- डॉ रंजित.एम्
हमारे वेद, पुराण या अन्य शास्त्र ग्रंथों में कहीं न कहीं यह सन्देश दर्शनीय होगा-
' धरती माता को प्रणाम.
वन्दनीय तरुओं को नमन
सूर्य देवता को नमस्कार
जल देवता को प्रणाम ‘
मानव का अस्तित्व पृथ्वी और प्राकृतिक शक्तियों के बीच के समतुलन पर आधृत है । यदि उस संतुलन में हलचल हो जाए तो हमारा अस्तित्व काल-प्रवाह में विलीन हो जाएगा । यह समझकर ही हमारे पूर्वज प्रकृति के उपासक बने ।
सुबह सुबह आकाशवाणी से -
" वन्दे मातरम वन्दे मातरम
सुजलाम सुफलाम् मलयज शीतलाम
सस्या श्यामलां मातारम वन्दे मातरम "
सुनते वक्त हमारे मन में प्रकृति का रम्य एवं विराट रूप का चित्रण जरूर अंकित हो जाएंगे । दुःख की बात यह है कि वह प्राकृतिक सुषमा हमसे दूर हो रही है । अपनी ही भलाई के लिए जीनेवाले समकालीन मानव जिनमें मैं और तुम ही शामिल हैं, प्रकृति का नाश कर रहे हैं, जाने या अनजाने ।
प्रकृति की गोद में पले मानव विज्ञान के सहारे पर्यावरणीय संसाधनों के दोहन में लिप्त हैं .सृष्टि के घातक और पोषक तत्वों के बीच का संतुलन इसलिए ही नष्ट हो रहे हैं. इस असंतुलन का मानव का जीवन पर भी असर पड चुका हैं. इस ज्वलंत प्रश्न की ओर मलयालम साहित्य के महिला रचनाकारों की प्रतिक्रिया क्या है, इस पर विचार करना समीचीन होगा.
मलयालम के विख्यात कहानीकार पी.वत्सला जी (जो अब केरल साहित्य अकादमी की अध्यक्षा हैं) प्रकृति और मानव के रिश्ते पर बल देनेवाली कहानीकार हैं आपकी "इरियण्णियिले किणरुकल" (इरियण्णि के कुआं ) नामक कहानी में बढ़ते शहरीकरण, अनियंत्रित जल शोषण आदि के कारण हो रहे झंझटों पर प्रकाश डाल रही हैं ।
नगरपालिका से सेवानिवृत कांचना की बेटा है अप्पाजी । अप्पाजी गणित शास्त्र में स्नातक उपाधि हासिल कर चुका है । नौकरी ढूँढते-ढूँढते अंत में दूर इरियान्नी गाँव में बनानेवाले टाउनशिप में पहुँच जाता है । पगडंडियों और मृत-झरनों की श्मशान पार कर वह 'साईट 'पर पहुँच जाता है । टाउनशिप के निर्माताओं द्वारा गाँव वालों को भगाने के लिए झरनों के उद्भव स्थानों पर रोक डालने का दृश्य उन्हें देखने मिलता है । तरह-तरह की मशीनों के सहारे गाँव को शहर बना रहे हैं । अप्पाजी भी उन मशीनों में एक हो जाता है । हर शाम वह अन्य कारीगरों के साथ नहाने जाता था । उस वक्त उसे एक लड़की दोस्त के रूप में मिलती है । उससे पता चलता है कि पहले झरनों, तालाबों और कुओं से शहद जैसा मीठा जल मिलता था, लेकिन अब पानी नाले से ही मिल रहा है । कंपनीवालों ने जल स्रोतों का नाश कर दिया है । वह लड़की और माँ भी गाँव छोड़ना चाहते हैं, मगर माँ और गाँव के बीच का रिश्ता उतना दृढ़ है इसलिए वह जाने से मना कर रही है । अप्पाजी स्तब्ध रह जाता है । सालों से बने संस्कृति के नाश का हेतु वह भी है, यह चिंता उसे पागल बनाता है ।
यहाँ लेखिका गाँव और गाँववालों की तन्मयता और तल्लीनता पर प्रकाश डाल रही है । शहर अपनी भू विस्तृति बढ़ाते वक्त सामनेवाले गाँवों का नाश हो रहा है । वहां के पर्यावरण में हो रहे बदलाव, ग्रामीणों की पीड़ा आदि विषयों पर कोई ध्यान देता ही नहीं , यही तथ्य लेखिका यहाँ दिखा रही है ।
वी.के. दीपा जी द्वारा लिखित 'ओरु यात्रययप्पु '(एक विदाई ), पर्यावरण से जुड़कर जीने की अभिलाषा रखनेवाली सुधा लक्ष्मी की कहानी है । हर वक्त वातानुकूलित घर में जीने और कृत्रिम महक से वह ऊब चुकी है । खुली हवा और प्राकृतिक सुषमा उनको लुभाती रहती है । मगर उन्हें कुछ करने की अनुमति नहीं थी, अपनी दबाव वह कागज़ में लिखती रहती है । यह पढ़नेवाले उसके पति और बेटी, उसमें कामयाब नहीं होते । घर से मिले कागज़ का टुकड़ा लेकर रामचंद्र एक मनोवैज्ञानिक के पास जाता है, उसमें लिखा था -"कांच के बीच के इस कृत्रिम वातावरण, ठंडापन और हरियाली से मैं ऊब चुकी हूँ । सूरज की किरणों से मेरे तन को गरमाकर, चांदनी से ठंडा कर मैं जीना चाहती हूँ .यहाँ सब बनाया गया है.मुचे यहाँ से बचाना है." मनोवैज्ञानिक उसे समझाता है कि उसे कोई कमी नहीं है, उसे पर्यावरण के अनुसार जीने की इच्छा मात्र है, ऐसा करने दो ।
बाप और बेटी इससे सहमत नहीं थे । बाहर की विष लिप्त हवा से बचना ही उसका परम लक्ष्य था । घर के पीछे एक सुन्दर तालाब था । सुधा को थोड़ा बहुत तसल्ली वहीँ से मिलती थी । बाप और बेटी वहाँ आउट हाऊस बनाना चाहते हैं और काम शुरू होता है । तालाब निकलने के पहले की रात में सुधा को ऐसा लगता है, तालाब उसे पुकार रही है. वह चुप चाप बाहर निकलकर उसमें तैरने लगी, घंटों तक ......सुधा तालाब को अंतिम विदाई दे रही थी । वातानुकूलित कमरा आज सभी का सपना बन चुका है । वातानुकूलन से पर्यावरण पर होनेवाले बदलाव की ओर हम नज़र अंदाज़ कर रहे हैं । प्रकृति की गर्मी और ठंडापन हम कृत्रिम रूप से बना नहीं पायेंगे । ऐसी कोशिशें मानव और पर्यावरण के रिश्तों पर खायी पैदा करेंगी । पर्यावरण पर हो रहे दबाव उसी मायने में मानव पर भी होगा, यही लेखिका बता रही है ।
कहानियों में ही नहीं कविताओं में भीं पर्यावरण और मानव के रिश्ते के बारे में सूचनाएं हैं । आज ज़्यादा लोग आसमान पर जी रहे है । आसमान पर पृथ्वी का सा हरियाली बनाने की इच्छा से बोनसाई पेड़ अपना जीवन अपने मालिक के सामान सीमित क्षेत्र में ही बिता रहा है । अमृता जी की "वेरिल्ला मरम "( बिना जड़ों के पेड़ ) नामक कविता यही बता रही है,
" मेरी फ्लाट की बरामदे में खड़ी है
एक बेजड़ पेड़
सूरज से कुछ बोलने
वह गर्दन उठायेगी
पानी पीने जड़ें हिलायेगी मगर,
न आती कोई तितली या पंछी
वह कड़ी है आसमान में
वह न फूलेगी, फल देगी
बस यूं ही रहेगी ..........."
हर रोज़ बोनसाई पेड़ को देखकर ज़िन्दगी शुर करनेवाले मानव पर उनका प्रभाव पढ़ना आम बात है । कवयित्री कह रही है कि हम भी रिश्तों की जड़ें काट-काट कर बांसाई हो रहे हैं । शहरीकरण के कारण लोग शहर में बचे अंतिम आम के पेड़ को काटने जा रहे हैं । सैकड़ों सालों का इतिहास ढोनेवाला आम कल के बाद नामोनिशान खोने वाला है । पेड़ काटकर वहां होटल शुरू करने निकले सभ्य समाज से आम का पेड़ बता रहे हैं -
"हे मानव,
कब अंत होगा तृष्णा तेरे
कब मिलेगा तुझे ज्ञान उस सत्ता का
अपने आप को तुम अमर मानते हो
मगर यह मत भूलो, न है कोई अमर "
' शहर के आम का पेड़ ' नामक कविता में विजयलक्ष्मी जी पर्यावरण पर मानव के हस्तक्षेप पर अपनी व्यथा व्यक्त कर रही है। नए नए मकान और सडकों के लिए पहाड़ों को हम तोड़ रहे हैं । पहाड़, यह देख कर भयग्रस्त हो कर बैठ रहे है । सुचित्रा वर्मा ' करयुन्ना मालकाल '( रो रहे पड़ा ) नामक कविता में यही बता रही है -
"पहाड़ रो रहे है जोर जोर से रोये जा रहे है सभी पेड़
रुलाई पूरे पहाड़ में गूँज रही है क्योंकि
किसी स्टोन क्रशर ने
निहारी है लालच से
इन पहाड़ों की देह तोड़ी गई पुरानी चट्टान
उससे सिसक रही है पहाड़ "
पहाड़ की आत्मा को यहाँ खींचने में सुचित्रा जी को सफलता मिली है ।
समकालीन मलयालम के महिला साहित्यकार इस प्रकार प्रकृति और मानव को रिश्ते के प्रति सजग है । स्वस्थ पर्यावरण के बिना विकास अधूरा ही रहेगा यह सन्देश को अपनाकर, अपनी रचनाओं के ज़रिये लोगों के दिलों में पहुँचा रही हैं । " माता भूमिः पुत्रोहम पृथिव्या " का सन्देश लेखिकाएं दे रही हैं । बढ़ते शहरीकरण से हमारी संस्कृति को बचाने की प्रार्थना वे समाज से कर रही हैं । उन्हें पता है इसको आत्मसात करने लोग तैयार नहीं होंगे, क्योंकि,
" हम सब सिखाये हुए तोते हैं
पिंजरा हमारी चोंच में अडा रहता है
और करते हैं पुनःपाठ
एक चिनक आकाश की खुले पेड़ों पर
अपने नीले रंग के साथ
हम विस्मय से देखते हैं
पर हमारी रति आँखों देखती नहीं ।
उन्हें आदतन बोलना है अन्धकार
अन्धकार के रंग और उंगलियाँ अभ्यस्त गिनती हैं,
उलटती हैं, वही क्रमांक, वाही पाठ"
पर्यावरण की दिल की थडकन सुनने की क्षमता जिनमें हैं, उन्हें पर्यावरण बुला रहा है एक स्वच्छ कल के लिए -
" देखो तुम सब आ भी जाओ
हो सकता है तुम्हारे साथ ही
आ जाए मेरे अच्छे दिन " ।
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सहायक ग्रन्थ
१.गृहलक्ष्मी मासिकी नवम्बर २०११
२. कलाकौमुदी साप्ताहिक " ३. मध्यमं " ४. जनयुग मासिकी अक्टूबर २००९
अध्यक्ष
हिंदी विभाग
एम्.इ.एस.अस्माबी कॉलेज
कोदुन्गल्लुर