों में समानता नज़र आती है । संत तिरुवल्लुवर ने तो कबीरदास जी से लगभग हजार वर्ष पूर्व ही अपने श्रेष्ठतम विचारों को ‘तिरुक्कुरल’ में अक्षरबद्ध किया था । संत तिरुवल्लुवर की अनन्य कृति ‘तिरुक्कुरल’ को तमिल वेद के रूप में विशिष्ट मान्यता है ।

संत तिरुवल्लुवर ने भी प्रेम को सर्वश्रेष्ठ गुण का दर्जा दिया है । उत्तम गुणों की सूची में उन्होंने प्रेम को प्रथम स्थान पर रखा है । उन्होंने गुण-संपन्नता के आधारों के संबंध में लिखित ‘कुरल’ (तमिल का एक प्रसिद्ध दोहा-छंद, जिसमें प्रथम पंक्ति में चार शब्द एवं दूसरी पंक्ति में तीन शब्द होते हैं) यहाँ उद्धृत है –

“अंबुनाण् ऑप्पुरवु कण्णोट्टम् वाय्मैयॉडु
ऐंदुशाल्पु ऊनरिय तूण ।”

प्रेम, पाप-भीती, उदारता, करुणा तथा सत्यभाषिता – ये पांचों श्रेष्ठ गुण आचरण के आधार-स्तंभ हैं ।
संत तिरुवल्लुवर ने अपने इस कुरल में प्रेम को प्रथम स्थान पर रखा है । तिरुवल्लुवर जी के विचार में इन गुणों से वंचित मनुष्य संसार के लिए भार है और संसार उनके भार-वहन करने में असमर्थ हो जाएगा ।

प्रेम के संबंध में संत तिरुवल्लुवर के विचार मननीय एवं आचरणीय हैं । उनके विचार में अनभिज्ञ लोग अक्सर यह कहते नज़र आते हैं कि प्रेम धर्म की चीज़ है, मगर वास्तविकता यह है कि प्रेम हमें दुष्टता से बचानेवाला रक्षक है । प्रेम से संसार में स्नेह बढ़ जाता है, जो सब कुछ मंगलमय बना देता है । जिनका जीवन प्रेममय होता है उन्हें सच्चा सुख और समृद्धि सुलभ हो जाते हैं । सूरज की तेज धूप से जिस भांति अस्तिहीन कीटादि झुलस जाते हैं, वैसे ही प्रेम रहित लोगों को धर्म लील लेता है । प्रेम-रहित प्राणी स्वार्थी होते हैं । प्रेम से भरपूर प्राणी अपने सर्वस्व अर्पित करने के लिए तत्पर रहते हैं । इस प्रकार संत तिरुल्लुवर ने ‘तिरुक्कुरल’ में प्रेम के संबंध कई जगह अपनी सुंदरतम भावनाएँ प्रकट की हैं । उनके अनुसार प्रेम ही जीवन है और प्रेम-रहित तन केवल अस्थि-पंजर है । उन्होंने प्रेम रहित जीवन को मरुभूमि में पुष्पित होनेवाले फूल के बराबर माना है । प्रेम केवल बहिरंग की ही नहीं, अंतरंग की भी शोभा है । प्रेम रहित सुंदरता की कल्पना करना निरर्थक है । तिरुवल्लुर जी यह प्रश्न करते हैं कि क्या प्रेम-द्वार का कोई ताला होता है ... इसका समाधान स्वयं वे ही देते हैं – “प्रिय के नयन-सिंधु से जनित अश्रु-बिंदुओं से ही हृदय का प्रेम प्रकट हो जाता है ।” उनके विचार में अस्तिमय देह से आत्मा के बार-बार जुड़ने का कारण भी यही है कि वह प्रेमानंद का फ़ायदा उठाना चाहती है ।

प्रेम सृष्टि का महत्वपूर्ण तत्व है । पवित्र हृदय में प्रेम भाव अवश्य रहता है । जहाँ तिरुवल्लुवर ने प्रेम रहित देह को अस्ति-पंजर की संज्ञा दी है, वहीं कबीरदास जी प्रेम रहित हृदय को श्मशान तुल्य मानते हैं । संत कबीर ने एक मार्मिक उदाहरण से इस विचार को प्रकट करने का प्रयास किया है –

“जा घट प्रेम न संचरै, सो घट जान मसान ।
जैसे खाल लोहार की, साँस लेत बिनु प्रान ।”

अर्थात् जिस हृदय में प्रेम का संचार नहीं होता, उस हृदय को श्मशान समझना चाहिए । वह व्यक्ति जिसके हृदय में प्रेम का संचार नहीं होता है, लोहार की धौंकनी की तरह प्राण के बिना ही साँस लेता है ।

हृदय में प्रेम भाव को स्थान न देकर अपने हृदय को श्मशान साबित करना कौन चाहता है ? मानव मात्र के हृदयों में प्रेम तत्व भर जाने से अवश्य ही सारा संसार प्रेममय बन जाएगा । संसार में अशांति का सवाल ही नहीं उठता है ।

आधुनिक समय के आध्यात्मिक विचारक ओशो की इन पंक्तियों में प्रेम तत्व के महत्व की झांकी मिल जाती है – “प्रेम का जीवन ही सृजनात्मक जीवन है । प्रेम का हाथ जहाँ भी छू देता है, वहाँ क्रांति हो जाती है, वहाँ मिट्टी सोना हो जाती है । प्रेम का हाथ जहाँ स्पर्श देता है, वहाँ अमृत की वर्षा शुरू हो जाती है । जरूरी है हम प्रेमल बने रहे, तभी यह दुनिया प्रेमपूर्ण होगी ।”

संसार में शांति पनपने के लिए आज प्रेम भावना को फैलाने की बड़ी ज़रूरत है । अतिवाद के जितने भी भयानक रूप उभर रहे हैं तथा उनके जितने भी अमानवीय कृत्यों से यह संसार पीड़ित है, वे सब मानवीयता पर न मिटने वाले दाग़ हैं । तथाकथित अतिवादियों में रंच मात्र भी प्रेम भरने में हम सफल हो जाएंगे तो दुनिया में शांति का साम्राज्य सुस्थापित हो पाएगा । प्रेम में निश्चय ही वह अजस्र शक्ति है ।

आज हम कहीं तथाकथित धर्म के पीछे भी पागल होते जा रहे हैं और प्रेम से नाता तोड़ रहे हैं । जिसमें प्रेम नहीं, वह कोई धर्म नहीं है । स्वामी विवेकानंद ने कहा था – “दूसरों से प्रेम करना धर्म है, द्वेष करना पाप ।”

मेरे विचार में सभी धर्मों का तत्व सार ही ‘प्रेम’ है । ‘जियो और जीने दो’ की संकल्पना को साकर बनाने के लिए संसार को प्रेममय बनाने की नितांत आवश्यकता है । आइए हम सब ढ़ाई अक्षरों के ‘प्रेम’ को पढ़ें और बड़े प्रेमी-स्वभाव के बन जाएं ।

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संपादक, ‘युग मानस’,
18/795/एफ़/8-ए, तिलक नगर,
गुंतकल (आं.प्र.) – 515 801
ई-मेल – yugmanas@gmail.com
दूरभाष – 09843508506

(इस्पात भाषा भारती में प्रकाशित)
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Tuesday, March 17, 2009

नई वेब पत्रिका दिव्य नर्मदा



मकर संक्रांति के पावन पर्व पर सनातन सलिला नर्मदा के तट पर स्थित संस्कारधानी जबलपुर से
हिंदी अंतरजाल के आकाश में एक नए तारे का उदय
जाल पत्रिका

के रूप में हुआ है.
सुविख्यात रचनाकार आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' के संपादन में
इस पत्रिका में
साहित्य की सभी विधाओं की स्तरीय रचनाओं का स्वागत है.
श्री सलिल युग मानस की स्थापना के समय से इसके पारिवारिक सदस्य हैं.
दिव्य नर्मदा में प्रतिदिन विविध विधाओं की रचनाएं प्रकाशित हो रही हैं.
साहित्य के अलावा कला, रंगमंच, संगीत, आध्यात्म, सामाजिक, राजनैतिक,
विज्ञान, बाल साहित्य, महिला विमर्श आदि की रचनाओं का स्वागत है
रचनाएं सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम पर आमत्रित हैं.
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम पर रचनाएं पढ़ें तथा
प्रतिक्रिया देकर रचनाकारों को प्रोत्साहित करें.

लघुकथा

स्वजन तंत्र

- आचार्य संजीव 'सलिल'

राजनीति विज्ञान के शिक्षक ने जनतंत्र की परिभाषा तथा विशेषताएँ बताने के बाद भारत को विश्व का सबसे बड़ा जनतंत्र बताया तो एक छात्र से रहा नहीं गया
उसने अपनी असहमति दर्ज करते हुए कहा- ' गुरु जी! भारत में जनतंत्र नहीं स्वजन तंत्र है.'

' किताब में एसे किसी तंत्र का नाम नहीं है.' - गुरु जी बोले. 'कैसे होगा? यह हमारी अपनी खोज है और भारत में की गयी खोज को किताबों में इतनी जल्दी जगह मिल ही नहीं सकती. यह हमारे शिक्षा के पाठ्य क्रम में भी नहीं है लेकिन हमारीज़िन्दगी के पाठ्य क्रम का पहला अध्याय यही है जिसे पढ़े बिना आगे का कोई पाठ नहीं पढ़ा जा सकता.' छात्र ने कहा.

' यह स्वजन तंत्र होता क्या है? यह तो बताओ.' - सहपाठियों ने पूछा.

'स्वजन तंत्र एसा तंत्र है जहाँ चंद चमचे इकट्ठे होकर कुर्सी पर लदे नेता के हर सही-ग़लत फैसले को ठीक बताने के साथ-साथ उसके वंशजों को कुर्सी का वारिस बताने और बनाने की होड़ में जी-जान लगा देते हैं. जहाँ नेता अपने चमचों को वफादारी का ईनाम और सुख-सुविधा देने के लिए विशेष प्राधिकरणों का गठन कर भारी धन राशि, कार्यालय, वाहन आदि उपलब्ध कराते हैं जिनका वेतन, भत्ता, स्थापना व्यय तथा भ्रष्टाचार का बोझ झेलने के लिए आम आदमी को कानून की आड़ में मजबूर कर दिया जाता है. इन प्राधिकरणों में मनोनीत किए गए चमचों को आम आदमी के दुःख-दर्द से कोई सरोकार नहीं होता पर वे जन प्रतिनिधि कहलाते हैं. वे हर काम का ऊंचे से ऊंचा दाम वसूलना अपना हक मानते हैं और प्रशासनिक अधिकारी उन्हें यह सब कराने के उपाय बताते हैं.'

' लेकिन यह तो बहुत बड़ी परिभाषा है, याद कैसे रहेगी?' छात्र नेता के चमचे ने परेशानी बताई.

' चिंता मत कर. सिर्फ़ इतना याद रख जहाँ नेता अपने स्वजनों और स्वजन अपने नेता का हित साधन उचित-अनुचित का विचार किए बिना करते हैं और जनमत, जनहित, देशहित जैसी भ्रामक बातों की परवाह नहीं करते वही स्वजन तंत्र है लेकिन किताबों में इसे जनतंत्र लिखकर आम आदमी को ठगा जाता है ताकि वह बदलाव की मांग न करे.'

अवाक् गुरु जी होनहार छात्र से राजनीति के व्यावहारिक स्वरुप का ज्ञान पाकर धन्य हो रहे थे.

-संजिव्सलिल.ब्लागस्पाट.कॉम / दिव्यनार्मादा.ब्लागस्पाट.कॉम

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Monday, March 9, 2009

होली एवं ईद-ए-मिलाद की शुभकामनाएँ


समझौता

- श्यामल सुमन

यूँ तो हम हर साल होली मनाते हैं,
रावण के पुतले को पटाखों से सजाकर,
सामूहिक उत्सव में धूमधाम से जलाते हैं।
पटाखों की हर आवाज के साथ,
रावण अट्टाहास करता है,
क्योंकि भारत में कई कलियुगी रावण,
बड़े मजे से राज करता है।।

होकर व्यथित राम ने सोचा,
कुछ न कुछ अब करना होगा।
जल्द से जल्द किसी तरह भी,
राम के खाली पदों को भरना होगा।।

क्योंकि हर रावण के पीछे राम चाहिए,
अंगद और हनुमान चाहिए।

रावण बोला हे राम,
तू व्यर्थ देख रहा है सपना।
इतने बरस बीत गए,
क्या बनबा सका तू मंदिर अपना।।

राम बोला हे दशकंधर,
तेरी संख्या लगातार बढ रही है अंदर अंदर।
मेरे भक्त मेरे ही रथ पे होकर सवार,
कर दिया मुझको बेबस और लाचार।।

हे दशानन,
तेरे विचार लगते अब पावन।
तुम्हीं बताओ कोई राह,
जो पूरा हो जन जन की चाह।।

रावण बोला हे राम,
तुम व्यर्थ ही हो परेशान।
आओ हम तुम मिलकर,
चुनाव पूर्व गठबंधन बनायें।
जीत जाने पर
प्रजा को ठेंगा दिखायें।।


Wednesday, March 4, 2009

दोहे

फागुनी दोहे

- आचार्य संजीव 'सलिल'

महुआ महका, मस्त हैं पनघट औ' चौपाल ।

बरगद बब्बा झूमते, पत्ते देते ताल ।।


सिंदूरी जंगल हँसे, बौराया है आम ।

बौरा-गौरा साथ लख, काम हुआ बेकाम ।।

पर्वत का मन झुलसता, तन तपकर अंगार ।

वसनहीन किंशुक सहे, पञ्च शरों की मार ।।


गेहूँ स्वर्णाभित हुआ, कनक-कुञ्ज खलिहान ।

पुष्पित-मुदित पलाश लख, लज्जित उषा-विहान ।।

बाँसों पर हल्दी चढी, बंधा आम-सिर मौर,

पंडित पीपल बांचते, लगन पूछ लो और ।।


तरुवर शाखा पात पर, नूतन नवल निखार ।

लाल गाल संध्या किये, दस दिश दिव्य बहार ।।

प्रणय-पंथ का मान कर, आनंदित परमात्म ।

कंकर में शंकर हुए, प्रगट मुदित मन-आत्म ।।

Sunday, March 1, 2009

आकांक्षा यादव की तीन कविताएँ



आकांक्षा यादव की तीन कविताएँ

मैं अजन्मी

मैं अजन्मी
हूँ अंश तुम्हारा
फिर क्यों गैर बनाते हो
है मेरा क्या दोष
जो ईश्वर की मर्जी झुठलाते हो

मै माँस-मज्जा का पिंड नहीं
दुर्गा लक्ष्मी और भवानी हूँ
भावों के पुंज से रची
नित्य रचती सृजन कहानी हूँ

लड़की होना किसी पाप की
निशानी तो नहीं
फिर
मैं तो अभी अजन्मी हूँ
मत सहना मेरे लिए क्लेश
मत सहेजना मेरे लिए दहेज
मैं दिखा दूँगी
कि लड़कों से कमतर नहीं
माद्दा रखती हूँ
श्मशान घाट में भी अग्नि देने का

बस विनती मेरी है
मुझे दुनिया में आने तो दो।


21वीं सदी की बेटी

जवानी की दहलीज पर
कदम रख चुकी बेटी को
माँ ने सिखाये उसके कर्तव्य
ठीक वैसे ही
जैसे सिखाया था उनकी माँ ने

पर उन्हें क्या पता
ये इक्कीसवीं सदी की बेटी है
जो कर्तव्यों की गठरी ढोते-ढोते
अपने आँसुओं को
चुपचाप पीना नहीं जानती है

वह उतनी ही सचेत है
अपने अधिकारों को लेकर
जानती है
स्वयं अपनी राह बनाना
और उस पर चलने के
मानदंड निर्धारित करना।


सिमटता आदमी

सिमट रहा है आदमी
हर रोज अपने में
भूल जाता है भावनाओं की कद्र
हर नयी सुविधा और तकनीक
घर में सजाने के चक्कर में
देखता है दुनिया को
टी. वी. चैनल की निगाहों से
महसूस करता है फूलों की खुशबू
कागजी फूलों में
पर नहीं देखता
पास-पड़ोस का समाज
कैद कर दिया है
बेटे को भी
चहरदीवारियों में
भागने लगा है समाज से
चैंक उठता है
कॉलबेल की हर आवाज पर
मानो
खड़ी हो गयी हो
कोई अवांछित वस्तु
दरवाजे पर आकर।



आकांक्षा यादव,
प्रवक्ता, राजकीय बालिका इंटर कॉलेज
नरवल, कानपुर-209401

कविता

मकड़ी के जाले

- सुधीर सक्सेना 'सुधि', जयपुर ।


इस कमरे की
खिड़कियाँ खोल दो ।

न जाने कब-से
खिड़की खुलने को
मचल रही है ।

कमरे में जो
उदासी छाई है,
उसे तुम अपनी
मीठी मुस्कान से
भर दो ।

मकड़ी के जाले
साफ़ करने से पहले
ज़रा गौर-से
उनकी बुनावट देख लो ।
क्योंकि बिलकुल
ऐसे ही
खूबसूरत भविष्य को
गढ़ना है तुम्हें ।