Sunday, August 2, 2009

गीतिका

- आचार्य संजीव सलिल, जबलपुर ।

जानता सच और जो सच पर अड़ा है.

मानिए सच वह हकीकत में बड़ा है.

प्राण! की बाहों का जिसको है सहारा

सदा जीता जंग, जब-जब भी लड़ा है.

मन समंदर कौन-कब है नाप पाया?

कौन जाने विष-अमिय कितना पड़ा है?

नहीं जग के काम आया ज्ञान-गुण तो

व्यर्थ जैसे धन ज़मीं-नीचे गडा है.

देव-दानव हमीं में हैं 'सलिल' बसते

तम-उजाला साथ ही पाया खडा है.

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