Saturday, December 12, 2015

बनगंगी मुक्त है : ठेठ ग्रामीण क्रांति का दस्तावेज़

आलेख
बनगंगी मुक्त है : ठेठ ग्रामीण क्रांति का दस्तावेज़
अनिल कुमार एन.
ग्रामीण संस्कृति के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. विवेकी राय की रचनाओं में माटी की सौगंध रमी हुई है। बदलते ग्रामीण रूप-भावों को वे अर्थ शताब्दी से अनुभव करते रहे हैं और अपनी कृतियों में अभिव्यक्त करते रहे हैं। स्वतंत्रता के पश्चात् देश की राजनीति से प्रभावित और बदलते सामाजिक, पारिवारिक, सांस्कृतिक परिवेश का चित्रण उनकी कृतियों में यत्र-तत्र मिलता है। ग्राम्य जीवन की अनूठी रचना लोकऋण, जिसे नए नाम बनगंगी मुक्त है के नाम से प्रकाशित है, इसका सक्षम प्रमाण है।
लोकऋण उत्तर प्रदेश-बिहार के गाँवों की जिंदगी का अत्यंत प्रामाणिक एवं जीवंत चित्रों का मर्मस्पर्शी चित्रण है। डॉ. रायजी से पहले प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों और कहानियों में ग्रामीण गाथा का यथा तथ्य चित्रण प्रस्तुत किया था। कालांतर में नागार्जुन, फणीश्वरनाथ रेणु, शिवप्रसाद सिंह, रामदरश मिश्र, श्रीलाल शुक्ल आदि ने भी गाँवों की ज़िंदगी का वर्णांकन किया। लोकऋण मुख्यतः स्वातंत्र्योत्तर भारत के गाँवों में फैले तनावों की समग्र अभिव्यंजना का दस्तावेज़ है। यहाँ सभ्यता और संस्कृति के द्वंद्व परिवेश अपने आप बदलते दिखाई पड़ते हैं। उपन्यास में चरित्रों, घटनाओं एवं स्थितियों का स्वाभाविक परिवर्तन देखने को मिलता है। वृंदावन बाबू के रूप में विवेकी राय स्वयं कह उठते हैं— गाँव में न नरक है, न स्वर्ग है। ये सब फालतू मानदंड हैं। गाँव में सिर्फ परिवर्तित गाँव है। परिवर्तन सिर्फ इतना हुआ कि आर्थिक सुधार की धावाधूपी में उसका जीवन-सौंदर्य नष्ट हो गया है। ...सभ्यता के धक्के से संस्कृति चूर-चूर हो रही है। सभ्यता का केंद्र नगर है और संस्कृति का केंद्र गाँव है। तो अपने केंद्र से खिसका गाँव अपने समूचे अस्तित्व के साथ इस समय आर्थिक मोर्चे पर लड़ रहा है। निश्चय ही यह अवधारणा एक स्वाभाविक औपन्यासिक अनुभव का ऊँचा स्तर प्रदान करती है।
आज गाँवों का परिवेश बड़ी रफ़्तार से बदलता दिखता है। इस परिस्थिति में गाँवों को उपन्यास के फ्रेम में मढ़कर सफ़ल होना उतना आसान काम नहीं है। आजकल ग्रामभित्तिक उपन्यास ही एक प्रकार से अप्रासंगिक बन रहा है। लेकिन शिल्प एवं कथ्य की प्रौढ़ता व समृद्धि की दृष्टि से जल टूटता हुआ, आधा गाँव, अलग-अलग वैतरणी, राग दरबारी, बबूल जैसे उपन्यासों ने अपना-अपना नाम कमाया ही है। इन उपन्यासों के केंद्र में उभरा सामान्य विचार यह कि आज गाँव नरक हो गया है। इसलिए ही संवेदनशील एवं समझदार व्यक्ति को अपने गाँव से विदा लेना ही पड़ता है। श्री वेदप्रकाश अभिताभ के अनुसार “‘लोकऋण गाँव के प्रति इस निराशावादी और पलायनवादी मुद्रा को तोड़ने का संभवतः पहला महत्वपूर्ण प्रयास है। इसका केंद्रीय चरित्र भागने के बजाय मरते हुए गाँव को जिंदा रखने का इरादा करके गाँव की ज़िंदगी में जान बूझकर धँसता है।
देश का अभिशाप है कि गरीब को हमेशा गरीबी के पाताल में गिरता रहना पड़ता है। गाँव की मेहनतकश आम जनता को संपन्न वर्गों द्वारा शोषित रहना पड़ता है। जिन्हें संघर्ष करना है, उन्हें संघर्ष करने का तरीका भी मालूम नहीं। उपन्यासकार के लिए शोषण सबसे घृणित बात है। सबसे पड़ा पाप गरीब और कमजोर होकर समर्थ धनियों का आहार होना है। इस गाँव में वह जब से होश हुआ देख रहा है कि ज़मीनवाले और बटोसे के लिए क्या-क्या नहीं कर्म-कुकर्म करते हैं। लोकऋण उपन्यास की यही शक्ति है कि यह ग्रामीण मेहनतकश आम जनता के शत्रुओं को खुला दिखाकर गाँव की अव्यवस्था के कारणों को समझाता है, मोर्चा बंदी करता है।
आज भौतिक विकास के कारण गाँव उन जीवन मूल्यों से छूट हो गया है जिनपर ग्रामीण जीवन की भव्य इमारत खड़ी थी। लोकऋण में ग्रामीण जीवन की समस्त समस्याओं का कटु भाषा में विश्लेषण कर इनसे बचाने का सफल प्रयास किया है। गिरीश इसलिए स्वीकार करता है, जा गिरीश, ईश्वर तुझे नहीं बख्शेगा तुम्हारे ही गाँव छोड़ते पुस्तकालय टूट गया। तुम्हारी निष्ठा से सात आठ वर्ष में एक सजीव बौद्धिक वातावरण बन गया था। वह जब जब गाँव आता है उसका आहत मन गाँव से शहर की ओर भागता है और वह शहर में बसने की बात सोचने लगता है, और इसी गाँव में अवकाश प्राप्त कर मुझे रहना है! नहीं, यह संभव नहीं, मरा गाँव अब गले नहीं उतर रहा है।कई बार वह यह निर्णय कर लेता है और अंत में रामपुर का सभापति बनना स्वीकार करता है— रामपुर के पुनः जीवन के लिए। गाँव की दुर्दशा के लिए वे लोग ज़्यादा जिम्मेदार हैं जो उच्च शिक्षा प्राप्त कर गाँव से भाग गये तथा ग्रामीण जीवन से विरत हो गये।
अन्य ग्रामभित्तिक उपन्यासों के समान लोकऋण में भी दरिद्रता, कलह, चोरी, मुकदमेबाजी, अशिक्षा, ज़मींदारों के अन्याय, अत्याचार, निंदा, स्तुति आदि का वर्णन भरपूर मिलता है। स्वातंत्र्योत्तर भारत के गाँवों का सच्चा स्वरूप उपन्यास से ज़रूर मिलता है जैसे चकबंदी, पंपिंग सेट, ट्रान्जिस्टर, पुस्तकालय, चाय-कॉफी, राजनीति आदि। श्री निशंक के शब्दों को उधार लें तो बनगंगी पोखरे की शारदी साँझ से प्रारंभ होने वाली यह कहानी बनगंगी महादेव के मंदिर के अंतिम दृश्य तक पहुँचते-पहुँचते माटी की गमक में आकंठ डूबे लेखक की प्रतिबद्धता को ही उजागर नहीं करती, उसके आस्थावादी आशावाद को भी कलात्मकता के साथ रूपायित करती है। बेहिचक समर्थन कर सकते हैं कि लोकऋण एक स्वाभाविक, सीधा-सादा, ईमानदार, साफ-सुथरा एवं ठेठ जीवंत कृतियों में महत्वपूर्ण स्थान के लिए पर्याप्त है और एक सरल-सहृदय पाठक के लिए इसमें बहुत-कुछ है।

संदर्भ ग्रंथ सूची:-
लोकऋण –- डॉ. विवेकी राय, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी
लोकऋण : बनगंगी मुक्त है (समीक्षा) –- टूटते हुए गाँव का दस्तावेज, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, सं. सर्वजीत राय
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अनिल कुमार एन., कर्पगम विश्वविद्यालय, कोयंबत्तूर, तमिलनाडु में डॉ. पद्मावती अम्माल के निर्देशन में शोधरत हैं।

Friday, December 11, 2015

‘पीली आँधी’ – विवाह के विधान तथा अर्थशास्त्र के सरोकार की तीसरी आँख

पीली आँधी – विवाह के विधान तथा अर्थशास्त्र के सरोकार की तीसरी आँख

-          सिजी सी.जी

ईश्वर की अमूर्त सृष्टि स्त्री की तहत्, आज इस आधुनातन युग में उत्कृष्टतम स्तर तक पहुँच तो गया है। किंतु पुरातन से लेकर स्त्री के प्रति जो दृष्टि थी, उसमें ज्यादा परिवर्तन तो नहीं आया है। पुरुष स्त्री को सदा उसकी अनुगामिनी बनाना चाहता है। सहगामिनी का जो स्त्री रूप उन्हें हमेशा खटकता है। पुरुष जाति, चाहे ऊँचे श्रेणी हो या नीचे, वे स्त्री के दबित, दमित रूप पर ही ज़्यादा आकृष्ट है। उनकेलिए यह जाति केवल वंश परिपालन का एक साधन मातृ रह गया है। पुरुष प्रधान समाज के भीतर के अहं कभी भी स्त्री की कामियाबी को स्वीकारने को तैयार नहीं रहा। बहुत अरसे से स्त्री इन सभी हालात से समझौता करके अपने को सहेज दिया है। फिर भी इतिहास परखे तो हमें बहुत सारे स्त्री रत्नों का दृष्टान्त मिल सकते है, जो अपने को व्यक्ति की दर्जा पाने के लिए सभी – असूल – वसूल, कायदे – कानून, रीति – संप्रदायों एवं रूढ़ियों को उखाड़कर खड़ी हुई है। पुराण निरखे तो वहाँ सीता देवी नज़र आते है। अपने पतिदेव की सहगामिनी बनकर, हर सुख-दुख में साथिन बनकर भी उन्हें दुनिया के सामने आरोपित एवं अपमानित होना पड़ा। अपने मान सम्मान को ठेस पहूँचा तो वह सिर ऊँचा करके अपनी आक्रोश भरी वाणी सुनाई। पूरे रामायण में सीता का उत्कृष्ट एवं विराट रूप हमें यह दिखाते है कि स्त्री महज पुरुष की कठपुतली नहीं। इतिहास में मीराबाई में ही पहले – पहल स्त्री विमर्श का बीज़ नज़र आते है। अपने प्यार एवं स्वतंत्र जीवन के खातिर वे पूरे समाज के नज़रों में गिरकर भी वे अपने विचारों पर अटल रही।
आज स्थिति बदल गयी। स्त्री का स्थान चार दीवारी के अन्दर नहीं बल्कि दुनिया के हर कोने में हैं। फिर भी समाज का स्त्री के प्रति जो नज़रिया है, उनमें बदलाव की ज़क ज़रूरत है। इस मुद्दे पर अन्यत्र उपन्यास लिखे गये है। समकालीन अनन्या लेखिका प्रभाखेतान के सभी उपन्यास स्त्री को आत्मनिर्भर होने की प्रीरणा देनेवाली है। उनकी प्रसिद्ध उपन्यास पीली आँधी भी इसका दस्तावेज़ है।राजस्थानी सनातनी मारवाड़ी परिवार का यथार्थ चित्रण है यह उपन्यास। यह व्यावसायिक दुनिया के तनाव भरी ज़िन्दगी का बयान करता है। मारवाड़ी स्त्रियों को सिर्फ अपने साज-श्रंगार, गहने, वेशभूषा एवं खाने – पीने का फिकर है। शिक्षा एवं आर्थिक स्वतंत्रता से वंचित उन लोगों की ज़िन्दगी में दबाव एवं दमन ही नसीब है।
पीली आँधी उपन्यास में तीन पीढ़ियों का चित्रण है। मारवाड़ियों के सामाजिक जीवन के हर पहलुओं का यथार्थ अंकन में प्रभाजी कामयाब हो गयी है। इस उपन्यास में विधवा समस्या, बालविवाह, अनमेल विवाह, माँ बनने की अदम्य इच्छा; समलैंगिकी समस्या, वैवाहिक जीवन की विडम्बनाएँ, नाजायज़ रिश्तो से उत्पन्न तनाव, सनातनी मारवाड़ी परिवार की रीति रिवाज़ें, 1935-50 के प्रकोप के कारण पड़े अकाल का तथा महँगाई – गरीबी का, कोलियारी व्यवसाय का उतार-चढ़ाव तथा आर्थिक परिवेश का यथार्थ चित्रण इस उपन्यास में हुआ है। पीली आँधी इस उपन्यास के बारे में श्री अरविन्द जैन कहते है विवाह के विधान और अर्थशास्त्र को समझने की दिशा में यह सार्थक एवं महत्वपूर्ण है।1 इस उपन्यास का मेरूदण्ड पद्मावती है। आधुनिक विचारों से संपन्न, फिर भी पुराने संप्रदायों एवं संस्कृति को छाती से लगाकर पूरे संयुक्त परिवार को पूरे अनुशासन के साथ अपने अच्छे संस्कारों से घर को एक पवित्र मंदिर सा बनाती है। परिवार के सभी सदस्यों को एक धागे में बाँधकर सब के सामने एक आदर्श व्यक्तित्व ले कर वे खड़ी होती है। निस्संतान होकर भी अपने देवर के बच्चों को अपना सा प्यार देता है। वह अत्यन्त संवेदनशील प्रेममयी, अनुशासन प्रिय आदर्श के रूप में इस उपन्यास में नज़र है। भरी जवानी में विधवा होकर भी वह अपने को संयमित रखती है। अपने सीमित दायरे कभी भी वह उल्लंधन नहीं करती। कोलियारी व्यवसाय संभालनेवाला पन्नालाल सुराणा के पवित्र प्यार को वह परिवार के खातिर टुकराते है।
रुँगटा परिवार की छोटी बहु सोमा, वेलहम देहरादून से पढ़ी – लिखी एक खूबसूरत, शोख – प्रखर दिमाग लड़की थी। अत्यन्त परिष्कृत एवं उत्कृष्ट विचारोंवाली। अपने परिवार में उसे पूरे छूट मिली थी। वे स्वतन्त्र एवं आत्मानिर्भर रहना चाहती थी। धनी परिवार के रिश्ते से जब माँ – बाप खुश हो जाते है तब सोमा को गौतम अच्छी नही लगी। वह खुलकर कहती है। लड़का मैनली नहीं लगता। उसकी कमर कितनी पतली है?”2 ऐसा कहकर वह शादी से साफ इनकर करती है। मगर रजवाड़ों के ढाट के सामने माँ-बाप इनकार नहीं कर पाई। आधुनिक ढंग की जिन्दगी जीनेवाली सीमा को ससुराल के तौर-तरीके बिलकुल असहनीय लगा। फिर भी वह ससुराल की रहन-सहन में अपने को ढालने को प्रयत्न करती रही। वैवाहिक जीवन की खुशी के लिए हर तरह की समझौता करने के लिए वह तैयार होती है। मगर पति गौतम उसे टुकराते रहे। इस भरे-पूरे घर में वे बिलकुल अकेली हो जाती है। माँ बनने की अदम्य इच्छा से वह तड्पती रही। प्रोफसर सुजितसेन के प्यार में खोकर वह गर्भवति हो जाती है। इतने बड़े खानदान को छोड़कर पूरे मान-सम्मान एवं गरिमा के साथ बच्चे को जन्म देना चाहती थी। सोमा आम औरत की तरह दम घुट कर और तड़प-तड़प कर जीना नहीं - चाहती।
मारवाड़ी परिवारों की स्त्रियों की ज़िन्दगी महज़ साज - श्रृंगार, वेश-भूषा, गहनों से लपेटने में रही। इस दायरे से बाहर उनकी अपनी कोइ चिन्ता तथा कदम नहीं। सच में सब अन्तर से असंत्रप्त थे। अपने नज़रों के सामने पति के नाजायज़ रिश्तों को देख कर भी वह कुछ नहीं कर सकती। महज आँसु गिराना जानती है। परिवार की खुशी के खातिर खुद की जिन्दगी को नकारने की स्त्री नियति को इस उपन्यास में बखूबी चित्रित किया है। सोमा की माँ और गौतम के बड़े भाई की पत्नी भी, अपने पति के गैर रिश्ते से ना खुश है। हर स्त्री अपने औलाद के खातिर या समाज भय से सबकुछ सहने के लिए तैयार होते है। आर्थिक एवं शैक्षिक निर्भरता ना होने के कारण वे स्त्रियाँ पति के नाजायज़ रिश्तों से व्यथित होकर भी अनदेखा करती है। इन सब के बीच सोमा पात्र अपनी खुशी एवं हक पाने के लिए लड़ती नज़र आती है। सोमा नारी पात्र प्रभाजी के चरित्र के बिलकुल निकट है। स्त्री की नियति और उसके शोषण की प्रक्रिया तब तक रहेगी जब तक उसके प्रति सामाजिक व्यवस्था में अमूल परिवर्तन नहीं होता। इस उपन्यास में पति को परमेश्वर मानकर बच्चों की परवरिश में अपनी पूरी जिन्दगी निचोड़नेवाली नारियों का भी चित्रण हैं।
सुजित सेन की पत्नी चित्रा इस उपन्यास में एक गौण पात्र होकर भी अपने पृथक व्यक्तित्व से सब के दिल में एक जगह पा सकी है। शिक्षित चित्रा जब पति की गैर-रिश्ते से अवगत हुआ तो पहले उसे बुरा लगा और दुख भी। मगर गर्भवति सीमा को वह अपने घर में आश्रय देती है। चित्रा ने ही उसी बी.एड़. की परीक्षा दिलवाई और फिर कॉलेज की नौकरी भी। जब सोमा चित्रा से पुछती है की सुजित की छोड़ने का तुम्हें दुख नहीं? तब वह कहती है कि हाँ दुःख तो हुआ था। सुजीत को घोखेबाज़ कहा था। फिर बाद में लगा कि यह धोखा तो मैं स्वयं को दे रही है। जब प्रेम ही नहीं, तब किस बात की जलालत? प्रेम की भीख नहीं माँगी जाती। मेरा अपना कोई आत्म-सम्मान नहीं? और फिर यह किस शास्त्र में लिखा है कि किसी से प्रेम करो तो ताउम्र करते जाओ।3 इस कथन में चित्रा की स्पष्टता, आत्मसम्मान, मान-गरिमा एवं आत्मनिर्भरता सब झलकते है। ऐसा श्रेष्ठ एवं ऊँचा सोच उसे त्याग के उत्कृष्ट शिखर तक पहूँचाती है। ऐसा आत्मदान सब की चिन्तन में नहीं हो सकता। चित्रा ने यह विचार कर अपने आप को संभाला है कि शाश्वत प्रेम किसी के बीच नहीं हो सकता। यह कल्पना महज एक आत्म सम्मोहन है। पूरे उपन्यास में मातृ चित्रा और सोमा ही शिक्षित – कामकाजी स्त्रियाँ है।
यह उपन्यास मारवाडी समाज के विस्थापन के दर्द को प्रस्तुत करते है। इसमें तीन पीढ़ियों की औरतें है जो अपने संघर्षमय, त्रस्तमय जीवन से रुबरु कराती है। इस उपन्यास की सोमा, सामाजिक, पारिवारिक रूढ़ी बंध मान-मर्यादा, नाक और नैतिकता की देहरी लाँघकर नज़र आती है। प्रभाजी ने सदियों से दबी कुचली स्त्री की चुपी को तोड़ना चाहती थी। परंपरागत स्त्री को परिवर्तित करके उसे सामाजिक, आर्थिक रूप में स्वतन्त्र करने का प्रबल कोशिश किया है। यह उपन्यास प्रमाणित करता है कि घर, परिवार, पति-बच्चे से हट कर भी स्त्री की दुनिया होती है, जो दुनिया उसकी अस्मिता, अस्तित्व एवं वजूद की है।
सारतः कहा जा सकता है कि प्रभाजी ने एक संपूर्ण नस्ल के संयुक्त परिवार का चित्रण करके राजस्थान के लोक जीवन की कहानी पर प्रकाश डाला है। मारवाड़ी स्त्री की बिखरती, टूटती, पिसती, घुटती, त्रसित, जिन्दगी की पीड़ा को उकेरने में प्रभाजी पूर्ण रूप से सफल हुए। प्रभाखेतान के उपन्यास की नायिकाएँ संघर्षशील रही है। साहसी, स्वावलंबी, आत्मसम्मान एवं आत्मविश्वास से भरी हुई एवं अपनी व्यक्तित्व के लिए लड़ती-झगडती नज़र आती है। काँटों भरी राहो से कदम बढ़ाते, सारी बाधाओं से टकराते सफल और साकार होने का चित्रण स्त्री जाती के लिए अत्यन्त प्रेरक है। प्रभाजी एसी नायिकाओं की सृजन से पूरे स्त्री जाति ऊपर उठाने की आत्म प्रेरणा देने में सफल रही।
संदर्भ सूची:
1. औरत अस्तित्व और अस्मिता – श्री अरविंद जैन – पृ.सं. 65
2. पीली आँधी – प्रभा खेतान – पृ.सं. 164
3. पीली आँधी – डॉ. प्रभाखेतान – पृ.सं. 256
हायक ग्रन्थ:
1. पीली आँधी – डॉ. प्रभाखेतान
2. प्रभाखेतान के साहित्य में नारी विमर्श – डॉ. कामिनीतिवारी
3. आजकल – मार्च 2014
4. हिंदी साहित्य में नारी संवेदना – डॉ. एन.जी. दौड गौडर, डॉ. डि.नी. पांडे
5. हिंदी उपन्यास का इतिहास – प्रो. गोपाल राय
6. प्रभाखेतान की उपन्यासों ने नारी – डॉ. अशोक मराठे।

सिजी सी.जी. कर्पगम विश्वविद्यालय, कोयम्बत्तूर डॉ. पद्मावती अम्माल के निर्देशन में पीएच.डी. के लिए शोधरत हैं ।