नजर
नजर मिली क्या तेरी नजर से
गयी न सूरत मेरी नजर से
नजर लगे न तुम्हें किसी की
खुदा बचाये बुरी नजर से
नजर की बातें नजर ही जाने
सुनी है बातें कभी नजर से
नजर उठाना नजर झुकाना
वो कनखियाँ भी दिखी नजर से
वो तेरा जाना नजर चुरा के
नजर न आई कहीं नजर से
नजर मिला के हो सारी बातें
नयी चमक फिर उठी नजर से
नजर दिखा के किया है घायल
और मुस्कुराना नयी नजर से
नजर न आना बहुत दिनों तक
छलक पड़े कुछ इसी नजर से
भला करे क्यों नजर को टेढ़ी
कभी न गिरना किसी नजर से
नजर पे चढ़ के सुमन करे क्या
नजर है रचना खुली नजर से
भागमभाग
बाहर बारिश अन्दर आग
अभी शेष भीतर अनुराग
परदेशी बालम आयेंगे
कुछ बोला है छत पर काग
सब रिश्तों के मोल अलग हैं
नारी माँगे अमर सुहाग
भाव इतर और शब्द इतर हैं
रंग मिलेगा गाकर राग
खोने का संकेत है सोना
छोड़ नींद को उठकर जाग
उदर भरण ही लक्ष्य जहाँ हो
मची वहाँ पर भागमभाग
इक दूजे का हक जो छीना
लेना अपना लड़कर भाग
घाव भले तन पर लग जाये
कभी न रखना मन पर दाग
देखो नजर बदल के दुनिया
लगता कितना सुन्दर बाग
सुमन खिले हैं सबकी खातिर
लूट रहा क्यों भ्रमर पराग
मन
हर मन का उच्चारण है
मन उलझन का कारण है
मन से मन की सुन बातें जो
मन में करता धारण है
ऐसे मन वाले को अक्सर
मन कहता साधारण है
मन लेकिन मनमानी करता
मन का मानव चारण है
टूटे मन को मन जोड़े तो
मन का कष्ट निवारण है
गर विवेक मन-मीत बने तो
मन-सीमा निर्धारण है
सुमन देखता मन-दर्पण में
कुछ भी नहीं अकारण है
1 comment:
वाह क्या कहने एक पंथ और तीन काज....बहुत सुंदर कविताएँ....
यहाँ भी आएं...http://meritanhaiaurmein.blogspot.com/
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