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Saturday, February 10, 2018

दीनदयाल उपाध्याय होने का मतलब


आलेख

दीनदयाल उपाध्याय होने का मतलब
पुण्यतिथि पर विशेष (11 फरवरी)



-संजय द्विवेदी

  राजनीति में विचारों के लिए सिकुड़ती जगह के बीच पं. दीनदयाल उपाध्याय का नाम एक ज्योतिपुंज की तरह सामने आता है। अब जबकि उनकी विचारों की सरकार पूर्ण बहुमत से दिल्ली की सत्ता में स्थान पा चुकी हैतब यह जानना जरूरी हो जाता है कि आखिर दीनदयाल उपाध्याय की विचारयात्रा में ऐसा क्या है जो उन्हें उनके विरोधियों के बीच भी आदर का पात्र बनाता है।
   दीनदयाल जी सिर्फ एक राजनेता नहीं थेवे एक पत्रकारलेखकसंगठनकर्तावैचारिक चेतना से लैस एक सजग इतिहासकारअर्थशास्त्री और भाषाविद् भी थे। उनके चिंतनमनन और अनुशीलन ने देश को एकात्म मानवदर्शन जैसा एक नवीन भारतीय विचार दिया। सही मायने में  एकात्म मानवदर्शन का प्रतिपादन कर दीनदयाल जी ने भारत से भारत का परिचय कराने की कोशिश की। विदेशी विचारों से आक्रांत भारतीय राजनीति को उसकी माटी से महक से जुड़ा हुआ विचार देकर उन्होंने एक नया विमर्श खड़ा कर दिया। अपनी प्रखर बौद्धिक चेतना,समर्पण और स्वाध्याय से वे भारतीय जनसंघ को एक वैचारिक और नैतिक आधार देने में सफल रहे। सही मायने में वे गांधी और लोहिया के बाद एक ऐसे राजनीतिक विचारक हैंजिन्होंने भारत को समझा और उसकी समस्याओं के हल तलाशने के लिए सचेतन प्रयास किए। वे अनन्य देशभक्त और भारतीय जनों को दुखों से मुक्त कराने की चेतना से लैस थेइसीलिए वे कहते हैं-प्रत्येक भारतवासी हमारे रक्त और मांस का हिस्सा है। हम तब तक चैन से नहीं बैठेंगें जब तक हम हर एक को यह आभास न करा दें कि वह भारत माता की संतान है। हम इस धरती मां को सुजलासुफलाअर्थात फल-फूलधन-धान्य से परिपूर्ण बनाकर ही रहेंगें। उनका यह वाक्य बताता है कि वे किस तरह का राजनीतिक आदर्श देश के सामने रख रहे थे। उनकी चिंता के केंद्र में अंतिम व्यक्ति हैशायद इसीलिए वे अंत्योदय के विचार को कार्यरूप देने की चेष्ठा करते नजर आते हैं।
   वे भारतीय समाज जीवन के सभी पक्षों का विचार करते हुए देश की कृषि और अर्थव्यवस्था पर सजग दृष्टि रखने वाले राजनेता की तरह सामने आते हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था पर उनकी बारीक नजर थी और वे स्वावलंबन के पक्ष में थे। राजनीतिक दलों के लिए दर्शन और वैचारिक प्रशिक्षण पर उनका जोर था। वे मानते थे कि राजनीतिक दल किसी कंपनी की तरह नहीं बल्कि एक वैचारिक प्रकल्प की तरह चलने चाहिए। उनकी पुस्तक पोलिटिकल डायरीमें वे लिखते हैं- भिन्न-भिन् राजनीतिक पार्टियों के अपने लिए एक दर्शन (सिद्दांत या आदर्श) का क्रमिक विकास करने का प्रयत्न करना चाहिए। उन्हें कुछ स्वार्थों की पूर्ति के लिए एकत्र होने वाले लोगों का समुच्च मात्र नहीं बनना चाहिए। उनका रूप किसी व्यापारिक प्रतिष्ठान या ज्वाइंट स्टाक कंपनी से अलग होना चाहिए। यह भी आवश्यक है कि पार्टी का दर्शन केवल पार्टी घोषणापत्र के पृष्ठों तक ही सीमित न रह जाए। सदस्यों को उन्हें समझना चाहिए और उन्हें कार्यरूप में परिणत करने के लिए निष्ठापूर्वक जुट जाना चाहिए। उनका यह कथन बताता है कि वे राजनीति को विचारों के साथ जोड़ना चाहते थे। उनके प्रयासों का ही प्रतिफल है कि भारतीय जनसंघ (अब भाजपा) को उन्होंने वैचारिक प्रशिक्षणों से जोड़कर एक विशाल संगठन बना दिया। यह विचार यात्रा दरअसल दीनदयाल जी द्वारा प्रारंभ की गयी थीजो आज वटवृक्ष के रूप में लहलहा रही है। अपने प्रबोधनों और संकल्पों से उन्होंने तमाम राजनीतिक कार्यकर्ताओं तथा जीवनदानी उत्साही नेताओं की एक बड़ी श्रृंखला पूरे देश में खड़ी की।
  कार्यकर्ताओं और आम जन के वैचारिक प्रबोधन के लिए उन्होंने पांचजन्यस्वदेश और राष्ट्रधर्म जैसे प्रकाशनों का प्रारंभ किया। भारतीय विचारों के आधार पर एक ऐसा दल खड़ा किया जो उनके सपनों में रंग भरने के लिए तेजी से आगे बढ़ा। वे अपने राजनीतिक विरोधियों के प्रति भी बहुत उदार थे। उनके लिए राष्ट्र प्रथम था। गैरकांग्रेस की अवधारणा को उन्होंने डा.राममनोहर लोहिया के साथ मिलकर साकार किया और देश में कई राज्यों में संविद सरकारें बनीं। भारत-पाक महासंघ बने इस अवधारणा को भी उन्होंने डा. लोहिया के साथ मिलकर एक नया आकाश दिया। विमर्श के लिए बिंदु छोड़े। यह राष्ट्र और समाज सबसे बड़ा है और कोई भी राजनीति इनके हितों से उपर नहीं है। दीनदयाल जी की यह ध्रुव मान्यता थी कि राजनीतिक पूर्वाग्रहों के चलते देश के हित नजरंदाज नहीं किए जा सकते। वे जनांदोलनों के पीछे दर्द को समझते थे और समस्याओं के समाधान के लिए सत्ता की संवेदनशीलता के पक्षधर थे। जनसंघ के प्रति कम्युनिस्टों का दुराग्रह बहुत उजागर रहा है। किंतु दीनदयाल जी कम्युनिस्टों के बारे में बहुत अलग राय रखते हैं। वे जनसंघ के कालीकट अधिवेशन में 28 दिसंबर,1967 को कहते हैं- हमें उन लोगों से भी सावधान रहना चाहिए जो प्रत्येक जनांदोलन के पीछे कम्युनिस्टों का हाथ देखते हैं और उसे दबाने की सलाह देते हैं। जनांदोलन एक बदलती हुयी व्यवस्था के युग में स्वाभाविक और आवश्यक है। वास्तव में वे समाज के जागृति के साधन और उसके द्योतक हैं। हांयह आवश्यक है कि ये आंदोलन दुस्साहसपूर्ण और हिंसात्मक न हों। प्रत्युत वे हमारी कर्मचेतना को संगठित कर एक भावनात्मक क्रांति का माध्यम बनें। एतदर्थ हमें उनके साथ चलना होगाउनका नेतृत्व करना होगा। जो राजनीतिकआर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में यथास्थिति बनाए रखना चाहते हैं वे इस जागरण से घबराकर निराशा और आतंक का वातावरण बना रहे हैं। 
  इस प्रकार हम देखते हैं कि दीनदयाल जी का पूरा लेखन और जीवन एक राजनेता की बेहतर समझउसके भारत बोध को प्रकट करता है। वे सही मायने में एक राजनेता से ज्यादा संवेदनशील मनुष्य हैं। उनमें अपनी माटी और उसके लोगों के प्रति संवेदना कूट-कूट कर भरी हुयी है। सादा जीवन और उच्च विचार का मंत्र उनके जीवन में साकार होता नजर आता है। वे अपनी उच्च बौद्धिक चेतना के नाते भारत के सामान्य जनों से लेकर बौद्धिक वर्गों में भी आदर से देखे जाते हैं। एक लेखक के नाते आप दीनदयाल जी को पढ़ें तो अपने विरोधियों के प्रति उनमें कटुता नहीं दिखती। उनकी आलोचना में भी एक संस्कार हैसुझाव है और देशहित का भाव प्रबल है। पुण्यतिथि पर उनके जैसे लोकनायक की याद सत्ता में बैठे लोग करेंगेंशेष समाज भी करेगा। उसके साथ ही यह भी जरूरी है कि उनके विचारों का अवगाहन किया जाएउस पर मंथन किया जाए। वे कैसा भारत बनाना चाहते थे? वे किस तरह समाज को दुखों से मुक्त करना चाहते थे? वे कैसी अर्थनीति चाहते थे?

    दीनदयाल जी को आयु बहुत कम मिली। जब वे देश के पटल पर  अपने विचारों और कार्यों को लेकर सर्वश्रेष्ठ देने की ओर थेतभी हुयी उनकी हत्या ने इस विचारयात्रा का प्रवाह रोक दिया। वे थोड़ा समय और पाते थे तो शायद एकात्म मानवदर्शन के प्रायोगिक संदर्भों की ओर बढ़ते। वे भारत को जानने वाले नायक थेइसलिए शायद इस देश की समस्याओं का उसके देशी अंदाज में हल खोजते। आज वे नहीं हैंकिंतु उनके अनुयायी पूर्ण बहुमत से केंद्र की सत्ता में हैं। भाजपा और उसकी सरकार को चाहिए कि वह दीनदयाल जी के विचारों का एक बार फिर से पुर्नपाठ करे। उनकी युगानूकूल व्याख्या करे और अपने विशाल कार्यकर्ता आधार को उनके विचारों की मूलभावना से परिचित कराए। किसी भी राजनीतिक दल का सत्ता में आना बहुत महत्वपूर्ण होता हैकिंतु उससे कठिन होता है अपने विचारों को अमल में लाना। भाजपा और उसकी सरकार को यह अवसर मिला है वह देश के भाग्य में कुछ सकारात्मक जोड़ सके। ऐसे में पं.दीनदयाल उपाध्याय के अनुयायियों की समझ भी कसौटी पर है। सवाल यह भी है कि क्या दीनदयाल उपाध्याय,कांग्रेस के महात्मा गांधी और समाजवादियों के डा. लोहिया तो नहीं बना दिए जाएंगें?उम्मीद की जानी चाहिए कि सत्ता के नए सवार दीनदयाल उपाध्याय को सही संदर्भ में समझकर आचरण करेंगें।

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

Tuesday, October 24, 2017

विमर्शों के आलोक में शिवमूर्ति का साहित्य

आलेख

विमर्शों के आलोक में शिवमूर्ति का साहित्य
-         रहीम मियाँ

      साहित्य का लक्ष्य ही है वंचित समाज को स्वर प्रदान करना और मानवीय धरातल पर स्थापित करना। इन्हीं वंचितों में एक है स्त्री, किसान और दलितों का समाज। अपने प्राप्य से दरकिनार यह समाज सदा से सृजन की स्रोत सामग्री रही है, स्त्री हो, दलित हो या किसान, ये आज भी हाशिए की श्रेणी में है, पर इनकी दिशा पहले जैसी निरिह नहीं रही है। आर्थिक, राजनीतिक और संवैधानिक अधिकारों के बावजूद किन्हीं मामलों में अंतर्विरोध से भी ग्रसित है। इन्हीं बहुआयामी अग्रगति के साथ इनके अंतर्विरोध आज विमर्शों का नया आख्यान ही रच रहा है।
      शिवमूर्ति ग्रामीण जीवन के कथाकार है तो प्रेमचन्द, रेणू, नागार्जुन जैसे कथाकार ग्राम्य बोध के जनक। इस धरातल पर यह अनिवार्यत विचारणीय ठहरता है कि शिवमूर्ति के पूर्व कथाजगत में जो ग्रामीण जीवन रहा, वहीं तक भारत का गाँव टीका न रहकर वर्तमान भूमंडलीय परिदृश्य में नित नये - नये रुपों को ग्रहण करता रहा है। किसान न तो किसानी में गर्व का अनुभव कर रहा है, न स्त्री अधिकांश में प्रेमचन्दीय आदर्शों को ढ़ो रही है और रही बात दलित की तो आज दलित सद्गति या ठाकुर का कुँआ की भाँति विवश नहीं है, बल्कि आरक्षण की नीति के आधार पर सवर्णों को भी विवश किए हुए है।
शिवमूर्ति के कथा साहित्य का केन्द्र स्त्री, दलित और किसान रहे हैं। ये तीनों किसी न किसी रुप में हजारों वर्षों से समाज में हाशिए पर रहे हैं। स्त्री को एक ओर जहाँ पुरुष की अर्धांगिनी कहा गया वहीं सदा से वह पितृसत्तात्मक व्यवस्था से शोषित एवं पीड़ित होती रही है। दलित विमर्श और आरक्षण नीति के बावजूद आज भी दलित अपने अस्तित्व एवं अधिकार की लड़ाई लड़ रही है। भारत की आत्मा गाँव में बसने के बावजूद किसानों की स्थिति बद से बदतर है। ऐसे हाशिए पर फेंके गए वर्ग की आवाज बनते हैं शिवमूर्ति, जिन्होंने अपने कथा साहित्य के माध्यम से स्त्री, दलित एवं किसानी जीवन के यथार्थ एवं मर्म को समाज के लोगों के बीच लाकर प्रस्तुत कर दिया है।
शिवमूर्ति के नारी पात्र न्याय के लिए लड़ते हैं, भले न्याय न मिले, किन्तु वे संघर्षशील है, सत्ता को चुनौती देती है। अकालदण्ड की सुरजी हो, केशर कस्तुरी की केशर, कसाईबाड़ा की शनिचरी हो या तिरिया चरित्तर की विमली।तिरिया चरित्र कहानी में शिवमूर्ति ने दलित वर्ग की स्त्री का कारुणिक चित्रण पेश किया है। कहानी का पात्र विमली पुरुषों के बीच जाकर ईट भट्टे में काम करती है तो केवल अपने माँ – बाप के भरण-पोषण के लिए। उसे अपने ही ससुर द्वारा बलात्कार की पीड़ा झेलनी पड़ती है। ससुर द्वारा विमली पर ही लांछन लगाया जाता है और विमली को पंचायत की क्रूरता झेलनी पड़ती है। एक बात गौर करने की है कि प्रेमचन्द के पंचपरमेश्वर में जहाँ पंच की महीमा दिखाई गई है, वहीं गोदान तक आते – आते प्रेमचन्द का पंच से मोहभंग हो जाता है और वही पंच शिवमूर्ति के यहाँ आते-आते पहले से अधिक क्रूर और आततायी हो चुका है। यह पंच विमली को निरपराध दाग देता है, पर इसका विरोध विमली अवश्य करती है – मुझे पंच का फैसला मंजूर नहीं। पंच अंधा है। पंच बहरा है। पंच में भगवान का सत्त नहीं है। मैं ऐसे फैसले पर थूकती हूँ – आ-क-थू। देखूँ कौन माई का लाल दगनी दागता है।  कुच्ची का कानून कहानी में कुच्ची, विमली की तरह पराश्त नहीं होती है। वह पंचायत के सामने अपनी माँ बनने की अधिकार रक्षा में सफल होती है। कुच्ची बदलते समय में बदलते समाज की  सोच की उद्घोषणा करती नजर आती है। पितृसत्ता के विरोध में मातृसत्ता को स्थापित करने की माँग करती है। उसका यह सवाल ध्यातव्य है – कोख मेरी है तो इसपर हक किसका होगा। शिवमूर्ति ने कोख पर स्त्री के अधिकार के मुद्दे को घर से बाहर पंचायत में लाकर एक नये अधिकार एवं विमर्श को हवा दी है। बिना पति के माँ बनने की बात पर जब सास द्वारा शंका व्यक्त की जाती है तब वह कहती है – किसी का नाम धरना जरुरी है क्या अम्मा? अकेले मेरा नाम काफी नहीं है?“ वह पंचों के स्त्री अस्मिता की लड़ाई लड़ती है और स्पष्ट घोषणा करती है – कुंती माई डर गयी, अंजनी माई डर गयी, सीता की माई डर गयी, लेकिन बालकिसन की माई डरने वाली नहीं है। मेरा बालकिसन पैदा होकर रहेगा।
शिवमूर्ति के स्त्री पात्र पढ़े-लिखे एवं शहरी नहीं है, वे ग्रामीण है, दलित है, किन्तु अन्याय के खिलाफ लड़ने की चेतना से पूर्ण। ये दलित वर्ग की वे स्त्रियाँ है जो हजारों वर्षों से पितृसत्ता के शोषण की शिकार होती आई है, पर अब ये स्त्रियाँ प्रतिरोध करने लगी है। अकालदण्ड में सुरजी हँसिये से सेक्रेटरी के देह का नाजुक हिस्सा काटकर अलग कर देती है - अन्दर का दृश्य बड़ा भयानक है। सिकरेटरी बाबू पलंग पर नंग – धरंग पड़े छटपटा रहे हैं। सुरजी ने हासिए से उसकी देह का नाजुक हिस्सा अलग कर दिया है और पिछवाड़े के रास्ते भागकर अंधेरे में गुम हो गई है। तर्पण में मिस्त्री बहु ललकारती है – ‘’पकड़ – पकड़ भागने न पाये। पोतवा पकड़ कर ऐंठ दे। हमेशा – हमेशा का ग्रह कट जाय।‘’
बनाना रिपब्लिक दलित राजनीति और उसके उभार की कहानी है। जग्गू द्वारा लेखक ने यह दिखा दिया है कि अब दलितों का राजनीतिकरण हो चुका है। ठाकुर द्वारा दलित को कठपुतली बनाकर सत्ता पाने का कुचक्र अब नहीं चलेगा। जग्गू के चुनाव जीतने पर जुलूस का ठाकुर के घर की तरफ न जाना, ठाकुर द्वारा स्वयं जग्गू के जुलूस में माला लेकर पहुँचना और किसी के कहने पर – जरा कमरिया तो लचकाइए ठाकुर, ठाकुर का कमरिया लचकाकर नाचना बदलते समय का यथार्थ है। यह कहानी कफन के आगे का यथार्थ है। कफन से आगे बढ़कर दलित चेतना का क्रांतिकारी
विस्फोट है। घिसु, माधव का कफन के पैसे से शराब पीकर नशे में गिरना दलित समाज की नियति थी तो जग्गू का चुनाव जीतकर ठाकुर को नचाना आज की नियति। ठाकुर द्वारा यह कहना – ‘’अगर पानी पीने से साथ पक्का होता हो तो बाल्टी भर पी जाऊ’’, ठाकुर के कुँआ का अगला विकास है, जहाँ जोखू को गंदा और बदबूदार पानी पीने के लिए मजबूर होना पड़ा था। वहीं बनाना रिपब्लिक में ठाकुर को दलितों के साथ के लिए मजबूर होना पड़  रहा है। कहानी के अंत में ठाकुर के पंजे में पंजा फसाँकर  नाचने वाले दलित बच्चे घिसु-माधव की तरह नशे में धत्त होकर नाचने वाले बच्चे नहीं है बल्कि पंजे से पंजा मिलाकर सीधे वर्ग-संघर्ष करने वाले बच्चे है। तर्पण उपन्यास में दलित झूठ बोलना सीख चुके हैं। यहाँ दलित बलात्कार किए जाने की झूठी रिपोर्ट लिखवाते हैं। वे जान गये हैं कि झूठ बोलकर ही सवर्णों ने दलितों पर हजारों वर्षों तक शोषण किया –  केवल एक झूठ बोलकर कि वे बह्रमा के मुँह से पैदा हुए और हम पैर से, वे हजार साल से हमसे अपना पैर पुजवाते आ रहे हैं। अब एक झूठ बोलने का हमारा दाँव आया है तो हमारे गले में क्यों अटक रहा है। तर्पण के दलित पात्र अपने शोषण का सवर्णों से हिंसक बदला लेने लगे है। चन्दर की नाक क्या कटी सवर्णों की मानो इज्जत उतर गई। जहाँ सवर्ण चमारों से बदला लेना चाहते हैं वहीं चमार भी कट्टे, बम लेकर मुकाबले के लिए तैयार हो जाते हैं। पियारे को अपने मुन्ना पर गर्व होता है कि जो काम इतने वर्षों में वह नहीं कर पाया उसका बेटा कर देता है – कब से जोर जुल्म सह रही है उसकी जाति। पीढ़िया गुजर गई सहते – सहते। कोई माई का लाल न पैदा हुआ मुँहा – मुँही जवाब देने वाला। और आज उसके बेटे ने ऐसा कर दिखाया तो छिपे – छिपे घुमने का क्या मतलब? यह तो दुनिया जहान में डंका पीटकर बताने वाला काम है। लेकिन नाक क्यों काटा? सीधे मूँड़ ही क्यों नहीं काट लिया। मुन्ना का जुर्म पियारे अपने सर ले लेता है और वकील के समझाने पर कहता है – ‘’नहीं वकील साहब। मुझे जेल जाना है। जेल की रोटी खाकर पराश्चित करना है। इस पाप का पराश्चित कि कान-पूँछ दबाकर इतने दिनों तक उन लोगों का जोर - जुल्म सहता रह गया।‘’ पियारे मानो सारे दलित वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है, वह जेल नहीं मानो तमाम दलितों का, उनके पुरखों का तर्पण करने जा रहा है। पुलिस के पूछने पर कि कब से प्लान कर रहा था मारने की। वह कहता है – बहुत दिन से सरकार। जब से इसने मेरी बेटी की राह रोकी बल्कि और पहले – पचीसों – पचासों साल पहले। जब से इन लोगों का जोर – जुल्म देखा। एक  युग से या कहिये पिछले जन्म से सरकार। पियारे का यह जवाब तमाम दलित वर्ग के अन्दर कई वर्षों से दबे बदले की आग है, यह सदियों का संताप है जो आज दृढ़तापूर्वक बाहर निकल आया।
आज किसानों की गति और गंतव्य दोनों बदले है। प्रेमचन्द का किसान साहुकारों, जमींदारों द्वारा शोषित था तो आज का किसान सरकारी नीतियों द्वारा शोषित है। कॉरपोरेट बैंकों द्वारा दिए गए कर्ज के भार तले दबे, कुचले किसान आत्महत्या के लिए मजबूर है। आखिरी छलाँग का किसान प्रेमचन्द के किसान की तरह दब्बू एवं कमजोर नहीं है। वह पहलवान है। उसका अट्टाहास दूर तक गूँजता है। अच्छी फसल के लिए कई बार उसे ईनाम मिल चुका है। विश्वनाथ त्रिपाठी जी लिखते है – ‘’पहलवान होरी से ज्यादा सजग, खाते – पीते प्रबुद्ध और इज्जतदार बल्कि प्रतिष्ठित व्यक्तित्व के किसान – खेतिहर है।‘’  पूँजीवादी व्यवस्था धीरे – धीरे किसानों को लील रहा है। बुलेट ट्रेन, रेलवे कॉरिडार, एक्सप्रेस वे एवं कई योजनाओं के नाम पर किसानों की जमीनें हड़पी जा रही है। अतः आज का किसानी जीवन प्रेमचन्द के समय जैसा एकरेखिय नहीं रह गया है। आज किसान खेती को घाटे का काम मानता है। जहाँ सवा सेर गेहूँ का शंकर साधु को भोजन कराकर मोक्ष पाने के लिए कर्ज लेता है और सवा सेर गेहूँ का कर्ज न उतार पाने के कारण अपनी खेत गिरवी रख देता है, वहीं आखिरी छलाँग का किसान पहलवान अपने बेटे को इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए खेत बेचना चाहता है, क्योंकि वह जानता है कि गड्ढ़े से खोदी गई मिट्टी उस गड्ढ़े को भरने में पूरी नहीं पड़ती।

संदर्भ – ग्रंथ
1.      
  1.                                  1.         मंच - पत्रिका – शिवमूर्ति विशेषांक – जनवरी-मार्च, 2011.
2.       लमही -  ‘’               ‘’             ‘’          - अक्टूबर-दिसम्बर, 2012 .        
3.       संवेद -      ‘’                ‘’            ‘’    - फरवरी-अप्रैल, 2014.
4.       इंडिया इन्साइड – ‘’ ‘’            ‘’     - 2016.
5.       त्रिशुल – उपन्यास – शिवमूर्ति।
6.       तर्पण –   ‘’                        ‘’
7.       आखिरी छलाँग – ‘’           ‘’
8.       कसाईबाड़ा – कहानी – शिवमूर्ति।
9.       केसर कस्तुरी – ‘’                ‘’
10.   तिरिया चरित्र – ‘’                 ‘’
11.   सिरी उपमा जोग – ‘’           ‘’
12.   भारत नाट्यम –     ‘’             ‘’
13.   ख्वाजा ओ मेरे पीर – ‘’       ‘’
14.   बनाना रिपब्लिक –     ‘’         ‘’
15.   कुच्ची का कानून -     ‘’       ‘’
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सहायक आचार्य,
बानारहाट कार्तिक उराँव हिन्दी गवर्नमेंट कॉलेज
बानारहाट, जलपाईगुडी, पश्चिम बंगाल,
पिन- 735203, फोन- 9832636020.


भ्रष्टाचार को पोषित करने का फरमान क्यों?

भ्रष्टाचार को पोषित करने का फरमान क्यों?

-ललित गर्ग


भ्रष्टाचार की खबर छापने तक पर रोक लगाने के राजस्थान सरकार के नये कानून ने न केवल लोकतंत्र की बुनियाद को ही हिला दिया है बल्कि चुनाव के दौरान भारतीय जनता पार्टी के इस वादे की भी धज्जियां उडा दी है जिसमें सुशासन एवं लोकतंत्र की रक्षा के लिये हरसंभव प्रयत्न का संकल्प व्यक्त किया था। इस अध्यादेश के माध्यम से प्रान्तीय सरकार ने जजों, पूर्व जजों और मजिस्ट्रेटों समेत अपने सभी अधिकारियों-कर्मचारियों को ड्यूटी के दौरान लिए गए फैसलों पर सुरक्षा प्रदान करने का जो कानून बनाया है, वह वाकई आश्चर्यजनक है। इस तरह के कानून से न केवल भ्रष्टाचार को बल मिलेगा, बल्कि राजनीति एवं प्रशासन के क्षेत्र में तानाशाही को बल मिलेगा। ऐसा बेतुका ‘नादिरशाही’ फरमान जारी करके राज्य सरकार भारत के संविधान में प्रदत्त न्यायपालिका एवं मीडिया की स्वतन्त्रता पर अंकुश लगाना चाहती है और पुलिस को अकर्मण्य बना देना चाहती है। इस पूरे अध्यादेश पर न केवल राजस्थान में बल्कि समूचे राष्ट्र में राजस्थान सरकार का जमकर विरोध हो रहा है। विपक्षी पार्टियों, पत्रकारों, भ्रष्टाचार विरोधी लोगों समेत सोशल मीडिया पर आम जनता राजस्थान सरकार पर इस अध्यादेश को लेकर जमकर बरस रही है।
आपरााधिक कानून (राजस्थान अमेंडमेंट) अध्यादेश 2017 के मुताबिक कोई भी मजिस्ट्रेट किसी सरकारी कर्मचारी या अधिकारी के खिलाफ जांच के आदेश तब तक नहीं जारी कर सकता, जब तक संबंधित विभाग से इसकी इजाजत न ली गई हो। इजाजत की अवधि 180 दिन तय की गई है, जिसके बाद मान लिया जाएगा कि यह स्वीकृति मिल चुकी है। अध्यादेश में इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि जांच की इजाजत मिलने से पहले शिकायत में दर्ज गड़बड़ियों को लेकर मीडिया में किसी तरह की खबर नहीं छापी जा सकती। छह माह की अवधि इतनी बड़ी अवधि है कि उसमें अपराध करने वाला या दोषी व्यक्ति सारे साक्ष्य मिटा सकता है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रदेश सरकार अपने कर्मचारियों एवं अधिकारियों को भ्रष्टाचार की खुली छूट दे रही है। सवाल यह है कि सरकार को किस बात का डर है कि वह इस तरह का कानून लाना चाहती है? जाहिर है कि राज्य सरकार ऊपर से लेकर नीचे तक ऐसे तत्वों के साये में काम कर रही है जो जनता की गाढ़ी कमाई पर मौज मारने के लिए आपस में ही गठजोड़ करके बैठ गये हैं। अब इन्होंने यह कानूनी रास्ता खोज निकाला है कि उनके भ्रष्ट आचरणों का भंडाफोड़ न होने पाये। राजस्थान सरकार ने सारी लोकतान्त्रिक मर्यादाओं का बांध तोड़ कर भ्रष्टाचार की गंगा अविरल बहाने का इंतजाम कर डाला है, जबकि हकीकत यह है कि मुख्यमंत्री पर भ्रष्टाचार के आरोप उन्हीं की पार्टी के वरिष्ठ नेता खुलकर लगा चुके हैं। इन सभी आरोपों की सार्वजनिक रूप से जांच की जानी चाहिए थी मगर हो उलटा रहा है कि भ्रष्टाचारियों को पोषित एवं पल्लवित किया जा रहा है।
यह अध्यादेश अनेक ज्वलंत सवालों से घिरा है। इसमें कोई शक नहीं कि राजस्थान सरकार का यह अध्यादेश भ्रष्टाचार को संरक्षण देने की हाल के वर्षों में सबसे निर्लज्ज कोशिश है। लोकतंत्र में ऐसे किसी प्रावधान के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता, जो सरकारी अधिकारियों के ड्यूटी के दौरान लिए गए फैसलों और उनकी व्यावहारिक परिणति को लेकर खबरें देने पर रोक लगा दे। बारिश से ठीक पहले बनने वाली फर्जी सड़क या कोई पुल अगर पहली ही बारिश में बह जाए या ढह जाए तो इस बारे में कोई खबर आपको पढ़ने को नहीं मिलेगी। ऐसी किसी खबर की गुंजाइश अगर बनी तो वह अगले जाड़ों में ही बन पाएगी, जब संबंधित अधिकारी शायद कहीं और जा चुके होंगे! 
लगता है प्रदेश की मुख्यमंत्री का अहंकार सातवें आसमान पर सवार है। वे जन-कल्याण या विकास के कार्यों से चर्चित होने के बजाय इन विवादास्पद स्थितियों से लोकप्रिय होना चाहती है। स्वतन्त्र भारत में राजनीति एवं सत्ता का इतिहास रहा है जब भी किसी शासनाध्यक्ष नेे सत्ता के अहंकार में ऐसे अतिश्योक्तिपूर्ण एवं अलोकतांत्रिक निर्णय लिये, जनता ने उसे सत्ताच्युत कर दिया। विशेषतः लोकतंत्र के चैथे स्तंभ को जब भी कमजोर या नियंत्रित करने की कोशिश की गयी, उस सरकार के दिन पूरे होने में ज्यादा समय नहीं लगा है। सवाल किसी भी पार्टी की केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकारें हो, जनता ने अपने निर्णय से उसे हार का मुखड़ा दिखाया है। गुलामी के दिनों से लेकर आजादी तक भारत की जनता भले ही अशिक्षित एवं भोली-भाली रही हो, लेकिन ‘अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता’ के लिये समय-समय पर ‘इन्कलाब’ करती रही और सत्ता को चुनौती देती रही है।
पूर्व राजे-महाराजाओं की तर्ज पर जो लोग इस मुल्क के लोगों को अपनी ‘सनक’ में हांकना चाहते हैं उन्हें आम जनता इस तरह ‘हांक’ देती है कि उनके ‘नामोनिशां’ तक मिट जाते हैं। बिहार के मुख्यमन्त्री रहे जगन्नाथ मिश्र ने भी ऐेसी ही तानाशाही दिखाने की जुर्रत की थी। उन्होंने प्रेस की स्वतंत्रता पर अंकुश लगा कर अपनी मनमानी करने की कुचेष्टा की थी, आज उन जगन्नाथ मिश्र का कहीं अता-पता भी नहीं है, जनता ने उनको ऐसा विलुप्त किया कि उनके नाम के निशान ढूंढे नहीं मिलते हैं। इंदिरा गांधी ने नसबंदी के फरमान से ऐसी ही तानाशाही दिखाई थी कि उन्हें भी हार का मुंह देखना पड़ा।
  देश में भ्रष्टाचार के सवाल पर अनेक आंदोलन हुए हैं, अन्ना हजारे के आन्दोलन को अभी भुले भी नहीं हैं। इसी आन्दोलन ने केजरीवाल को सत्ता पर काबिज किया है और इसी आन्दोलन के समय अपनी राजनीति जमीन को मजबूत करने के लिये उस समय विपक्ष में बैठी बीजेपी भी राजनीति और सरकार में पारदर्शिता की वकालत कर रही थी। भ्रष्टाचार के विरोध का स्वर ही उनकी ऐतिहासिक जीत का सबब बना है लेकिन उस भाजपा ने सत्ता हासिल करते ही किये गये वादा को किनारे कर दिया। अक्सर आजादी के बाद बनने वाली हर सरकार ने भ्रष्टाचार को चुनावी मुद्दा तो बनाया लेकिन उस पर अमल नहीं किया। आज हालत यह है कि केंद्र में भाजपा की सरकार लोकपाल की नियुक्ति से कन्नी काट रही है, और उसी की राजस्थान में सरकार है, जो सरकारी भ्रष्टाचार की खबर छापने तक पर रोक लगा रही है और आम आदमी के शिकायत करने के लोकतांत्रिक अधिकार को भी भौंथरा कर दिया है। जबकि 2012 में भाजपा के ही डा. सुब्रह्मण्यम स्वामी की याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया था कि भ्रष्टाचार के खिलाफ किसी भी आम नागरिक की शिकायत दर्ज करने के संवैधानिक अधिकार को गैर-वाजिब शर्तों के दायरे में नहीं रखा जाना चाहिए और उसकी शिकायत का संज्ञान लिया जाना चाहिए। मगर राजस्थान सरकार के इस आदेश के साथ भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई को ही निस्तेज कर दिया हैं। भ्रष्ट आचरण और व्यवहार अब हमें पीड़ा नहीं देता। सबने अपने-अपने निजी सिद्धांत बना रखे हैं, भ्रष्टाचार की परिभाषा नई बना रखी है। इस तरह का सत्ता-शीर्ष का चरित्र देश के समक्ष गम्भीर समस्या बन चुका है। राजनीति की बन चुकी मानसिकता में आचरण की पैदा हुई बुराइयों ने पूरे तंत्र और पूरी व्यवस्था को प्रदूषित कर दिया है। स्वहित और स्वयं की प्रशंसा में ही लोकहित है, यह सोच हमारे समाज में घर कर चुकी है। यह रोग मानव की वृत्ति को इस तरह जकड़ रहा है कि हर व्यक्ति लोक के बजाए स्वयं के लिए सब कुछ कर रहा है।
राजनीति करने वाले नैतिक एवं लोकतांत्रिक उत्थान के लिए काम नहीं करते बल्कि उनके सामने बहुत संकीर्ण मंजिल है, ”वोटों की“। ऐसी रणनीति अपनानी, जो उन्हें बार-बार सत्ता दिलवा सके, ही सर्वोपरि है। वोट की राजनीति और सही रूप में लोकतांत्रिक उत्थान की नीति, दोनों विपरीत ध्रुव हैं। एक राष्ट्र को संगठित करती हैं, दूसरी विघटित। सच तो यह है कि बुराई लोकतांत्रिक व्यवस्था में नहीं, बुरे तो हमारे राजनीतिज्ञ हैं। जो इन बुराइयों को लोकतांत्रिक व्यवस्था की कमजोरियां बताते हैं, वे भयंकर भ्रम में हैं। बुराई राजनीति के चरित्र में है इसलिए व्यवस्था बुरी है। राजनीति का रूपांतरण होगा तो व्यवस्था का तंत्र सुधरेगा। वैसे हर क्षेत्र में लगे लोगों ने ढलान की ओर अपना मुंह कर लिया है। राष्ट्रद्रोही स्वभाव राजनीति के लहू में रच चुका है। यही कारण है कि उन्हें कोई भी कार्य राष्ट्र के विरुद्ध नहीं लगता और न ही ऐसा कोई कार्य हमें विचलित करता है। सत्य और न्याय तो अति सरल होता है। तर्क और कारणों की आवश्यकता तो हमेशा स्वार्थी झूठ को ही पड़ती है। जहां नैतिकता और निष्पक्षता नहीं, वहां फिर भरोसा नहीं, विश्वास नहीं, न्याय नहीं।
कोई सत्ता में बना रहना चाहता है इसलिए समस्या को जीवित रखना चाहता है, कोई सत्ता में आना चाहता है इसलिए समस्या बनाता है। यह रोग भी पुनः राजरोग बन रहा है। कुल मिलाकर जो उभर कर आया है, उसमें आत्मा, नैतिकता व न्याय समाप्त हो गये हैं। नैतिकता की मांग है कि भ्रष्टाचारियों को पोषित करने के नापाक इरादों को नेस्तनाबूद किया जाये। वसुंधरा अराजकता एवं भ्रष्टाचार मिटाने के लिये ईमानदार नेतृत्व दे। उनकी नीति और निर्णय में निजता से ज्यादा निष्ठा होनी चाहिए। राजनीति की गलत शुरुआत न करें। क्योंकि गणित के सवाल की गलत शुरुआत सही उत्तर नहीं दे पाती है, गलत दिशा का चयन सही मंजिल तक नहीं पहुंचाता है। सदन में बहुमत है तो क्या, उसके जनहित उपयोग के लिये भी तो दृष्टि सही चाहिए।

 (ललित गर्ग)
60, मौसम विहार, तीसरा माला, डीएवी स्कूल के पास, दिल्ली-110051
फोनः 22727486, 9811051133

Tuesday, September 27, 2016

‘अंजो दीदी’ नाटक में अंजो दीदी की पात्र-समीक्षा

लेख
अंजो दीदी नाटक में अंजो दीदी की पात्र-समीक्षा
-          आर.के. जयमालिनी

अंजो दीदी में खास पात्र अंजली ही हैं। वह अहँ की प्रतीछाया है। वह चाहती है कि जीवन को अनुशासित बनाना चाहिए। इस रास्ते में वह एकदम दृढ़ रहती हैं लेकिन अपनी अज्ञानता की पहचान के बिना काम करती है और दीदी बनती है। इसका परिणाम यह हुआ कि वह दूसरों का भी मन विचलित कर देती है और स्वयं व्यक्तिगत ह्रास का कारण बनती है उसके हठी स्वभाव के कारण सारे परिवार का सुख सत्यानाश हो जाता है।
नाटककार अश्क जी का विचार है अँह की भावना परम्परागत प्रवृत्ती है जो अपनी मनोवृत्तियों को दूसरों पर जबरदस्त डालता है। वह न अपनी उन्नति करती है न दूसरों की। अंजली को यह अहँ की भावना उसके नाना से मिली है।
नाटक की शुरूआत अंजो दीदी के डायनिंग रुम में होती है। वह अपनी नौकरानी को फटकारती है -  मुन्नी नाश्ता रखो मेंज पर (तनिक कडे स्वर में) तुम कर क्या रही हो आठ बजने का आये है और नाश्ते का पता नहीं। अंजों की तानाशाही केवल नौकरानी पर ही नहीं सारे पात्रों पर होती है। वह अपने बेटे से कहती है –
धीरज बेटा, कपडे बदल लिये तुमने? अंजली ने दैनिक कार्यक़्रम का कठोर नियम बना लिया है कि ठीक आठ बजे सारा परिवार नाश्ता करे, दिन के एक बजे दोपहर का भोजन करें तीन बजे नाश्ता और रात के नौ बजे भोजन होना चाहीए। उसका बेटा नीरज अपनी माँ के नियम का पालन करता है समय पर आराम करता है और समय पर खेलता है। चूंकि वह अंजली के इशारे पर चलता है इसलिए वह मन ही मन खुश होती है और अनिमा से उसकी तारीफ करती है।
अंजली के पति इंद्रनारायण है वे पहले सदा हँसमुख रहते थे, लेकिन पत्नी के दमन स्वभाव के कारण वे अपनी हँसमुख प्रवृत्ति खो बैठे और उसके कठपुतली बन गये। लाचारी से वे पत्नी के इशारे पर चलने लगे। अपने पति के परिवर्तन पर अंजली गर्व से कहती है – बडे सिट पिटाये थे पहले पहल, पर मै ही आयी अपने टब पर ...........
अपने पति बेटे और नौकरों पर नेतागिरी करती है उसकी यह आदत नौकरानी पर भी जम गयी है। मुन्नी श्रीपत जैसे मनर्मेंजी आदमी से कहती है – आप खाना खा लीजिये हम लोगों के आराम के समय है।
अंजली समय की पावंदी से एकदम जुड गयी है उसके अनुसार – जीवन एक महान गति है, प्रात: सन्ध्या उसकी सुइयॉ हँ नियमबद्रध एक दूसरे के पीछे घूमती रहती है, मैं चाहती हूँ –  मेरा घर भी उसी घडी की तरह चले और हम सब इसके पुर्जें बन जाय और नियमपूर्वक अपना काम करके जाये
अंजली की इस प्रकार की मनोवृत्ति का मौलिक कारण है, उसकी अँह । और इस भावना उसे अपना नानाजी से प्राप्त करने के सबूत मिलते है। वह कहती है हमारे नानाजी कहा करते थे, नौकरों को सदा साफ सुधरा रहना चाहिए। नानाजी कहा करते थे, वक्त की पावन्दी सम्यता की पहली निशानी है। नाटक में हरेक पात्र के विपरित का ....... काफी दिलचस्प होता है श्रीपत ऐसा ही पात्र है जो अंजो की आदत को तोडता है। वह अंजली को समझाता है कि उसके कडे स्वभाव के कारण सारे परिवार का भविष्य समस्यामूलक हो जायेगा। श्रीपत चाहता है कि हरेक मनुष्य अपना नैसर्गिक स्वभाव न छोडें। जब से श्रीपत अंजली के घर आये तब से घर के परिवारों का मनोभाव बदलते लगा। वह अंजली के वकील पति से कहता है – कसम आपकी जीजाजी, शादी ने आपको, बुड़ढा बना दिया है। धीरे धीरे श्री पत के प्रभाव से घर के सारे सदस्य अपनी अपनी नयी आदत सुधारते हैं, नीरज निस्संकोच अंजली से कहता है- मुझे डिप्टी कमीशनर नही बनना। मै तो क्रिकेट का काप्तन बनूँगा। तब श्रीपत लौटने लगता है, तब नीरज उनसे क्रिकेट का सामान भिजवाने की सिफारिश भी करता है। तब अंजली को मालूम पड गया कि श्रीपत के कारण घर का वातावरण बदल गया है तब वह साधु से कहती है – घडी टूट गयी राधू, घडी टूट गयी। शायद मैने इसे ज्यादा चाबी दे दी।
श्रीपत चले जाते है। फिर एक परिवार के सभी लोगों को अपने वश में करना चाहती है लेकिन असमर्थ हो जाती है। मानसिक रोग से पीडित हो जाती है। अपनी ऊपरी आप आक्रमण करती है आत्महत्या कर लेती है। इसके तीन मनोवैज्ञानिक कारण है, 1. विरोधन, 2. स्शानात्तरण 3. स्वास्थमन।
अंजो के अंह का परिणाम इंद्रनारायण पर थे हुआ कि वे शराब की आदत में फंस गये और श्रीपत के लौटने के बाद भी अपनी यह आदत छोड न सकें। अंजो भी पछताती है ले किन अपने कोई पूरा जिम्मेदार नहीं समझती। अंजली के मरे तीन साल गुजर जाते है उसका बेटा नीरज बनावटी स्वभावन के पीछे चलने लगता है और उसका पति इंद्रनारायण अपने पत्नी के आदर्शां पर चलने लगता है इस प्रकार मरने के बाद भी अंजली का दमन जारी रहता है।
अंजली के कठोर स्वभाव के कारण बताते हुए श्रीपत कहते है, अंजो सब तुम मार्बिड और जालिम भी क्योंकि उसके नाना मार्बिड और भी जालिम थे। श्रीपत के अंजली के गुरु का झिकार नीरज को ही माना है। अंजली नीरज को कमीश्नर बनाना चाहती है, लेकिन नीरज स्वयं क्रिकट का काप्तान बनना चाहता है। नीलम हवी बनना चाहता है लेकिन माता के नियंत्रण के कारण नहीं बन सका। इस नाटक की द्रजेडी आनुवंशिक प्रवृत्ति पर निर्भर है।
शिक्षा मनोविज्ञान का कहना है कि संसार में समस्यामूलक बच्चे नहीं, बलकि समस्यामूलक माँ – बॉप है, अर्थात अंजली ही समस्यामूलक माँ है न अपने बच्चों को अपने अपने इच्छा से जीने देती है न अपने पती को..... अंजली के प्रधान पात्र के रूप में नाटककार ने बनाकर मनोविज्ञान के आधार पर उसकी मनोवृत्ति का शोधन किया है। इस पात्र द्वारा नाटककार हमको ये सबक सिखाना चाहते है कि जो जैसा हो वह वैसा ही रहे जब कोई भी आदमी अपनी वास्तविक मनोवृत्ति का उल्लेखन करता है, वह जीवन में असफलता पाता है।
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