Tuesday, September 29, 2015

सुधीर सक्सेना होने के मायने

जन्मदिवस (30 सितंबर) पर विशेषः



सुधीर सक्सेना होने के मायने

-संजय द्विवेदी

  सुधीर भाई भिगो देने वाली आत्मीयता के धनी कवि-पत्रकार हैं। अपने फन के माहिर, एक बेहद जीवंत भाषा के धनी, कवि और कविह्दय दोनों। वे ज्यादा बड़े कवि हैं या ज्यादा बड़े पत्रकार, यह तय करने का अधिकारी मैं नहीं हूं, किंतु इतना तय है कि वे एक संवेदनशील मनुष्य हैं, अपने परिवेश से गहरे जुड़े हुए और उतनी ही गहराई से अपनों से जुड़े हुए। जाहिर तौर पर यही एक गुण (संवेदनशीलता) एक अच्छा कवि और पत्रकार दोनों गढ़ सकता है। मुझे याद है माया के वे उजले दिन जब वह हिंदी इलाके की वह सबसे ज्यादा बिकने वाली पत्रिका हुआ करती थी। सुधीर जी की लिखी रिपोर्ट्स पढ़कर हमारी पूरी पीढ़ी ने राजनीतिक रिपोर्टिंग के मायने समझे। वे मध्यप्रदेश जैसे राजनीतिक रूप से कम रोमांचक और दो-ध्रुवीय राजनीति में रहने वाले राज्य से भी जो खबरें लिखते थे, उससे राज्य के राजनीतिक तापमान का पता चलता था। उनकी राजनीति को समझने की दृष्टि विरल है। वे अपनी भाषा से एक दृश्य रचते हैं जो सामान्य पत्रकारों के लिए असंभव ही है। उनका लेखन अपने समय से आगे का लेखन है। उनकी यायावरी, लगातार अध्ययन ने उनके लेखन को असाधारण बना दिया है। उनकी कविताएं मैंने बहुत नहीं पढ़ीं क्योंकि मैं साहित्य का सजग पाठक नहीं हूं किंतु मैं उनके गद्य का दीवाना हूं। आज वे कहीं छपे हों, उन्हें पढ़ने का लोभ छोड़ नहीं पाता।

यकीन से भरा कविः
  एक अकेला आदमी कविता, पत्रकारिता, अनुवाद, संपादन और इतिहास-लेखन में एक साथ इतना सक्रिय कैसे हो सकता है। लेकिन वे हैं और हर जगह पूर्णांक के साथ। ऐसे आदमी के साथ जो दुविधा है उससे भी वे दो-चार होते हैं। एक बार सुधीर भाई ने अपने इस दर्द को व्यक्त करते हुए कहा था कि संजय, पत्रकार मुझे पत्रकार नहीं मानते और साहित्यकार मुझे साहित्यकार नहीं मानते।  मैंने सुधीर जी से कहा था सर आप पत्रकार या साहित्यकार नहीं है, जीनियस हैं। उनके कविता संग्रहों के नाम देखें तो वे आपको चौंका देगें, वे कुछ इस प्रकार हैं- समरकंद में बाबर, बहुत दिनों के बाद, काल को नहीं पता, रात जब चंद्रमा बजाता है बांसुरी, किरच-किरच यकीन। कविताओं से मेरी दूरी को भांपकर भी वे मुझे अपनी कविता की किताब देते हैं। एक बार एक ऐसी ही किताब पर उन्होंने लिखकर दिया-
यकीन मानो
एक दिन पढ़ेंगें
लोग
कविता की
नयी किताब ”
   सच, मुझे लगा कि यह एक दिग्गज पत्रकार की हमारे जैसे अपढ़ पत्रकारों को सलाह थी कि भाई शब्दों से भी रिश्ता रखो। सुधीर जी की कविताएं सच में उम्मीद और प्रेम की कविताएं हैं। उनके मन में जो आद्रता है वही कविता में फैली है। उन्होंने समरकंद में बाबर में जिस तरह बाबर को याद किया है, वह पढऩा अद्भुत है। माटी और उसकी महक कैसे दूर तक और देर तक व्यक्ति की स्मृतियों का हिस्सा होती है, यह कविता संग्रह इसकी गवाही देता है। बाबर के सीने, होंठों, आंखों सबमें समरकंद था, पर बाबर समरकंद में नहीं था। यह कल्पना भी किसी साधारण कवि की हो नहीं सकती। वे समय से आगे और समय से पार संवाद करने वाले कवि हैं। उनकी कविताएं अपने परिवेश और दोस्तों तक भी जाती हैं। दोस्तों को वे अपनी कविताओं में याद करते हैं और सही मायने में अपने बीते हुए समय का पुर्नपाठ करते हैं। उनका कवि इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है कि वह सिर्फ कहने के लिए नहीं कहता। यहां कविता आत्म का विस्तार नहीं है बल्कि वह समय और उसकी चुनौतियों से एकात्म होकर पूर्णता प्राप्त कर रही है। उनकी कविता टुकड़ों में नहीं है, एक थीम को लेकर चलती है। चार पंक्तियों में कविता करके भी वे अपना पूरा पाठ रचते हैं। उनकी कविता में प्रेम की अतिरिक्त जगह है। यही प्रेम हमारे समय में सिकुड़ता दिखता है तो उनकी कविता में ज्यादा जगह घेर रहा है।

माटी की महकः
 सुधीर सक्सेना कहां के हैं, कहां से आए, तो आपको साफ उत्तर शायद न मिलें। हम उन्हें भोपाल और दिल्ली में एक साथ रहता हुआ देखते हैं। रायपुर-बिलासपुर उनकी सांसों में बसता है तो लखनऊ से उन्होंने पढ़ाई लिखाई कर अपनी यात्रा प्रारंभ की। लखनऊ में जन्मे और पले-बढ़े इस आदमी ने कैसे छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश को अपना बना लिया इसे जानना भी रोचक है। उनके दोस्त तो पूरे ग्लोब पर बसते हैं पर उनका दिल मुझसे कोई पूछे तो छत्तीसगढ़ में बसता और रमता है। यह सिर्फ संयोग है कि मैं भी लखनऊ से अपनी पढ़ाई कर भोपाल आया और रायपुर और बिलासपुर में मुझे भी रमने का अवसर मिला। जब मैं बिलासपुर-रायपुर पहुंचा तो सुधीर जी छत्तीसगढ़ छोड़ चुके थे। लेकिन हवाओं में उनकी महक बाकी थी। उनके दोस्तों में मप्र सरकार में मंत्री रहे स्व.बीआर यादव से लेकर पत्रकार रमेश नैयर, साहित्यकार तेजिंदर तक शामिल थे। साहित्य, राजनीति और पत्रकारिता तीनों के शिखर पुरूषों तक सुधीर की अंतरंगता जाहिर है। वे यारों के यार तो हैं कई मायने में खानाबदोश भी हैं। मुझे लगता है कि उन्होंने भाभी-बच्चों के लिए तो घर बनाया और सुविधाएं जुटायीं पर खुद वे यायावर और फकीर ही हैं। जिन्हें कोई जगह बांध नहीं सकती। अपने परिवार पर जान छिड़कने वाली यह शख्सियत घर में होकर भी एक सार्वजनिक निधि है। इसलिए मैंने कहा कि उन्हें आपको हर जगह पूर्णांक देना होगा। उनकी सदाशयता इतनी कि आप उन्हें काम का आदमी मानें न मानें अगर आप उनके कवरेज एरिया में एक बार आ गए तो उनके फोन आपका पीछा करते हैं। जिंदगी की रोजाना की जरूरतों को पूरा करने की जद्दोजेहद के बाद भी उनमें एक स्वाभिमानी मनुष्य है जो निरंतर चलता है और रोज नई मंजिलें छूता है। अथक परिश्रम, अथक यात्राएं और अथक अध्ययन। आखिर सुधीर भाई चाहते क्या हैंउनके दोस्त उनसे मुंह मोड़ लें पर वे हर दिन नए दोस्त बनाने की यात्रा पर हैं। बिना थके, बिना रूके। सही मायने में उनमें कोलंबस की आत्मा प्रवेश कर गयी है। कई देशों को नापते, कई शहरों को नापते, तमाम गांवों को नापते वे थकते नहीं है। वे आज भी एक पाक्षिक पत्रिका दुनिया इन दिनों के नियमित संपादन-प्रकाशन के बीच भी अपनी यायावरी के लिए समय निकाल ही लेते हैं। उनकी यही जिजीविषा तमाम लोगों को हतप्रभ करती है।

 स्मृतियों का व्यापक संसारः
  आजकल वे भोपाल में कम होते हैं। होंगे तो मुझे बुलाकर मिलेंगें जरूर। आत्मीयता से भीगा उनका संवाद और निरंतर लिखने के लिए कहना वे नहीं भूलते। वे ही हैं जो कहते हैं लिखो, लिखो और लिखो। उनका सामना करने से संकोच होता है। उनकी सक्रियता मन में अपराधबोध भरती है। उनका बहुपठित होना, एक आईने की तरह सामने आता है। अपने दोस्तों,परिवेश और सूखते रिश्तों के बीच वे एक जीवंत उपस्थिति हैं। वे इस निरंतर नकली हो रही दुनिया में खड़े एक असली आदमी की तरह हैं। वे अपने अनुभव साझा करते हैं, सावधानियां भी बताते हैं पर खुद सब कुछ मन की करते हैं। उनके पास बैठना एक ऐसे वृक्ष की छांव में बैठना है जहां सुरक्षा है, ढेर सी आक्सीजन है, ढेर सा प्यार है और स्मृतियों का व्यापक संसार है। सुधीर जी ने एक लंबी और सार्थक पारी खेली है। उनका पहला दौर बहुतों के जेहन में है। उम्मीद है कि वे अभी एक बार और अपने जीनियस होने का यकीन कराएंगें। उनसे कुछ खास रचने का यकीन हमें है, वे तो कभी नाउम्मीद होते ही नहीं। उनके सफल,सार्थक और दीर्घजीवन की कामनाएं।

लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष तथा त्रैमासिक पत्रिका मीडिया विमर्श के कार्यकारी संपादक हैं।
  

Thursday, September 24, 2015

83 वर्ष बाद पुनर्प्रकाशित हुआ महावीर प्रसाद द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ

83 वर्ष बाद पुनर्प्रकाशित हुआ महावीर प्रसाद द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ

द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ स्वयं में एक विश्व हिंदी सम्मेलन है: रामबहादुर राय
-आशुतोष कुमार सिंह

दिल्ली में आए दिन साहित्यिक आयोजन होते रहते हैं। किताबों के लोकार्पण से लेकर हिन्दी की दशा-दिशा विषयक परिचर्चाएं आम हैं। लेकिन 20 सितंबर, 2015 को प्रवासी भवन में जो साहित्यिक आयोजन हुआ वह ऐतिहासिक था। एक महान साहित्यिक-पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी को याद किया जा रहा था। उनके साहित्यिक अवदान की चर्चा हो रही थी। मौका था ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ’ ( पुनर्प्रकाशित ) के लोकार्पण का। 
इस मौके पर अपनी बात रखते हुए प्रख्यात लेखक व साहित्य आकदेमी के अध्यक्ष डॉ.विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने कहा कि, ‘‘ पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी युग निर्माता और युग-प्रेरक थे। उन्होंने प्रेमचंद, मैथिलीशरण गुप्त जैसे लेखकों की रचनाओं में संशोधन किए। उन्होंने विभिन्न बोली-भाषा में विभाजित हो चुकी हिंदी को एक मानक रूप में ढालने का भी काम किया। वे केवल कहानी-कविता ही नहीं, बल्कि बाल साहित्य, विज्ञान, किसानों के लिए भी लिखते थे। हिंदी में प्रगतिशील चेतना की धारा का प्रारंभ द्विवेदी जी से ही हुआ।’’ 
अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में प्रो. मैनेजर पांडे ने इस ग्रंथ की महत्ता को रेखांकित करते हुए कहा कि, “यह भारतीय साहित्य का विश्वकोश है।” उन्होंने आचार्य जी की अर्थशास्त्र में रूचि व ‘‘संपत्ति शास्त्र’’ के लेखन, उनकी महिला विमर्श और किसानों की समस्या पर लेखन की विस्तृत चर्चा की। इस ग्रंथ में उपयोग की गयीं दुर्लभ चित्रों को अपनी चर्चा का विषय बनाते हुए गांधीवादी चिंतक अनुपम मिश्र ने इन चित्रों में निहित सामाजिक पक्ष पर प्रकाश डाला। उन्होंने नंदलाल बोस की कृति ‘‘रूधिर’’ और अप्पा साहब की कृति ‘‘मोलभाव’’ पर विशेष ध्यान दिलाते हुए उनकी प्रासंगिकता को रेखांकित किया और कहा कि सकारात्मक कार्य करने वाले जो भी केन्द्र हैं उनका विकेन्द्रिकरण जरूरी है। 
नीदरलैड से पधारीं प्रो. पुष्पिता अवस्थी ने कहा कि हिंदी सही मायने में उन घरों में ताकतवर है जहाँ पर भारतीय संस्कृति बसती है। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास की निदेशक व साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित लेखिका डॉ. रीटा चैधरी ने कहा कि, यह अवसर न्यास के लिए बेहद गौरवपूर्ण व महत्वपूर्ण है कि हम इस अनूठे ग्रंथ के पुनर्प्रकाशन के कार्य से जुड़ पाए। इस तरह की विशिष्ट सामग्री वाली पुस्तकों/ग्रंथों का अनुवाद अन्य भारतीय भाषाओं में भी होना चाहिए। डॉ. चौधरी ने इस ग्रंथ की महत्ता को रेखांकित करते हुए कहा कि यह ग्रंथ हिंदी का ही नहीं बल्कि भारतीयता का ग्रंथ है और उस काल का भारत-दर्शन है। 
चर्चा को आगे बढ़ाते हुए प्रख्यात पत्रकार रामबहादुर राय ने इन दिनों मुद्रित होने वाले नामी गिरामी लोगों के अभिनंदन ग्रंथों की चर्चा करते हुए कहा कि, “ऐसे ग्रंथों को लोग घर में रखने से परहेज करते हैं, लेकिन आचार्य द्विवेदी की स्मृति में प्रकाशित यह ग्रंथ हिंदी साहित्य, समाज, भाषा व ज्ञान का विमर्ष है न कि आचार्य द्विवेदी का प्रशंसा-ग्रंथ।” इस ग्रंथ की प्रासंगिकता व इसकी साहित्यिक महत्व को उल्लेखित करते हुए श्री राय ने यहां तक कहा कि, “यह ग्रंथ अपने आप में एक विश्व हिन्दी सम्मेलन है।” 
कार्यक्रम के प्रारंभ में गौरव अवस्थी ने महावीर प्रसाद द्विवेदी से जुड़ी स्मृतियों को पावर प्वाइंट के माध्यम से प्रस्तुत किया। इस प्रेजेंटेशन यह बात उभर कर सामने आयी कि किस तरह से रायबरेली का आम आदमी, मजूदर व किसान भी आचार्य द्विवेदी जी के प्रति स्नेह-भाव रखते हैं। अंत में पत्रकार अरविंद कुमार सिंह ने इस ग्रंथ के प्रकाशन हेतु राष्ट्रीय पुस्तक न्यास व इस आयोजन के लिए रायबरेली की जनता को धन्यवाद किया। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी राष्ट्रीय स्मारक समिति, रायबरेली और राइटर्स एंड जर्नलिस्ट एसोसिएशन, दिल्ली के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित इस कार्यक्रम का संचालन पंकज चतुर्वेदी ने किया।
हिंदी साहित्य में क्यों महत्वपूर्ण है यह ग्रंथ?
हिन्दी साहित्य अपने आरंभ काल से लेकर अब लगातार विकास की ओर अग्रसर है। तमाम विधाओं में सामग्रियों का भंडार है हिंदी के पास। बावजूद इसके इस अभिनंदन ग्रंथ की महत्ता कुछ अलग ही है। सन् 1933 में काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा आचार्य द्विवेदी के सम्मान में प्रकाशित इस ग्रंथ मंब महात्मा गांधी, ग्रियर्सन, प्रेमंचद, सुमित्रानंदन पंत व सुभद्रा कुमारी चौहान सहित देश-दुनिया के ज्यादातर लोगों ने आलेख लिखे थे। कई दुर्लभ चित्रों से सज्जित यह ग्रंथ उस दौर की भारतीय संस्कृति व सरोकार को हमारे सामने आइने की तरह प्रस्तुत करता है। विगत कई वर्षों से यह दुर्लभ ग्रंथ पाठकों की सीमा से दूर था। इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ तिवारी भी भी इस ग्रंथ का अवलोकन नहीं कर पाए थे। इस बात की पुष्टि इस कार्यक्रम में उन्होंने खुद की। वर्तमान पीढ़ी के लिए यह हर्ष का विषय है कि महावीर प्रसाद द्विवेदी युगिन साहित्य व संस्कृति को समझने हेतु कई नए आयाम यह ग्रंथ खोलेगा। 83 वर्ष पूर्व प्रकाशित यह ग्रंथ दुर्लभ हो चुका था, जिसे नेशनल बुक ट्रस्ट ने पुनर्प्रकाशित कर सुलभ बनाया है। इस सुलभ ज्ञान को आप पाठक कितना सहेज पाते हैं यह तो आप पर निर्भर करता है।

Monday, September 21, 2015

यशपाल और उनके उपन्यास -- एक सर्वेक्षण

यशपाल और उनके उपन्यास -- एक सर्वेक्षण
-    सत्यवाणी बी.

प्रेमचन्दोत्तर हिन्दी साहित्य क्षेत्र में जनवायी कला लेखक के रूप में श्री यशपाल महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। उन्होंने प्रेमचन्द की कथा-परम्परा को अपने ढ़ंग से विकसित करने का प्रयास भी किया। वे अपने समय के एक प्रखर जनवादी और प्रखर यथार्थवादी कथाकार माने जाते हैं।
यशपाल ने कहानियों के अतिरिक्त उपन्यास, निबन्ध, यात्रा - विवरण, आदि विभिन्न साहित्य-विधाओं के साहित्य का सृजन किया है। हिन्दी साहित्य के मूर्घन्य उपन्यासकारों में उनका उल्लेखनीय स्थान है। उनकी साहित्य-संबन्धी चेतना ही उनकी औपन्यासिक चेतना है। उनके अधिकांश उपन्यास साहित्य सम्बन्धी धारणाओं की कसौटी पर खरा उतरते हैं। यशपाल के उपन्यासों ने मार्क्सवाद को लोकप्रिय बनाया है। अपना पहला उपन्यास दादा कॉमरेड (1941) से लेकर अन्तिम उपन्यास "मेरी-तेरी - उसकीबात" (1974) तक यशपाल एक ही समतल भूमि पर न चले, न विषयवस्तु की दृष्टि से, न कलात्मक चित्रण की दृष्टि से। 'दादा कॉमरेड' का यशपाल अराजकतावादी और रोमानी है। तो 'दिव्या' में वे अराजकता से मार्क्सवाद तक की यात्रा करते हैं। झूठा-सच में वे रोमांस से यथार्थवाद तक की यात्रा करते हैं।
यशपाल का अपना अनुभव निम्न धर्म वर्ग का है। उपन्यासों में व्यक्त होने वाला दृष्टिकोण यशपाल का अपना है, जो उनके निजी जीवन और अनुभवों से निर्मित हुआ है। "यशपाल हिन्दी लेखकों में अकेले साहब थे।"[1] वे व्यक्तिगत जीवन को कथानक का आधार बना देने से उनके उपन्यासों की विषयवस्तु में एक प्रकार की जीवन्तता मिलती है। उनकी लोकप्रियता का मुख्य कारण भी यही है।
यशपाल साहित्य की महत्वपूर्ण उपलब्धि सामाजिक यथार्थ है। मध्यवर्गीय समाज की समस्याओं की अभिव्यक्ति के लिये उन्होंने सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक एवं मनोवैज्ञानिक कथावस्तु का चयन किया। यही कारण है कि उनके उपन्यासों में जहाँ एक ओर सामाजिक समस्याओं का विश्लेषण है तो दूसरी ओर ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में रचित उपन्यासों इतिहासकार की सूझबूझ और गहनता भी है।
यशपाल के उपन्यास:-
यशपाल ने हिन्दी साहित्य को अपनी अनोखी रचना धार्मिता से समृद्ध किया है। उनके बारह उपन्यास प्रकाशित हुए है।

     उपन्यास                      प्रकाशन वर्ष
1.   दादा कॉमरेड                  सन् 1941
2.   देश द्रोही                      सन् 1943
3.   दिव्या                        सन् 1945
4.   पार्टी कॉमरेड                  सन् 1947
5.   मनुष्य के रूप                 सन् 1949
6.   अमिता                       सन् 1956
7.   झूठा - सच भाग-1             सन् 1958
8.   झूठा - सच भाग-2             सन् 1960
9.   बारह घंटे                     सन् 1963
10.  अप्सरा का शाप                सन् 1965
11.  क्यों फँसे?                                         सन् 1968
12.  मेरी-तेरी - उसकी बात          सन् 1974
इनमें दादा कॉमरेड़ देशद्रोही, पार्टी कॉमरेड, मनुष्य के रूप, झूठा-सच (दो भाग) और मेरी-तेरी उसकी बात राजनीतिक उपन्यास की कोटि में आते हैं। इन सभी उपन्यासों में मानवतावादी दृष्टिकोण दिखाई देते हैं।
दादा कॉमरेड :  दादा कॉमरेड यशपाल का प्रथम उपन्यास है। इसमें यशपाल की बदलती राजनैतिक चेतना और प्रेम तथा यौन विषयक परिकल्पनायें परिलक्षित हुई है।
उपन्यास का एक छोर यदि राजनीति से संबद्ध है तो दूसरा छोर प्रेम, काम, विवाह और नारी की सामाजिक स्थिति से। यह उपन्यास बारह छोटे-छोटे अध्यायों में विभक्त है। जिस रोचक ढंग से उपन्यास का ताना-बाना बुना गया है, वह यशपाल की रचनात्मक प्रतिभा का प्रमाण है। इस में गाँधीवाद, क्रान्तिकारियों का प्रभाव, कांग्रेसी संघर्ष, साम्यवाद का प्रभाव, सर्वत्र व्याप्त है। पूरे उपन्यास के मेरुदंड में अंग्रेजी सत्ता का शोषण, अफ्सरशाही तथा उनके सिपाहियों के आतंक की व्याप्ति दिखाई पडती है। राजनैतिक एवं सामाजिक शक्तियों की पहचान की दृष्टि से दादा कॉमरेड की अपनी एक विशिष्ट भूमिका रही है।
देश द्रोही :  देश द्रोही यशपाल का दूसरा उपन्यास है। इसमें सन् 1930 ई. से सन् 1942 ई. तक की राज नैतिक हलचलों को समेटा है। इस में साम्यवादी दल के प्रति जनता में व्याप्त भ्रान्तियों का निराकरण किया गया है  दादा कॉमरेड में प्रेम की नयी नैतिकता है तो देशद्रोही में रोमांस का रंग अधिक है । यशपाल ने इस उपन्यास में विभिन्न राजनैतिक विचारधाराओं और उनकी नीतियों को उद्घाटित किया है। रोमानी प्रसंगों की अधिकता के कारण इस में राजनैतिक पक्ष कम है। गोदान के बाद देश के राजनैतिक और सामाजिक जीवन का इतना सफल चित्रण किसी अन्य उपन्यास में नहीं मिलता। इस उपन्यास से व्यक्ति को जागरूक रहने, संघर्षों से जुडे रहने और अपनी मंजिल की ओर बढ़ते जाने की प्रेरणा प्राप्त होती है।
पार्टि कॉमरेड :  इस उपन्यास की रचना सन् 1946 ई. में हुई । यह लघु उपन्यास है । इस में राजनैतिक वातावरण का चित्रण है । सामाजिक समस्याओं का वर्णन उपन्यास में कम ही हुआ है। फिर भी यहाँ भी पुरुष सत्तात्मक समाज में नारी की निरीह स्थिति का चित्रण हुआ है। यह उपन्यास आकार में छोटा होते हुए भी पूर्ण रूपेण सक्षम है। स्वतंत्रता के लिये संघर्ष रत काँग्रेस, कम्यूणिस्ट के द्वन्द्व, अंग्रेजों के दमनचक्र, सैनिक-विद्रोह, पूंजीपतियों की स्वार्थपरक विचार धारा तथा प्रचार के साधनों के दुरूपयोग का सशक्त दस्तावेज है यह उपन्यास।
मनुष्य के रूप :  सन् 1949 ई. में यह उपन्यास लिखा गया है। इस में वर्तमान स्त्री-प्रेम विवाह, समर्पण भावना आदि समस्याओं को गंभीर पूर्वक प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। देशद्रोही और दादा कॉमरेड की तरह इस में भी लेखक ने प्रेम-प्रसंगों को अधिक उभारा है।
झूठा-सच :  'झूठा-सच' में भारत और पाकिस्तान के विभाजन के पूर्व हुए साम्प्रदायिक दंगों का व्यापक और यथार्थ चित्रण किया गया है। यह चित्रण इतना वास्तविक और हृदय विदारक है कि यह उपन्यास न केवल हिन्दी साहित्य, बल्कि संपूर्ण विश्वसाहित्य में अपनी अमिट छाप छोडता है।
झूठा-सच् भाग - 2 : 'झूठा-सच्' के द्वितीय भाग में स्वतंत्रता के पश्चात् की स्थिति का सही चित्रण किया गया है। सत्तासीन नेताओँ की स्वार्थ सिद्धि को व्यंग्यात्मक शैली में व्यक्त किया गया है। साम्प्रदायिकता की आग को भडकाने में अंग्रेजों की साम्राज्यवादी चालों के उल्लेख के साथ-साथ नेताओं की अधिकार लिप्सा और स्वार्थ परता का रेखांकन भी उपन्यास में दृष्टि गोचर होता है।
बारह घंटे : 'बारह घटे' में प्रेम और विवाह की नैतिकता संबन्धी पुराने मूल्यों की चुनौती दी गयी है। प्रेम और विवाह की नैतिकता को केन्द्र बनाकर यशपाल ने इसके स्वरूप पर गंभीरता से विचार किया है। लेखक ने प्रेम और विवाह विषयक नैतिक मूल्यों को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयास किया है।
क्यों फँसे? : 'क्यों फँसे' में उन्मुक्त यौनाचार और नर-नारे संबन्धों का विश्लेषण है। प्रेम और यौन संबन्धों में किसी प्रकार की नैतिकता, एकाधिकार और स्वामित्व को वे निरर्थक समझते हैं। नर-नारी संबन्धों में यशापाल संतति निरोध के उपायों को महत्वपूर्ण मानते हैं।
संकट मोचक :  'संकट मोचक' में परिवार नियोजन के कार्यक्रम, संततिनिरोध के उपायों को व्यक्त किया गया है। इस में सामान्य और सत ही कोटि की कथा विन्यस्त की गयी है। यह उपन्यास बेहद कमजोर उपन्यास है।
मेरी-तेरी - उसकी बात : यह सन् 1947 में लिखा गया उपन्यास है। लेकिन कथानक पराधीन भारत के तीव्र राष्ट्रीय आन्दोलन की पृष्ठभूमि से निर्मित है। इस में यशपाल ने राष्ट्रीय आन्दोलनों को प्रमुख विषय बनाया है। उनका विश्वास था कि क्रान्तिकारी ही भारत को स्वतंत्रता दिला सकते हैं। राजनैतिक प्रसंगों के साथ लेखक ने राजनैतिक कार्यकर्ताओँ के व्यक्तिगत जीवन पर भी प्रकाश डाला है।
दिव्या : दिव्या में लेखक ने ऐतिहासिक वातावरण के आधार पर यथार्थ का रंग देने का प्रयास किया है। यह उपन्यास इतिहास की नयी संभावनाओं का संकेत देता है। यह उपन्यास युग-युग से प्रताडित, त्रस्त, शोषित दलित नारी का प्रतिनिधित्व करता है। इसे 'बौद्धकालीन उपन्यास' की संज्ञा भी दे सकते हैं। नारी उस युग में भी शोषण की शिकार थी, विलासिता की वस्तु थी, आज भी उसकी स्थिति भिन्न नहीं। आज भी वह पूर्णतः स्वतंत्र नहीं। अतः दिव्या ऐतिहासिक और समकालीन दोनों ही है।
अमिता : यह उपन्यास सन् 1956 ई. में प्रकाशित हुआ। यह उपन्यास विश्वशाँति आन्दोलन की प्रेरणा से लिखा गया है। यशपाल ने छः वर्षीय बालिका के माध्यम से यह प्रतिपादित किया है कि जब तक व्यक्ति अहंकारी और अपनी महत्वाकाक्षाओं की परितृप्ति करता रहेगा तब तक सत्य, अहिंसा, प्रेम, शान्ति आदि मूल्य प्रतिष्ठित नहिं हो सकते।
अप्सरा का शाप : इसमें दुष्यन्त-शकुन्तला विषयक पौराणिक आख्यान को नवीन आयाम देने का प्रयत्न है। इस कृति के माध्यम से पुरुष सत्तात्मक समाज में नारी शोषण की समस्याँ को एक बार फिर उठाया है।
लेखक ने उपर्युक्त तीनों (दिव्या, अमिता, अप्सरा का शाप) उपन्यास ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि में नारी जीवन की स्थितियों को मूर्तिमान किया है।
संदर्भ -
[1] यशापल पुनर्मूल्यांकन -- सम्पादक कुँवरपालसिंह -- पृ.सं.198

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सत्यवाणी बी. कर्पगम विश्वविद्यालय, कोयम्बत्तूर, तमिलनाडु में डॉ. के.पी. पद्मावती अम्मा के निर्देशन में शोधरत है।

Sunday, September 20, 2015

सिविल-नागरिक संबंधों पर एम.ई.एस. अस्माबी कालेज में अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी सुसंपन्न

सिविल-नागरिक संबंधों पर एम.ई.एस. अस्माबी कालेज में अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी सुसंपन्न
भारतीय साहित्य में सिविल-नागरिक संबंध 
अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी
 आयोजन  हिंदी विभाग एम्.इ.एस अस्माबी कोलेज, , यु.जी.सी , युगमानस एवं रीडर्स फॉर्म


       (सरस्वती वंदना करते हुए एम्.इ.एस अस्माबी कोलेज के प्राचार्य डॉ .के.शाजी के  अध्यक्षता में संगोष्ठी  का उदघाटन एम्.इ.एस केरल के सेन्ट्रल  कोलेज कम्मट्टी चेयरमान प्रोफसर कडवनाड, मेहमानों में गीताश्री, अल्का धनपत, देवी नागरानी, श्री गंगाप्रसाद विमल, डॉ. जयशंकर बाबू, डॉ. भीम सिंह.)
         एम्.इ.एस  अस्माबी कोलेज के हिंदी विभाग यु.जी.सी ,युगमानस और रीडर्स फॉर्म के  संयुक्त त्वावधान में दो दिवसीय अंतर राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन २०१५,सितम्बर  १८ और १९  को कोलेज के सभागार में किया गया .एम्.इ.एस अस्माबी कोलेज के प्राचार्य डॉ .के.शाजी के  अध्यक्षता में संगोष्ठी  का उदघाटन एम्.इ.एस केरल के सेन्ट्रल  कोलेज कम्मट्टी चेयरमान प्रोफसर कडवनाड जी ने किया. उदघाटन भाषण में उन्होंने कहा चुनौती पूर्ण क्षेत्रों में काम कर रहे सैनिकों के बारे में और सामान्य लोग और सैनिक के  रिश्ता के बारे में विचार  करना समय की मांग है  
       संगोष्ठी में बीज भाषण जवाहर लाल नेहरु विश्व विद्यालय के भूतपूर्व आचार्य एवं केन्द्रीय हिंदी निदेशालय के भूतपूर्व निदेशक प्रोफसर गंगाप्रसाद विमल जी ने किया था . उन्होंने हिन्दी  साहित्य में पहली बार ऐसी विधा यानी सैनिक विमर्श पर चर्चा करने हेतु हिंदी विभाग के अध्यक्ष डॉ.रंजित  और डॉ .सूर्या को बधाई दी . हिंदी भाषा हमें संप्रेषण की  क्षमता देती है . विभिन्न भारतीय भाषाओं में जो लिखी जाती है ,वही  भारतीय साहित्य कहा जाता है .सेना और नागरिक का रिश्ता आदिकाल से ही भारतीय साहित्य में चित्रित  हुआ  है .रामायण ,महाभारत जैसे ग्रन्थों में भी इसका ज़िक्र मिलता है . उनमें सैनिक धर्म का मार्मिक वर्णन अन्यत्र दर्शनीय है .उनमें  जो घटनाओं के बारे में जिक्र किया गया है, वह  सब भारत वर्ष की एकता और संस्कृति के  परिचायक थे . समकालीन युग में विज्ञान के सहारे नए नए आविष्कार होते रहे  और युद्ध के क्षेत्र में ,सैनिकों के बीच ऐसी कोई  धर्म या  मूल्य नहीं रहे,जिनके कारण पुराने ज़माने में  नागरिक और सैनिकों के  बीच रिश्ता बढ़ जाते थे . पाकिस्तान के एक कवि के  “बम “नामक कविता के सहारे आपने यह साबित भी किया .उसमें एक बालक शासकों से पूछ रहे है  अपनी देश की  भलाई के लिए स्कूल ,अस्पताल जैसे  सार्वजनिक स्थान बनाने के बदले  बम क्यों बना  रहे है . ऐसी एक उपेक्षित विधा के बारे में अहिन्दी प्रदेश केरला के एक कोलेज में चर्चा हुयी  है.यह स्न्तोषजनक   बात है .हिंदी के प्रति ,हिंदी भाषा के प्रति केरला के लोगों की  दिलचस्पी ही यहाँ व्यक्त हो रहे है .


    विख्यात सिन्धी –हिंदी साहित्यकार एवं गीतकार  श्रीमती देवी नागरानी , मौरीशियस के महात्मा  गाँधी इंस्ट्टीटयूट के  प्राध्यापिका डॉ .अलका धनपत ,दिल्ली के विख्यात पत्रकार एवं लेखिका गीताश्री ,हैदराबाद केन्द्रीय विश्व विद्यालय के डॉ भीम सिंह ,पोंदिचीरी  केन्द्रीय  विश्विद्यालय के डॉ सी  जयशंकर बाबू , मुंगेल छतीसगढ  के  डॉ .चंद्रशेखर सिंह ,बिलासपुर के  डॉ.राजेश कुमार मानस ,असम के  मिन्हाज अली और शहीदुल इस्लाम ,डॉ सुप्रिया पी ,डॉ .सुमेष ,डॉ .प्रतिभा ,डॉ.के जयकृष्णन ,डॉ.डी.रोज़ अन्तो ,डॉ .प्रमोद कोव्वाप्रथ ,डॉ रंजित ,डॉ.सूर्या बोस, डॉ .जीनु ,श्रीमती लिजी,श्रीमती रेशमी ,कुमारी सरयू आदि आमंत्रित विशेषज्ञों के साथ साथ छात्र –छात्राएं ,विभिन्न विश्व विद्यालयों के शोध छात्र और कोलेजों के प्राध्यापक पधारे हुए थे.
    उदघाटन सत्र के बाद की पहली सत्र की अध्यक्षता विख्यात सिन्धी–हिंदी साहित्यकार एवं गीतकार श्रीमती देवी नागरानी जी ने की चश्मदीद गवाह  बन कर २००८ मुंबई महानगरी में ताज की शान में जो गुस्ताखियाँ देखी, उन्हें बयान करते हुए, उनके जान कुर्बान देने की भावना के मर्म को सामने लाया। उन शहीदों के बारे में भारतीय प्रवासी लेखक–लेखिकाओं नें जो लिखा ,वह उन्होंने  श्रोताओं  के सामने पेश किया। सैनिकों के प्रति ममता बढाने में और आनेवाले विशेषज्ञों को दिशा निर्देश देने में अद्ध्यक्षीय भाषण  सफल रहे. भारतीय सैनिकों की  कुर्बानी  के बारे में और उनके अर्पण मनोभाव के बारे आपने अपने विस्तृत भाषण में सूचनाएं दी .
            सत्र में  भाग लेते हुए डॉ.अलका धनपत जी ने मॉरिशियस और वहाँ की  संस्कृति के बारे में बताते हुए मॉरिशियस के राष्ट्र कवि ब्रजेन्द्र कुमार भगत मधुकर की रचनाओं के आधार पर युद्ध साहित्य पर अपनी विचार प्रकट की. बिना कोई तलवार लिए मौरिशियस  में लड़ायी कैसे हुयी ,अपनी संस्कृति कि रक्षा के लिए भावनात्मक स्तर पर कैसे लड़ायी चलाई इसकी जानकारी दे कर चर्चा को एक नयी मोड़  दी .  
               चर्चा में भाग लेती हुयी दिल्ली के वरिष्ट साहित्यकार एवं पत्रकार श्रीमती गीताश्री जी हिंदी साहित्य में सिविल सेना के संबंध का चित्रण  कैसे हो रहे है  इसका वर्णन  किया .सेना और समाज के बारे में बताते हुए ,एक दुसरे के पूरक ये  दो  तत्व क्यों अलग हो गए ,इसके बारे में भी आप अपनी राय प्रकट की .कारगिल युद्ध के बाद सेना और समाज का  रिश्ता और सुदृठ हो गया .सैनिक किस प्रकार जी रहे है, इसका जीता जागता चित्रण मीडिया हमें देते हैं  .यह सामाज और सेना को पास लाने में सहायक है  .जवानों कि कुर्बानियों की  कहानियाँ ,अपनी वतन की  रक्षा के लिए लड़ रहे जवानों को समाज में स्थान मिलने लगे .आधुनिक भारत के निर्माण में सैनिकों की  भूमिका और उनके योगदान को कमतर रूप में देखा गया है .इसके पीछे की राजनीती को अब लोग पहचानने लेगे है .चन्द्रधर  शर्मा गुलेरी जी की ‘ उसने कहा था ‘ कहानी से लेकर  हिंदी साहित्य में नागरिक जीवन कि समस्याओं को सैनिक कैसे देखते है ,सैनिकों की  समस्याओं को नागरिक कैसे देखते है  इसका चित्रण किया है .सेना और समाज के बीच की रिश्ता गढ़ने में कुछ विशेष क़ानून विशेष भूमिका निभा रही है . ऐसे विषयों  के बारे में ज़्यादा अध्ययन  होने की आवश्यकता पर बल देती   हुयी आप अपनी भाषण समाप्त की .
                उसके बाद आये  डॉ .के जयकृष्णन जी  ने सिविल सैनिक संबंध सिनिमा में कैसे हो रहे है इसके बारे में बाता दी  .साथ ही साथ उनहोंने भारतीय सेना और उनके कानूनों के बारे में भी विस्तृत रूप से चर्चा की .   
        हैदराबाद विशव  विद्यालय से आये डॉ भीम सिंह जी ने अपने भाषण में यह सवाल उठाया कि  क्या अपनी देश कि सभ्यता और संस्कृति की रक्षा के लिए सेना बल की  ज़रुरत है .हमारे देश की आमदनी से ढेर सारे सेना बल के लिए देना पड  रहे है.यह देश की भलायी के लिए  हित कर भी नहीं है .सेना का काम  युद्ध करना है .युद्ध कभी कभी किसी व्यक्ति के लिए करना पड़ता है ,देश के लिए नहीं .आज़ादी के बाद और पूर्व की  रचनाओं में सैनिक नागरिक रिश्ता किस प्रकार हुआ था इसका  चित्रण आपने किया.सैनिकों की  मनोदशा व्यक्त करनेवाला साहित्य  इसका जांच की आवश्यकता पर आपने बल दिया .
      तीसरे सत्र की  अध्यक्षता पांडिचेरी विश्व विद्यालय के हिंदी विभाग के साहयक आचार्य डॉ.सी.जयशंकर बाबू जी ने की। अद्ध्यक्षीय भाषण में उन्होंने ने कहा सेना शब्द  के साथ ही दो  अर्थ हमारे सामने आते हैं – एक युद्ध और दूसरा शान्ति. सेना और सिविल के बीच अच्छा  रिश्ता होना ही चाहिए . सत्र में पहला प्रपत्र एम्.इ.एस  नेडुमकंदम के डॉ.एस.सुमेष जी ने किया. उन्होंने   यह व्यक्त किया कि हमारे समय कि सबसे विकल परिस्थिति है युद्ध .हर युद्ध के बाद अपनी संस्कृति से बहिषकृत लोगों का पलायन और विस्थापन की  समस्या  आज बढ़ रहे है . दूरा प्रपत्र डॉ .जीनु जॉन  ने प्रस्तुत की ‘ सीधी  सच्ची  बातें ‘ उपन्यास के आधार पर युद्ध किस प्रकार समाज को प्रभावित करते है इसका विस्तृत अध्ययन  प्रस्तुत किया . ले.जनरल यशवंत मानदे की कहानियों को आधार बानकर  बनाए अपने प्रपत्र में डॉ सुप्रिया जी ने  यह सूचित किया कि सशस्त्र बलों के बारे में कम जानकारी होने के कारण  सेना और युद्ध से संबंधित कहानियाँ हिंदी में कम है .इस कमी  को कम करने में आपकी रचनाये एक हद तक सफल हुए है .अपने अपनी रचनाओं में युद्ध के समय से जुड़े पहलुओं को समकालीन हिंदी साहित्य के केंद्र में लाने की कोशिश की  है .सैनिक जीवन का जीता जागता चित्रण कैसे आपकी संग्रह में हुआ है  ,इसका  वर्णन सुप्रिया जी ने की .उसके  बाद आयी  डॉ.सूर्या बोस अल्पना मिश्र की  ‘ छावनी में बेघर ‘ नामक कहानी में किस प्रकार सैनिक की  पत्नी के मनोव्यवहार प्रस्तुत किया है इसका अध्ययन प्रस्तुत किया  .
          दुसरे  दिन का  पहला  सत्र  कालीकट विश्व विद्यालय के डॉ प्रमोद कोव्वाप्रत जी की अद्ध्याक्ष्ता में शुरू हुआ  . डॉ.सी .जयशंकर बाबू जी ने  मनीषा कुल श्रेष्ट की रचना  ‘शिगाफ ‘ में नागरिक –सेना संबंध  किस प्रकार  हुआ है इसका वर्णन किया .शिगाफ  की नायिका अमिता के ज़रिये  सिविल सैनिक संबंध के कई आयाम हमें देखने को मिल रहे है .समाज में शान्ति होने पर सेना की उपस्थिति की कोई ज़रुरत नहीं होती है .शान्ति भंग होने पर ,हाल पुलीस की  काबू से बाहर  जाने  पर सेना को आना पड़ेगा .शान्ति की स्थापना के लिए सेना कुछ भी करेंगे .यह सेना और नागरिक को अलग करने  का मूल कारण बन जाते है . 
            डॉ .चन्द्रशेखर सिंह जी ने हिंदी  काव्यों में किस प्रकार भारतीय सैनिकों के शौर्य ,श्रम तथा पराक्रम का वर्णन किया है ,इसका अद्ध्ययन  प्रस्तुत किया .उसके बाद बिलासपूर से आये  डॉ.राजेश कुमार मानस जी ने  ‘उसने कहा था’  कहानी , और ‘वापसी’ एकांकी में सैनिक जीवन के मार्मिक प्रसंग कैसे अंकित किया है इसका वर्णन किया. प्रदीप सौरभ जी की  ‘देश भीतर देश ‘उपन्यास में सिविल सैनिक  सम्बन्ध किस प्रकार आया है इसका वर्णन  कालीकट विश्व विद्यालय की  शोध छात्रा सरयू ने किया  .सिविल सैनिक सम्बन्ध अटूट होने पर ही देश की  प्रगती हो पाएगी ,यह मत उसने आगे रखी .एरनाकुलम  महाराजास कोलेज की  प्राध्यापिका डॉ.सिंधु  जी ने अपने  प्रपत्र में सिविल सैनिक संबंध का मनोरम चित्र अभिव्यक्त किया  .-ईरान का युद्ध क्षेत्र जहां फवारे लहू रोते है नामक अपने प्रपत्र में एर्नाकुलम महाराजस कोलेज के डॉ.प्रणीता जी ने  बतायी फ़ौजी जीवन किसी तपस्या से कम नहीं है .” जहां फवारे लहू रोते है’  नासिरा शर्मा जी कि यात्रा वृत्तांत है ,इसमें युद्ध किसका और किस विषय में  का मनन किया गया है. पटटम्बी  संस्कृत  कोलेज के डॉ.प्रतिभा जी ने दिनकर  की   रचनाओं में युद्ध का वर्णन  कैसे हुआ है इसका अद्ध्यायन  प्रस्तुत किया  . एम्.इ.एस अस्माबी कोलेज की  रश्मि जी ने अपने प्रपत्र में यह साबित किया कि सैनिक सबसे पहले अपने देश के बारे में ही चिंता करते है ,भारतीय सैनकों के महत्व के बारे में भी अपने सूचना दी . श्रीमती लिजी ने मलयालम साहित्यकार  कोविलन की रचनाओं में सैनिक जीवन का चित्रण कैसे हुआ है का मनोरम वर्णन  प्रस्तुत किया . सेंत.जोस्फ्स कोलज ,इरिन्जलकूड़ा के डॉ.सी.रोज़  आंतो जी  कोर्ट मार्शल नामक नाटक में चित्रित सैनिक समस्याओं पर  विचार प्रकट किया  . एम्.इ.एस अस्माबी कोलेज के इतिहास विभाग  के अध्यक्ष  मुहम्मद नासर जी  ने Armed forces special power act  के बारे में और उसके कारण सामज में हुए नौबतों के बारे में जानकारी प्रदान की . आसाम राज्य से  आये मिन्हाज  अली ने डॉ सी.जयशंकर बाबू जी की ‘एक सैनिक की  इच्छा ‘ कवीता में सैनिक नागरिक संबंधों कि परिकल्पना कैसे किया गया है,इसका वर्णन किया .देश व देश के नागरिकों के प्रति एक सैनिक का विचार इसमें उनहोंने प्रस्तुत किया .
            बधाई एवं शुभकमनाएँ। जयहिंद

प्रस्तुति - श्रीमती देवी नागरानी