फागुनी दोहे
- आचार्य संजीव 'सलिल'
महुआ महका, मस्त हैं पनघट औ' चौपाल ।
बरगद बब्बा झूमते, पत्ते देते ताल ।।
सिंदूरी जंगल हँसे, बौराया है आम ।
बौरा-गौरा साथ लख, काम हुआ बेकाम ।।
पर्वत का मन झुलसता, तन तपकर अंगार ।
वसनहीन किंशुक सहे, पञ्च शरों की मार ।।
गेहूँ स्वर्णाभित हुआ, कनक-कुञ्ज खलिहान ।
पुष्पित-मुदित पलाश लख, लज्जित उषा-विहान ।।
बाँसों पर हल्दी चढी, बंधा आम-सिर मौर,
पंडित पीपल बांचते, लगन पूछ लो और ।।
तरुवर शाखा पात पर, नूतन नवल निखार ।
लाल गाल संध्या किये, दस दिश दिव्य बहार ।।
प्रणय-पंथ का मान कर, आनंदित परमात्म ।
कंकर में शंकर हुए, प्रगट मुदित मन-आत्म ।।
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