Wednesday, March 4, 2009

दोहे

फागुनी दोहे

- आचार्य संजीव 'सलिल'

महुआ महका, मस्त हैं पनघट औ' चौपाल ।

बरगद बब्बा झूमते, पत्ते देते ताल ।।


सिंदूरी जंगल हँसे, बौराया है आम ।

बौरा-गौरा साथ लख, काम हुआ बेकाम ।।

पर्वत का मन झुलसता, तन तपकर अंगार ।

वसनहीन किंशुक सहे, पञ्च शरों की मार ।।


गेहूँ स्वर्णाभित हुआ, कनक-कुञ्ज खलिहान ।

पुष्पित-मुदित पलाश लख, लज्जित उषा-विहान ।।

बाँसों पर हल्दी चढी, बंधा आम-सिर मौर,

पंडित पीपल बांचते, लगन पूछ लो और ।।


तरुवर शाखा पात पर, नूतन नवल निखार ।

लाल गाल संध्या किये, दस दिश दिव्य बहार ।।

प्रणय-पंथ का मान कर, आनंदित परमात्म ।

कंकर में शंकर हुए, प्रगट मुदित मन-आत्म ।।

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