Showing posts with label दोहे. Show all posts
Showing posts with label दोहे. Show all posts

Friday, November 8, 2013

प्रयोगात्मक यमकीय दोहे:

प्रयोगात्मक यमकीय दोहे:
संजीव 
#
रखें नोटबुक निज नहीं, कलम माँगते रोज 
नोट कर रहे नोट पर, क्यों करिये कुछ खोज 
#
प्लेट-फॉर्म बिन आ रहे, प्लेटफॉर्म पर लोग 
है चुनाव बन जायेगा, इस पर भी आयोग 
#
हुई गर्ल्स हड़ताल क्यों?, पूरी कर दो माँग 
'माँग भरो' है माँग तो, कौन अड़ाये टाँग?
#
एग्रीगेट* कर लीजिये, एग्रीगेट का आप 
देयक तब ही बनेगा, जब हो पूरी माप 
 #
फेस न करते फेस को, छिपते फिरते नित्य
बुक न करे बुक फोकटिया, पाठक सलिल अनित्य 

#
सर! प्राइज़ किसको मिला, अब तो खोलें राज
सरप्राइज़ हो खत्म तो, करें शेष जो काज 


* एग्रीगेट = योग, गिट्टी

Friday, July 26, 2013

दोहा सलिला

दोहा सलिला:
संजीव
लोकतंत्र
*
लोक तंत्र की मांग है, ताकतवर हो लोक। 
तंत्र भार हो लोक पर, तो निश्चय हो शोक। ।
*
लोभ तंत्र ने रख लिया, लोक तंत्र का वेश।
शोक तंत्र की जड़ जमी, कर दूषित परिवेश।।
*
क्या कहता है लोक-मत, सुन-समझे सरकार।
तदनुसार जन-नीति हो, सभी करें स्वीकार।।
*
लोक तंत्र में लोक की, तंत्र न सुनाता पीर।
रुग्ण व्यवस्था बदल दे, क्यों हो लोक अधीर।।
*
लोक तंत्र को दे सके, लोक-सूर्य आलोक।
जन प्रतिनिधि हों चन्द्र तो, जगमग हो भू लोक।।
===
प्रजा तंत्र
*
प्रजा तंत्र है प्रजा का, प्रजा हेतु उपहार।
सृजा प्रजा ने ही इसे, करने निज उपकार।।
*
प्रजा करे मतदान पर, करे नहीं मत-दान।
चुनिए अच्छे व्यक्ति को, दल दूषण की खान।।
*
तंत्र प्रजा का दास है, प्रजा सत्य ले जान।
प्रजा पालती तंत्र को, तंत्र तजे अभिमान।।
*
सुख-सुविधा से हो रहे, प्रतिनिधि सारे भ्रष्ट।
श्रम कर पालें पेट तो, पाप सभी हों नष्ट।।
*
प्रजा न हो यदि एकमत, खो देती निज शक्ति।
हावी होते सियासत-तंत्र, मिटे राष्ट्र-अनुरक्ति।।

Saturday, July 6, 2013

संजीव सलिल की द्विपदियाँ

संजीव सलिल की द्विपदियाँ

*
जानेवाले लौटकर आ जाएँ तो 
आनेवालों को जगह होगी कहाँ?
ane wale laut kar aa jayen to  
aane valon ko jagah hogee kahan?
*
मंच से कुछ पात्र यदि जाएँ नहीं 
मंच पर कुछ पात्र कैसे आयेंगे?
manch se kuchh paatr yadi jayen naheen 
manch par kuchh paatr kaise aayenge?
*
जो गया तू उनका मातम मत मना 
शेष हैं जो उनकी भी कुछ फ़िक्र कर 
jo gaye too unkaa maatam mat mana
shesh hain jo unkee bhee kuchh fiqr kar 
*
मोह-माया तज गए थे तीर्थ को 
मुक्त माया से हुए तो शोक क्यों?
moh-maya taj gaye the teerth ko
mukt maya se hue to shok kyon?
*
है संसार असार तो छुटने का क्यों शोक?
गए सार की खोज में, मिला सार खुश हो 
hai sansar asaar to chhutane ka kyon shok?
gaye saar kee khoj men, mila saar khush ho

Thursday, June 13, 2013

घर-घर धर हिंदी कलश...

दोहा सलिला:

घर-घर धर हिंदी कलश...
 
संजीव 
 
*
 
घर-घर धर हिंदी कलश, हिंदी-मन्त्र  उचार.
 
हिन्दवासियों  का 'सलिल', हिंदी से उद्धार..
 
*
 
दक्षिणभाषी सीखते, हिंदी स्नेह समेत.

उनकी  भाषा सीख ले, होकर 'सलिल' सचेत..
 
*
 
हिंदी मैया- मौसियाँ, भाषा-बोली अन्य.
 
मातृ-भक्ति में रमा रह, मौसी होगी धन्य..
 
*
 
पशु-पक्षी तक बोलते, अपनी भाषा मीत.
 
निज भाषा भूलते, कैसी अजब अनीत??
*
 
माँ को आदर दे नहीं, मौसी से जय राम.
 
करे जगत में हो हँसी, माया मिली न राम..
*


Tuesday, November 13, 2012

दीवाली के संग : दोहा का रंग

दोहा सलिला
  दीवाली के संग : दोहा का रंग                           
                                                                                 
संजीव 'सलिल' 
*
सरहद पर दे कटा सर, हद अरि करे न  पार.
राष्ट्र-दीप पर हो 'सलिल', प्राण-दीप बलिहार..
*
आपद-विपदाग्रस्त को, 'सलिल' न जाना भूल.
दो दीपक रख आ वहाँ, ले अँजुरी भर फूल..
*
कुटिया में पाया जनम, राजमहल में मौत.
रपट न थाने में हुई, ज्योति हुई क्यों फौत??
*
तन माटी का दीप है, बाती चलती श्वास.
आत्मा उर्मिल वर्तिका, घृत अंतर की आस..
*
दीप जला, जय बोलना, दुनिया का दस्तूर.
दीप बुझा, चुप फेंकना, कर्म क्रूर-अक्रूर..
*
चलते रहना ही सफर, रुकना काम-अकाम.
जलते रहना ज़िंदगी, बुझना पूर्ण विराम.
*
सूरज की किरणें करें नवजीवन संचार.
दीपक की किरणें करें, धरती का सिंगार..
*
मन देहरी ने वर लिये, जगमग दोहा-दीप.
तन ड्योढ़ी पर धर दिये, गुपचुप आँगन लीप..
*
करे प्रार्थना, वंदना, प्रेयर, सबद, अजान.
रसनिधि है रसलीन या, दीपक है रसखान..
*
मन्दिर-मस्जिद, राह-घर, या मचान-खलिहान.
दीपक फर्क न जानता, ज्योतित करे जहान..
*
मद्यप परवाना नहीं, समझ सका यह बात.
साक़ी लौ ले उजाला, लाई मरण-सौगात..
*

यह तन माटी का दिया, भर दे तेल-प्रयास।
'सलिल' प्राण-बाती जला, दस दिश धवल उजास ।।

ज्योति पर्व पर अनंत-अशेष शुभ कामनाएं 



Thursday, August 2, 2012

रक्षा बंधन की शुभकामनाएँ


रक्षा बंधन के दोहे: 

संजीव 'सलिल'

*

चित-पट दो पर एक है, दोनों का अस्तित्व.
भाई-बहिन अद्वैत का, लिए द्वैत में तत्व..


दो तन पर मन एक हैं, सुख-दुःख भी हैं एक.
यह फिसले तो वह 'सलिल', सार्थक हो बन टेक..


यह सलिला है वह सलिल, नेह नर्मदा धार.
इसकी नौका पार हो, पा उसकी पतवार..


यह उसकी रक्षा करे, वह इस पर दे जान.
'सलिल' स्नेह' को स्नेह दे, कर निसार निज जान ..


बहिना नदिया निर्मला, भाई घट सम साथ .
नेह नर्मदा निनादित, गगन झुकाये माथ.


कुण्डलिनी ने बांध दी, राखी दोहा-हाथ.
तिलक लगाकर गीत को, हँसी मुक्तिका साथ..


राखी की साखी यही, संबंधों का मूल. 
'सलिल' स्नेह-विश्वास है, शंका कर निर्मूल..


सावन मन भावन लगे, लाये बरखा मीत.
रक्षा बंधन-कजलियाँ, बाँटें सबको प्रीत..


मन से मन का मेल ही, राखी का त्यौहार.
मिले स्नेह को स्नेह का, नित स्नेहिल उपहार..


आकांक्षा हर भाई की, मिले बहिन का प्यार.
राखी सजे कलाई पर, खुशियाँ मिलें अपार..


राखी देती ज्ञान यह, स्वार्थ साधना भूल.
स्वार्थरहित संबंध ही, है हर सुख का मूल..


मेघ भाई धरती बहिन, मना रहे त्यौहार. 
वर्षा का इसने दिया, है उसको उपहार..


हम शिल्पी साहित्य के, रखें स्नेह-संबंध.
हिंदी-हित का हो नहीं, 'सलिल' भंग अनुबंध..


राखी पर मत कीजिये, स्वार्थ-सिद्धि व्यापार.
बाँध- बँधाकर बसायें, 'सलिल' स्नेह संसार..


भैया-बहिना सूर्य-शशि, होकर भिन्न अभिन्न.
'सलिल' रहें दोनों सुखी, कभी न हों वे खिन्न..

Monday, April 18, 2011

श्यामल सुमन के दोहे

निश्छल मन होते जहाँ

सुमन प्रेम को जानकर बहुत दिनों से मौन।
प्रियतम जहाँ करीब हो भला रहे चुप कौन।।

प्रेम से बाहर कुछ नहीं जगत प्रेममय जान।
सुमन मिलन के वक्त में स्वतः खिले मुस्कान।।

जो बुनते सपने सदा प्रेम नियति है खास।
जब सपना अपना बने सुमन सुखद एहसास।।

नैसर्गिक जो प्रेम है करते सभी बखान।
इहलौकिकता प्रेम का सुमन करे सम्मान।।

सृजन सुमन की जान है प्रियतम खातिर खास।
दोनो की चाहत मिले बढ़े हृदय विश्वास।।

निश्छल मन होते जहाँ प्रायःसुन्दर रूप।
सुमन हृदय की कामना कभी लगे न धूप।।

आस मिलन की संग ले जब हो प्रियतम पास।
सुमन की चाहत खास है कभी न टूटे आस।

व्यक्त तुम्हारे रूप को सुमन किया स्वीकार।
अगर तुम्हें स्वीकार तो हृदय से है आभार।।

सोच सुमन नादान।

प्रेम सदा जीवन सुमन जीने का आधार।
नैसर्गिक उस प्रेम का हरदम हो इजहार।।

मन मंथन नित जो करे पाता है सुख चैन।
सुमन मिले मनमीत से स्वतः बरसते नैन।।

भाव देखकर आँख में जगा सुमन एहसास।
अनजाने में ही सही वो पल होते खास।।

जीवन में कम ही मिले स्वाभाविक मुस्कान।
नया अर्थ मुस्कान का सोच सुमन नादान।।

प्रेम-ज्योति प्रियतम लिये देख सुमन बेहाल।
उस पर मीठे बोल तो सचमुच हुआ निहाल।।

प्रेम समर्पण इस कदर करे प्राण का दान।
प्रियतम के प्रति सर्वदा सुमन हृदय सम्मान।।

सुख दुख दोनों में रहे हृदय प्रेम का वास।
जब ऐसा होता सुमन प्रियतम होते खास।।

मान लिया अपना जिसे रहती उसकी याद।
यादों के उस मौन से सुमन करे संवाद।।


Tuesday, June 1, 2010

दोहा सलिला:



संजीव वर्मा 'सलिल'

*
जितने भी दिन हम जियें, जियें चैन से ईश.
उस दिन के पहले उठा, जिस दिन नत हो शीश..
*
कान अन्य के आ सकें, तब तक देना साँस.
काम न आयें किसी के, तो हो जीवन फाँस..
*
वह सहस्त्र वर्षों जियें, जो हरता पर-पीर.
उसका जीवन ख़त्म हो, दे सबको पीर..
*
उसका कभी न अंत हो, जिसको कहते आत्म.
मिटा मात्र शरीर है, आत्म बने परमात्म..
*
सदियाँ हम मानें जिसे, वह विधि का पल मात्र.
पानी के बुलबुले सा, है मानव का गात्र..
*
ज्यों की त्यों चादर धरे, जो न मृत्यु छी पाए.
ढाई आखर पढ़े बिन, साँस न आए-जाए
*

Wednesday, March 4, 2009

दोहे

फागुनी दोहे

- आचार्य संजीव 'सलिल'

महुआ महका, मस्त हैं पनघट औ' चौपाल ।

बरगद बब्बा झूमते, पत्ते देते ताल ।।


सिंदूरी जंगल हँसे, बौराया है आम ।

बौरा-गौरा साथ लख, काम हुआ बेकाम ।।

पर्वत का मन झुलसता, तन तपकर अंगार ।

वसनहीन किंशुक सहे, पञ्च शरों की मार ।।


गेहूँ स्वर्णाभित हुआ, कनक-कुञ्ज खलिहान ।

पुष्पित-मुदित पलाश लख, लज्जित उषा-विहान ।।

बाँसों पर हल्दी चढी, बंधा आम-सिर मौर,

पंडित पीपल बांचते, लगन पूछ लो और ।।


तरुवर शाखा पात पर, नूतन नवल निखार ।

लाल गाल संध्या किये, दस दिश दिव्य बहार ।।

प्रणय-पंथ का मान कर, आनंदित परमात्म ।

कंकर में शंकर हुए, प्रगट मुदित मन-आत्म ।।